जयप्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव कौन थे | राजनितिक विचार क्या है | कांग्रेस समाजवादी दल (सी.एस.पी.) की स्थापना
Jayaprakash Narayan and narendra deva socialist ideas in hindi concept of socialism जयप्रकाश नारायण और नरेन्द्र देव कौन थे | राजनितिक विचार क्या है | कांग्रेस समाजवादी दल (सी.एस.पी.) की स्थापना किसने की और कब की | संस्थापक कौन थे कहा की गयी ?
जयप्रकाश नारायण एवं नरेन्द्र देव
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
जयप्रकाश एवं नरेन्द्र देव
जयप्रकाश और नरेन्द्र देव के आधारभूत दर्शन
जयप्रकाश और कांग्रेस समाजवादी दल (सी.एस.पी.) की स्थापना
जयप्रकाश एवं भारत में मार्क्सवाद का अनुपालन
समाजवादी कार्यक्रम एवं नरेन्द्र देव
समाजवाद एवं लोकतंत्र
तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का विरोध
समाजवाद उधार लिया हुआ सिद्धांत नहीं है
पूर्वी एवं पश्चिमी विचारों के विद्यार्थी के रूप में
सांस्कृतिक मार्क्सवादी
धर्म एवं राजनीति के मेल के विरोधी
जयप्रकाश और आचार्यः कुछ विस्तृत जानकारी
समाजवादी एवं द्वितीय विश्वयुद्ध
गांधी एवं कांग्रेस नेतृत्व पर समाजवादी दबाव
स्वतंत्रता के बाद के काल में समाजवादी
स्वतंत्रता के बाद जे.पी.
जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा
सारांश
बोध प्रश्नों के उत्तर
कुछ उपयोगी पुस्तकें
उद्देश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप इस योग्य होंगे कि:
ऽ जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेन्द्र देव के आधारभूत सिद्धांतों को जान सकें,
ऽ नरेन्द्र देव के सामाजिक कार्यक्रम पर अपने विचार प्रस्तुत कर सकें, और
ऽ स्वतंत्रता के बाद के काल में समाजवादी गतिविधियों की चर्चा कर सकें।
प्रस्तावना
समाजवादियों ने हमारे देश के राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक अहम भूमिका निभायी है । सन् 1930 और 1940 के दशकों के दौरान वे ही ऐसे लोग थे, जिनका सम्बन्ध नेतृत्व तथा नीचे स्तर, दोनों से सम्बन्धित था । भारतीय राजनीति के तर्क ने गांधी के नेतृत्व में इन ताकतों को स्वतंत्र कर दिया। जन राजनीति का प्रारम्भ गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन का आह्वान देकर शुरू किया। छोटे समूह ग्रामीण एवं शहरी राजनीति में सामाजिक समूहों को गतिमान करने में पूरी तरह से सक्रिय हो गए। उनका मत था कि राष्ट्रीय राजनीति में सर्वप्रिय वर्गों को सम्मिलित करना एक उग्रवादी झुकाव होगा। अब नेतृत्व केवल मध्यमवर्ग के हाथों में ही न रहा जो कि वैसे राजनीतिक गतिविधियों में पूर्ण रूप से सम्मिलित था। जनतंत्र वर्ग राजनीति के इस रूप ने 1920 के अन्त के दशकों में ठोस परिणाम को जन्म दिया। इसके परिणामस्वरूप ही राष्ट्रीय नेतृत्व को 1929 में प्रसिद्ध लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य की घोषणा करने पर बाध्य होना पड़ा । निम्नलिखित पंक्तियों में आपको भारत में हुए सामाजिक आन्दोलन के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त होगी।
जयप्रकाश एवं नरेन्द्र देव
मध्यवर्गीय नेताओं का एक वर्ग उग्रवादी हो गया और वर्गों की भाषा में बात करने लगा। नेहरू एवं आचार्य नरेन्द्र देव राष्ट्रवादी राजनीति के मुख्य नेताओं में से थे और उन्हें उग्रवादी प्रगतिशील नेताओं के रूप में मान्यता मिली थी। इस धारा में 1930 के दशकों में तीव्र गति से वृद्धि हई । जयप्रकाश अमेरिका में अध्ययन करने के समय मार्क्सवादी सिद्धांतों की तरफ आकृष्ट हुए और वापस आने पर इस श्रेणी में सम्मिलित हो गये। वे नेहरू एवं आचार्य नरेन्द्र देव के घनिष्ठ सम्पर्क में आये और उनके साथ इलाहाबाद में कांग्रेस संगठन में कार्य किया। जयप्रकाश की उग्रवादी जागति ने उन्हें नेहरू का घनिष्ठ विश्वास वाला बनाने में सहयोग दिया। मजे की बात यह है कि जयप्रकाश के गांधी जी के साथ अच्छे सम्बन्ध थे क्योंकि जब वे विदेश में थे तो उनकी पत्नी प्रभावती गांधीजी के आश्रम में कार्य करती थीं । जयप्रकाश का व्यक्तित्व मजेदार एवं उलझा हुआ था। उन्हें राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक विशेष स्थिति प्राप्त है।
