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राज्यपाल की शक्तियां क्या है | राज्यपाल की स्वविवेक की शक्ति क्षमादान शक्ति powers of governor of states in india in hindi

powers of governor of states in india in hindi during emergency राज्यपाल की शक्तियां क्या है | राज्यपाल की स्वविवेक की शक्ति क्षमादान शक्ति बताइए का वर्णन कीजिये | कौन प्रदान करता है ?

राज्यपाल की विवेकाधिकार शक्तियाँ
एक संवैधानिक प्रधान के रूप जहाँ राज्यपाल कुछ सामान्य कार्यों का निर्वाह करता है वहीं वह कुछ विवेकाधिकार शक्त्तियों का भी प्रयोग करता है। इनमें से कुछ का इस्तेमाल वह परामर्श के द्वारा करता है और कुछ का आवश्यक आशय होता है। जहाँ तक विवेकाधिकार शक्तियों का प्रश्न है वे तीन मामलों में अति महत्त्वपूर्ण हैं। प्रथम मुख्यमंत्री की नियुक्ति से उस समय से संबंधित है जबकि किसी एक दल या फिर दलों के किसी एक गठबंधन को चुनाव में स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हुआ हो। यह प्रश्न मुख्यमंत्री के द्वारा बहुमत का समर्थन खो देने, या फिर किसी अन्य कारण से उसे पद से बर्खास्त करने से जुड़ा है। दूसरा मामला धारा 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति को उसकी संतुष्टि के लिए ऐसी स्थिति की रपट भेजना है जिसके कारण राज्य सरकार संविधान की व्यवस्थाओं के अनुरूप कार्य नहीं कर सकती और इसलिए वह राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश करता है। राष्ट्रपति शासन लागू करने की घोषणा स्वयं में केन्द्र एवं राज्य सरकारों के बीच गंभीर तनाव उत्पन्न कर देती है। इस इकाई के भाग 16.4 में इसका अलग से विवरण किया गया है। इससे संबंधित तीसरी शक्ति विधेयकों को राष्ट्रपति के विचाराधीन हेतु सुरक्षित रखना है।

 राष्ट्रपति के विचाराधीन हेतु विधेयक को सुरक्षित रखना
संविधान की धारा 200 द्वारा व्यवस्था की गई है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के विचाराधीन हेतु राज्य विधायिका द्वारा पारित कुछ निश्चित विधेयकों को सुरक्षित रख सकता है। राष्ट्रपति इस पर अपनी संतुति दे सकता है या फिर इसको अपनी टिप्पणियों के साथ राज्यपाल को राज्य विधायिका द्वारा पुनः विचारार्थ के लिए भेज सकता है। लेकिन यदि राज्य विधायिका द्वारा इस विधेयक पुनः पारित कर दिया जाता है तब भी राष्ट्रपति इस पर अपनी संतुति देने के लिए बाध्य नहीं है।

इस व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य यह है कि केन्द्र राष्ट्रीय हित में विधेयक का अवलोकन कर सके। लेकिन राज्यपाल और केन्द्रीय सरकार इनके माध्यम से इस संवैधानिक व्यवस्था का इस्तेमाल स्वार्थी हितों को पूरा करने के लिए करती रही है। विरोधी दलों द्वारा शासित राज्य समय-समय पर इन व्यवस्थाओं के दुरुपयोग विरुद्ध आवाज अक्सर वहाँ पर होते रहे हैं जहाँ राज्य मंत्रीमण्डल की सलाह के विरुद्ध राज्यपाल किसी विधेयक को सुरक्षित रखते हैं और इस संदर्भ में यह समझा जाता है कि ऐसा केन्द्रीय सरकार के निर्देश पर किया जा रहा है। सरकारिया आयोग को दिए गए स्मरण पत्र में भारतीय जनता पार्टी ने आरोप लगाया कि राज्य सरकारों के लिए मुश्किलें पैदा करने हेतु विधेयकों को राष्ट्रपति के विचाराधीन के लिए सुरक्षित रखा जाता है। सरकारिया आयोग की प्रश्नावली के उत्तर में पश्चिम बंगाल की सरकार ने बताया कि धारा 200 तथा 201 को या तो समाप्त कर दिया जाए या फिर संविधान को स्पष्ट करना चाहिए कि राज्यपाल अपनी विवेकाधिकार शक्ति का इस्तेमाल न करते हुए वह केवल राज्यमंत्री परिषद् की सलाह पर कार्यवाही करेगा। 1983 में श्रीनगर में हुए विरोधी दलों के सम्मेलन में मांग की गई कि विधायिकाओं को ऐसे विषयों पर कानून बनाने की शक्तियाँ प्रदान की जानी चाहिए कि जिनका निर्वाह उनको संवैधानिक रूप में करने से है और इनपर राष्ट्रपति की सहमति नहीं ली जानी चाहिए। हाल के वर्षों में क्षेत्रीय दलों द्वारा महत्त्व प्राप्त करने तथा केन्द्रीय सरकार के गठन एवं उसके जारी रखने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका होने के कारण राज्यपाल इस शक्ति का इस्तेमाल व्यापक रूप से नहीं कर रहे हैं। फिर भी केन्द्र-राज्य के रिश्तों में यह प्रश्न एक विवाद का विषय बना हुआ है।

आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग
हम पहले से ही पढ़ चुके हैं कि संविधान में ऐसी तीन प्रकार की आपातकालीन स्थितियों की व्यवस्था की गई है जिनकी राष्ट्रपति घोषणा कर सकता है। व्यवहार में इसका अभिप्राय केन्द्रीय सरकार की शक्तियाँ हैं। आप यह भी पढ़ चुके हैं कि किसी भी प्रकार आपातकालीन घोषणा राज्यों की शक्तियों को प्रभावति करती है। व्यवहार में अभी तक वित्तीय संकट आपातकालीन घोषणा नहीं की गई है। बाह्य खतरों (1962 तथा 1975) के कारण दो बार राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति की घोषणा की मई और आंतरिक कानून-व्यवस्था के कारण इसकी घोषणा (1975) एक बार की गई। विदेशी आक्रमण के कारण की गई आपातकालीन घोषणा पर कोई विवाद नहीं उठा क्योंकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित थी लेकिन आंतरिक आपातकालीन घोषणा ने गंभीर विवाद को जन्म दिया क्योंकि एक तो यह देश में कुल मिलाकर लोकतंत्र के कार्य करने और दूसरे यह केन्द्र-राज्यों के रिश्तों से संबंधित थी। केन्द्र-राज्यों के बीच तनाव का मुख्य कारण यह था कि आपातकालीन स्थिति में धारा 356 के अंतर्गत केन्द्र सरकार को यह शक्ति प्राप्त हो गई कि वह किसी भी राज्य सरकार को राज्य में संवैधानिक मशीनरी के असफल होने का आधार मानकर बर्खास्त कर सकती थी।

धारा 356 के अंतर्गत आपातकालीन शक्तियाँ
आप पहले ही पढ़ चुके हैं कि आपातकालीन घोषणा का अभिप्राय है कि राष्ट्रपति को धारा 356 के अंतर्गत राज्यपाल या अन्य किसी दूसरी शक्ति से संबंधित राज्य सरकार की सभी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए इस आपातकालीन घोषणा को लोकप्रिय रूप में ‘‘राष्ट्रपति शासन‘‘ कहा जाता है। धारा 356 से केन्द्रीय सरकार को राज्य सरकारों के कार्यों में हस्तक्षेप करने की व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। इसलिए कहा गया है कि राज्यों में राष्ट्रपति शासन को ऐसी गम्भीर स्थिति में लागू किया जाता है जैसे कि जीवन बचाने हेतु अन्तिम उपायों का इस्तेमाल किया जाए। फिर भी व्यवहार में जितनी बार इस व्यवस्था का प्रयोग किया गया उससे केन्द्र-राज्यों के रिश्तों में अधिकतर विवाद उत्पन्न हुआ है । अस्थिरता एवं राष्ट्रीय हित के अलावा इस व्यवस्था का प्रयोग निम्न प्रकार से किया गया है-
अ) विधान सभा में बहुमत होने के बावजूद भी राज्य सरकारों को बर्खास्त करना,
ब) पक्षपात के आधार पर विधान सभाओं को निरस्त या भंग करना,
स) चुनावी परिणाम निर्णायक न होने की स्थिति में विरोधी दल को सरकार बनाने का अवसर प्रदान न करना,
द) विधानसभा के अंदर भावी विभाजन का अनुमान कर मंत्रीमण्डल के त्यागपत्र देने की स्थिति में विरोधी दलों को सरकार गठन का अवसर देने से इंकार करना,
ध) विधानसभा के अंदर मंत्रीमण्डल की पराजय के बावजूद भी विरोधी पक्ष को सरकार न बनाने देना।

