भगत सिंह जीवनी हिंदी (bhagat singh in hindi information history) भगत सिंह पर निबंध को फांसी देने वाले जज का नाम

(bhagat singh in hindi information history) भगत सिंह जीवनी हिंदी को फांसी देने वाले जज का नाम क्या था ? भगत सिंह पर निबंध लिखिए ?

भगत सिंह
इकाई की रूपरेखा
उद्देश्य
प्रस्तावना
भगत सिंह का क्रांतिकारी बनना
पारिवारिक पृष्ठभूमि
पंजाब में बढ़ती अशांति
राजनीतिक संपर्क
लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला
आतंकवाद का पक्ष
लाहौर षड्यंत्र कांड
भगत सिह का विचारधारा
नास्तिकता का पक्ष
सामाजिक क्रांति के बारे में उनके विचार
कांग्रेसी नेतृत्व का अस्वीकार
सारांश
कुछ उपयोगी पुस्तकें
बोध प्रश्नों के उत्तर

उद्देश्य
भगत सिंह क्रांतिकारी पंथ और चरित्र के सार के प्रतीक हैं। वह राष्ट्रवाद, क्रांति और । क्रांतिकारियों की इच्छा के भावी समाज पर स्पष्ट विचार रखने वाले राजनीतिक चितक थे। इस इकाई में भगत सिंह को एक क्रांतिकारी विचारक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

प्रस्तावना
भगत सिंह बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के भारतीय क्रांतिकारियों के चरित्र का प्रतीक हैं। अहिंसा के गांधीवादी दर्शन का अस्वीकार, कांग्रेस के सुधारवादी रुख के प्रति उनकी असहमति, मार्क्सवादी साम्यवाद में उनका विश्वास, उनकी नास्तिकता, दबे और अपमानित लोगों की गरिमा को बनाने के लिए आतंकवादी तरीके में उनका विश्वास, क्रांति के जन्म-सिद्ध अधिकार हो का उनका दावा, ये सभी विचार बीसवीं शताब्दी के तीसरे और चैथे दशक के भारतीय युवाओं में मिलने वाले विशिष्ट विचार ही थे। लाहौर षड्यंत्र कांड में भगत सिंह पर मुकदमा चलने और उन्हें फांसी की सजा होने से भारतीय अंग्रेजी राज के अन्यायपूर्ण और दमनकारी चरित्र को जान गए बल्कि इससे क्रांतिकारियों के विचार और उनकी गतिविधियां भी लोकप्रिय हो गई।

भगत सिंह का क्रांतिकारी बनना
अब हम उन प्रभावों के बारे में चर्चा करेंगे, जिन्होंने भगत सिंह के व्यक्तित्व और उनकी विचारधारा को आकार दिया। भगत सिंह की पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उनके विचारों को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पंजाब में व्याप्त राजनीतिक उथल-पुथल ने भगत सिंह के राजनीतिक चिंतन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। हम देखेंगे कि उनके प्रारंभिक राजनीतिक संपर्कों और शैक्षिक जीवन ने काफी हद तक उनके राजनीतिक चिंतन को आकार दिया। इनके अलावा, लाला लाजपत राय पर हुए हमले जैसी कुछ राजनीतिक घटनाओं ने भी भगत सिंह को उस उद्देश्य और विचारधारा को अपनाने के लिए प्रेरित किया जिन्हें उन्होंने अंत में जाकर अपनाया।

पारिवारिक पृष्ठभूमि
भगत सिंह को पुरखों ने महाराजा रणजीत सिंह की सेना में खूब नाम कमाया था। वे जालंधर जिले के खटकर कलां में बस गए थे। दोआब के नाम से जाना जाने वाला क्षेत्र क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए मशहूर था। उनके दादा, सरदार अर्जन सिंह एक यूनानी डॉक्टर और सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे आर्यसमाजी थे। पंजाब में आर्य समाज राष्ट्रवादी आकांक्षाओं का प्रतीक था और भगत सिंह के पिता तथा चाचा राजनीतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने 1907 में भारत माता सोसाइटी की शक्ल में एक राजनीतिक आंदोलन खड़ा करने में अहम भमिका निभाई। उनके पिता किशन सिंह को कोलोनाइजेशन एक्ट और बड़ी । दोआब कैनाल एक्ट के खिलाफ किसानों को संगठित करने के लिए जेल में रहना पड़ा। उनके चाचा, सरदार अजीत सिंह अपने लंबे समय के निर्वासन के लिए मशहूर हुए। वह गदर पार्टी के एक सक्रिय सदस्य थे।

