अबुल कलाम आजाद कौन थे | abul kalam azad in hindi speech मौलाना अबुल कलाम आजाद पर निबंध

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अबुल कलाम आजाद
आजाद पूर्व एवं पश्चिम के समन्वय का प्रतिनिधित्व करते थे। वे धर्म को तर्क के साथ मिलाते थे। अलीगढ़ आन्दोलन से उनके मूलभूत विरोध थे। उनका यह विश्वास नहीं था कि हिन्दू बहुमत अपना वर्चस्व स्थापित कर लेगा जिससे मुसलमानों एवं दूसरे अल्पसंख्यकों का व्यक्तित्व नष्ट हो जायेगा। 1905 से पूर्व वे ब्रिटिश राज के विरोधी नहीं थे। उनके पहले के राजनैतिक विचारों का स्वरूप उनकी इस्लाम की अवधारणा से सुनिश्चित हुआ था। वे इस्लाम को सभी कार्यों के लिये पथ प्रदर्शक मानते थे। जिनसे सभी समस्याओं का समाधान संभव था। आजाद के अनुसार, इस्लाम धर्म में धर्म एवं राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

अबुल कलाम आजाद के विचारों का स्वच्छन्दतावादी काल (रोमांटिक फेज़)
आजाद का विचार था कि कुरान को समझने से जीवन के राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है। वे अपने राजनैतिक विचारों को ‘‘अल हिलाल‘‘ में प्रकाशित करते थे जो उनके विचारों के ‘‘स्वच्छन्द (रोमांटिक) या स्वच्छन्दतावादी अविध को प्रकट करते थे। वे परमात्मा की प्रभुसत्ता पर पूर्ण विश्वास करते थे तथा देवी साम्राज्य के संस्थापन में विश्वास रखते थे। साथ ही शान्ति एवं भले । प्रशासन एवं सत्य की सर्वोच्चता में विश्वास करते थे। उनकी दृष्टि में परमात्मा में विश्वास करने वाले ’’परमात्मा के मित्र’’ थे एवं अनीश्वरवादी ‘‘शैतान के दोस्त‘‘ थे। परमात्मा के मित्र सत्य के लिए मरने को तैयार रहते थे। वे इस तथा दूसरे जीवन में किसी भी चीज से भयभीत नहीं होते थे। ‘‘शैतान के दोस्त‘‘ शक्ति का सहारा लेते हैं तथा सत्य से प्रेम नहीं करते।

उनका विचार था भारत में प्रजातंत्र के आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। इसे प्राप्त करने के लिये यह जरूरी है कि ‘‘परमात्मा के मित्र‘‘ अपने आपको एक परमात्मा की पार्टी के रूप में संगठित करें। उनका विश्वास था कि इस्लाम पूर्ण एकता, स्वतंत्रता, सहनशीलता, भावनाओं की तथा विचारों के प्रकटीकरण की स्वतंत्रता, मातृत्व एवं बन्धुता सुनिश्चित करता है। सन् 1914 में उन्होंने उलेमाओं के संगठन का उपयोग किया ताकि वे इस्लाम के पक्ष को आगे बढ़ायें। उन्होंने राजनीति के एक क्रमबद्ध इस्लामिक सिद्धान्त का विकास स्वच्छन्दतावादी के आधार पर किया। संभवतः वे अकेले मुस्लिम बुद्धिवादी थे जिन्होंने यह काम किया। प्रथम विश्वयुद्ध के अन्त तक आजाद ने इस उद्देश्य को पाला-पोसा एवं इसका अनुसरण किया। प्रथम विश्व युद्ध के बाद उन्होंने यह अनुभव किया कि राजन ते में स्वच्छंदतावादी दृष्टिकोण से वांछनीय फल की प्राप्ति नहीं होती है। आगे चलकर वो सामन्तशाही के कट्टर विरोधी हो गये। उन्होंने देशवासियों में एकता की वकालत की। उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद मुस्लिम धर्म की भावना के अनुकूल है। उन्होंने सर्व-इस्लामावाद को गलत नाम वाला बताया। उन्होंने चाहा कि मुसलमान कांग्रेस में सम्मिलित हों। उन्होंने कहा कि अगर मुसलमान कांग्रेस में सम्मिलित होंगे तो यह इस्लाम विरोधी कदम नहीं होगा। उनके विचारों के स्वच्छंदतावादी काल के अन्त में आजाद की यह भावना दृढ़ हुई। जलियांवाला बाग दुखान्तिका तथा खिलाफ आन्दोलन के अन्त में स्वच्छंदतावादी में उनके विश्वास को डिगा दिया।

