स्वामी दयानन्द सरस्वती कौन थे ? dayananda saraswati in hindi दयानन्द सरस्वती पुस्तकें , के राजनीतिक विचार

(dayananda saraswati in hindi) स्वामी दयानन्द सरस्वती कौन थे ?  दयानन्द सरस्वती पुस्तकें , के राजनीतिक विचार क्या थे , उनके पिता का नाम क्या था ? सम्पूर्ण जानकारी हिंदी में |

स्वामी दयानन्द सरस्वती

इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
स्वामी दयानंद सरस्वती
जीवन-रेखा
दयानंद के राजनीतिक विचार
महिला समाज, शिक्षा और जनवाद
स्वामी विवेकानंद
स्वतंत्रता का दर्शन एवं अवधारणा
राष्ट्रवाद और राजनीति की अवधारणा

उद्देश्य
इस इकाई में राजनीति तथा धर्म एवं नीतिशास्त्र के अंतःसाध्य का विवेचन किया गया है, तीन अग्रणी हिंदू व्यक्तित्वों के विचारों को सामने रखते हुए, जिन्होंने राष्ट्रवाद एवं राजनीति की एक विशिष्ट हिन्दू अवधारणा के विकास में योगदान किया है। यह इकाई इसी अंतःसाध्य को सामने लाती है। इस इकाई के अध्ययन से आपः
ऽ मध्य उन्नीसवीं सदी काल से हिंदू चिंताधारा के विकास को स्पष्ट कर सकेंगे।
ऽ हिंदू राष्ट्रवादी विचारों के निरूपण के माध्यम से हिंदू समाज के पुनर्नवन प्रयासों की व्याख्या कर पायेंगे।
ऽ उपरोक्त प्रयासों की विविध अंतःधाराओं का बोध कर सकेंगे।

प्रस्तावना
इस इकाई के अंतर्गत आप जिन तीन महत्वपूर्ण व्यक्तियों के राजनीतिक विचारों का अध्ययन करेंगे, वे धार्मिक शब्दावली में तीन भिन्न दृष्टिकोणों और विचार सारणियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दयानंद सरस्वती वेदों की परम सत्ता में उत्कृष्ट आस्था रखने वाले व्यक्ति थे। वैदिक हिंदु धर्म के पुनरुत्थान संबंधी उनके उद्गारों में बहुदेववाद और उससे जुड़े अनेक अर्थहीन कर्मकांडों के प्रति सहिष्णुता का अभाव मिलता है। दूसरी ओर, हिन्दू समाज को सुधारने और परिचय के निकृष्ट भौतिकवादी प्रभावों से इसको बचाने की कैसी ही उद्दाम आकांक्षा के बावजूद, विवेकानंद ने अपनी प्रेरणाएं मुख्यतः वेदात दर्शन से प्राप्त की थीं। इसलिए वे बहुदेववाद और मूर्ति पूजा के विरुद्ध नहीं गए। इनसे भिन्न सावरकर अधिकाधिक खुले रूप में राजनीतिक चरित्र थे। वे हिंदू समाज के अंतर्गत एक निरीश्वरवादी थे। हिंदुत्व पर उनका जोर मुख्यतः राष्ट्रवादी चेतना को उद्देश्य एवं दिशा देने के लिए था। इसीलिए उनका राष्ट्रवाद भी अधिकाधिक उग्र आक्रामक था।