धारा 356 के अंतर्गत शक्तियों के इस्तेमाल को अधिकतर टीकाकारों एवं टिप्पणीकर्ताओं और राज्यों ने अनुचित कहा है।

 राष्ट्रपति शासन पर विवाद
सरकारिया आयोग ने धारा 356 के लगातार किए गए दुरुपयोग की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए बताया है कि 1951 से 1987 तक 75 बार ऐसे अवसर आए जबकि राष्ट्रपति शासन को राज्यों पर लागू किया गया। इनमें 26 अवसर ऐसे थे जबकि इसको लागू करना आवश्यक था, लेकिन 18 मामलों में धारा 356 का इस्तेमाल पूर्णरूपेण राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरुपयोग के रूप में किया गया। इस प्रकार संविधान की इस शक्ति का प्रयोग इसकी संवैधानिक स्थिति से मेल नहीं खाता। जैसा कि 1953 में बी.आर. अम्बेडकर ने राज्यसभा में पेपसू‘ में राष्ट्रपति शासन थोपने के विषय में ठीक ही कहा था कि, ‘‘लोगों के संदेह का आधार वैधानिक है क्योंकि संपूर्ण भारत में सरकार अपने दल का शासन बनाए रखने के लिए संविधान का बलात्कार है।‘‘ संविधान की इस धारा का प्रयोग किस प्रकार गैर-गंभीर तरीके से किया गया है, इसको 1977 में जनता पार्टी के केन्द्र की सत्ता में आने पर 9 राज्यों में कांग्रेस की सरकार को बर्खास्त कर दिए जाने से देखा जा सकता है। 1980 में श्रीमती गाँधी के सत्ता में वापस आने पर जनता पार्टी द्वारा शासित नौ राज्यों की सरकारों को बर्खास्त किया। 1980 के दशक में धारा 356 का इस्तेमाल इतनी बार हुआ जिससे कि गैर-कांग्रेस (आई.) राज्य सरकारों के प्रति केन्द्र सरकार का असहनीय दृष्टिकोण प्रतीत हुआ। पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगभग पाँच वर्षों तक (मई 1987 – फरवरी 1992) लगातार जारी रहा। परिणामस्वरूप धारा 356 संविधान की सबसे अधिक दुरुपयोग एवं आलोचित होने वाली धारा बन गई । संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम में सुरक्षा प्रावधान किए जाने के बावजूद भी इसका दुरुपयोग जारी है और जिससे केन्द्र-राज्य रिश्तों में कड़वाहट एवं गंभीर तनाव उत्पन्न हुआ है। 11 मार्च, 1994 को उच्चतम न्यायालय ने बोमाई मामले में धारा 356 के लागू तथा प्रयोग करने पर एक महत्त्वपूर्ण निर्णय दिया। दिसम्बर 1992 में मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा हिमाचलप्रदेश की भाजपा सरकारों की बर्खास्तगी को उच्चतम न्यायालय ने सर्वसम्मति से उचित ठहराया क्योंकि उनके द्वारा किए गए गैर धर्म-निरपेक्ष कार्य संविधान धर्म-निरपेक्ष संविधान के समरूप नहीं थे। लेकिन संविधान के समरूप नहीं थे। लेकिन नागालैण्ड (1998), कर्नाटक (1998) तथा मेघालय (1991) केन्द्र द्वारा प्रयोग की गई धारा 356 को उच्चतम न्यायालय के बहुसंख्यक न्यायधीशों ने असंवैधानिक माना।