जयप्रकाश एवं नरेन्द्रदेव के आधारभूत दर्शन
जयप्रकाश एवं नरेन्द्रदेव दोनों राष्ट्रीय कांग्रेस के अन्तर्गत कार्य करना चाहते थे और इसके लिये उन्होंने समाजवादियों एवं वामपंथियों के लिये एक राजनैतिक मंच की स्थापना की। उन्होंने अनुभव किया कि कांग्रेस एक ऐसा मंच है जिसमें नये परिवर्तन की आवश्यकता है तथा किसी दूसरे राजनीतिक दल की स्थापना की आवश्यकता नहीं है। उनके अनुसार कांग्रेस दल के भीतर विस्तृत जगह है जो दूसरे विभिन्न सैद्धांतिक समूहों को अपने अन्दर समायोजित कर सकती है। यह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का एक चरित्र भी था जिसने एक उलझावपूर्ण सैद्धांतिक संरचना के निर्माण में सहायता प्रदान की। आचार्य नरेन्द्र देव के अनुसार, ‘‘एक विषय औपनिवेशिक राज्य के लिये राजनीतिक स्वतंत्रता समाजवादी मार्ग का प्रथम कदम है। मध्यम वर्गीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के राष्ट्रवादी आन्दोलन से दूर हटना समाजवाद के लिए मूत्यजनक होगा। राष्ट्रीय आन्दोलन की सफलता के लिए यह भी आवश्यक है कि इसको मध्यम वर्ग के साथ आम जनता का समर्थन प्राप्त हो । आन्दोलन के कार्यक्रमों में आम जनता के आर्थिक कल्याण के लिये मुख्य स्थान होना चाहिये । कांग्रेस समाजवादी दल को राष्ट्रीय आन्दोलन में मजदूरों, किसानों एवं मध्य वर्गों के क्रांतिकारी अभिलाषा से दूर नहीं रखना चाहिए।’’ यह प्रसिद्ध भाषण आचार्य नरेन्द्रदेवं ने 1934 में कांग्रेस समाजवादी दल के प्रथम सम्मेलन में दिया था। जे.पी. और नरेन्द्रदेव दोनों ने कांग्रेस पार्टी की महत्ता को साम्राज्य विरोधी संघर्ष के नेता के रूप में स्वीकार किया।
दूसरा, उन्होंने कांग्रेस में वर्ग राजनीति की महत्ता को मान्यता दी। तृतीय-राष्ट्रीय आन्दोलन में समाजवाद का सिद्धांत एक अहम भूमिका अदा करेगा । चतुर्थ-कांग्रेस समाजवादी दल कांग्रेस में एक दबाव समूह के रूप में कार्य करेगा। यह न तो एक राजनीतिक दल होगा और न ही कांग्रेस का मात्र अंग होगा। जे.पी. ने इन चीजों को अपने भाषण में बड़े स्पष्ट रूप से कहा है जो नीचे दिये जा रहे हैं।
‘‘कांग्रेस के अन्दर हमारा कार्य इसको एक वास्तविक साम्राज्य विरोधी संकाय के रूप में विकसित करने की नीति से शासित होता है। कांग्रेस को एक पूर्ण रूपेण समाजवादी दल में परिवर्तित करना हमारा उद्देश्य नहीं है जैसा कि कभी-कभी गलत समझ लिया जाता है। हम लोग इस संगठन की नीतियों एवं सार में परिवर्तित लाना चाहते हैं। तात्पर्य यह कि यह जनता का सही प्रतिनिधित्व कर सके तथा विदेशी शक्तियों एवं शोषण की देशी व्यवस्था दोनों से मुक्ति दिला सके। इससे अधिक जे.पी. ने कांग्रेस नेतृत्व के वर्ग सन्दर्भ में तथा नेतृत्व के संकीर्ण झुकाव जो समाजवाद के नारे से डरते थे, उनके भी सन्दर्भ में समझा। जैसा कि जे.पी. ने अपने वक्तव्य में कहा है, ‘‘वर्तमान समय में कांग्रेस उच्च वर्गीय हितों से शोषित होती है और इसके नेता अपने किसी भी कार्यक्रम में जनता की आर्थिक उन्नति से सम्बन्धित प्रश्नों को अपने उद्देश्य में सम्मिलितं करने के कट्टर विरोधी थे।’’
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान में अपने उत्तर लिखें।
ख) अपने उत्तर का इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से जांच कर लें।
1) जे.पी. और नरेन्द्र देव के आधारभूत दर्शन क्या हैं?