राजनीति के माहौल में शुरू से रहने का निर्णायक असर भगत सिंह के विचारों के बनने पर अवश्य ही पड़ा होगा। उनकी प्रारंभिक पढ़ाई-लिखाई लाहौर में डी.ए.वी. हाई स्कूल में हुई। यह पंजाब का एक प्रमुख स्कूल माना जाता था। यहां वह लाला लाजपत राय, सूफी अंबा प्रसाद, पिंडी दास मेहता, आनंद किशोर जैसे पंजाब के राष्ट्रवादी नेताओं के संपर्क में आए। उन्होंने अपना आदर्श सरदार करतार सिंह सराभा को चुना था, जो एक शहीद की मौत मरेय इससे उनके विचारों का पता चलता है।

पंजाब में बढ़ती अशांति
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम और बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में पंजाब के खेती-बाड़ी करने वाले लोग सबसे अधिक मुसीबतों के शिकार हुए। बार-बार पड़ने वाले अकालों और बढ़ती हई बेरोजगारी तथा सरकार की औपनिवेशिक नीतियों के परिणामस्वरूप किसान वर्ग में भारी शशांति फैल गई। बार-बार अधिकारी वर्ग के साथ टकराव होने लगे और प्रदर्शनकारियों के साथ सख्त सुलूक के कारण लोग अंग्रेज शासकों से कट गए। अंग्रेज सरकार ने अकाली आंदोलन और गदर पार्टी जैसे क्रांतिकारी दलों को जिस सख्ती से दमाया, इससे यह कटाव या दुराव की स्थिति और भी बढ़ गई। रौलेट एक्ट का पारित होना, अमृतसर का जलियांवाला नरसंहार और मार्शल लॉ के अंतर्गत किए गए अत्याचार आदि ने मिलकर लोगों में बढ़ रही दुर्भावना की आग में घी का काम किया। 1913 की अमृतसर कांग्रेस और गांधी के असहयोग आंदोलन ने पंजाब के आंदोलन में अपना योगदान किया। यूरोप में पहले विश्व युद्ध के बाद जो कुछ हो रहा था, युवाओं पर उसका असर था। रूसी क्रांति ने युवा पीढ़ी पर गहरा असर छोड़ा।

 राजनीतिक संघर्ष
अपनी जवानी के दिनों में, भगत सिंह लाहौर के नेशनल कॉलेज में दाखिल हुए। यह । कॉलेज युवाओं को आकृष्ट करने के लिए प्रतिष्ठित था, जो बाद में विभिन्न आंदोलन के अग्रिम मोर्चे पर रहे। यहां उन पर इतिहास के अध्यापक जयचंद विद्यालंकार का प्रभाव पड़ा। भगत सिंह एक सक्रिय, बुद्धिमान और अनुशासित छात्र रहे। उन्होंने क्रांतिकारी । आंदोलनों के अपने पाठ भारत के बाहर-इटली, आयरलैंड, रूस और चीन-से सीखे। उन्होंने क्रांतिकारियों में शामिल होने का मन बना लिया था, तभी उन्होंने अपनी शादी का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। प्रोफेसर विद्यालंकार का एक पत्र लेकर वह कानपुर में गणेश शंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी का घर राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। यहीं भगत सिंह उत्तर भारत के क्रांतिकारियों के संपर्क में आए। उन्होंने हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम से एक संगठन बनाया हुआ था। एक राजनीतिक कार्यकर्ता की हैसियत से भगत सिंह ने उत्तर प्रदेश के कई स्थानों की यात्रा की। बाद में, उन्हें अलीगढ़ के पास एक राष्ट्रीय स्कूल चलाने का काम सौंपा गया। कुछ समय के लिए वह दिल्ली में भी रहे, जहां उन्होंने दैनिक ‘वीर अर्जुन‘ में काम किया। अंत में, वह लाहौर चले गए, जहा सरदार सोहन सिंह जोश द्वारा चलाई जा रही एक समाजवादी विचारधारा की पत्रिका ‘कीर्ति‘ में उन्होंने संपादक मंडल में काम किया।