राष्ट्रवाद
आजाद के अनुसार भारतीय राष्ट्रवाद न तो हिन्दू तथा न मुस्लिम था। यह धर्म-निरपेक्ष था तथा हिन्दू एवं मुस्लिम संस्कृतियों का समन्वय था। वे इस्लाम की वकालत उसके उदार एवं मुस्लिम स्वरूप के कारण करते थे। वे अब पश्चिमी सभ्यता के विरोधी नहीं थे। उनकी मान्यता थी कि धर्म और तर्क एक-दूसरे के विरोधी नहीं हैं। आजाद के राष्ट्रवाद के दो स्वरूप हैं। पहला उनका ब्रिटेन के प्रति दृष्टिकोण, दूसरा अपने देशवासियों के प्रति उनका दृष्टिकोण। 1905 तक आजाद ब्रिटेन विरोधी नही थे। उन पर सर सैयद अहमद खान का प्रभाव पड़ा। यद्यपि वे अलीगढ़ आन्दोलन के दर्शन में विश्वास नहीं करते थे। आगे चलकर वे ब्रिटेन के बारे में पूर्व धारणा छोड़ चले और साम्राज्यवाद विरोधी बन गये। खिलाफत आंदोलन के अन्त तक यद्यपि आजाद ने हिन्दु-मुस्लिम एकता को बढ़ावा दिया तो भी इस्लामाबाद के वे प्रभाव में रहे। वे अब भी मुसलमानों के लिये एक अलग दल चाहते थे।

जलियांवाला कांड एवं खिलाफत आंदोलन के बाद उनके गांधीजी के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि हिन्दू और मुसलमान एक राष्ट्रीयता के तत्व हैं। उन्होंने अनुभव किया कि राष्ट्रवाद एक बड़ी ताकत हो सकता है अगर उसे धार्मिक कट्टरता से मुक्त रखा जाये तथा इसी प्रकार संकीर्ण मनोत्ति से ऊपर रखा जाये। गांधी जी ने कहा कि आजाद का राष्ट्रवाद में विश्वास ‘‘उतना ही दृढ़ है जितना इस्लाम धर्म में उनका विश्वास’’। आजाद हिन्दू एवं मुसलमानों के मध्य एकता में विश्वास करते थे तथा उनके विचार से इससे भारत में राष्ट्रवाद आ सकता था। धार्मिक आधारों पर वे भारत के विभाजन के विरोधी थे।

उदारवादियों के विपरीत उनका विश्वास था कि अगर राजनैतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये संवैधानिक साधन सफल नहीं हों तो हिंसा का सहारा लिया जा सकता है। अहिंसा उनके लिये एक नीतिगण मामला था कोई धर्म नहीं था।

प्रजातंत्र
अलहिलाल के स्वच्छंदतावादी काल (रोमांटिक फेज) में वे प्रजातंत्र का पक्ष करते थे। स्वच्छन्दतावाद को छोड़ने के बाद भी वे प्रजातंत्र के कट्टर पक्षधर रहे। अपने विचारों के स्वच्छंदतावादी एवं बाद के काल में उन्होंने दो विभिन्न प्रकार के विचारों को सामने रखा ।

पहले काल में वे प्रजातंत्र को जीवन का प्रकार नहीं मानते थे। वे इस्लाम को सच्चे एवं पूर्ण धर्म के रूप में मानकर चलते थे। वे मोहम्मद साहब को श्मानव के कल्याणकारी मूल्यों का व्यक्तिकरण मानते थे। उनका विचार था कि एकता और परमात्मा की प्रभुसत्ता तथा धार्मिक क्रम की वर्चस्वता वस्तुतः प्रजातंत्र के वास्तविक तत्व हैं।

