श्रमिक आंदोलन : भारत में श्रमिक वर्ग आंदोलन संघ की परिभाषा क्या है , के कारण एवं प्रभाव labour movement in india in hindi
labour movement in india in hindi श्रमिक आंदोलन : भारत में श्रमिक वर्ग आंदोलन संघ की परिभाषा क्या है , के कारण एवं प्रभाव श्रम आंदोलन की विशेषताएं बताइए |
श्रमिक आन्दोलन
भारत में श्रमिक आन्दोलन दो चरणों में बाँटा जा सकता है- औपनिवेशिक काल और उपनिवेशोपरांत काल।
औपनिवेशिक काल में श्रमिक आन्दोलन
भारत में आधुनिक श्रमिक वर्ग आधुनिक उद्योगों, रेलमार्गों, डाक-तार नेटवर्क, यंत्रीकरण व खनन के विकास के साथ 19वीं सदी के उत्तरार्ध में दृष्टिगोचर हुआ। लेकिन श्रमिक आन्दोलन एक संगठित रूप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ही शुरू हुआ। संगठित मजदूरों के संघ श्रमिक संघ (ट्रेड यूनियन) के रूप में जाने जाते हैं। अखिल भारतीय श्रमिक संघ कांग्रेस (‘ऐटक‘) 1920 में बनाई गई। इसका उद्देश्य था – भारत के सभी प्रान्तों में सभी संगठनों की गतिविधियों में समन्वय लाना, ताकि आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक मामलों में भारतीय श्रमिक के हितों को आगे बढ़ाया जा सके। बीस के ही दशक के उत्तरार्ध में, देश में वामपंथी विचारधारा वाली शक्तियों का समेकन हुआ। 1928 में, कम्यूनिस्टों समेत वाम स्कंध ‘ऐटक‘ के भीतर प्रभावशाली स्थिति अर्जित करने में सफल हुआ। नरमपंथियों ने अखिल भारतीय श्रमिक संघ महासंघ (एटक‘) नामक एक नया संगठन शुरू किया। तीस का दशक भारत में श्रमिक संघ आन्दोलन के विकासार्थ कोई अनुकूल काल नहीं था। कम्यूनिस्टवादी ‘मेरठ षड्यंत्र‘ केस में आलिप्त थे और 1929 की ‘बॉम्बे टैक्सटाइल्स‘ की हड़ताल विफल रही थी। श्रमिक संघ के मोर्चे पर गतिविधियों में सन्नाटा छा गया। इस काल की गंभीर आर्थिक मंदी ने कामगारों के विषाद को अधिक बढ़ा दिया। इसने बृहद् स्तर पर छंटनी की ओर प्रवृत्त किया। इस काल में श्रमिक-संघ आन्दोलनों का मुख्य फोकस वेतनों को कायम रखना और छंटनी को रोकना रहा।
द्वितीय विश्वयुद्ध ने श्रमिक-संघ नेताओं को विभाजित कर दिया। कम्यूनिस्टवादियों का तर्क था कि 1941 में सोवियत संघ पर नाजियों के हमले के साथ ही युद्ध का स्वरूप साम्राज्यवादी युद्ध से जनसाधारण के युद्ध में बदल चुका है। कम्यूनिस्टवादी रशियन कम्यूनिस्ट पार्टी‘ की विचारधारा पर चल रहे थे और उनका विचार था कि बदली परिस्थितियों में श्रमिकों का कर्तव्य है कि वे ब्रिटिश युद्ध-प्रयासों का समर्थन करें। लेकिन राष्ट्रवादी नेता ब्रिटिश शासन को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन को मजबूती प्रदान करना चाहते थे। वैचारिक मनमुटाव ने श्रमिक-संघ आन्दोलन में एक और दरार डाल दी। जीवनयापन के बढ़ते खर्चों ने राहत सुनिश्चित करने हेतु एक संगठित प्रयास की आवश्यकता का अहसास करा दिया। सरकार द्वारा भारतीय रक्षा अधिनियमों — जिन्होंने हड़ताल व तालाबन्दी पर प्रतिबन्ध लगा दिया, का आश्रय लिए जाने के बावजूद संघों व संगठित श्रमिकों, दोनों की संख्या में अवगम्य वृद्धि हुई।