फिर भी उपरोक्त प्रत्यक्ष भिन्नताओं के बावजूद इन धाराओं में एक अंतर्निहित एकता मिलती है-धार्मिकता के आधार पर राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास। धर्म और राजनीति का यह अंतःसाध्य ही भारतीय राष्ट्रवादियों के समूचा समुदाय संजोये हुए था-श्री अरबिंदो अनेक ‘आतंकवादी‘ अर्थात् राष्ट्रवादी समूहों से लेकर बाल गंगाधर तिलक जैसे कांग्रेस नेताओं तक। दरअसल, यह अंतःसाध्य महात्मा गांधी समेत अनेक कांग्रेस नेताओं में भी मिलता है। गांधी की रामराज्य संबंधी अवधारणा और उनके द्वारा हिंदू धार्मिक प्रतीकों का सतत प्रयोग हिंदुत्व पर आधारित राष्ट्रवाद की इस अवधारणा के प्रभाव को निरंतरता दिखाते हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती
जीवन-रेखा
दयानंद सरस्वती (1824-1883) काठियावाड़ (गुजरात) स्थित भौरवी के एक सामवेदी ब्राहमण परिवार में जन्मे थे। 21 वर्ष की आयु में वैवाहिक जीवन की बाध्यता से बचने के लिए वे घर से भाग निकले। 1845-1860 के बीच वे ज्ञान-संधान के लिए विभिन्न स्थानों पर भटकते रहे। 1860 में मथुरा के स्वामी विरजानंद सरस्वती के अधीन उन्होंने पाणिनि और पंतजलि का अध्ययन आरम्भ किया और 1864 से धर्मोपदेश में लग गये। 17 नवम्बर, 1869 को वे काशी में हिन्दू रुढ़िवादी नेताओं के साथ भीषण शास्त्रार्थ में उलझे। 10 अप्रैल, 1875 को बंचई में आर्य समाज की स्थापना हुई और 1877 में लाहौर में इसके संविधान को अंतिम रूप दिया गया।

दयानंद के राजनीतिक विचार
स्वामी दयानंद सरस्वती उन प्रभावशाली चिंतकों में से एक थे जो अपने सामाजिक विचारों को सूत्रबद्ध करने के लिए पारंपरिक स्रोतों पर निर्भर करते थे। उनके सोच-विचार का मुख्य अभिप्राय यह था कि भारतवासियों के लिए ‘वैदिक विचारों की ओर प्रत्यावर्तन आवश्यक है।‘ जब दयानंद अपने विचार एवं चिंतन को सूत्रबद्ध कर रहे थे, हिंदू धर्म पतनशीलता का शिकार बन चुका था। वह ऐसा युग था जब ब्रिटिश शासन स्वयं को भारत में सुदृढ़ बना रहा था। इसलिए उनका आधारभूत प्रयास था वैदिक पुनरुत्थान, हेतुवाद और पर्याप्त रूप से समकालीन महत्व के सामाजिक सुधार के तीन लक्ष्यों की प्राप्ति । वे पश्चिमी विश्व और इस्लाम के गंभीर आलोचक थे। पाश्चात्य विचारों और रुझानों के माध्यम से आधुनिकीकरण के पक्षधर व्यक्तियों के भी उतने ही कट आलोचक थे। दयानंद के अनुसार, भारत के सामने उपस्थित समस्याएं और उनके समाधान दर्शन, राजनीति और समाज के स्तरों पर थे। उनके विचार में, भारतीय जनमानस में आत्मनिर्भरता और आत्मविश्वास की चेतना भरना आवश्यक था।

पहले हम उनके चिंतन के केंद्रीय भाग पर विचार करेंगे। उनके चिंतन के केंद्र में वेदों की ओर उनका रुझान आता है, जिसे वे समस्त मानवीय ज्ञान और मनीषा का कोष मानते थे। उन्होंने वेदों के निम्नांकित पहलुओं पर प्रकाश डाला।
1) दैवी विधान के प्रति आज्ञाकारिता से व्यक्ति सीधे ईश्वर से संवाद कर सकता है। वह अन्य विधानों के अनुपालन के लिए भी स्वतंत्र है, जहां तक कि वे दैवी विधान से संगति में हैं। दयानंद का सोचना था कि व्यक्ति अपने ‘शुद्ध स्वत्व की प्राप्ति कर सकता है, इस विषय पर अपने दृष्टिकोण की परीक्षा और समीक्षा के माध्यम से। इसके बाद ही वह त्रुटियों के बोध में, और इस प्रकार ऐसे कालगत विधानों से अपने को अलग करने में जो अनुपालन के योग्य नहीं हैं, और उन विधानों के विपरीत संगठित होने में समर्थ हो सकता है।
2) कोई व्यक्ति उसी सीमा तक स्वतंत्रता का उपभोग कर सकता है, जहां तक कि उसके अनुगामी स्वतंत्र हैं।
3) वर्णाश्रम व्यवस्था के अंतर्गत सभी व्यक्तियों के लिए पूर्ण स्वतंत्रता के उपभोग का प्रावधान है, सामाजिक संरचना में उनकी प्रकार्य स्थितियों से निरपेक्ष रूप में।

