सर सैयद अहमद खान कौन थे | sir Syed Ahmad Khan in hindi के राजनीतिक विचार , जीवनी अलीगढ़ आंदोलन

(sir Syed Ahmad Khan in hindi) सर सैयद अहमद खान कौन थे के राजनीतिक विचार , जीवनी अलीगढ़ आंदोलन क्या है , अलीगढ़ आंदोलन के संस्थापक कौन थे यह कब शुरू हुआ था और इसके प्रभाव या परिणाम |

सर सैयद अहमद खान

इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
सर सैयद अहमद खान
अलीगढ़ आंदोलन
राजनीतिक चिंतन
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर
उद्देश्य

प्रस्तुत इकाई में सर सैयद अहमद खान, मोहम्मद इकबाल, एम.ए. जिन्ना तथा अबल कलाम आजाद के राजनीतिक चिन्तन के सम्बन्ध में जानकारी दी जा रही है। अर्थात् इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप अग्रांकित बिन्दुओं पर उनके दृष्टिकोण को जानने में सक्षम होंगेः
ऽ इस्लाम एवं हिंदुत्व (हिन्दूवाद) में सम्बन्ध ।
ऽ हिन्दुओं एवं मुसलमानों में सम्बन्ध ।
ऽ इस्लाम तथा राजनीति में सम्बन्ध तथा इस्लाम और प्रजातंत्र के सिद्धांतों में सम्बन्ध ।
ऽ राष्ट्रवाद।

प्रस्तावना

ब्रितानवी (ब्रिटिश) औपनिवेशिक शासन आधुनिक शिक्षा के प्रसार के साथ भारतीय समाज में अनेक परिवर्तन लाया, जिनसे सभी धर्मों के भारतवासियों में राष्ट्रवाद की चेतना उत्पन्न की। राष्ट्रीयता की भावनाओं को राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक जुलुसों एवं गतिविधियों के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली। हिन्दू तथा मुस्लिम समुदायों के प्रबद्ध व्यक्तियों ने समाज में, और विशेष रूप से अपने-अपने समुदायों में चेतना पैदा की। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध एवं बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में भारत में कई सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक आन्दोलन और संगठन सामने आये। हिन्दू तथा मुस्लिम नेताओं ने इन आंदोलनों का अपने-अपने समुदायों में नेतृत्व किया। सर सैयद अहमद खान, मोहम्मद इकबाल, मोहम्मद अली जिन्ना तथा अबुल कलाम आजाद उन लोगों में से थे, जिन्होंने कि भारतीय समाज को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया। इन नेताओं ने धर्म और राजनीति के बीच संबंध, प्रजातंत्र तथा व्यक्तियों के अधिकारों, प्रभुसत्ता तथा राष्ट्रवाद के सम्बन्ध में अपने राजनीतिक चिंतन का विकास किया। इस्लाम उनके दृष्टिकोण का केंद्र रहा। किंत उन्होंने ऐसा कुछ उत्पन्न नहीं किया जिसको कि राजनीतिक चिंतन को मूलभत योगदान कहा जा सके।

सर सैयद अहमद खान
अलीगढ़ आंदोलन
सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ आंदोलन की स्थापना की। इस आंदोलन का उद्देश्य आधुनिक शिक्षा का प्रसार तथा भारतीय मुसलमानों में राजनीतिक चेतना पैदा करना था। मुसलमानों में प्रथम राष्ट्रीय उद्बोधन (जाग्रति) को इस आंदोलन के माध्यम से अभिव्यक्ति मिली। अर्थात् प्रथम बार इस आंदोलन के माध्यम से मुसलमानों ने राष्ट्रीयता संबंधी विचार व्यक्त किये। सर सैयद अहमद खान को इस आंदोलन में ख्वाजा अलताफ हुसैन अली, मौलवी नाजिर अहमद तथा मौलवी शिबली नमामि जैसे सुयोग्य व्यक्तियों का सहयोग मिला। यह आंदोलन अलीगढ़ आंदोलन कहलाता है क्योंकि यह अलीगढ़ से प्रारंभ हुआ था। सन् 1875 में सर सैयद अहमद खान ने अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ऑरियण्टल (एम.ए.ओ.) कॉलेज की स्थापना की। यह महाविद्यालय (कॉलेज) सन् 1890 में अलीगढ़ विश्वविद्यालय के रूप में विकसित किया गया। अलीगढ़ आंदोलन का उददेश्य मुसलमानों में पाश्चात्य शिक्षा का प्रसार करना था। इस संदर्भ में यह ध्यान रखा गया कि इस शिक्षा के कारण उनकी इस्लाम धर्म के प्रति निष्ठा में कोई कमी न आने पाये। इस आंदोलन का उद्देश्य भारतीय मुसलमानों में सामाजिक सुधार प्रारंभ करना भी था। सर सैयद अहमद खान ने बहु विवाह प्रथा तथा विधवा विवाह पर लगाये गये सामाजिक प्रतिबन्ध की निन्दा की। इस्लाम धर्म विधवा विवाह की अनुमति देता है। अलीगढ़ आंदोलन कुरान की उदारवादी व्याख्या पर आधारित था। इसने इस्लाम धर्म को आधनिक उदारवादी संस्कृति के साथ समस्वर (संगत) करने का प्रयास किया। अर्थात् इस आंदोलन ने यह प्रयास किया कि इस्लाम तथा आधुनिक उदारवादी संस्कृति में सादात्म्य रहे और उनमें कोई विरोधाभास उत्पन्न न हो।