बोमई मामले में संविधान की इस धारा की पूर्ववर्ती परिभाषाओं से गुणात्मक परिवर्तन करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने बहुमत से निर्वाचित राज्य सरकारों तथा राज्य विधान सभाओं के कार्यों के विरुद्ध की जाने वाली केन्द्र की कार्यवाहियों के लिए नवीन एवं लागू करने योग्य मापदण्डों का निर्धारण किया। इस निर्णयानुसार, ‘‘धारा 356 के अंतर्गत की जाने वाली राष्ट्रपति की घोषणा को आवश्यक रूप से एक प्रतिबंधित शक्ति समझा जाना चाहिए, इस धारा के अंतर्गत की गई कार्यवाही न्यायिक समीक्षा के अधीन आती है। राष्ट्रपति की संतुष्टि हेत, जो कि आत्मनिष्ठ रूप से आवश्यक है, का आधार वस्तुगत होना चाहिए और जिसकी जाँच-पड़ताल अदालत द्वारा की जा सकती है। विधानसभा भंग करने जैसी कोई भी प्रतिगामी कार्यवाही न की जाए। ऐसी कार्यवाही करने की अनुमति तभी दी जा सकती जब इस घोषणा का अनुमोदन संसद के दोनों सदनों द्वारा कर दिया जाए और केन्द्र सरकार अधिक से अधिक इस अनुमति की प्राप्ति तक राज्य विधानसभा का स्थगन रख सकती है। उचित मामलों में संसद के अनुमोदन के बावजूद भी अदालत यथास्थिति को बहाल कर सकती है।‘‘ इस प्रकार उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय ने राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने की शक्तियों पर महत्त्वपूर्ण प्रतिबंध लागू किए। इस निर्णय से राष्ट्रपति को भी कुछ शक्ति प्राप्त हुई। उदाहरण के लिए अक्टूबर 1997 में उत्तरप्रदेश के मामले में और फिर सितम्बर 1998 में बिहार के मामले में अपनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रपति के. आर. नारायणन ने मंत्रिमण्डल के पास अपने निर्णय पर पुनःविचार करने के लिए वापस भेजा। यह आशा की. जाती है कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय तथा राष्ट्रपति नारायणन द्वारा मंत्रिमंडल की सिफारिशों पर पुनःविचारार्थ वापस भेजने जैसी दोनों कार्यवाहियों से अपने स्वार्थी उद्देश्यों के लिए धारा 356 के अधीन शक्तियों का केन्द्र सरकार द्वारा दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति पर तर्कसंगत रोक लग सकेगी।

 वित्तीय संबंध
भारतीय संघीय राजनीति में वित्तीय शक्तियों का प्रश्न केन्द्र-राज्य संबंधों में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। अधिक वित्तीय स्वायत्तता की राज्यों की माँग अब बहस का एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न बन चुकी है। इस तनाव का कारण है, (अ) कर की तुलनात्मक शक्तियाँ, (ब) वैधानिक बनाम भेदभाव पूर्ण अनुदान और (स) आर्थिक परियोजना।

 कर लगाने की शक्तियाँ
राज्यों की अपेक्षा केन्द्र के राजस्व साधन कहीं अधिक व्यापक एवं विस्तृत हैं। घाटे की वित्तीय व्यवस्था, विदेशी सहायता के रूप में विशाल निधि सहायता और देश के आन्तरिक धन बाजारों से प्राप्त होने वाले कर्मों के माध्यम से उत्पन्न किए गए विशाल संसाधनों पर केन्द्र का आधिपत्य है। कर की अवशिष्ट शक्तियाँ भी केन्द्र सरकार के अधीन हैं। इसके अतिरिक्त आपातस्थिति में अतिरिक्त धन संचित करने के लिए करों के ऊपर अधिभार लगाने का अधिकार संविधान ने केन्द्र को दिया है। व्यवहार में आमदनी-कर के ढाँचे पर अधिभार लगाना एक स्थायी विशिष्टता हो गई है। कर-व्यवस्था की दूसरी कमजोरी कॉरपोरेट कर लगाना है जिसके कारण राज्यों को नुकसान उठाना पड़ता है। यह लगातार बढ़ता जाता है और पूर्णरूपेण से केन्द्र के अधिकार क्षेत्र में आता है। राज्यों के राजस्व तथा उनके खर्च में अंतर बढ़ रहा है। निश्चय ही इसका एक बड़ा कारण राज्यों द्वारा उन स्रोतों को सक्रिय न कर पाना है जिनको वे कर सकते हैं और कुछ खर्चों को झूठी लोकप्रियता प्राप्त करने में खर्च किया जाता है। इसका कारण केन्द्र पर कुछ अधिक निर्भर बने रहना भी है। इसलिए राज्यों को केन्द्र की सहायता पर निर्भर रहना पड़ता है।