जयप्रकाश एवं कांग्रेस समाजवादी दल (सी.एस.पी.) की स्थापना
कांग्रेस समाजवादी दल की स्थापना नासिक जेल में हुई जब जे.पी., लोहिया अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन और मीनू मसानी ने एक संगठन स्थापित करने का निश्चय किया । वामपंथी बुद्धिजीवियों ने अपने राजनीतिक प्रतिबद्धता के कारण एक मंच की स्थापना की। इसी समय नागरिक अवज्ञा आन्दोलन में जन राजनीति उग्रवादी हो गयी । किसान सभा और अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस को शक्तिशाली वर्ग मोर्चा के रूप में उभरी सामाजिक शक्तियों के साथ बुद्धिजीवियों के सम्मेलन में भारत के एक शक्तिशाली समाजवादी आन्दोलन को जन्म दिया । जे.पी. ने मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के रूप में एक पुस्तक लिखे जिसका शीर्षक था समाजवाद क्यों? इसने सम्पूर्ण भारत के वामोन्मुख जनता को समाजवाद की अवधारणा के भ्रान्तियों को स्पष्ट करने में सहायता प्रदान की। यह पुस्तक कांग्रेस समाजवादी दल की ओर से प्रकाशित हई । इस कार्य पुस्तक में उन्होंने चार महत्वपूर्ण परिकल्पनाओं को विकसित किया:
1) समाजवाद की आधारशिला
2) समाजवादी कांग्रेस का क्या तात्पर्य है?
3) विकल्प
4) तरीके विधि एवं तकनीक
केवल 32 वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपने क्रांतिकारी लेखन के द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त की।
जयप्रकाश एवं भारत में मार्क्सवाद का अनुपालन
जयप्रकाश ने अपनी पुस्तक में प्रदर्शित किया है कि अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवादी सम्मेलन एवं भारतीय साम्यवादियों से अलग हआ जन समूह किसी भी विधि से मार्क्सवाद से निराश नहीं है जैसा कि जे.पी. ने कहा है, ‘‘समाजवाद का एक ही रूप और एक ही सिद्धांत है और वह है मार्क्सवाद । उन्होंने भारतीय प्रसंग में मार्क्सवाद को लागू करने का प्रयास किया जैसा कि उन्होंने कहा है ‘‘यह प्रायः कहा जाता है कि भारत की स्थिति विशिष्ट है। इसका तात्पर्य यह है कि समाजवाद के आधारभूत सिद्धांत का भारत में कोई उपयोग नहीं है । महान भ्रान्तियों को सोचना कठिन होगा। हालांकि धन संचय की विधि भारत में भी उतनी ही सत्य है जितना की दूसरे स्थानों पर तथा इस संचय को रोकने की विधि भी वही है जो कि दूसरे जगहों पर।’’ उन्होंने भारतीय राजनीतिक अर्थव्यवस्था की प्रकृति को मार्क्सवादी ढंग से व्याख्या की है । सम्पत्ति के मालिकों द्वारा सामाजिक अधिशेष के स्वायत्तीकरण की वही प्रक्रिया अपनायी जाती है, जो कि पूंजीवादी देशों में है। सम्पत्ति का असमान वितरण प्रणाली ही वर्ग निर्माण की जननी है। केवल सरकार की सम्पत्ति के सम्बन्धों में आमूल चूल, परिवर्तन ला सकती है। भारतीय समाजवादियों का सार्थक संरचना में बहुत अधिक विश्वास है। वे राज्य का विनाश नहीं चाहते। राज्य की आमूल चूल परिवर्तन लाने के पक्ष में हैं। जे.पी. ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि कोई भी दल समाजवाद की स्थापना तब तक नहीं कर सकता जब तक की यह राज्य की मशीनरी को अपने हाथ में न ले ले चाहे वह इसे जनता की इच्छा से प्राप्त करे या सरकार को गिराकर लेकिन यह व्यर्थ है। समाजवादी राज्य की दमनकारी शक्तियों का यदि कहीं भी अस्तित्व है तो उन्हें जन समर्थन से ही प्राप्त करना चाहिये।’’ समाजवाद की प्राप्ति के साधनों पर जे.पी. और नरेन्द्र देव का एक ही मत है । यद्यपि नरेन्द्र देव ने प्रारम्भ से यह स्पष्ट किया था कि जनतांत्रिक साधन ही केवल समाजवाद की प्राप्ति का साधन है । राज्य की संरचना के परिवर्तन करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान में अपने उत्तर लिखें।
ख) अपने उत्तर का इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से जांच कर लें।
1) जे.पी. ने मार्क्सवाद की व्याख्या कैसे की है?