प) मुद्दे और सामूहिक कार्यवाहियों के प्रकार
मुख्य मुद्दे जिनको लेकर श्रमिकों ने हड़ताले की, में शामिल थे: वेतन, बोनस, कार्मिक विभाग अवकाश व कार्य के घण्टे, हिंसा व अनुशासनहीनता, औद्योगिक व श्रम-नीतियाँ, आदि। अपनी समस्याओं का समंजन कराने के लिए ये कामगार विभिन्न प्रकार की सामूहिक कार्यवाहियों का आश्रय लेते हैं। ये हैं: काम रोको, सत्याग्रह, भूख-हड़ताल, बंद व हड़ताल, घेराव, प्रदर्शन, सामूहिक आकस्मिक अवकाश, नियमानुसार कार्य-हड़ताल, विद्युत् आपूर्ति काट देना, आदि। श्रमिकों की सामहिक कार्यवाहियों का सर्वाधिक सामान्य रूप हड़ताल ही है। स्वतंत्रतापूर्व काल में रेल. जट बागान, खान व वस्त्रोद्योग कर्मचारियों की हड़तालों के उदाहरण मिलते हैं। इन हड़तालों के केन्द्र थे — नागपुर, अहमदाबाद, बम्बई, मद्रास, हावड़ा और कलकत्ता। 1920 में गाँधीजी ने अहमदाबाद के वस्त्रोद्योग की हड़ताल में हस्तक्षेप किया और कर्मचारियों को नेतृत्व प्रदान किया।
उपनिवेशोपरांत कालं में श्रमिक आंदोलन
प) राष्ट्रीय स्तर
स्वतंत्रता के बाद श्रमिकों की ऊँची आशाएँ चूर-चूर हो गईं। बेहतर मजदूरी व अन्य सेवा शर्तों के सम्मुख शायद ही कोई सुधार हुआ हो । तीन केन्द्रीय श्रमिक-संघ संगठनों का जन्म हुआ। कांग्रेस पार्टी द्वारा आरम्भ की गई भारतीय राष्ट्रीय श्रमिक संघ कांग्रेस (‘इंटक‘) का जन्म 1947 में हुआ। 1948 में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ने हिन्द मजदूर सभा (एच.एम.एस.) की शुरुआत की। जो उनके पास पहले ही था उसे कायम रखने के लिए भी श्रमिकों को कड़ा संघर्ष करना पड़ा। हड़तालों के सिलसिले ने देश को हिलाकर रख दिया। 1947 में सबसे अधिक संख्या में हड़तालें हुई, यथा, 1811 हड़तालें जिनमें 1840 हजार श्रमिक शामिल थे। हड़तालों और गँवाए गए श्रम-दिवसों की संख्या ने पिछले सब रेकार्ड तोड़ दिए। पचास के दशक में इसमें कमी आई, परन्तु साठ-सत्तर के दशक में हड़तालों व तालाबंदियों की संख्या फिर बढ़ गई। 1947 में कुछ उग्र उन्मूलनवादियों ने संयुक्त श्रमिक संघ कांग्रेस (‘यूटक‘) बनाई। 1964 के बाद जब भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी में विभाजन हुआ और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का जन्म हुआ, इसी प्रकार ‘ऐटक‘ नियंत्रित कम्यूनिस्टों में फूट पड़ी और 1970 में भारतीय श्रमिक संघ केन्द्र (सीटू‘) का जन्म हुआ। वे ‘भाकपा‘ और ‘माकपा (मा.)‘ से सम्बद्ध हैं।