युवाओं को क्रांतिकारी गतिविधियों में लगाने का काम करने के लिए बनाए गए मंच को नवजवान भारत सभा के नाम से जाना जाता था। 1926 में बनी इस सभा का विशेष कार्यक्रम था-युवाओं को सामाजिक मामलों की शिक्षा देना, स्वदेशी को लोकप्रिय बनाना और उनमें मुश्किलें झेलने के लिए शारीरिक दुरुस्ती और भाईचारे की भावना बनाना। इसके अलावा, इसका कार्यक्रम विदेशी शासन के प्रति घृणा और नास्तिकता पर आधारित एक धर्म-निरपेक्ष रवैया बनाना भी था। यह एक तरह का खुला मंच था, जिसका काम क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए व्यक्तियों को शिक्षित और भर्ती करना था। नौजवान सभा उन युवाओं के लिए एक सीढ़ी मानी जाती थी, जो बाद में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल होना चाहते थे। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का लक्ष्य विद्रोह और सशस्त्र क्रांति के द्वारा अंग्रेजी राज का तख्ता पलटना था। एसोसिएशन के पास देश-विदेश में अपनी गुप्त गतिविधियां चलाने के लिए अच्छा-खासा संगठन था। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि सभा अफसरशाही की निगाह में संदिग्ध हो गई और इसकी सभाओं को भंग और इसके पदाधिकारियों को गिरफ्तार किया गया। सभा एक ऐसा मंच था, जहां से लोगों को यह भाषण दिया जाता था कि वे अंग्रेजों के अन्यायपूर्ण और मनमाने शासन का विरोध करें। इसने इंडिपेंडेंट इंडिया श्रृंखला के पर्चे भी छापे। सभा का काम समानता, गरीबी हटाने और संपत्ति के समान बंटवारे के सिद्धांतों का प्रचार करना था। हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन हो गया। यह नया नाम दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में 9-10 सितम्बर, 1928 में हुए विचार-विमर्श के बाद अपनाया गया।

लाला लाजपत राय की मृत्यु का बदला
ये ही दिन थे जब भावी संवैधानिक सुधार के लिए सिफारिश करने की गरज से साइमन आयोग ने पूरे देश का दौरा किया। इस आयोग के सभी सदस्य श्वेत थे, इस बात को और इस आयोग के उद्देश्य को बहुत नापसंद किया गया तथा हर जगह काले झंडों और ष्‘ाइमन कमीशन वापस जाओ‘ के नारों के साथ आयोग का स्वागत किया गया। आयोग को 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर पहुंचना था। प्रतिबंध के बावजूद, सभी दलों ने मिलकर एक जुलूस का आयोजन किया और लाजपत राय से इसका नेतृत्व करने का अनुरोध किया गया। लाहौर के पुलिस अधीक्षक के नेतृत्व में पुलिस ने बहुत बर्बरता से जुलूस पर हमला किया। इस हमले के कारण लाला लाजपत राय की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु पर सारे भारतवासियों ने शोक किया। भगत सिंह और उनके साथियों ने लाला जी की मृत्यु का बदला लेने के लिए लाहौर के पुलिस अधीक्षक को जान से मार डालने का निश्चय कर लिया। लेकिन गलत संकेत मिलने के कारण पुलिस अधीक्षक की जगह उनके मातहत सांडर्स और उनका पीछा करने वाले एक सिपाही चानन सिंह की हत्या हो गई। भगत सिंह पुलिस के जाल से बच निकले और कलकत्ता पहुंच गए। यहां आगरा, लाहौर और सहारनपुर में बम बनाने के कारखाने लगाने की योजनाएं बनाई गईं।

अंग्रेज सरकार मजदूरों के आंदोलन को दबाना चाहती थी। इस गरज से उसने मजदूर नेताओं को एक षड्यंत्र कांड में फंसा दिया। सरकार मजदूरों की आजादी पर पाबंदी लगाने वाले दो विधेयक ला ही चुकी थी-पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल।

हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने सरकार की मनमानी नीति का विरोध करने का निश्चय किया। यह योजना बनाई गई कि जिस समय इन विधेयकों को विधान सभा में चर्चा के लिए रखा जाए, वहां आतंक फैला दिया जाए। इस काम के लिए भगत सिंह और बी.के. दत्त को चुना गया। उन्होंने गैलरी से उस जगह दो बम फेंके जहां कुछ सदस्य बैठे हुए थे और उन्होंने भागने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने कुछ पर्चे भी फके, जिनमें यह बताया गया कि हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का इसमें क्या उद्देश्य था।

आतंकवाद का पक्ष
इस पर्चे में आतंकवादियों की इस कार्रवाई को बड़े ढंग से समझाया गया था। पर्चे में सुधारों की निरर्थकता, संसदीय प्रणाली की हास्यास्पदता, क्रांति की तैयारी की आवश्यकता और हिंसा के औचित्य जैसी सभी बातों को लिया गया था। पर्चे में ऐलान था:

‘‘गूगों को सुनाने के लिए तेज आवाज में बोलना पड़ता है, ऐसे ही किसी मौके पर फ्रांसीसी अराजकतावादी शहीद वेलियां द्वारा कहे गए इन अमर शब्दों के साथ, हम अपनी कार्रवाई को डटकर औचित्यपूर्ण ठहराते हैं।’’

‘‘(मांटेग्य, चेम्सफोर्ड सुधारों) के काम करने के पिछले दस साल के शर्मनाक इतिहास को दोहराए बिना और इस सदन-तथाकथित भारतीय संसद के जरिए भारतीय राष्ट्र के विरुद्ध किए गए अपमानों की चर्चा किए बिना हम यह बता देना चाहते हैं कि जहां लोग साइमन आयोग से सुधारों के कुछ और टुकड़ों की अपेक्षा कर रहे हैं, और अपेक्षित हड्डियों के बंटवारे को लेकर झगड़ते ही जा रहे हैं, सरकार हम पर पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल जैसे दमनकारी उपाय थोप रही है और उसने प्रेस सेडीशन बिल को अगले सत्र के लिए बचाकर रखा हुआ है। खुले क्षेत्रों में काम करने वाले मजदूर नेताओं की अंधाधुंध गिरफ्तारियां इस बात का साफ संकेत है कि हवा किस तरफ बह रही है।

‘‘भड़काने वाली इन परिस्थितियों में, हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने, पूरी गंभीरता के साथ, अपनी पूरी जिम्मेदारी महसूस करते हुए इस खास कार्रवाई का फैसला और अपनी सेना को इसे अंजाम देने का आदेश दिया, ताकि इस अपमानजनक ताकत पर रोक लगाई जा सके और विदेशी अफसारी शोषक जो करना चाहें करें, लेकिन उन्हें उनकी नंगी हालत में जनता की निगाह में आना होगा।

‘‘जनता के प्रतिनिधियों को चाहिए कि वे अपने क्षेत्रों में जाएं और लोगों को आने वाली क्रांति के लिए तैयार करें, और सरकार को यह समझ लेना चाहिए कि असहाय भारतीय जनता की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल तथा लाला लाजपत राय की निर्मम हत्या का विरोध करते हुए, हम इतिहास की उस सीख पर जोर देना चाहते हैं जो वह अक्सर दोहराता है, कि व्यक्तियों को मारना आसान है लेकिन आप विचारों को नहीं मार सकते। बड़े-बड़े साम्राज्य ढह गए, जबकि विचार जिंदा रहे। बूरबनों और जारों का पतन हो गया।
‘‘इंकलाब जिंदाबाद‘‘
संदेश स्पष्ट था और अंग्रेजों की खूब समझ में आ गया। क्रांतिकारी अंग्रेजी राज के लिए सबसे बड़ा खतरा थे और उन्हें निर्ममता से कुचला जाना चाहिए। भगत सिंह को एक बार गिरफ्तार किया गया तो फिर कभी छोड़ा नहीं गया। वैसे तो जनमत और कांग्रेसी नेता भी इस बात के पक्ष में थे कि उनके मृत्यु दंड को कम कर दिया जाए, लेकिन गवर्नर जनरल की दृष्टि में यह उनका कर्त्तव्य था कि वह यह सुनिश्चित करें कि अंग्रेजी राज के कट्टर दुश्मनों के साथ कोई दया न दिखाई जाए।

‘‘सदन द्वारा पारित गंभीर प्रस्तावों को तथाकथित भारतीय संसद में तिरस्कारपूर्ण ढंग से पांवों तले रौंद दिया गया है। दमनकारी और मनमाने उपायों को रद्द करने संबंधी प्रस्तावों को तो बहत तिरस्कार के साथ लिया गया है, और विधायिका के चने गए सदस्यों ने सरकार के जिन उपायों और प्रस्तावों को अमान्य बताते हुए रद्द कर दिया था, उन्हें केवल कलम हिलाकर बहाल कर दिया गया है। संक्षेप में, हम ऐसी संस्था के अस्तित्व में बने रहने के लिए कोई भी औचित्य ढूंढ पाने में नाकाम रहे हैं, जो अपने तमाम ठाठ-बाठ के बावजूद, भारत के लाखों मेहनतकशों की खून-पसीने की कमाई के बल पर बने होने पर भी, केवल एक खोखला दिखावा और शरारतपूर्ण छलावा है। इसी तरह, उन जन नेताओं की मानसिकता को समझने में भी नाकाम रहे हैं जो भारत की असहाय अधीनता के स्पष्ट ‘नाटकीय प्रदर्शन पर जनता का पैसा और समय बर्बाद करने में सरकार की मदद करते है।