दयानंद के अनसार, भारत अपनी विगत गरिमा वर्तमान सामाजिक कमजोरियों पर विजय से ही प्राप्त कर सकता है। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि भारतीय संस्कृति की समद्ध विरासत के बावजूद हिंदू पाश्चात्य सभ्यता की नकल कर रहे हैं, जो उन्हें पतन की ओर ले जा रही है। अपने विचार को उचित ठहराने के लिए उन्होंने बल दिया कि वैदिक काल में भारत सभ्यता का ऐसा स्तर प्राप्त कर चुका था जो पश्चिम के लिए सदियों बाद ही संभव हुआ।

उन्होंने सुझाया कि जो लोग इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रभावों के अधीन धर्म परिवर्तन कर चुके हैं, उन्हें हिंदू धर्म की परिधि में वापस लिया जाना चाहिए। उनके अनुसार शुद्धीकरण के माध्यम से यह संभव है और यह एकीकरण इसीलिए भी आवश्यक है कि वेदों की स्वीकति के लिए उन्हें प्रेरित करके देश के लिए सशक्त और आत्मनिर्भर आधार बनाया जा सकेगा। सांस्कृतिक समरूपता को पुष्ट करने के लिए उन्होंने हिंदी को प्रोत्साहित किया। जब उपरोक्त एकीकरण उपलब्ध किया जा सकेगा और उसे हिंदी भाषा के सार्व संबंधों से पष्ट किया जायेगा, तभी भारत विदेशी शासन का जुआ उतार फेंकने में समर्थ होगा।

राष्ट्रीय प्रगति के लिये एक सबसे बड़ा अवरोध हिंदू समाज के अंदर से ही उभरा। उच्च जातीय हिंदुओं के एक तबके ने वर्ण-व्यवस्था में अपने अनुकूल परिवर्तन किए। इसके फलस्वरूप योग्यता के स्थान पर जन्म संबंध की प्रतिष्ठा हुई जिसने असमानता और उच्च स्तर जाति के सामने निम्नतर पेशेवर समूहों (जातियों) की अधीनस्थता को बल मिला। ब्राहमण किसी भी प्रकार की चुनौती अथवा प्रश्नों से परे समाज के खामियों से ऊपर की स्थिति में आ गये और शूद्र दयनीय स्थिति में ठेल दिए गए। हिंदू समाज मूर्ति पूजा, जातिवाद, बाल विवाह और बहुदेववाद के आपत्तिकृत विविध कर्मकांडों, समारोहों, अंधविश्वासों और जड़ सूत्रवाद की चपेट में आ गया। जड़ताग्रस्त समाज के अंतर्गत व्यक्ति आध्यात्मिकता से अलग-थलग जा पड़े। इसलिए ईश्वर के साथ उनका संवाद संभव नहीं रह गया। सबको दयानंद उपनिषदोत्तर काल में आया भ्रष्टाचार मानते थे। इसलिए दयानंद ने वर्ण-व्यवस्था के सिद्धांतों की ओर लौटने की अभिशंसा की, जिसके अंतर्गत जातीय पद स्तर की कसौटी जन्म मात्र नहीं होता, बल्कि जाति का आधार गुण, कर्म और स्वभाव होगा। उनके विचारानसार इस सधरे रूप में जात सामाजिक पनर्गठन का पथ प्रशस्त कर सकती है। इस प्रकार जाति की उनकी अवधारणा सेक्युलर प्रभावों के अंतर्गत थी। स्वभावतः इसने वंशानुगत उच्चतर जातियों के प्रभुत्व को व्यापक चनौती दी और उत्पीड़ित एवं अश्पृश्य समूहों के स्तर को उठाया। उन्होंने अस्पृश्यता को अमानवीय और वैदिक धर्म के विपरीत बताते हुए उनकी भर्त्सना की। उनकी व्यवस्था के अनुसार कोई भी शुद्र स्वच्छता, चरित्र निर्माण और परिवेश सुधार के माध्यम से द्विज की संज्ञा प्राप्त कर सकता है।

बोध प्रश्न 1
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अपने उत्तर का अंत में दिये गये उत्तर से मिलान करें।
1) संक्षेप में दयानंद के राजनीतिक विचारों की चर्चा करें।