1994 में मुख्य श्रमायुक्त द्वारा जारी किए गए अंतरिम आँकड़ों के अनुसार, ‘भाजपा‘ से संबद्ध भारतीय मजदूर संघ (बी.एम.एस.) ने कुल 31.17 लाख श्रमिकों की सदस्यता अर्जित कर सर्वोच्च स्थान सुनिश्चित किया है। कांग्रेस से सम्बद्ध एक निकाय ‘इंटक‘ ने कुल सदस्य-संख्या 27.06 लाख के साथ दूसरा स्थान बनाया है। तीसरा स्थान है ‘माकपा‘ से संबद्ध ‘सीटू‘ के पास, कुल सदस्य संख्या 17.98 लाख के साथ। चैथा स्थान एच.एम.एस. के पास है। अंतरिम आँकड़ों के अनुसार, कांग्रेस से सम्बद्ध इंटक‘ का प्रभाव कमजोर हुआ लगता है। साथ ही, सीटू‘, एच.एम. एस. और एटक‘ जैसे संगठनों का प्रभाव बढ़ा है।
पप) प्रान्तीय स्तर
साठ के दशक की एक और उल्लेखनीय घटना थी मद्रास में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के.) और ऑल इण्डिया मुनेत्र कड़गम (ए.आई.डी.एम.के.) जैसे क्षेत्रीय दलों के श्रमिक संघों का उदय । शिव सेवा का जन्म 1967 में बम्बई में हुआ। इसने शीघ्र ही ‘भारतीय कामगार सेना‘ के नाम से अपना श्रमिक स्कंध खड़ा कर लिया । सामान्यतः यह माना जाता था कि श्रमिक संघों में कम्यूनिस्टवादियों और समाजवादियों के प्रबल प्रभाव का सामना करने के लिए बम्बई-पुणे कठिबन्ध में शिव सेना को औद्योगिक घरानों का समर्थन प्राप्त था। वह इस उद्देश्य की प्राप्ति में सफल हुई और उसके श्रमिक संघों ने सत्तर के दशक–मध्य तक बम्बई क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर लिया। सेना के नेतृत्व वाले संघ की पूर्व-सत्ता को एक प्रतिष्ठित इंटक-नेता, दत्ता सामन्त द्वारा सफलतापूर्वक चुनौती दी गई। 1975 में जब आपास्थिति लागू की गई, उसने अपनी युयुत्सा का जोश कम करने से इंकार कर दिया। उसको गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। तब वह एक कांग्रेस विधायक था। 1977 में जब आपात् स्थिति उठा ली गई, जेल से बाहर आने के बाद वह और भी मशहूर हो गया। सत्तर के दशकांत तक वह बम्बई-पुणे कटिबन्ध में सर्वाधिक सशक्त श्रमिक-संघ नेता बन गया। वर्ष 1978 में महाराष्ट्र गिरनी कामगार यूनियन (एम.जी.के.यू.) नामक एक स्वतंत्र संघ स्थापित करने के लिए उसने कांग्रेस व ‘इंटक‘ दोनों को छोड़ दिया। अपनी हत्या किए जाने तक वह बम्बई में सर्वाधिक प्रभावशाली श्रमिक-संघ नेताओं में एक रहा।
पपप) राजनीतिक संरक्षण के बिना श्रमिक संघ
