राष्ट्र हित क्या है | राष्ट्रीय हित की परिभाषा किसे कहते है | राष्ट्रहित अवधारणा National interest in hindi
National interest in hindi definition राष्ट्र हित क्या है | राष्ट्रीय हित की परिभाषा किसे कहते है | राष्ट्रहित अवधारणा सर्वोपरि का अर्थ बताइए |
राष्ट्रीय हित
अंतर्राष्ट्रीय व्यवहार की प्रकृति और स्वरूप की कोई भी चर्चा राष्ट्रीय हित की अवधारणा को समझे बिना संभव नहीं है। यह बात सार्वभौम रूप से मानी जाती है कि सत्ता की कार्यवाइयों का वैधानिक स्वरूप राष्ट्रीय हित की सोच में उभरता है। अमरीकी राष्ट्रपति विल्सन उन चंद आदर्शवादी विचारकों में से माने जाते हैं जो सत्ता के इस विशेषाधिकार की सोच से सहमत नहीं थे। बहरहाल, विदेशी नीति की आधारशिला राष्ट्रीय हितों पर ही आधारित होती है। जैसा कि हंस मोरगेन्थाऊ ने लिखा भी है कि ‘‘जब तक दुनिया राजनीतिक रूप से राष्ट्रों में संगठित है तब तक विश्व राजनीति के फैसले राष्ट्रीय हितों के आधार पर ही तय होते रहेंगे।‘‘ वस्तुतः यही राष्ट्रीय नीति का यह एकमात्र वैध और बुनियादी कारण है। लार्ड पामरस्टोन ने उन्नीसवीं सदी में एक बार कहा था कि ‘‘न तो हमारे दोस्त अंनंत काल के लिए है और न दुश्मन। यह सिर्फ हमारे हित हैं जो अनंत काल के लिए हैं और हमारा कर्तव्य है कि हम इनकी रक्षा के प्रयासों में जुटे रहे।‘‘ राष्ट्रीय हित की परिभाषा को शब्दों में बांधना न केवल कठिन है बल्कि यह समझाना भी बड़ा कठिन है कि दुनिया भर के नेता अपनी कार्रवाइयों को कैसे राष्ट्रीय हित की आड़ में वैध ठहराए जाते हैं।
राष्ट्रीय हित की परिभाषा
राष्ट्रीय हित वस्तुतः है क्या। नेपोलियन ने रूस के खिलाफ हमले की अपनी कार्रवाई को यह कह कर वैध ठहराया था कि वह फ्रांस के हितों की रक्षा के लिए सक्रिय है। बाद में, वाटरलू की अंतिम लड़ाई के वक्त भी उसने फ्रांस के हितों का हवाला ही दिया था। हिटलर भी जर्मनी के हितों की आड़ में विस्तारवाद की आग भड़काता रहा। आस्ट्रिया पर कब्जा और चेकोस्लोवाकिया का विघटन भी जर्मनी के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल ही हिटलर ने बताया था। इसी नीति के तहत स्टालीन ने पोलैंड तथा अन्य पूर्वी युरोपीय देशों में ष्मित्र समाजवादी सरकारों की स्थापना करा दी क्योंकि उसकी नजर में ऐसी कार्यवाई सोवियत संघ के राष्ट्रीय हितों के अनुकूल थी। इराक ने जब कुवैत को कब्जे में कर लिया तब अमरीकी राष्ट्रपति बुश ने इराक के खिलाफ युद्ध यही कह कर छेड़ था कि यह अमरीका के राष्ट्र हितों के अनुकूल है। बेनजीर भुट्टो यही सोचती है कि भारत के सीमांत प्रदेश जम्मू कश्मीर में अस्थिरता फैलाना पाकिस्तान के राष्ट्रीय हित में है। इस प्रकार, दुनिया के तमाम देश अपनी कारवाईयों को चाहे वह कितनी ही गलत क्यों न हो, राष्ट्रीय हितों की आड़ में ही वैध ठहराते रहते हैं। ऐसी हालत में राष्ट्रीय हितों की चर्चा के लिए जरूरी है कि पहले इसकी परिभाषा पर विचार कर लिया जाए। राष्ट्रीय हितों की परिभाषा को किसी सीमा में बांधना बड़ा कठिन है यह हम पहले ही कह चुके हैं। विभिन्न संदर्भो में इसके मतलब भी बदलते जाते है। अभी तक राष्ट्रीय हितों की अवधारणा को न तो वस्तुनिष्ठ रूप में और न ही वैज्ञानिक ढंग से परिभाषित किया गया है। हालांकि, पेडलफोर्ड और लिंकन का कहना है कि ‘‘राष्ट्रीय हितों की अवधारणा समाज के बुनियादी मूल्यों पर टिकी होती है। इन मूल्यों में राष्ट्रीय कल्याण की अवधारणा राजनीतिक विचारधाराओं की सुरक्षा जिंदगी का राष्ट्री ढर्रा भू भाग की अखंडता और अपना अस्तित्व बचाये रखने के प्रयास शामिल हैं।