 अनुदान विषय
केन्द्र से राज्यों को धन के चार तरीके हैं: (1) आमदनी पर केन्द्र के करों में अनिवार्य हिस्सेदारीय (2) केन्द्र के आबकारी शुल्कों में अनुज्ञात्मक हिस्सेदारी, (3) केन्द्र के कुछ शुल्कों तथा करों का .. राज्यों को पूर्णरूपेण आवंटनय (4) अनुदान एवं ऋण के रूप में राज्यों को वित्तीय सहायता की व्यवस्था। प्रत्येक पाँच वर्ष में या जब भी भारत के राष्ट्रपति की इच्छा हो धारा 280 तथा 281 की व्यवस्थानुसार राज्यों को कुछ निश्चित संसाधनों में हिस्सेदारी तथा संसाधनों के पूर्ण रूप से आवंटित करने हेतु वैधानिक वित्तीय आयोग का गठन किया जाता है। वित्तीय आयोग की व्यवस्था भारत सरकार तथा राज्य सरकारों के वित्त को विनियमित समन्वित तथा एकीकृत करने के लिए की गई है। प्रारंभ में वित्तीय आयोग का कार्य केन्द्र से राज्यों को सभी वित्तीय मामलों को हस्तांतरित करना था। लेकिन धीरे-धीरे योजना आयोग भी इस कार्य को सम्पन्न करने लगा और अब यह केन्द्र से राज्यों को संसाधनों के हस्तांतरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है। परन्त योजना आयोग पूर्णतः एक केन्द्रीय संस्था है और राजनीतिक प्रभाव में रहता है, इसलिए राज्य अनुदानों के आवंटन में भेदभाव को महसूस करते हैं। इसके अलावा केन्द्र द्वारा आर्थिक अनुदान दिए जाने की व्यवस्था पूर्णतः राजनीतिक है और इसका हस्तांतरण उसका अपना विवेकाधिकार होने के कारण केन्द्र अधिकतर समय इसका आवंटन विवादपूर्ण तरीके से करता रहा है।

केन्द्र धारा 281 के अंतर्गत राज्यों को आर्थिक अनुदान, अपने विवेकाधिकार द्वारा तैयार की गई योजनाओं, प्राकृतिक आपदाओं या विषमताओं आदि को दूर करने के लिए प्रदान करता है। यह एक आम धारणा है कि विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा शासित राज्यों के बीच केन्द्र भेदभाव करता है। एच.ए, घनी का मानना है कि प्राकृतिक आपदाओं से प्रभावित राज्यों को दी जाने वाली केन्द्रीय राहत सहायता का गहराई से अवलोकन करने पर स्पष्ट होता है कि इस संदर्भ में सुनिश्चित मापदण्डों का पालन नहीं किया जाता। बाढ़, सूखा आदि से हुए नुकसान का अनुमान करने वाले केन्द्रीय दल राजनीति से ग्रस्त होने के कारण अस्थायी एवं असावधानी पूर्ण तरीके से इनका अनुमान करते हैं। इसलिए राज्यों ने केन्द्र की विवेकाधिकार रूप में भारी भरकम वित्तीय शक्तियों के विरुद्ध गहरी आपत्ति उठाई है। उस राज्य के विरुद्ध जो केन्द्र के विरोध पक्ष का हो इन शक्तियों में अंतर्निहित खतरे का राजनीतिक इस्तेमाल एक हथियार के रूप में केन्द्र कर सकता है। राज्य अधिक से अधिक संसाधनों का वैधानिक हस्तांतरण चाहते हैं जिससे कि विवेकाधिकार अनुदानों के प्रदान की करने की प्रवृत्ति में कमी की जा सके।