 राजनीतिक चिन्तन
सर सैयद अहमद खान के राजनीतिक चिन्तन को दो खण्डों (फेजेज) में विभाजित किया जा सकता है-प्रथम खंड-जिसका विस्तार सन् 1887 तक रहा, तथा द्वितीय खण्ड सन् 1887 के पश्चात् प्रारम्भ हुआ। प्रथम खण्ड की अवधि के दौरान सर सैयद अहमद खान ने । हिन्दू-मुस्लिम एकता का पक्ष लिया। हिन्दू-मुस्लिम एकता की आवश्यकता के सम्बन्ध में विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि चूंकि ‘‘सदियों से हम एक ही जमीन पर रह रहे हैं, एक ही जमीन से एक समान फल खा रहे हैं, एक ही देश की वायु में साँस ले रहे हैं।’’ सन् 1873 में उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद के मार्ग में धर्म को बाधक नहीं होना चाहिए। उन्होंने धार्मिक तथा राजनीतिक मामलों के पार्थक्य का समर्थन किया। अर्थात् उनका तर्क था कि इन दोनों तरह के मामलों को अलग-अलग रखा जाये। धर्म को राजनीति से न जोड़ा जाये। उनके अनुसार, धार्मिक तथा आध्यात्मिक मामलों का सांसारिक मामलों से कोई सम्बन्ध नहीं है। वाइसराय की विधायिका परिषद् के सदस्य के रूप में उन्होंने हिंदुओं तथा मुसलमानों दोनों के कल्याण हेतु प्रयास किये। सन् 1884 में उन्होंने स्पष्ट किया कि ‘‘मैं कुरान शब्द का अर्थ लगाता हूँ-हिन्दू तथा मुसलमान दोनों। हम देखते हैं कि हम सब चाहे हिन्दू हों अथवा मुसलमान-एक ही धरती पर रहते हैं, एक ही शासक द्वारा शासित हों, लाभ स्रोत भी एक समान हैं और समान रूप से ही अकाल की विभिषीका को झेलते हैं।’’ वे धर्मान्ध नहीं थे तथा न ही हिन्दुओं को संताप पहुँचाने वाले थे। उन्होंने ‘‘वैज्ञानिक समिति’’ (सांइटिफिक सोसाइटी) तथा ‘‘अलीगढ़ ब्रिटिश इंडिया एसोसिएशन’’ के तत्वाधान में हिन्दुओं के निकट सम्पर्क में काम किया। उन्होंने एम.ए. ओ. कॉलेज के लिए हिन्दु राजाओं तथा जमींदारों से अनुदान लिया। इस कॉलेज के प्रबन्ध तथा शिक्षक समुदाय में हिन्दुओं का अच्छा प्रतिनिधित्व था। प्रारंभिक वर्षों में इस कॉलेज में मुसलमान छात्रों से हिन्दू छात्रों की संख्या अधिक थी। इस कॉलेज में गौ हत्या पर प्रतिबंध था। उन्होंने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के साथ मिलकर सिविल सेवाओं के लिए आय पनः 18 वर्ष के. स्थान पर 21 वर्ष किये जाने के लिए मांग रखी। उन्होंने अपने उद्देश्यों के लिए अलीगढ़ में ‘‘ब्रिटिश एसोसियेशन’’ को पुनः प्रारंभ किया।