महिला समाज, शिक्षा और जनवाद
महिला समस्याओं के संदर्भ में, दयानंद बाल विवाह और वैधव्य बाध्यता की कुप्रथाओं के विरुद्ध थे, जो उनके अनुसार वेद सम्मत नहीं थी। पुनर्विवाह की वर्जना वाले हिंदू समाज के अंतर्गत बाल-विधवाओं की दयनीय स्थिति को लेकर उन्हें गहरी चिंता थी। इसीलिए उन्होंने ‘नियोग‘ (विधुरों और विधवाओं के अस्थायी सह-जीवन) और बाद में विधवा-पुनर्विवाह का प्रस्ताव किया।

आर्यावर्त (भारत) के सुख शांति के उद्देश्य से दयानंद ने अपने विश्व दृष्टिकोण में शिक्षा को केंद्रीय स्थान दिया। नैतिकता एवं धार्मिकता पर आधारित और सभी स्त्री-पुरुष के लिए अभियोजित शिक्षा ही दयानंद चाहते थे। इस शिक्षा का भार उनके अनुसार, सम्राट राज्य को उठाना चाहिए। भारत का पुनर्जागरण इसी पर निर्भर करता है। वे ऐसी शिक्षा व्यवस्था के पक्षधर थे जिसमें व्याकरण, दर्शन, वेद, विज्ञान, चिकित्सा, संगीत और कला के अध्ययन पर जोर दिया जाता है।

दयानंद सरस्वती के राजनीतिक दर्शन की दो केंद्रीय और कुछ-कुछ परस्पर विरोधी अवधारणाएं हैं।

‘प्रबुद्ध राजतंत्र‘ संबंधी अवधारणा मनुस्मृति से ली गई है, जो धर्मानदेशों के अनुपालन पर आधारित है। इसी कुछ-कुछ अंतर्विरोधी अवधारणा निर्वाचित प्रतिनिधित्व अथवा जनवाद की है, यद्यपि दयानंद के विचार से यह सचमुच कोई अंतर्विरोध नहीं है क्योंकि वेदों में भी सभाओं तथा सम्राटों के निर्वाचन का उल्लेख मिलता है। निर्वाचन सिद्धांत पर बल देते हुए वे सम्राट की व्याख्या स्थाई अध्यक्ष के रूप में करते हैं। इसके अलावा, उनके विचार से राजनीति को नैतिकता से अलग नहीं किया जा सकता और इसीलिए उन्होंने‘आध्यात्मिक नेतृत्व द्वारा राजनीतिक नेतृत्व‘ के निर्देश के पक्ष में सशक्त तर्क दिए।

दयानंद ने अपने जनतांत्रिक निर्वाचन सिद्धांतों का अनुप्रयोग आर्य समाज के प्रकार्यों तथा सांगठनिक ढांचे में भी किया। वे एक ऐसे राजनीतिक समुच्चय की परिकल्पना करते थे जिसका एक विकेंद्रित स्वरूप हो, एक व्यापक ‘कामन वेल्थ‘ जिसकी इकाई गांव हो ।

1875 में स्थापित आर्य समाज ने विशेषकर उत्तर भारत में, स्वतंत्रता सेनानियों की एक समूची पीढ़ी का निर्माण किया। इसके दस महत्वपूर्ण सिद्धांतों में से कुछ निम्नलिखित हैंः
1) ईश्वर ही शुद्ध ज्ञान का स्रोत है।
2) सच्चे ज्ञान के संरक्षक के रूप में वेदों तथा आर्य समाज के अनुयायियों के बीच संबंध श् अटूट हैं। उन्हें वेदों की अंतर्वस्तु को अपनाना और जन समुदाय में प्रचारित करना चाहिए।
3) किसी भी कार्य को नीतिगत औचित्य अनिवार्य है।
4) आर्य समाज सभी दृष्टियों से विश्व मुक्ति के विचार को समर्पित है ।
5) ज्ञान की रश्मियां अज्ञान के अंधकार को दूर कर सकती हैं।
6) व्यक्ति को दूसरों के लिए भी पर्याप्त साधन छोड़ने चाहिए। उनका कल्याण सहकर्मियों के सामूहिक विश्वास से जोड़कर देखा जा सकता है।

बोध प्रश्न 2
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अपने उत्तर को इकाई के अंत में दिये उत्तर से मिलाएं।
1) संक्षेप में कुछ उन सिद्धांतों का उल्लेख करें जिन पर कि आर्य समाज की स्थापना हुई।

