पूंजीपति वर्ग किसे कहते हैं | पूँजीपति वर्ग की परिभाषा क्या है अर्थ मतलब capitalist in hindi इन इंग्लिश

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पूँजीपति वर्ग
पूँजीपति वर्ग का उद्गमन भारतीय अर्थव्यवस्था के विश्व-पूँजीवादी व्यवस्था हेतु खुलने, औद्योगीकरण की प्रक्रिया और बैंकिंग क्षेत्र की उत्तरोत्तर वृद्धि का परिणाम था। इस प्रकार, व्यापारिक, औद्योगिक और वित्तीय पूँजीपतियों का जन्म हुआ। भारतीय व्यापारियों, राजाओं, जमींदारों और साहूकारों के हाथों में पर्याप्त बचतों के संचय ने भारतीय उद्योगों के उद्गमन हेतु आधार प्रदान किया। 1850 के दशक में देश का औद्योगीकरण सूती-वस्त्र, जूट व कोयला-खनन उद्योगों के स्थापित होने के साथ ही शुरू हो गया था। परन्तु ये अधिकांश उद्योग ब्रिटिश पूँजीपतियों के स्वामित्व में थे क्योंकि कच्चे माल और सस्ती दर पर श्रमिकों की उपलब्धता की वजह से भारत में निवेश करने से उन्हें ऊँची आमदनी के आसार नजर आते थे। इसके अलावा, वे एक उपकारी औपनिवेशिक सरकार और नौकरशाही को नहीं समझ सके। लेकिन भारतीय पूँजीपतियों को विदेशी व्यापार, सीमा-शुल्क कराधान व सरकार की परिवहन नीतियों को झेलना पड़ा। अपने शैशव में भारतीय उद्योगों को तीव्र वृद्धि हेतु संरक्षण की आवश्यकता थी। अन्य सभी औद्योगीकरण देशों ने अपने शिशु उद्योगों की रक्षा बाहरी देशों से आयात पर भारी सीमा-शुल्क थोपकर की। ब्रिटिश उद्योगों के हितों को तुष्ट करने के लिए भारत पर एक मुक्त व्यापार-नीति थोपी गई क्योंकि भारत एक स्वतंत्र देश नहीं था।

आरम्भ से ही अधिकांश सूती-वस्त्र उद्योग भारतीयों के स्वामित्व में थे। 1905 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन ने भारतीय उद्योगों के विकसन को प्रोत्साहित किया। प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) की अवधि भारतीय उद्योगों के लिए एक वरदान सिद्ध हुई। युद्ध-संबंधी आवश्यकताओं की ओर जहाजों का रुख हो जाने से आयात मुश्किल हो गया। अतः, युद्ध-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अनेक उद्योग स्थापित किए गए। 1914 से 1947 के बीच भारतीय पूँजीपति वर्ग तीव्रतर गति से पनपा और यूरोपीय उसने प्रभुत्व वाले क्षेत्रों का अतिक्रमण किया गया । स्वतंत्रता प्राप्त होने तक भारतीय पूँजीपति वर्ग के पास बाजार के लगभग सत्तर प्रतिशत का और संगठित बैंकिंग क्षेत्र में निक्षेपों के अस्सी प्रतिशत का स्वामित्व था।

1905 तक यह उदयमान पूँजीपति वर्ग नितान्त शक्तिशाली और सचेत हो गया। इस वर्ग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा शुरू किए गए स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन का समर्थन किया क्योंकि इस आंदोलन का उद्देश्य उनके वर्ग-हित से मेल खाता था। प्रथम विश्व-युद्ध के बाद तथा और सटीक रूप से 1919-20 के बाद, इस वर्ष का प्रभाव राष्ट्रवादी आंदोलन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में बढ़ना शुरू हो गया। विपिनचन्द्र के अनुसार यह सत्य है कि कांग्रेस पूँजीपति वर्ग से धन ग्रहण करती थी पर इसके बावजूद उसने नीतिगत व सैद्धांतिक मामलों पर अपनी निरपेक्ष स्थिति बनाए रखी। एरूआर. देसाई के अनुसार, यह पूँजीपति वर्ग गाँधी जी के नेतृत्व, सामाजिक सामंजस्य के उनके सिद्धांत, वर्ग-संघर्ष के विचार पर उनके विरोध तथा विश्वस्तता की उनकी संकल्पना की वजह से ही कांग्रेस की ओर आकर्षित था।