किंतु सर सैयद अहमद खान ने दूसरे चरण के दौरान आश्चर्यजनक रूप से अपने विचारों में परिवर्तन कर लिया (दिसम्बर, 1887 में)। तब तक उनकी ऐसी पृष्ठभूमि रही जो कि लगभग कांग्रेस के समान थी। लेकिन इस दूसरे चरण के दौरान उनकी रचनाओं में साम्राज्यवादी चिन्तन को अभिव्यक्ति मिली। ये रचनायें बितानवी शासन के ‘‘उद्धारक’’, ‘‘प्रजातांत्रिक’’ तथा ‘‘प्रगतिशील’’ लक्षणों पर आधारित थी। अर्थात् अब वे ब्रितानवी शासन को उद्धारक, प्रजातांत्रिक तथा प्रगतिशील बताकर उसकी प्रशंसा करने लगे। पहले की भांति ही उन्होंने प्रतिनिधित्व के सिद्धान्तों को प्रारंभ करने तथा संसदीय सरकार का विरोध किया। उनका विचार था कि पाश्चात्य ढंग का प्रजातंत्र तथा राष्ट्रवाद भारत में नहीं चल सकते। उन्होंने कहा कि भारत जैसे देश में जो कि एक समिश्रण था और जो जातियों, धर्मों तथा वर्गों की विषमताओं से भरा पड़ा था वहां प्रतिनिधिक सरकार (रिप्रजेन्टेटिव फॉर्म ऑफ गवर्नमेण्ट) समानता के सिद्धान्त को पूरा नहीं कर सकती। उनके विचार में इस प्रकार की व्यवस्था अधिक शिक्षित तथा अधिसंख्य हिन्दुओं द्वारा कम शिक्षित तथा अल्पसंख्यक मुसलमानों पर आधिपत्य स्थापित करने की दिशा में मार्ग प्रशस्त करेंगी। उन्होंने विचार व्यक्त किया कि कांग्रेस द्वारा जिस प्रतिनिधि सरकार की माँग की जा रही है उससे मुसलमानों को बहुत ज्यादा हानि होगी।

उन्होंने कहा कि जब तक भारत में धार्मिक, जातिगत तथा वर्गगत भिन्नतायें विद्यमान रहेंगी तब तक पाश्चात्य ढंग का प्रजातंत्र स्थापित नहीं हो सकता। उन्हें यह महसूस हुआ कि यदि भारत में पाश्चात्य ढंग का प्रजातंत्र (वेस्टर्न मॉडल ऑफ डेमोक्रेसी) अंगीकार किया गया तो ‘‘अधिसंख्यक समुदाय यहां के अल्पसंख्यक समुदाय को पूर्णरूपेण कुचल डालेगा।’’ इस तर्क से द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त में विश्वास करने वाले समुदायों को प्रोत्साहन मिला। इस सिद्धान्त के अनुसार हिन्दू तथा मुसलमान पृथक-पृथक दो राष्ट्र हैं। इनके आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक हितों में भिन्नता है। और इनकी सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी भिन्न रही है। अतः ये दोनों (हिन्दू-मुसलमान) अकेला एक ही राष्ट्र नहीं बना सकते। सर सैयद अहमद खान चुनावों के विरुद्ध थे। सन् 1888 में उन्होंने कहा कि चुनावों की व्यवस्था विधि निर्माण का कार्य ‘‘बंगालियों’’ अथवा ‘‘बंगालियों जैसे’’ (बंगाली टाइप) हिन्दुओं के हाथों में सौंप देगी, और यह ‘‘स्थिति अत्यन्त अधोगतिपूर्ण होगी।’’ इसी प्रकार के आधारों पर उन्होंने भारत में स्वशासन की उपयुक्तता को अस्वीकार कर दिया था। उनकी मान्यता थी कि इस व्यवस्था के परिणामस्वरूप मुसलमानों पर ‘‘अत्याचार’’ होगा। उन्होंने तो भाषण और प्रेस की स्वतंत्रता तक का विरोध किया। प्रेस की स्वतंत्रता पर लिट्टस के हमले का उन्होंने खुलकर समर्थन किया।