 स्वामी विवेकानंद
स्वतंत्रता का दर्शन एवं अवधारणा
स्वामी विवेकानन्द उन्नीसवीं सदी भारत के एक सर्वाधिक प्रभावशाली धार्मिक चिंतक थे। उनकी रचनाओं में मूलतः मानव स्वातंत्र्य, उसकी प्रकृति, मानदंड, व्यापकता तथा स्वतंत्रता की समतुल्यता के विचार का विवेचन किया गया है।

विवेकानंद के अनुसार विश्व इसके सृजनकर्ता ब्रह्म की मायवी अभिव्यक्ति है। माया के अंतर्गत ज्ञान, सृजनात्मकता, और अंतश्वेतन आकांक्षाओं का सन्निवेश है, जो वस्ततः सजनकर्ता की ही दृश्य छपियां हैं। ब्रह्मा को विश्व के संयोजन का व्यापक सामर्थ्य प्राप्त है और उनका प्रभाव उनके सूजन के बीच अंतर पदार्थिक भौतिक स्वरूपों में प्राप्त सीमित गुणों में देखा जा सकता है। यह उल्लेख सम मानव जाति के संदर्भ में है जो चीज मनष्य को सृष्टिकर्ता से अलग करती है, वह है उसमें सन्निहित गुण । मनुष्य में तीनों गणों का विकास समान गति से कभी नहीं होता और न समान स्तर प्राप्त करता है। प्रत्येक व्यक्ति में गुणों के असमान विकास का भिन्न-भिन्न संयोजन मिलता है। इसके विपरीत ब्रहमा में यह संबंध इतने पूर्ण रूप से मिलता है कि ज्ञान, सृजनात्मकता एवं अंतश्वचेतन आकांक्षा के तीन गुणों तथा इन गुणों के पूरे की स्थिति में कोई अंतर नहीं देखा जा सकता। अपने प्रमुख गुण के साथ प्रत्येक व्यक्ति एक व्यापकतर इकाई का, अर्थात् ब्रहमा के रूप में पर्वव्यापी समग्रता का अंत बनता है। इसलिए, व्यक्ति के लक्ष्य को अपनी सच्ची अभिव्यक्ति ब्रह्मास्वरूप समग्र मानव जाति में ही मिल सकती है। विवेकानंद ने शक्ति द्वारा ब्रह्मत्व की सिद्धि को मोक्ष की स्थिति बनाया।

विवेकानंद के अनुसार, व्यक्ति स्वतंत्र अवश्य हुआ है लेकिन जीवन स्थितियों ने उसकी स्वाभाविक स्वतंत्रता को अवरुद्ध करके उसे एक अलग-थलग कटा हुआ व्यक्तित्व बना दिया है जो अपनी ही इच्छाओं और उद्देश्यों की अबाधित साधना में लगा है। इससे देर-सवेर वह अन्य व्यक्तियों की स्वतंत्रता के मार्ग में आ जायेगा और फलस्वरूप वे सभी एक-दूसरे को खारिज कर देंगे। सृजनात्मक क्षमताओं के विकास के लिए व्यक्तिनिष्ठ गुण जिस प्रकार आवश्यक है, उसी प्रकार व्यक्ति की सामाजिक प्रकृति, उसके आध्यात्मिक स्वरूप का प्रस्फुटन भी आवश्यक है। विवेकानंद व्यक्तित्व एवं सामाजिक दोनों की ही एक साथ सिद्धि संभव मानते थे। यदि मनुष्य का व्यक्तित्व उसकी अंतर्भूत सामाजिकता से बाधित होता है, तब इसकी परिणति उसी तरह के व्यक्तियों द्वारा प्रतिरोध में होती है।