‘‘ राबर्ट ऑसगुड के अनुसार राष्ट्रीय हित राजकाज के ऐसे मामले हैं जो सिर्फ इसलिए कीमती हैं कि ये राष्ट्र के कल्याण के लिए उठाये गये हैं। मोरगेंथउ का मानना है कि किसी राष्ट्र की बुनियादी जरूरत यह है कि वह अन्य देशों के आक्रमण तेवरों से अपने भौगोलिक भू भाग, राजनीतिक और सांस्कृतिक पहचान के अस्तित्व की रक्षा कैसे करे। लेकिन, जोसेफ फ्रेंकिल राष्ट्रीय हितों को उनके लक्ष्यों और उनको पूरा करने के तरीकों के रूप में देखता है। लक्ष्य यानि राष्ट्र की खुद के व्यक्तित्व के बारे में क्या धारणा है। एक खुशहाल जिंदगी और इसके परम लक्ष्यों को प्राप्त करने की चुनौती इस पर राष्ट्र का आम नजरिया क्या है। राष्ट्रीय हित का दूसरा पक्ष, लक्ष्यों को पूरा करने का तरीका है जो राष्ट्र के कुल हितों तथा उन्हें पूरा करने के लिए क्रियान्वित नीतियाँ इन दोनों के योग से बनता है।
राष्ट्रीय हित-विदेश नीति की आधार शिला
विदेशनीति के निर्माता अपनी रणनीतियों की चारदीवारी को राष्ट्रीय हितों से ही बांधते हैं। यह सही है कि कभी-कभी सत्ता के मद में चूर हिटलर जैसे मुट्ठी भर तानाशाह राष्ट्रीय हितों की आड़ में विनाश का कहर बरपा देते हैं। लेकिन, ऐसे मामले अपवादस्वरूप होते हैं। सामान्य तौर पर विदेश नीति का निर्धारण सिर्फ इसी दृष्टि से होता है कि इससे कैसे देश का भला हो। यही देश के भले की धारणा या राष्ट्रीय हित की अवधारणा विदेश नीति के आधार का कार्य करते हैं। ऐसे आदर्शवादी नेता भी हुए हैं, जैसे अमरीका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन जिनकी विशेष राय थी की। राष्ट्रीय हितों को भी वैधानिक रूप से नैतिक मूल्यों तथा मानव समुदाय के हितों की रक्षा के दायरे में बांधा जा सकता है। विल्सन ने कहा है कि ष्किसी राष्ट्र की विदेश नीति को सिर्फ उसके राष्ट्रीय हितों के दायरे में समेट कर रखने की कोशिश एक खतरनाक शुरूआत होगी. . . . . हम उन आदर्श सिद्धांतों से हटने का साहस नहीं जुटा सकते जिनके अनुसार हमारी पथ प्रदर्शक नीतियां नैतिकता पर आधारित हैं न कि जरूरत पर। हमारे किसी तरह के स्वार्थी इरादे नहीं है।‘‘ लेकिन, ऐसे आदर्शवादी विचार राष्ट्रीय हितों से जुड़े विदेशनीति के नक्कारखाने में तूती की आवाज की तरह ही साबित हुए है। विल्सन के ये आदर्श विचार उनके पूर्ववर्ती, अमरीका के पहले राष्ट्रपति जार्ज वाशिंगटन से बिल्कुल मेल नहीं खाते हैं। वाशिंगटन ने कहा है कि ‘‘कोई भी देश चाहे उसकी विचारधारा कितनी ही आदर्शवादी क्यों न हो और उन्हें पूरा करने की इच्छा भी चाहे कितनी प्रबल क्यों न हो वह अपनी विदेश नीति का आधार अपने राष्ट्रीय हितों से अलग नहीं बना सकता।‘‘ उनकी राय थी कि कोई भी समझदार सत्ता शीष या अनुभवी राजनेता कभी भी इन नीतियों से खुद को अलग करने का साहस नहीं जुटा सकेगा।