सर सैयद अहमद खान राजनीतिक आंदोलनों के भी विरुद्ध थे। उनका तर्क था कि ये आंदोलन देशद्रोह के समान है और सरकार के विरुद्ध है। इनसे अधिकारियों के मन में आंदोलनकारियों के प्रति संदेह उत्पन्न होगा तथा वे उन्हें देशद्रोही अथवा अनिष्ठावान समझेंगे। उन्होंने मुसलमानों को उपदेश दिया कि राजनीति से दूर रहे। अराजनीतिक तथा आंदोलना रहित बने रहें। अर्थात् राजनीतिक तथा आन्दोलनात्मक मामलों में निष्क्रिय रहें। और उन्होंने मुसलमानों से यह भी कहा कि बंगालियों के प्रभुत्व वाली कांग्रेस के ‘‘एक पूर्ण विच्छेद‘‘ बनाये रखें। उन्होंने कांग्रेस के विरुद्ध मुसलमानों की भावनाओं को भड़काने के लिए ‘‘एंग्लो-मुस्लिम एलाइन्स‘‘ (अंग्रेजों और मुसलमानों की मैत्री) स्थापित करने हेतु प्रयास किये।

सर सैयद अहमद खान पर ब्रितानवी (ब्रिटिश) अधिकारियों का प्रभाव था, इसके फलस्वरूप उनके विचारों में परिवर्तन हो गया था। उन्हें अपने द्वारा स्थापित कॉलेज के लिए सरकार की सहायता की आवश्यकता रहती थी। ब्रितानवी अधिकारियों ने सर सैयद अहमद खान के दुःसाहस का लाभ उठाया। इन अधिकारियों ने उनके विचारों को इस सीमा तक प्रभावित किया कि उन्होंने जो विचार अपने मन में संजोकर रखे थे, वे उन विचारों से पूर्णतः भिन्न विचारों में व्यक्ति बन गये। उन्हें एम.ए. ओ. कॉलेज के प्रिंसिपल थिओडोर बेक ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया । बेक ने संतुलन बनाने के उद्देश्य से सर । सैयद अहमद खान को कांग्रेस के विरुद्ध करते हुए उसने कांग्रेस के ‘अनिष्टकर‘ प्रभाव का विरोध करना प्रारंभ किया। उसने ’‘अनुदार चिन्तन के सशक्त मत’’ (स्ट्रॉग कंजरवेटिव स्कल ऑफ थॉट) तथा बंगालियों के प्रभुत्व वाली कांग्रेस और मुसलमानों के बीच ‘‘एक पूर्ण विच्छेद’’ के सृर्जन हेतु कठोर परिश्रम किया।

सर सैयद अहमद खान बेक के प्रभाव से द्रवित हो गये और वे कांग्रेस के विरुद्ध हो गये। हिन्द पुनर्जागरणवाद के विकास तथा उसके कांग्रेस के साथ संबंधों के परिणामस्वरूप सर सैयद अहमद खान की कांग्रेस विरोधी भावनाएँ और भी घनीभूत हो गई।

सर सैयद अहमद खान का उत्तरी भारत के मुसलमानों पर सीमित प्रभाव था। उन्होंने मसलमानों के विभिन्न वर्गों में सामाजिक तथा शैक्षणिक सुधार उत्प्रेरित किये। उनका प्रभाव सर्वव्यापी नहीं था। उनके द्वारा दीर्घकाल तक कांग्रेस के विरुद्ध अभियान चलाते रहने के फलस्वरूप उनका स्वयं का आंदोलन (अलीगढ़ आंदोलन) अवरुद्ध हो गया तथा यह आंदोलन अलीगढ़ और उसके आसपास के जिलों तक ही सीमित रहा। मुसलमानों का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रभाव से वंचित रहा।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणीः 1) प्रत्येक प्रश्न के नीचे छोड़े गये स्थान का अपने उत्तर के लिए प्रयोग कीजिये।
2) अपने उत्तर को इस इकाई के अंत में दिये गये उत्तर के आधार पर जाँचें।
1) द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के क्या सिद्धान्त हैं ?
2) प्रजातंत्र प्रयुक्तता (व्यावहारिकता) के संबंध में सर सैयद अहमद खान के दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिये।