चूंकि, स्वतंत्रता मनुष्य मात्र का सहज गुण है, स्वतंत्रता की सीमा भी इसकी स्वतः पूर्णता बनाए रखने के लिए सहज होनी चाहिए। स्वतंत्रता की ऐसी परिसीमाएं धर्म से आनी चाहिए, क्योंकि धर्म ही व्यक्ति में वैयक्तिता सामाजिकता के बीच सम्यक् संबंध बनाए रख सकता है और उसे आध्यात्मिक चेतना के समुचित उच्च स्तर तक ले जा सकता है। विवेकानंद का अनुभव था कि कुछेक परिस्थितियां मनुष्य को इस प्रकार कार्य करने के लिए बाध्य करती हैं, जो अन्यों की स्वतंत्रता कम करने के साथ-साथ स्वयं उसकी इच्छा के विरुद्ध जाता है। सच्ची स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए यह सहायक नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य की स्वतंत्रता के परिसीमन का उद्देश्य परिष्कार होना चाहिए, दमन नहीं। विवेकानंद ने परिष्कार को धार्मिक स्वतंत्रता के समतुल्य माना, इससे ही स्वतः स्फूर्त स्वतंत्रता के उपभोग की सहज संभावना बनती है। धार्मिक आस्था किसी सटीक सूत्रीकरण का उल्लंघन करती है और कभी-कभी कुछ समय के लिए ‘सत्व‘ को पृष्ठभूमि में छोड़ते हुए ‘रजोगुण‘ से तत्कालीन भारत में विद्यमान भौतिक जीवन दशाओं को प्रधानता देती है। स्वतंत्र रूप में अपने लक्ष्यों की सिद्धि की प्राप्ति और अन्य शक्तियों की स्वतंत्रता की मान्यता इस बात की पुष्टि करते हैं कि मनुष्य सारतः सामाजिक प्राणी हैं और इसलिए सामुदायिकता को ही वरीयता देगा। विवेकानंद कुछ उदाहरणों से अपने विचारों को स्पष्ट करते हैं। वे भारत में प्राकृतिक समुदायों के विकास को ‘वर्ण‘ व्यवस्था का परिणाम मानते हैं, जिसके अंतर्गत ‘ब्राह्मणों‘ और क्षत्रियों को रज (सृजनात्मकता) श्रेणी में रखा गया था और वैश्यों और शुद्रों को तम (अंतराकांक्षा/वासना) श्रेणी में। वैसे श्रेणी विभाजन का हमें प्राचीन ग्रीस में उल्लेख मिलता है। प्लेटो द्वारा तीन गुणों- तर्कना, साहस और क्षुधा के विवेचन में।

विवेकानंद ने यह बात भी सामने रखी कि भारत में जहां सामाजिक जीवन व्यक्ति की भूमिका विशेष पर बल देता था, वहीं पश्चिमी समाज व्यापकता अथवा समग्रता पर। इसलिए भारत में राजनीति पूर्व युग के अवसान के साथ ही व्यक्ति की भूमिका कम होने लगी, जबकि पश्चिमी समाज में व्यक्ति सुदीर्घ काल तक केंद्रीय मंच पर बना रहा। इस तथ्य ने स्वाभाविकतः पश्चिमी समाज को स्वतंत्रता, समानता इत्यादि उदारवादी सिद्धांतों के प्रति संवेदनशील बनाए रखा।

भौतिक परिस्थितियों से निर्धारित विश्व में स्वतंत्रता एक अधिकार बन चुकी थी, स्वतंत्रता मात्र कल्पना नहीं थी। विवेकानंद के विचारानुसार स्वतंत्रता का संबंध सहज राजनीति पूर्व मनुष्य से है। राजनीतिक व्यवस्था की रचना के साथ ही स्वतंत्रता का पतन एक अधिकार की स्थिति तक हो गया। मनुष्य अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील था, न कि सच्ची स्वतंत्रता के लिए जो एक स्वतः स्फूर्ति और सार्वभौम प्रक्रिया थी।
शुद्ध रूप् भ्रष्ट रूप
1. वर्णाश्रम (योग्यता के आधार पर वंशानुगत, श्रेणी शुद्ध जाति व्यवस्था
स्वच्छंद गतिशीलता) में रूपांतरण (जाति-स्तर और
अंतर्जातिक गतिशीलता पर जन्म
आधारित प्रतिबंध)
2. सच्चह स्वतंत्रता अधिकारों के लिए संघर्ष के स्तर तक
पतन।
3. सामाजिक मनुष्य सत्ता, संरक्षण और वर्चस्व के लिए
संघर्ष ही चारित्रिक विशेषताएं बनती
हैं। शुद्रों की दशा में गिरावट।