समाजवादी कार्यक्रम एवं नरेन्द्र देव
समाजवादी दल द्वारा दिये गये समाजवादी कार्यक्रमों से उनके दृष्टिकोण का सा अनुमान होता है:
प्रथम – राष्ट्रीयकरण के लिए बड़ी पूंजी का होना आवश्यक है लेकिन निजी सम्पत्ति की समाप्ति नही।
द्वितीय – उन्होंने ग्रामीण भारत में जमींदारी प्रथा के उन्मूलन पर अधिक जोर दिया भूमि सुधार होना चाहिए जिससे छोटे ग्रामीण किसानों को भूमि मिलेगी। दूसरे शब्दों में, उन्होंने छोटे किसानों के स्वामित्व एवं लघु औद्योगिक पंूजी के विकास पर भी जोर दिया । नरेन्द्र देव लोकतांत्रिक समाजवाद की अवधारणा में बहुत स्पष्ट थे । लोकतंत्र समाजवाद के बिना जीवित नहीं रह सकता है तथा समाजवाद लोकतंत्र के बिना अधूरा है। मानव स्वतंत्रता समाजवाद ढांचे वाले समाज को प्राप्त करने का एक आधार है।
समाजवाद एवं लोकतंत्र
नरेन्द्र देव ने कहा कि उनके समाजवाद का तात्पर्य लोकतांत्रिक है क्योंकि:
1. यह सोपानात्मक समाज की अवधारणा का विरोधी है।
2. यह किसी एक व्यक्ति या विशेष वर्ग द्वारा सामाजिक राजनीतिक या आर्थिक शक्तियों पर नियंत्रण का विरोधी है तथा निरंकुशता तानाशाही सामन्तवाद या पूंजीवाद के किसी भी रूप का खंडन करता है।
3. ये साम्राज्यवाद एवं विदेशी शासन के हर रूप का विरोधी है तथा लोकतांत्रिक स्वतंत्रता के अधिकारों को पूरी तरह मान्यता देता है।
4. ये सामाजिक सम्बन्धों तथा व्यवहार के लोकतांत्रिकरण का समर्थन करता है।
5. ये सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक शक्तियों पर मजदूर वर्ग के शासन का समर्थन करता है।
6. यह सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक मामलों में स्वायत्तता सरकार का समर्थन करता है।
7. यह स्वतंत्रता के आधार पर व्यवस्था को विकसित करना चाहता है।
8. यह शक्ति तथा उत्तरदायित्व का लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण करना चाहता है।
9. यह आवश्यकता को वरीयता देकर सामाजिक समानता एवं न्याय का विश्वाः दिलाता है तथा सभी के पूर्ण सामाजिक, मानसिक एवं नैतिक विकास का दावा करता है।
10. यह सामाजिक प्रसन्नता प्रदान करता है। जिसका व्यक्तित्व प्रसन्नता एक भाग है।
11. यह व्यक्ति को प्राधिकरण का एक साधन मानता है और एक व्यक्ति के.मामले या अल्पसंख्यक समूह या एक वर्ग के सत्ता छीनने या सरकार संस्था या सामाजिक शक्ति पर अपनी सत्ता स्थापित करने में उनके विद्रोह के अधिकार को मान्यता देता है।
12. यह शक्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में लोकतांत्रिक संगठन को समर्थन देता है।
तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का विरोध
नरेन्द्र देव ने तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की नीति का प्रबल विरोध किया जिसने और साम्राज्यवादी शक्तियों को विभाजित एवं दुर्वल बना दिया था। भारतीय राष्ट्रवाद एवं इसके नेताओं को कलंकित किया था। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद एक सामाजिक शक्ति थी और इसका मतलब राष्ट्रों एवं वर्ग संघर्षों के बीच विरोध उत्पन्न करना नहीं था।
समाजवाद उधार लिया हुआ सिद्धांत नहीं है