 सारांश
सर सैयद अहमद खान, मोहम्मद इकबाल, मोहम्मद अली जिन्ना तथा मौलाना अबल कलाम आजाद का राजनीतिक चिन्तन प्रमुख रूप से अग्रांकित बिन्दुओं पर प्रकाश डालता है-(1) इस्लाम तथा पाश्चात्य राजनीतिक अवधारणाओं यथा-प्रजातंत्र, राष्ट्रवाद तथा । राष्ट्रीयता से संबंधित मुद्दों में संबंध, (2) इस्लाम तथा हिन्दुत्व में संबंध, (3) हिन्दुओं तथा मुसलमानों में संबंध, तथा (4) ब्रितानिया (ब्रिटिश) के प्रति रूख । सर सैयद अहमद खान प्रारंभ में हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर रहे। किंतु बाद में उन्होंने अपना दृष्टिकोण बदल दिया तथा वे द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के प्रबल समर्थक हो गये। यहां तक कि भारत में प्रजातंत्र के सिद्धान्तों को प्रारम्भ करने के भी विरुद्ध हो गये। ‘‘अहं’’ या आत्मानुशासन तथा आत्म सिद्धान्त इकबाल के राजनीतिक चिन्तन के आधारभूत सिद्धान्त हैं। वे प्रजातंत्र की पाश्चात्य अवधारणा के कटु आलोचक थे। उनके अनुसार, राष्ट्रवाद एक ऐसी राजनीतिक अवधारणा है जिसका साधारणतया धर्म से टकराव हो जाता है। हालांकि उन्होंने राष्ट्रवाद का समर्थन किया बशर्ते, कि उसका उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति हो। धर्म सबसे अधिक एकता स्थापित करने वाला तत्व है। उन्होंने कहा कि हिन्दू तथा मुसलमान पृथक-पृथक दो राष्ट्र हैं। जबकि द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के संबंध में उनका दृष्टिकोण अस्पष्ट है। तथा उन्होंने मुसलमानों के लिए ‘‘राज्य के अन्दर राज्य’’ (अर्थात् देश के अन्दर प्रान्त) की मांग की थी। उनका यह दृष्टिकोण मुस्लिम लीग के लिए प्रेरणादायक स्रोत बन गया था। उन्होंने मत व्यक्त किया कि इस्लाम के अंतर्गत प्रजातंत्र के सभी महत्वपूर्ण आयाम अन्तर्निहित हैं तथा उसे उन्होंने इस्लामिक प्रजातंत्र की संज्ञा दी।

जिन्ना अपने जीवन के प्रारंभिक काल में उदारवादी थे। उनके धर्म तथा राजनीति से संबंधित विचारों पर उदारवाद की झलक थी। इस काल में उनकी मान्यता थी कि भारत केवल एक राष्ट्र है। लेकिन नेहरू तथा साइमन आयोग के प्रतिवेदनों के पश्चात वे द्वि-राष्ट्र सिद्धान्त के घनघोर समर्थक हो गये। उनके पश्चातवर्ती दृष्टिकोण ने उनके पूर्ववर्ती प्रजातंत्र के उदारवादी अवगम (बोध) को भी विकृत कर दिया।

अन्य तीन नेताओं के विपरीतः आजाद की मान्यता थी कि भारतीय राष्ट्रवाद धर्मनिरपेक्ष था तथा हिन्दू एवं मुस्लिम सभ्यताओं का संश्लेषण था। वे पूर्व तथा पश्चिम के संश्लेषण के पक्षधर थे। उन्होंने पाश्चात्य प्रजातंत्र की अवधारणाओं का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि प्रजातंत्र की यह अवधारणा इस्लाम के सिद्धान्तों के प्रतिकूल नहीं हैं।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणीः 1) नीचे दिये गये स्थान का अपने उत्तर के लिए प्रयोग कीजिये।
2) अपने उत्तर को इस इकाई के अंत में दिये गये उत्तर के आधार पर जाँचें।
1) राष्ट्रवाद के संबंध में आजाद के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।
2) प्रजातंत्र के संबंध में आजाद के दृष्टिकोण का विवेचन कीजिये।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें
वी.एन. दत्ता मौलाना आजाद, (न्यू देहली), मनोहर, 1970।
गांधी, राजमोहन, ऐट लाइवः ए स्टी ऑफ हिन्दू-मुस्लिम एनकाउन्टर, न्यू देहली,
रॉली बुक्स इन्टरनेशनल, 1985 ।
हसन, मुशीरूल (एडी.) कम्यूनिजम एक पैन इस्लामिक ट्रेण्डस इन कॉलानियल इण्डिया,
न्यू देहली, मनोहर, 1985।
जलाल, आयेशा, सोल स्पोरसमैन जिन्ना, व मुस्लिम लीग एण्ड परिमाण्ड फॉर
पाकिस्तान, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, 1985।
स्कीमैल, एन्नेमेरी, ग्रेवीयल सर्विगः ए स्टडी इनटू द रिलीजियस आईडियाज ऑफ सर
सैयद मोहम्मद इकबाल, लीडेन, ई.जे. ब्रिल, 1964 ।
वोलपर्ट, स्टेनले, जिन्ना ऑफ पाकिस्तान, न्यू मॉर्क, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1984।
मोइन शाकिर, फ्रॉम खिलाफत टू पार्टिशन।