यह पूँजीपति वर्ग औपनिवेशिक सरकार के हित उनके अपने स्वतंत्र विकास के बीच अंतर्विरोध के प्रति जागरूक था। उन्होंने अनुभव किया कि एक राष्ट्रीय सरकार ही उनके विकसन हेतु बेहतर वातावरण प्रदान करेगी। 1920 के दशक से ही भारतीय पूँजीपति भारतीय वाणिज्यिक, औद्योगिक व वित्तीय हितों का एक राष्ट्रीय स्तर का संगठन बनाने की दिशा में प्रयासरत थे। ये प्रयास 1927 में भारतीय वाणिज्य व उद्योग मंडल-संघ (थ्प्ब्ब्प्) के निर्माण में परिणत हुए। यह ‘फिक्की‘ जल्द ही व्यापार, वाणिज्य व उद्योग के राष्ट्रीय अभिभावक के रूप में पहचाना जाने लगा। इसने प्रारंभ से ही भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष को अपना समर्थन देने का वचन दिया।

1930 के दशक में कांग्रेस नेहरू और समाजवादियों के नेतृत्व में उत्तरोत्तर रूप से आमूल परिवर्तनवादी होती जा रही थी। आमूल परिवर्तनवाद के भय ने पूँजीपति वर्ग को साम्राज्यवादियों के साथ गिल जाने के लिए दवाब नहीं डाला। 1942 में पूँजीपतियों द्वारा स्थापित युद्धोपरांत आर्थिक विकास समिति‘ ने ‘बम्बई प्लान‘ का प्रारूप तैयार किया, जिसका प्रयास था सम्पत्ति के न्यायोचित वितरण, आंशिक राष्ट्रीयकरण और भू-सुधारों जैसी समाजवादी माँगों को पूँजीवाद द्वारा उसके मौलिक अभिलक्षणों को न छोड़ते हुए समायोजित करना।

बोध प्रश्न 2
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें ।
1) आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग के उदय में शिक्षा की भूमिका पर टिप्पणी करें।
2) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारतीय पूँजीगतियों के बीच संबंध किस स्वभाव का था?

बोध प्रश्न 2 उत्तर
1) इसने बुद्धिवाद, समानता, लोकतंत्र के विचारों का अन्तर्निवेशन किया।
2) भारतीय पूँजीपति वर्ग कांग्रेस को धन देता था, वे कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करते थे।

आधुनिक भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग
उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में शिक्षित व्यक्तियों की संख्या बहुत कम थी। आधुनिक शिक्षा का प्रसार वृहद् ब्रिटिश सरकार का काम था। लेकिन ईसाई मिशनरियों और अनेकानेक प्रबुद्ध भारतीयों ने भी पूरे देश में स्कूलों और कालेजों की स्थापना की थी। इसी शताब्दी के लगभग मध्य में बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग का उद्गमन हुआ। इन्होंने पाश्चात्य लोकतांत्रिक संस्कृति अपनायी थी और प्रारंभिक भारतीय राष्ट्रत्व की जटिल समस्याओं को समझते थे। इन्होंने भारतीय जनता को एक आधुनिक राष्ट्र में संघटित करने हेतु अनेक सामाजिक व धार्मिक सुधार आंदोलनों का नेतृत्व किया। इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने ही सर्वप्रथम राष्ट्रीयता चेतना उपार्जित की। वे लोग जिन्होंने राष्ट्रवादी आंदोलन का नेतृत्व उसके विभिन्न चरणों के दौरान किया, विभिन्न विचारधाराओं में विश्वास रखते हो सकते हैं परन्तु वे सभी एक ही वर्ग, बुद्धिजीवी वर्ग, से सम्बन्ध रखते थे।