साठ के दशक में भी स्वतंत्र अथवा “अराजनीतिक‘‘ संघों का उद्गमन देखा गया। वे इस अर्थ में स्वतंत्र थे कि वे किसी राजनीतिक दल अथवा महासंघ के संरक्षण में नहीं थे। ‘‘अराजनीतिक‘‘ श्रमिक संघों के ये स्वरूप राजनीतिक दलों से संरक्षणप्राप्त विद्यमान श्रमिक संघों के साथ श्रमिकों के असंतोष के फलस्वरूप उभरे । इन संघों का नेतृत्व बृहदतः शिक्षित मध्यवर्गों से निकलकर आया। अभियांत्रिकी, रासायन, मुद्रण व संबद्ध उद्योगों में इन स्वरूपों के तहत आने वाले पूर्ववर्ती संघों में एक है – आर.जे. मेहता के नेतृत्व वाली इंजीनियरिंग मजदूर सभा । दत्ता सामंत ने अनेक संघों की शुरुआत की जैसे- एसोसिएशन ऑव इंजीनियरिंग वर्कर्स, मुम्बई जेनरल कामगार यूनियन, महाराष्ट्र गिरनी कामगार यूनियन । शंकर गुहा नियोगी और ए.के. रॉय भी स्वतंत्र संघों के नेताओं के रूप में लोकप्रसिद्ध हुए। एक प्रतापी संघ के अन्दर रहकर, नियोगी ने मध्यप्रदेश में भिलाई के नजदीक दल्ली राजहरा की लौह-अयस्क खदानों में ठेका मजदूरों पर ध्यान केन्द्रित किया। जबकि ‘ऐटक‘ और ‘इंटक‘ भिलाई इस्पात संयंत्र के स्थायी व बेहतर वेतन वाले श्रमिकों की समस्याओं के प्रति गंभीर थे, उन्होंने क्षेत्र में लघु- व मध्यम-उद्योगों में नियोजित अनियत श्रमिकों पर ध्यान केन्द्रित किया। 1990 में नियोगी की हत्या कर दी गई। इस प्रकार का एक अन्य उदाहरण है – ए.के. रॉय, जिसने बिहार के धनबाद-झरिया कटिबंध में कोयला-खदान श्रमिकों को संगठित किया। रॉय का समर्थनाधार इन कोयला-खदानों में ठेके पर और अनियत श्रमिकों के बीच भी था। रॉय को स्थायी जनजातीय खदान-श्रमिकों की एक बड़ी संख्या से भी समर्थन मिला क्योंकि इन क्षेत्रों में संचलित श्रमिक संघों ने उन्हें संतुष्ट नहीं किया। इस प्रकार का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उदाहरण था – इला भट्ट द्वारा बनाया गया स्व-नियोजित महिला संघ (‘सेवा‘ दृ ैम्ॅ।)। इला ने ‘सेवा‘ की स्थापना इसलिए की क्योंकि उन्हें लगता था कि संगठित क्षेत्रों में ये संघ महिला श्रमिकों के सामने आने वाली समस्याओं के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। स्वतंत्र संघों के मात्र यही उदाहरण नहीं हैं।
राजनीतिक दलों से गैर-संरक्षणप्राप्त संघ द्वारा शुरू किए गए आन्दोलन के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उदाहरणों में से एक था – बम्बई में 1982 की वस्त्रोद्योग श्रमिकों की हड़ताल । ‘इंटक‘ से सम्बद्ध राष्ट्रीय मिल मजदूर संघ (आर.एम.एम.एस.) के साथ असंतुष्ट, बम्बई में वस्त्रोद्योग के श्रमिकों ने दत्ता सामन्त के नेतृत्व में एम.जी.के.यू. के पीछे एकजुट हुए। 18 जनवरी, 1982 को बम्बई के वस्त्रोद्योग श्रमिक अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए। श्रमिकों की माँगों में शामिल थे – बेहतर वेतन, बदली (अस्थायी) श्रमिकों को स्थायी करना, अवकाश- व मात्रा-भत्ते और घर-किराये का भुगतान । वस्त्रोद्योग के अलावा अन्य क्षेत्रों के श्रमिक भी दत्ता सामन्त के पीछे एकजुट हो गए। उद्योगपतियों ने हड़ताल के प्रति दुराग्रहा पूर्ण प्रवृत्ति अपना ही। इस हड़ताल ने श्रमिकों को दरिद्रता के कगार पर ला खड़ा किया।