क्रांतिकारियों की दृष्टि में, विधायिका का कोई लोकतांत्रिक चरित्र नहीं था। यह एक विदेशी सरकार के निरंकुश शासन को छिपाने का आडंबर था। सरकार के साथ सहयोग करने वाले भारतीय दूसरों को मूर्ख बनाकर यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे थे कि सरकार टुकड़ों-टुकड़ों में जिम्मेदार शासन लागू कर रही थी।

वक्तव्य में विधेयकों के असली रूप की तरफ ध्यान खींचा गया था। मेहनतकश जनता को अपने ही शोषण के खिलाफ बोलने का अधिकार नहीं दिया गया था और उनके साथ बेजबां जानवरों का-सा बर्ताव किया जाता था। ये विधेयक पूरे देश का अपमान थे। क्रांतिकारी इस बारे में अपना विरोध जताना चाहते थे ताकि तूफान आने से पहले अधिकारियों को सचेत कर दिया जाए।

महात्मा गांधी और उनके कांग्रेसी अनुयायियों के बारे में वक्तव्य में खुला तिरस्कार थाः

‘‘जब ताकत का इस्तेमाल आक्रामकता के साथ होता है, तो वह हिंसा होती है, और इसलिए नैतिक रूप में वह अनुचित होती है, लेकिन जब इसका इस्तेमाल एक जाय उद्देश्य के लिए किया जाता है तो इसका नैतिक औचित्य होता है। हर कीमत पर ताकत (के इस्तेमाल) से दूर रहना कोरी आदर्शवादिता है, और देश में खड़ा होने वाला यह नया आंदोलन, जिसके उदय की हम चेतावनी दे चुके हैं, उन आदर्शों से प्रेरित है जिससे गुरु गोबिंद सिंह और शिवाजी, कमाल पाशा और रिजा खान, वाशिंगटन और गारीबाल्दी, लाफायेत और लेनिन ने मार्ग-दर्शन लिया।’’
मुकदमे के दौरान भगत सिंह ने यह स्पष्ट कर दिया कि वह प्रगति के अभिन्न अंग के रूप में हिंसा में विश्वास नहीं करते। क्रांति को वह न्याय के आधार पर सामाजिक व्यवस्था में बदलाव समझते थे। उत्पादकों को, चाहे वे मजदूर हों या किसान, उनके अधिकार बहाल किए जाने चाहिए। असमानताओं और विषमताओं का खात्मा होना चाहिए। सामाजिक ढांचे को फिर से संगठित किए बिना लड़ाई खत्म करने की बात करना, भगत सिंह की दृष्टि में, बेतुका था। एक शोषक समाज के तहत विश्व शांति की बात अकल्पनीय और पाखंडपूर्ण थी। इस तरह के समाज का समाजवादी होना आवश्यक था। स्वतंत्रता की तरह, क्रांति को भी वह लोगों का जन्मसिद्ध अधिकार मानते थे। भगत सिंह और दत्त ने अपने वक्तव्य में तो यही कहा था कि उनका असेम्बली में किसी को मारने का कोई इरादा नहीं था और कोई घायल भी नहीं हुआ था क्योंकि बम कम शक्तिशाली थे और उनका उद्देश्य चेतावनी देना था, फिर भी न्यायाधीश ने उन्हें दोषी पाया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