गोपालकृष्ण गोखले, दादाभाई नौरोजी, एम.जी. रानाडे जैसे नेताओं व अन्य ने राष्ट्रवादी आंदोलन की नरम अवस्था का नेतृत्व किया। खाड़कू अवस्था में मुख्य नेता थे- अरविंद घोष के साथ-ही-साथ लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक और विपिनचन्द्रपाल की तिकड़ी। जब 1919 के असहयोग आंदोलन के बाद स्वतंत्रता संघर्ष को एक व्यापक आधार मिल गया, इसका नेतृत्व मोहनदास गाँधी, मोतीलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस जैसे नेताओं और समाजवादी व कम्यूनिस्ट रुझान वाले बुद्धिजीवियों के हाथों में चला गया। उनमें सभी आधुनिक शिक्षा-प्रणाली की उपज थे। इस वर्ग में एक आधुनिक युक्तियुक्त, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और राष्ट्रवादी अभिदृष्टि की उमंग थी। वे लोकतंत्र, समानता, उदारता और न्याय के विचारों से सराबोर थे। उन्हें ब्रिटिश शासन के नकारात्मक प्रभावों का पूरी तरह से बोध था और वे भारत में ब्रिटिश हित और भारतीयों के हित के बीच प्रतिवाद को समझ सकते थे। विपिनचन्द्र के अनुसार यह सोचना गलत होगा कि राष्ट्रवादी आंदोलन ब्रिटिश शासन के दौरान शुरू की गई आधुनिक शिक्षा प्रणाली की उपज था। वास्तव में भारतीय राष्ट्रवाद भारत और ब्रिटिश के बीच हितों के टकराव के परिणामस्वरूप जन्मा था और उसी के द्वारा पोषित था। इस आधुनिक शिक्षा प्रणाली ने विवाद के स्वभाव को और अच्छी तरह समझने में मदद की। यह वर्ग, जिसमें वैज्ञानिक, कविगण, इतिहासकार, अर्थशास्त्री व दार्शनिक शामिल थे, एक आधुनिक, सशक्त, सम्पन्न व संगठित भारत का सपना देखता था। उनके द्वारा अधिकांश प्रगतिशील सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक आंदोलन ब्रिटिश शासन के दौरान ही प्रवर्तित किए गए। उनकी भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण थी क्योंकि उन्हें अशिक्षित, ज्ञानहीन, अंधविश्वासी जन-साधारण के बीच चेतना का प्रसार करना पड़ा।

मध्यवर्ग, जिसमें वकील, डॉक्टर, पत्रकार, सरकारी कर्मचारी, छात्र व अन्य आते थे, आधुनिक शिक्षा-प्रणाली की ही उपज था । उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्कूलों व कॉलेजों की संख्या में वृद्धि के कारण उनकी संख्या भी बढ़ी। लेकिन शिक्षित भारतीयों की संख्या में वृद्धि सदृश नौकरियों की संख्या-वृद्धि से मेल नहीं खाती थी। सरकार द्वारा अपनाई गई आर्थिक नीतियों नौकरियों की वह यथेष्ट संख्या पर्याप्त में असफल रहीं जिसमें शैक्षिक संस्थानों द्वारा उत्पन्न किए गए शिक्षित व्यक्ति खपाए जा सकते। इन शिक्षित बेरोजगारों के बीच असंतोष ही लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्रपाल और अरविंद की अगुवाई वाले खाड़कू राष्ट्रवाद के उदय और वृद्धि के पीछे मुख्य कारक था। यह क्रांतिकारी उग्रवादी आंदोलनों की वृद्धि के विषय में भी सत्य था।