इस प्रकार, अधिकारों के लिए ही आतंतिक सरोकार (अधिकारवाद) के कारण ही भारत अपनी वर्तमान दुर्यवस्था तक पहुंचा है। विवेकानंद के अनुसार अधिकारवाद तक (अंतराकांक्षा/वासना) का पर्याय बन चुका है, क्योंकि विशेषाधिकार वर्ग से संबंध होने बावजूद व्यक्ति अपने आध्यात्मिक खोखलेपन के कारण विशेषाधिकार बनाए नहीं रख सकता था। इसलिए व्यक्ति के उच्चतर अथवा निम्नतर स्तर से संबंधों में कोई अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि वे सभी अपनी भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति में ही लगे हैं। श्रेणी क्रमबद्ध जाति व्यवस्था द्वारा व्यक्ति की भूमिका रूढ़ बना दिये जाने के कारण भारतीय सभ्यता भी अमानवीय हो चुकी थी। इसलिए एक प्रकार की सांस्कृतिक क्रांति ही भारत को उसके विगत वैभव की स्थिति में ला सकती थी। विवेकानंद ने यह भी स्पष्ट करने का प्रयास किया कि ब्रिटिश तथा उनके पूर्व के विदेशी विजेता भारत पर अपना प्रभुत्व बनाये रख पाते थे, इसलिए कि भारत अधिकारवाद के शिकंजे में फंसा था। विवेकानंद ने बताया कि कोई ब्रिटिश राजनीतिक व्यवस्था भारत को पुनः स्वतंत्रता की स्थिति में नहीं लायेगी, क्योंकि यह उनके वश के बाहर है। फिर भी उन्होंने भारतीय जनगण, विशेषकर युवकों का आह्वान किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधीन राष्ट्रवादी संघर्ष में भाग लेने के लिए, इस आशा के साथ कि ‘‘सुप्तावस्था में पड़ा देश हर दृष्टि से जागरूक बनेगा और संभवतः भारत को अधिकारवाद के चुंगल से मुक्त करेगा।

विवेकानंद ने भारत की वर्तमान स्थिति के लिए महत्वपूर्ण कारक प्रभुत्वशाली जाति व्यवस्था को ही बताया। इससे मुक्ति का माध्यम सच्ची धार्मिकता की ओर वापसी ही है और स्वतंत्रता की दिशा में पहला कदम। गौरव एवं सम्मान की पुनप्राप्ति के माध्यम से ही दीनहीनों को उद्धार संभव है (रामकृष्ण मिशन/मठ)। उन्होंने विस्तार से दरिद्रनारायण की चर्चा की। उनके उत्थान के लिए सेवाकार्य से ही प्रवंचितों को संपन्नता के स्तर पर लाया जायेगा। यह सत्व की परिधि में आने वाले सभी व्यक्तियों की सर्वाति महत्वपूर्ण आकांक्षा बन जायेगी, क्योंकि अन्य व्यक्तियों के लिये सच्चा सरोकार सत्यनिष्ठा से ही फलीभूत होगा। विवेकानंद समानता के समर्थक के रूप में सामने आते हैं क्योंकि समानता ही स्वतंत्रता की चेतना वापस ला सकती है। उन्होंने भौतिक एवं आध्यात्मिक साम्यवाद के अंतर को भी स्पष्ट किया। भौतिक साम्यवाद का आधारभूत उद्देश्य था भौतिक संपदा का समान वितरण । विवेकानंद को जो बात इसमें अच्छी लगी, वह थी समानता से इसका अतिश्य लगाव। फिर भी, वैसी व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य को पदार्थ संयोजित के रूप में ही देखा जाता था। विवेकानंद आध्यात्मिक साम्यवाद के पक्षधर थे। इसकी आधारभूमि बनता था. राजनीति पूर्व साम्यवाद जिसमें स्वतंत्रता और समानता का पूर्ण सामंजस्य होगा। इस प्रकार साम्यवादी समाज मानव सभ्यता के दोनों ही छोरों पर उपस्थित मिलता। समाज का आरंभ एक जैसे व्यक्तियों के निकाय के रूप में होता है। अस्थिरता. असंतुलन और आलोहन की स्थितियों से गुजरते हुए अंततः वह फिर समान व्यक्तियों के समदाय का रूप लेता है । स्वतंत्रता पहले का अर्थ भाग बनती है, जबकि दूसरे में वह अनुपस्थित मिलती है।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिये नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अपने उत्तर का इकाई के अंत में दिये गये उत्तर से मिलान करें।
1) विवेकानंद के स्वतंत्रता पर विचारों की तार्किक समीक्षा कीजिये।