समाजवाद नरेन्द्र देव के लिए उधार ली हुई अवधारणा नहीं थी। उन्होंने गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों का कभी विरोध नहीं किया उन्होंने सिर्फ अनुभव किया कि विशिष्ट सम्पत्ति के अधिकार के उन्मूलन के लिए वर्ग संगठन आवश्यक है। वे भारत में सन्याग्रह को एक वर्ग संघर्ष के हथियार के रूप में स्वीकार करने को तैयार थे। उन्होंने अनुभव किया कि ये विश्वास करना अवास्तविक है कि सामन्ती जमींदार जो अपने काश्तकारों पर अवैधानिक कर लगाते हैं तथा पूंजीवादी जो सुरक्षा की अपेक्षा मुनाफे पर अधिक ध्यान देते हैं वे कभी राष्ट्रीय साधनों के निर्भर ट्रस्टी बन सकते हैं। नागरिक अवज्ञा आन्दोलन की असफलता को सत्याग्रहियों की नैतिक अयोग्यता के रूप में नहीं समझा जा सकता स्वतंत्रता आन्दोलन शिक्षित मध्य वर्ग का एक रूप था। यदि इसको शक्तिशाली बनाना था तो इसके खेतों एवं फैक्टिरियों में कार्यरत व्यक्तियों को सम्मिलित करना चाहिए था । राजनीतिक स्वतंत्रता के देर से रुकी हुई आर्थिक एवं सामाजिक नेतृत्व की सहायता में परिवर्तित करना चाहिए।
पूर्वी एवं पश्चिमी विचारों के विद्यार्थी के रूप में
नरेन्द्र देव पूर्वी एवं पश्चिमी दोनों विचारों के प्रखर विद्यार्थी थे। प्राचीन भारतीय संस्कृति पर उनका अध्ययन गहरा एवं विस्तृत था । वह आसानी से बौद्ध दर्शन के विद्वान होने का दावा कर सकते थे जबकि वे भारत के सांस्कृतिक विरासत को अत्यधिक सम्मान देते थे । पर साथ ही, उनमें यह भी जागरुकता थी कि ‘‘बहुत से पुराने विचार अप्रचलित हो गये है समय के प्रवाह के साथ इन्हें त्याग देना चाहिए।’’ उनके विचार में ‘‘हमारा कर्तव्य हमारी संस्कृति का गहन एवं वैज्ञानिक विश्लेषण, इसके महत्वपूर्ण तत्वों की सुरक्षा तथा आधुनिक विचारों के साथ इसका संश्लेषण करना है।’’
अपने विचारों में भारतीय धार्मिक परम्पराओं को समझने के लिए पर्याप्त स्थान रखा जैसे भारतीय धर्म के स्रोत एवं सार क्या है। उनकी रचना से ही उद्धरण देना उचित होगा: “विभिन्न जातियों एवं संस्कृति के लोगों ने भारत में प्रस्थान किया और इसको अपना घर समझा । वे भारतीय समुदाय में, इस धरती के धर्म, परम्परा और विचारों में घुल मिल गये। विभिन्न समदायों के जीने के रास्ते विभिन्न हैं फिर भी मैत्रीपूर्ण ढंग से जीवन यापन करते हैं। भारतीय इतिहास में धार्मिक कलह एवं संघर्ष दुर्लभ है। भारतीय आत्मा युगों से विभिन्नता में एकता स्थापित करने का उपाय किया है। यह हिन्दू धर्म की उदार आत्मा थी जिसने इस चमत्कार को सम्भव बनाया । हिन्दुवाद एक धर्म नहीं है यह अपने जीने के ढंग । दूसरों पर जबर्दस्ती नहीं थोपता । यह विश्वास नहीं करता कि जीने का वही रास्ता सही है जो इसके द्वारा बताया गया हो सत्य अपने को विभिन्न ढंग से अभिव्यक्त करता है इसलिए किसी धर्म का सत्य पर एकाधिकार नहीं है । हिन्दुवाद ही शायद ऐसा धर्म है जिसका विश्वास है कि दूसरे धर्मों के अनुयायियों को भी मोक्ष की प्राप्ति मिल सकती है। यह वाहय रूप को अधिक महत्ता नहीं देता बल्कि मनुष्य की आन्तरिक आत्मा पर जोर देता है। इसकी उदारता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यह संकीर्णता में विश्वास नहीं करता। हिन्दू सन्तों ने इसलिए मुस्लिम इसाई अनुयायियों को आध्यात्मिक साधना में उनके विश्वास एवं अनुपालन को त्यागे बिना सम्मिलित किया। भारतीय धार्मिक परम्पराओं ने हर धर्मों के हिन्दू सन्तों, मुस्लिम फकीरों एवं सूफियों के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को अपने में समायोजित किया जिन्होंने परमेश्वर की एकता और भक्ति को उस तक पहुंचाने का एक साधन बताया । जाति, समुदाय को पूजा के साधन के बाह्य रूप में मान्यता नहीं दी। वे शरमन संस्कृति के विस्तृत रूप थे जो बाह्य मूल्यों में विश्वास नहीं करते थे और शुभ कार्यो पर अधिक जोर देते हैं।
सांस्कृतिक मार्क्सवादी