अब एक नजर इस पर देखें कि राष्ट्रीय हित के तत्व कौन-कौन से हैं। एक आधुनिक राष्ट्र के लक्ष्यों में भू-भाग की सुरक्षा, आर्थिक विकास एवं विश्व स्तर पर शांति जैसे मुददे विशेष रूप से शामिल रहते हैं। तमाम देश राष्ट्रीय सुरक्षा, राजनीतिक स्वतंत्रता और भू-भाग की अखंडता बनाये रखने की इच्छा भी रखते हैं और इन्हें पूरा करने की कोशिशें भी करते रहते हैं। दूसरे शब्दों में, राष्ट्र की सुरक्षा स्वाभाविक रूप से विदेश नीति की बुनियादी सोच होती है। दूसरे, आर्थिक हितों को बढ़ावा देना तथा व्यापार के लिए अनुकूल माहौल प्राप्त करना भी विदेश नीति के केन्द्र में ही होती है। तीसरे, अधिकांश आधुनिक राष्ट्र अब इस पर सहमत हैं कि अंतर्राष्ट्रीय शांति का माहौल हर हालत में बनाये रखा जाए, अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के प्रति विश्व समुदाय की आस्था और इज्जत बढ़े, अंतर्राष्ट्रीय विवादों का निपटारा मिल बैठकर शांति से हो तथा अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को और सशक्त बनाया जाये।
जा भारत ने नेहरू के नेतृत्व में तटस्थता की नीति अपनायी थी तब इस नीति को देश के राष्ट्रीय हितों के साथ-साथ विश्व शांति की स्थापना के एक औजार के रूप में भी देखा गया। नेहरू, नासिर और टीटों की अगुवाई में शुरू किया गया निर्गुट आंदोलन का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य यह था कि सुलगते हुए दो खेमों में बंटे इस संसार में उत्पन्न शांति पर आए खतरे की आशंका को निर्मूल करना था। अगर भारत ने खुद को दो खेमों में से किसी एक के साथ संबद्ध कर लिया होता तो हमारा आर्थिक विकास भी दोनों में से किसी एक के ही दर्शन की राह पर चल रहा होता। ऐसे विश्व नेताओं की कमी नहीं है जो विश्वास रखते हैं कि विदेश नीति यकीनी तौर पर किसी आदर्श विशेष से बंधा होना चाहिए। जैसे, फासीवाद या साम्यवाद का प्रसार या फिर साम्यवाद को रोकने की मुहिम। लेकिन व्यावहारिक राजनेता केवल राष्ट्रहितों पर ही गौर करते हैं उनका ध्यान केवल अपने राष्ट्र के हितों पर ही केंद्रित होता है। किंतु, हाल के दिनों में विदेश नीति के संदर्भ में आदर्शो, सिद्धांतों की महत्ता का हास हुआ है।
बोध प्रश्न 3
टिप्पणी क) अपने उत्तर के लिए नीचे दिए गए स्थान का प्रयोग कीजिए।
ख) इस इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से अपने उत्तर की तुलना कीजिए।
(1) विदेश नीति के निर्माण में राष्ट्रीय हित के महत्व की विवेचना कीजिए।
बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) राष्ट्रीय हित का लक्ष्य समाज की बुनियादी जरूरतों को साधना है। इसमें राष्ट्र का कल्याण, आर्थिक विकास, राजनीतिक विचारधारा की सुरक्षा, संप्रभुता, राष्ट्रीय रूझान एवं भू-भाग की अखंडता की रक्षा शामिल है। राष्ट्रीय हित विदेश नीति का आधारभूत तत्व है। यही विदेशनीति की शुरूआती सीमा है और इसी पर विदेश नीति का समापन भी है।
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