हड़ताल के उन ग्रामीण क्षेत्रों पर अपने अप्रत्यक्ष प्रभाव थे जहाँ से ये श्रमिक सम्बन्ध रखते थे। ये वस्त्रोद्योग श्रमिक गरीब किसान अथवा छोटे खेतिहर भी थे जिनके शहरों और गाँवों दोनों में संबंध थे। दत्ता सामन्त कृषिक श्रमिकों के वेतन जैसे ग्रामीण विषयों को वस्त्रोद्योग श्रमिकों के वेतनों से जोड़ने में सक्षम थे। यह हड़ताल, बहरहाल, श्रमिकों की मूल माँगों को मनवाने में सफल नहीं हुई। परन्तु इसने दत्ता सामन्त को बम्बई में सर्वाधिक प्रभावशाली श्रमिक-संघ नेता के रूप में उभरने में मदद की।
पअ) श्रमिक आन्दोलनों की सीमाएँ
भारत में श्रमिक संघ आन्दोलन के सामने अनेक खामियाँ हैं द्य कामगार वर्ग का मात्र एक छोटा-सा भाग ही संगठित है। संगठित क्षेत्र में भी श्रमिकों का बृहदाकार भाग श्रमिक संघ आन्दोलन में भाग नहीं लेता है। भारतीय अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित है। छोटे किसान व कृषिक श्रमिक मौसमी बेरोजगारी और कम आय की समस्याओं का सामना करते हैं। रोजगार की तलाश में वे शहर जाने को बाध्य होते हैं। इनमें से अधिकांश श्रमिक निरक्षर और ज्ञानहीन होते हैं और अंधविश्वासों में जकड़े ये लोग पलायनवादी प्रवृत्ति रखते हैं। इन श्रमिकों का एक हिस्सा श्रमिक संघ आन्दोलन में अधिक रुचि नहीं दर्शाता है क्योंकि उनके लिए शहरी जीवन एक अस्थायी अवस्था है। इसलिए दे श्रमिकों के बीच एकता के महत्त्व को महसूस ही नहीं करते। यह सत्य है कि भारत में श्रमिक वर्ग जनसंख्या का एक बहुत छोटा-सा भाग है, परन्तु मुख्य समस्या है श्रमिक संघों का बाहुल्य । भारतीय श्रमिकों की चंदा-दर बहुत कम है। यह श्रमिक संघों को बाहरी वित्त और प्रभाव पर निर्भर बना देता है। तथापि श्रमिक संघ आन्दोलन की एक अन्य कमजोरी रही है – बाहर से नेतृत्व का प्रभुत्व । इसके लिए मुख्य कारण रहा है – श्रमिकों के बीच शिक्षा का अभाव । अधिकांशतः नेतृत्व व्यावसायिक राजनीतिज्ञों द्वारा प्रदान किया जाता है। यह उत्तरोत्तर तेजी से महसूस किया जा रहा है कि कामकाजी वर्ग आन्दोलन को श्रमिक-श्रेणियों के उन लोगों द्वारा नेतृत्व प्रदान किया जाए जो कामकाजी वर्ग के सामने आने वाली समस्याओं व मुश्किलों से भिज्ञ हों। राजनीतिक नेतृत्व श्रमिकों की आवश्यकताओं व कल्याण को अनदेखा करता है और संगठन का प्रयोग राजनीतिक दल के स्वार्थ हेतु करता है।
बोध प्रश्न 1
नोट: क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए रिक्त स्थान का प्रयोग करें।
ख) अपने उत्तरों की जाँच इकाई के अन्त में दिए गए आदर्श उत्तरों से करें।
1) भारत में श्रमिक आन्दोलन के मुख्य विषय को पहचानें।
2) “अराजनीतिक‘‘ श्रमिक संघों के उदय हेतु क्या कारण थे?