आचार्य नरेन्द्र देव मुख्य रूप से एक सांस्कृतिक मार्क्सवादी थे । वह भारतीय परम्परा से अत्यधिक प्रभावित हुए । विशेष रूप से बुद्ध से । वह बुद्ध द्वारा दिए गए उपदेश प्रेम की अहिंसा है से बहुत अधिक प्रभावित हुए। उन्होंने एक दशक से अधिक समय बौद्धिक दर्शन पर बुद्ध द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘बुद्ध धर्म दर्शन’’ पर व्यतीत किया यह पुस्तक ऐतिहासिक महत्व की है। मजे की बात यह है कि उनको धार्मिक परम्परा की गहरी समझ थी लेकिन दूसरी तरफ वह धर्म एवं राजनीति में मेल के घोर विरोधी थे। उनके लिए धार्मिक परम्परा हजारों वर्ष पुराना तथ्य है जिसमें लोगों की सामूहिक जागरूकता सम्मिलित है। मार्क्सवादियों को चाहिये कि मानव को नैतिक मानव बनाने के लिए धर्मों के लोकतांत्रिक तत्वों को लाएं।
धर्म एवं राजनीति के मेल के विरोधी
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि वह धर्म तथा राजनीति में मेल के घोर विरोधी थे। एक बार उन्होंने उप चुनाव लड़ा था जहां कांग्रेस पार्टी ने उनको हराने के लिए एक धार्मिक प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारा था। नरेन्द्र देव बहत दुःखी हुए और कांग्रेस के राजनीतिक अवसरवाद की कटु आलोचना की। उनके अनुसार कांग्रेस ने धर्म और राजनीति को मिला दिया है। उन्होंने सदैव ही राजनीतिक अवसरवाद का विरोध किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् उन्होंने कांग्रेस और समाजवादी दोनों ही दलों को छोड़ दिया। मृत्यु तक प्रजा समाजवादी पार्टी के साथ रहे।
बोध प्रश्न 3
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1) आचार्य नरेन्द्र देव के समाजवाद पर दिये गये विचारों का उल्लेख करें।
जयप्रकाश और आचार्य रू कुछ विस्तृत जानकारी
जे.पी. और आचार्य दोनों समाजवाद को एक राष्ट्रवादी दृष्टिकोण देना चाहते थे। वह सहमत नहीं थे कि समाजवादी आन्दोलन का अन्तर्राष्ट्रीय साम्यवादी आन्दोलन से कोई लेना-देना है। वह मुख्य रूप से सोवियत राज्य एवं स्तालिन के आतंक के विरोधी थे। वह लेनिन के राज्य शान्ति पर कब्जा करने की विधि से सहमत नहीं थे। नरेन्द्र देव ने अपने एक लेख जिसका शीर्षक था ‘‘सोवियत एशिया की एशिया में नीति’’ में लिखा है कि एक बोल्शेवी के लिए सिर्फ बोल्शेविवाद के राजनीतिक सिद्धांतों का ही महत्व है और सब व्यर्थ है । सोवियत एशिया राष्ट्रवाद का विरोधी था इसने स्वतंत्रता आन्दोलन का समर्थन इसलिए किया था कि साम्राज्यवाद को एक जबरदस्त धक्का पहुंचेगा और बोल्शेविकों को अपने को विकसित करने का एक नया मार्ग मिलेगा । समाजवादी, सामान्य रूप से सोवियत राज्य और इसकी विदेश नीति के कटु आलोचक हैं। उनका मानना है कि सोवियत एशिया का अन्तर्राष्ट्रीयतावाद भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन के विकास को प्रभावित करेगा। इसी समय कांग्रेस समाजवादी दल ने विभिन्न वैचारिक समूहों के लिए एक मंच का कार्य किया । सन् 1936 में साम्यवादियों को संगठन के अंतर्गत कार्य करने की आज्ञा दी गयो राज्यवादी एवं पंजाब समाजवादियों को इस संगठन का हिस्सा बना दिया गया । कांग्रेस समाजवादी दल ने वामपंथी लोगों के लिए एक मंच के रूप में कार्य किया। इसने 1939 तक अच्छी तरह से कार्य किया। दूसरे विश्व युद्ध की घोषणा के बाद यह मंच समाप्त हो गया। साम्यवादी दल से बाहर चले गये। साम्यवादी और समाजवादी एक दूसरे के कटु आलोचक हो गये।
समाजवादी एवं द्वितीय विश्वयुद्ध
राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य ने उनको द्वितीय विश्वयुद्ध और 1942 आन्दोलन पर सही लाइन लेने का अवसर प्रदान किया। इससे अधिक फासीवाद को एक संकीर्ण राजनीतिक विचार के रूप में निर्धारित करना ऐतिहासिक रूप से सत्य निकला। फासीवाद पर उनका अडिग दृष्टिकोण ने उन्हें भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान प्रदान किया । जिस दिन विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ समाजवादियों ने नरेन्द्र देव के नेतृत्व में एक सभा बुलाई जहाँ जे.पी. ने कहा, ‘‘यह एक साम्राज्यवादी युद्ध है, हम इसका विरोध करेंगे। हम लोग इस युद्ध का अपनी स्वतंत्रता को जीतने के लिए लेने जा रहे हैं।’’