 आर्थिक योजना
सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत में योजना की प्रक्रिया ने राजनीतिक व्यवस्था को आगे बढ़ाया जिसने केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति को और अधिक मजबूत किया। ऐसा इसलिए हुआ कि जहाँ एक ओर विकास के संसाधनों पर केन्द्र का नियंत्रण था वहीं केन्द्रीकृत योजना ढाँचे की प्रमुखता बनी रहीं। आर. के. हेगड़े का कहना है कि उद्योगों तथा आर्थिक योजना के क्षेत्र में राज्य की क्षीण शक्ति का भयंकर एवं भारी हानिकारक प्रभाव हुआ है। उदाहरण के तौर पर संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि उद्योग अनिवार्यतः राज्य का विषय है। केन्द्र द्वारा केवल उन्हीं उद्योगों का विनियमीकरण किया जाएगा। जिनकी संसद सार्वजनिक हित में घोषणा करे और ऐसे उद्योग ही केन्द्र के अधीन बने रहेंगे। लेकिन किसी भी प्रकार संविधान संशोधन किए बगैर वास्तव में उद्योगों को केन्द्र के विषय के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है। मूल्य की दृष्टि में 90 प्रतिशत से अधिक संगठित उद्योग केन्द्र के अधीन आते हैं। व्यवहार में करने की आड़ में बहुत से अवसरों पर नए उद्योगों की स्थापना में अड़चने उत्पन्न की। यह भी आरोप है कि राष्ट्रीय योजना के नाम पर केन्द्र राजनीतिक कारणों से राज्य की दूरगामी एवं महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं की स्थापना में अत्यधिक देरी करता है। ठीक इसके विपरीत केन्द्र राज्यों के ऊपर ऐसी योजनाओं को थोंपता है जिनको राज्य सरकारें विद्यमान राज्य की परिस्थितियों के लिए अनुपयोगी समझकर उनके प्रति कोई विशेष उत्साह नहीं दिखाती। इस और अन्य कारणों से अक्टूबर 1983 में विरोधी दलों के सम्मेलन में आम सहमति से तैयार किए गए बयान में कहा गया कि योजना आयोग तथा केन्द्रीय वित्त मंत्रालय की वर्तमान शक्ति जिसके द्वारा वे राज्यों को विभेदकारी अनुदानों को प्रदान करते हैं निर्णायक रूप से कम किया जाना चाहिए।

इलेक्ट्रोनिक मीडिया का इस्तेमाल
इलेक्ट्रोनिक मीडिया से अभिप्राय है- रेडियो एवं दूरदर्शन । इन दिनों ये दोनों प्रचार एवं प्रसार के शक्तिशाली माध्यम हैं। विश्व भर में सरकारें तथा राजनीतिक दल सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार के राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं। भारत में संविधान के अनुसार प्रसारण को नियंत्रित एवं विनियमित करने की वैधानिक शक्तियाँ केन्द्र सरकार के पास हैं। यह आरोप लगाया जाता है कि केन्द्र में जिस दल की सरकार सत्ता में है वह सरकार के द्वारा किए गए कार्यों के आलोचनात्मक अवलोकन को प्रसारित नहीं करती और दूसरी उन राज्यों की सरकारों की छवि को धूमिल करती है जिनमें विरोधी दलों का शासन है। विशेष कर 1980 के दशक में, पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों के लिए ऑल इंडिया रेडियो एवं दूरदर्शन का खुला दुरुपयोग किए जाने के विरुद्ध विपक्षी दलों ने कड़ा प्रतिकार किया। यह भी आरोपित किया गया कि मीडिया केन्द्र सरकार के प्रवक्ता के रूप में कार्य करता है।

प्राइवेट चैनलों के आगमन तथा प्रसार भारती की स्थापना ने रेडियो एवं दूरदर्शन को कुछ स्वायत्तता प्रदान की। जिसके कारणवश सरकारी नियंत्रण और मीडिया पर केन्द्र सरकार के एकाधिकार में कमी हुई। संयुक्त सरकारों की स्थिति में जिनके अंदर क्षेत्रीय दलों की महत्त्वपूर्ण भूमिका है, अब केन्द्रीय सरकार सरकार उनकी अवहेलना नहीं कर सकती। लेकिन इस सबके बावजूद भी मीडिया के लिए विधान बनाने, नियंत्रण एवं विनियमित करने की शक्तियाँ केन्द्र सरकार के पास ही हैं और पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों हेतु ऑल इंडिया रेडियो एवं दूरदर्शन के दुरुपयोग की शिकायतें अभी भी बरकरार हैं।