3) भारत में श्रमिक-संघ आन्दोलन की मर्यादाओं की चर्चा करें।
बोध प्रश्न 1
1) कामगार आन्दोलनों के मुख्य मुद्दों में शामिल हैं – वेतन, बोनस, कार्मिक (विभाग), अवकाश तथा कार्य के घण्टे, हिंसा तथा अनुशासनहीनता, औद्योगिक तथा श्रम नीतियाँ, आदि।
2) ‘‘अराजनीतिक‘‘ श्रमिक संघों का उदय इसलिए हुआ कि श्रमिक उन विद्यमान श्रमिक संघों से असंतुष्ट थे जो राजनीतिक दलों से संबद्ध थे ।
3) श्रमिक संघों की निम्नलिखित मर्यादाएँ हैं: भारत में संगठित कामगार वर्ग कामगार आबादी का छोटा-सा हिस्सा है, अपर्याप्त वित्त, बाह्य नेतृत्व का प्रभुत्वय दलवाद, आदि।
श्रमिक और कृषक
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
श्रमिक आन्दोलन
औपनिवेशिक काल में श्रमिक आन्दोलन
प) मुद्दे और सामूहिक कार्यवाहियों के प्रकार
उपनिवेशोपरांत काल में श्रमिक आंदोलन
प) राष्ट्रीय स्तर
पप) प्रान्तीय स्तर
पपप) राजनीतिक संरक्षण के बिना श्रमिक संघ
पअ) श्रमिक आन्दोलनों की सीमाएँ
कृषक आन्दोलन
छोटे व गरीब किसानों के आन्दोलन
धनी किसानों व खेतीहरों के आन्दोलन
श्रमिक व कृषक आन्दोलनों पर उदारीकरण का प्रभाव
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें व लेख
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य
भारत में श्रमिक और किसान उनसे संबंधित माँगों हेतु लड़ने के लिए सामूहिक कार्यवाहियों में लगे रहे हैं। उनकी सामूहिक कार्यवाहियाँ भी अन्य किसी सामाजिक समूह की ही भाँति, सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों में शामिल की जा सकती हैं। इस इकाई को पढ़ लेने के बाद, आप समझ सकेंगे:
ऽ श्रमिक व कृषकों के आन्दोलनों की प्रकृति,
ऽ उनकी माँगें, समस्याएँ और नेतृत्व,
ऽ सामूहिक कार्यवाहियों में लामबंदी के प्रतिमान,
ऽ राज्य पर इन आन्दोलनों का असर, और
ऽ श्रमिकों व कृषकों पर उदारीकरण का प्रभाव।
प्रस्तावना
श्रमिक और कृषक एक साथ, भारतीय समाज के विशालतम समूहों का निर्माण करते हैं। जबकि श्रमिक बृहदतः शोषित वर्ग से संबंध रखते हैं, कृषकों में गरीब व धनी दोनों वर्ग आते हैं। ये समूह अपनी माँगें मनवाने के लिए सामूहिक कार्यवाहियों अथवा सामाजिक व राजनीतिक आन्दोलनों में संलग्न रहे हैं। उनके द्वारा उठाये गए मुद्दों का मुख्य लक्षण अथवा उनका नेतृत्व उस स्थान पर निर्भर होता है जो वे अर्थव्यवस्था या समाज में रखते हैं । यह इस तथ्य पर भी निर्भर करता है कि श्रमिक संगठित, असंगठित, कृषिक अथवा औद्योगिक क्षेत्रों में लगे हैं या फिर कृषक एक गरीब किसान है अथवा यांत्रिक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अथवा पिछड़ी – सामन्ती अर्थव्यवस्था में कार्य संपादन करता धनी किसान । इस इकाई में हम भारत में श्रमिक व कृषक आन्दोलनों के महत्त्वपूर्ण अभिलक्षणों पर चर्चा करेंगे।
हिंदी माध्यम नोट्स
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi sociology physics physical education maths english economics geography History
chemistry business studies biology accountancy political science
Class 12
Hindi physics physical education maths english economics
chemistry business studies biology accountancy Political science History sociology
English medium Notes
Class 6
Hindi social science science maths English
Class 7
Hindi social science science maths English
Class 8
Hindi social science science maths English
Class 9
Hindi social science science Maths English
Class 10
Hindi Social science science Maths English
Class 11
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics
chemistry business studies biology accountancy
Class 12
Hindi physics physical education maths entrepreneurship english economics