परमात्मा की एकता का अर्थ इस्लाम की प्रभुसत्ता थी। जिसका उद्देश्य मानव की प्रभुसत्ता खत्म करना था। उनके लिए प्रजातंत्र लोगों की इच्छा पर निर्भर था जिसे सहनशीलता एकता और स्वतंत्रता का सहारा हो। हर सवाल में व्यक्ति के विकास के लिये स्वतंत्रता पहली आवश्यकता थी। उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता के अभाव का परिणाम दासता थी जो इस्लामिक सिद्धान्तों के विपरीत है। पर उनका कहना था कि युद्ध काल में स्वतंत्रता में कमी की जा सकती है। उनकी मान्यता थी कि अमर्यादित स्वतंत्रता बदतर नाम है। स्वतंत्रता इस्लाम धर्म में विश्वास और काम चाहती है। यही कारण था कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को सहयोग दिया।

आजाद का कहना था कि इस्लाम एकता के मूल्य को स्वीकार करता है। उन्होंने कहा ‘‘इस्लाम जातिगत और राष्ट्रीय भेदों को दूर करता है तथा दुनिया को बताता है कि सभी मानव एक समान पद रखते हैं और समान अधिकार रखते हैं। इसकी घोषणा है कि उच्चता जाति में निहित नहीं है न वे राष्ट्रीयता और रंग में हैं। सही कार्यों का ही मूल्य होता है तथा वह मानव सबसे उदार और महान होता है जो अपना कार्य सही ढंग से करता है’’। इस प्रकार इस्लामी एकता की धारणा यांत्रिक नहीं है पर आध्यात्मिक अवधारणा है।

मोहम्मद की प्रभुसत्ता एवं खलीफ विधान एकता के पूर्ण स्वरूप हैं एवं सिर्फ यही सारे राष्ट्र की स्वतंत्र इच्छा, एकता, मताधिकार तथा चुनाव का स्वरूप ग्रहण कर सकते हैं। यही कारण है कि किसी भी राष्ट्र के सम्राट एवं प्रजातंत्र के अध्यक्ष का खलीफ कहा जाता है। खलीफ का शाब्दिक अर्थ, प्रतिनिधित्व न कम न थोड़ा है। यह स्त्रियों को पूर्ण अधिकार देता है तथा उन्हें पदों के समकक्ष रखता है। इस्लाम पश्चिम से श्रेष्ठ है। पश्चिम की एकता की पद्धति वास्तविक नहीं है। जीवन का इस्लामिक तरीका समानता, आर्थिक एवं राजनैतिक से भरा हुआ है।

अबुल कलाम आजाद के विचारों का उत्तर स्वच्छन्दतावादी काल (पोस्ट रोमांटिक फेज) उत्तर स्वच्छंदतावादी काल में उनके विचार इस्लाम तक सीमित नहीं थे। वे पश्चिम के प्रभाव में फैले। वे लोगों की प्रभुसत्ता में विश्वास करते थे। वे कहते थे कि देश लोगों का है। सभी लोगों के समान अधिकार हैं। खलीफा या राज्य का प्रधान जनता द्वारा चना जाना चाहिये। राज्य के प्रधान को जनता के संबंध में विशेष अधिकारों की मांग नहीं करनी चाहिये। राज्य के प्रधान को अन्तर्दृष्टि रखने वाले लोगों से विचार करना चाहिये जहां तक प्रशासनिक एवं कानूनी मुद्दों का सवाल है। देश के कोष को लोगों की अधिकार वस्तु एवं उनके धन के रूप में देखा जाना चाहिये। उन्होंने भारत में संसदीय प्रणाली की सरकार के संस्थापन का प्रयत्न किया। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय सरकार ‘‘मंत्रिमंडलीय सरकार‘‘ होनी चाहिये। पर उन्होंने विशुद्ध बौद्धिक धरातल पर कभी भी संसदीय एवं राष्ट्रपति प्रणालियों के गुण-दोष पर विचार-विमर्श नहीं किया। वे संघवाद में विश्वास करते थे। वे राज्यों के लिये अधिक स्वायत्तता के पक्षधर थे।