राष्ट्रवाद और राजनीति की अवधारणा
विवेकानंद ने धार्मिकता पर आधारित राष्ट्रवाद के सिद्धांत का निरूपण और विकास किया। उनके अनुसार, संगीत की ही भांति प्रत्येक राष्ट्र के जीवन में एक ‘मुख्य सूर‘ एक केंद्रीय विषय होता है, जिसकी तुलना में अन्य कुछ भी गौण सिद्ध होता है। भारत की विषयवस्तु की पहचान उन्होंने धर्म के रूप में रखी और उसे राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ बनाने के आधार पर रखा जा सकता था। धर्म समकेन एवं सुस्थिरता की सृजनात्मक शक्ति रह चुका था और राजनीतिक प्राधिकार के क्षीण होने पर उसके पुनर्लाभ एवं सरवतीकरण में भी धर्म सहायक बना था। इस प्रकार उन्होंने धार्मिक आदर्श के आधार पर राष्ट्रीय जीवन के संगठन का समर्थन किया। लेकिन उनकी अवधारणा के अंतर्गत धर्म अमानुषिक रीति-रिवाजों अथवा रूढ़ियों और कर्मकांडों का समुच्चय मान नहीं था। बल्कि धर्म अपने वास्तविक अर्थ में किन्हीं शाश्वत सिद्धांत/मूल्यों का साक्षात्करण था।

इस प्रकार के राष्ट्रवाद सिद्धांत के आधार पर विवेकानंद ने राष्ट्रवाद तथा राजनीति एवं सत्ता के संबंधों के बारे में अपनी अवधारणा का विकास किया। विवेकानंद की इस अवधारणा की बहुत कुछ समरूपता परिश्रम के अराजकतावादी चिंतन से है, जो किसी भी प्रकार की राजनीति अथवा सत्ता को संदिग्ध मानता था। उनकी अवधारणा में, भारत की राजनीति एवं सत्ता संबंध पाश्चात्य प्रभावों से जुड़े थे। उनके मतानुसार, भारत से परिचित प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का बोध होना चाहिए कि ‘‘राजनीति, सत्ता और बौद्धिकता की गौण भूमिका है।‘‘ भारत में धर्म ही प्रमुख विचारणीय विषय है।‘‘ इसलिए उन्होंने संसद जैसी पाश्चात्य संस्थाओं का मखौल बनाया, उनका उल्लेख गुल-गपाड़े, दलगत राजनीति, पतनशील उन्माद एवं संकीर्णतावाद जैसे विशेषणों के साथ किया। राजनीतिक सत्ता से अति-संलग्नता, विशिष्ट रूप से पाश्चात्य राष्ट्रवाद, राजनीति और सत्ता संबंधों की ऐसी अवधारणा के ही अनुरूप था, विवेकानंद का व्यक्तिगत नैतिकता एवं सामाजिक परिवर्तन पर जोर। उनका पूर्ण विश्वास था कि राष्ट्रीय गौरव इसके नागरिकों को अंतनिर्हित श्रेष्ठता, सुंदरता के कारण होता है, इसलिए नहीं कि राज्यसत्ता ऐसा चाहते हुए संबंधित उद्देश्यों से कोई कानून लागू करती है। इस प्रसंग में भी धर्म का अधिकाधिक महत्व सामने आता है क्योंकि वही जनगण के व्यक्तित्व एवं आचरण को ढालता है-उन्हें सुंदर और महान बनाता है। उनके विचारों के अनुसार, हिंदुत्व की आध्यात्मिक परंपरा, जाति व्यवस्था, सम्राटों और विदेशियों के जघन्य आतंक में प्रत्यक्ष होने वाले विधि-सम्मत उत्पीड़न के प्रतिरोध की मांग करती हैं।

इसलिए यह कोई अतिश्योक्ति नहीं कि विवेकानंद ने भारत में राजनीति के सिद्धांत एवं व्यवहार को इस निर्णायक ढंग से प्रभावित किया।

बोध प्रश्न 4
टिप्पणीः 1) अपने उत्तर के लिए नीचे दिये गये स्थान का प्रयोग करें।
2) अपने उत्तर का इकाई के अंत में उत्तर से मिलान करें।
1) राष्ट्रवाद से विवेकानंद का क्या तात्पर्य था?