गांधी एवं कांग्रेस नेतृत्व पर समाजवादी दबाव
समाजवादियों ने गांधी एवं कांग्रेस नेतृत्व पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध आन्दोलन प्रारम्भ करने के लिए दबाव डाला । समाजवादी प्रस्ताव की स्वीकृति के लिए गांधी जी को मनाने में सफल रहे और भारत छोड़ो आन्दोलन की घोषणा की। समाजवादी सदैव ही कार्यरत रहे। उन्होंने उपनिवेशवादी राज्यों के विरुद्ध एक जन आन्दोलन संगठित किया। जनवरी 1943 में जे.पी. ने एक खुले पत्र में स्वतंत्रता के सभी सेनानियों को आह्वान किया। भारत छोड़ो एवं सरकारी नारों के बीच कोई समझौता नहीं है। अब जनता ने अपने अनुभव से सीखा है कि ब्रिटिश राज द्वारा प्रयोग किये गये पुलिस, मजिस्ट्रेट और विधि न्यायालयों जेल हथियार एक पत्ते के घर की तरह हैं जिस पर एक भी हमला सामूहिक हमला माना जाता रहा। इस पाठ को भूलने की सम्भावना नहीं है और यह अगले अपमान का प्रारम्भिक बिन्दु होगा। जे.पी. के आह्वान ने युवा समाजवादियों के मध्य एक उत्साह की लहर दौड़ा दी और बहुत राष्ट्रवादी इस क्षेत्र में कूद पड़े। समाजवादियों द्वारा गोरिल्ला दल की स्थापना, राज्य सम्पत्ति पर आक्रमण करने तथा ब्रिटिश राज की मशीनरी को अपंग बनाने के लिए किया गया था।
विनाश के लिए तीन व्यवस्थाओं का चुनाव किया गया:
1) संचार लाइनों जैसे दूर संचार, दूर धामि पत्रों बेतार का तार, रेलवे, रोड, पुल और शत्रुओं के वाहनों का नाश।
2) औद्योगिक फैक्ट्रियों, झीलों एवं विमान पत्तनों का विनाश ।
3) आग लगाने का कार्य जिसमें सरकारी पत्र, भवन, पेट्रोल पम्प, हथियार युद्ध सामग्री सम्मिलित थी। सन् 1942 का आन्दोलन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध सबसे हिंसक आन्दोलन था । उग्रवादियों के आक्रमण से राज्य संरचना पूरी तरह से नष्ट हो चुकी थी।
बोध प्रश्न 4
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान में अपने उत्तर लिखें।
ख) अपने उत्तर का इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से जांच कर लें।
1) द्वितीय विश्वयुद्ध के समय भारतीय समाजवादियों की गतिविधियों का वर्णन करें।
स्वतंत्रता के बाद के काल में समाजवादी
समाजवादियों ने 1946 के चुनाव में भाग न लेकर बहुत बड़ी भूल की थी क्योंकि यह संवैधानिक सभा के निर्माण का आधार था। बाद में जे.पी. को इस विषय पर बहुत पश्चाताप हुआ । उन्होंने स्वीकार किया कि यह बहुत बड़ी भूल थी। स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस हाई कमान ने आदेश दिया कि उनके संगठन में दूसरे सैद्धांतिक समूहों का कोई स्थान नहीं है । इसलिए समाजवादियों ने 1950 में कांग्रेस को छोड़ने का निश्चय किया तथा साथ ही इसका विरोध किया। उन्होंने मजबूत विरोधी दल बनकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को दृढ़ बनाने का निश्चय किया। समाजवादी दल ने 1952 का आम चुनाव लड़ा लेकिन बुरी तरीके से हार गयी। सन् 1952 भारतीय समाजवादी राजनीति के इतिहास में ऐतिहासिक क्षण बन गया। जे.पी. एवं आचार्य नरेन्द्र देव दोनों चुनावी राजनीति से निराश हो चुके थे। नरेन्द्र देव अपनी मृत्यु तक प्रजा समाजवादी दल के नेता रहे जबकि जे.पी., विनोबा भावे के नेतृत्व में भूदान आन्दोलन में सम्मिलित हो गये । जे.पी. भदान आन्दोलन में विनोबा भावे के बहुत निकट रहे । जे.पी. ने भूदान आन्दोलन की सफलता के लिए अहम् भूमिका निभायी।
स्वतंत्रता के बाद जेरूपी.
आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी ने जे.पी. को भारतीय राजनीति की पुनर्स्थापना पर लेख लिखने में बहुत संहायता प्रदान की। उन्होंने दल पर आधारित वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को एक विकल्प दिया। उन्होंने दल विहीन प्रजातंत्र के सिद्धांत को रखा। उनकी योजना में ग्राम पंचायत की अहम् भूमिका थी जिससे निर्णय निर्धारण की प्रक्रिया में सत्ता की भागीदारी हो। राजनीतिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण लोक शक्ति प्राप्त करने में सत्ता को सहायता प्रदान करती है। सर्वोदय का, दलीय कार्यक्रम दलीय लगाव से ऊपर है। हम लोग न तो किसी दल के पक्ष में हैं न विपक्ष में । हम बिना दलों की राजनीति चाहते हैं सर्वोदय का आदर्श समाजवाद एवं साम्यवाद के निकट है यद्यपि हम आम जनता की शान्ति एवं स्वतंत्रता पर जोर देते हैं हम आर्थिक एवं राजनैतिक शक्तियों के विकेन्द्रीकरण पर जोर देते हैं ताकि, यह जनता के सामूहिक संगठनों में निवास कर सके।’’ जे.पी. हृदय परिवर्तन पर जोर देते थे जो सच्चे अर्थों में अहिंसक सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करेगा । सन् 1974 में बिहार एवं गुजरात के विद्यार्थी आन्दोलन ने उन्हें आन्दोलन की बागडोर संभालने का अवसर प्रदान किया।
जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा
उन्होंने “सम्पूर्ण क्रांति’’ के सिद्धांत को विकसित किया । अपनी जेल डायों में उन्होंने स्पष्ट किया कि सम्पूर्ण क्रांति सात क्रांतियों का मिश्रण है सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, सैद्धांतिक या वैचारिक, शैक्षिक एवं आध्यात्मिक । जे.पी. की सम्पूर्ण क्रांति सर्वोदय समाज एवं दल विहीन प्रजातंत्र सिद्धांत का एक विस्तार है। यहां पर उन्होंने सांस्कृतिक एवं नैतिक आयामों पर जोर दिया । विकेन्द्रीकृत राजनीति एवं अर्थव्यवस्था जनता को निर्णय निर्धारण प्रक्रिया में भागीदारी बनाएगी। स्वायत्त सरकार सर्वश्रेष्ठ सरकार है जहां जनता अपना शासन स्वयं संभालती है।
बोध प्रश्न 5
टिप्पणी: क) नीचे दिए गए रिक्त स्थान में अपने उत्तर लिखें।
ख) अपने उत्तर का इकाई के अंत में दिए गए उत्तर से जांच कर लें।
1) प्रश्न जे.पी. के सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा का विवरण दें।
सारांश
आचार्य नरेन्द्र देव एवं जे.पी. ने भारतीय समाजवादी चिंतन को पूर्ण रूप से योगदान दिया । यद्यपि जे.पी. ने अपने विचार को समाजवाद से सर्वोदय में परिवर्तित कर लिया तथा बाद में इसको सम्पूर्ण क्रांति में विस्तृत किया । लेकिन वह अपनी मृत्यु तक मार्क्सवादी रहे और मार्क्सवाद को काल्पनिक तरीके से भारतीय प्रसंग में लागू करने का प्रयास किया।.
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बारिक, आर. के. 1977, पॉलिटिक्स आफ द जे. पी. मूवमेंट, रोडियन्ट पब्लिशर्स, नई दिल्ली।
पैन्थम थामस एण्ड डायच के.एल., मॉडर्न इन्डियन पॉलिटिकल थाट, सेज पब्लिकेशन्स ।
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