लाहौर षड्यंत्र कांड
लाहौर षड्यंत्र कांड में सांडर्स और चानन सिंह की हत्या, असेम्बली बम कांड और बम बनाने के कारखाने लगाने जैसे सभी आरोपों को एक साथ ले लिया गया और भगत सिंह तथा उनके साथियों पर एक विशेष अदालत में मुकदमा चलाया जाना तय हुआ। इस अदालत का फैसला अंतिम माना जाना था। अभियुक्तों ने यह जता दिया कि उन्हें अपने बचाव के लिए कोई वकील नहीं चाहिए, अदालत के न्याय में उनकी कोई आस्था नहीं थी, और जब तक उन्हें जबरदस्ती नहीं ले जाया जाता, वे अदालत में हाजिर नहीं होंगे। भगत सिंह के नेतृत्व में कैदियों ने भूख-हड़ताल कर दी। उनकी मांग थी कि क्रांतिकारियों के साथ राजनीतिक कैदियों का-सा बर्ताव किया जाए और जेल में दी जाने वाली सुविधाओं को बेहतर किया जाए। तीन महीने से भी ज्यादा चलने वाली इस हड़ताल के दौरान, एक क्रांतिकारी जतिन दास की मृत्यु हो गई और उनके शव को कलकत्ता ले जाया गया जहां उनकी शवयात्रा में एक रिकार्ड तोड़ भीड़ ने हिस्सा लिया। भगत सिंह और उनके साथियों को जबरदस्ती पकड़ कर न्यायाधीश के सामने पीटा गया। इन घटनाओं की खबर अखबार में छपी और जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाष बोस जैसे नेताओं ने उनकी हालत पर चिंता व्यक्त की। महात्मा गांधी ने लंबे समय तक कोई राय व्यक्त नहीं की और जब उनसे इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने उनके तरीकों से असहमति व्यक्त की और उन्हें दिग्भ्रमित देशभक्त कहा। फिर भी, उन्होंने भगत सिंह और उनके साथियों को बहादुर माना।

विशेष अदालत ने भगत सिंह और राजगुरू को सांडर्स की हत्या का दोषी और सुखदेव को षड्यंत्र के पीछे काम करने वाला दिमाग होने का दोषी पाया। भगत सिंह को बचाने की आखिरी कोशिश उनके पिता की ओर से हुई, जिन्होंने विशेष अदालत में एक याचिका दायर करके यह निवेदन किया कि सांडर्स की हत्या के समय भगत सिंह लाहौर में नहीं थे। भगत सिंह ने इस कोशिश का कड़ा विरोध किया और इसे ‘‘सबसे खराब किस्म की कमजोरी’’ बताया। उन्होंने बचाव करने की किसी भी कोशिश को अस्वीकार कर दिया और अपने पिता से कहा कि वह उनके पत्र को प्रकाशित करवा दें। विशेष अदालत ने 7 अक्टूबर, 1930 को अपना फैसला सुनाया जिसमें भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई और दूसरों को आजीवन निर्वासन की। भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की जान बचाने की अनेक भारतीय नेताओं की कोशिश बेकार गई और उन्हें 23 मार्च, 1931 को फांसी दे दी गई। इस तरह, जब फांसी के छह दिन बाद कराची में कांग्रेस की बैठक हुई तो वहां के वातावरण में उदासी थी। महात्मा गांधी को अपना पक्ष रखना पड़ा और उन्होंने युवा शहीदों को उनकी बहादुरी के लिए श्रद्धांजलि अर्पित की, लेकिन उन्होंने अहिंसा के अपने सिद्धांत का समर्पण नहीं किया, जिसे गांधी-इर्विन समझौते के बाद कांग्रेस ने अपनाया।
बोध प्रश्न 1
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर नीचे दिए गए स्थान पर लिखें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से करें।

1) पंजाब के किसान वर्ग में बढ़ती अशांति के प्रमुख कारण क्या थे?
2) नौजवान सभा ने किन आदर्शों या सिद्धांतों का प्रचार किया?

बोध प्रश्न 1 के उत्तर :
1) पंजाब के किसान वर्ग में बढ़ती अशांति के प्रमुख कारण थे, बार-बार के अकाल, बढ़ती बेरोजगारी और सरकार की उपनिवेशवाद की नीति।
2) नवजवान सभा ने जिन आदर्शों या सिद्धांतों का प्रचार क्रिया, वे थे-समानता, गरीबी हटाना और संपदा का समान वितरण।

भगत सिंह की विचारधारा
भगत सिंह की राजनीतिक गतिविधियों और धारणाओं को समझने के लिए उनकी विचारधारा का सावधानी से विश्लेषण करना आवश्यक है। उनके चितन को समाजवादी चिंतन ने निश्चित रूप से प्रभावित किया था। मार्क्स, लेनिन, वात्स्की कई समाजवादी लेखकों की रचनाओं ने उनकी वैचारिक धारणाओं को बहुत प्रभावित किया था।
10.3.1 नास्तिकता का पक्ष
भगत सिंह के राजनीतिक विचार उनके तीन लेखों और मकदमें के दौरान उनके कई वक्तव्यों में व्यक्त हुए हैं। ‘‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’’ शीर्षक से एक रोचक लेख में उन्होंने अपने और उन दूसरे क्रांतिकारियों के बीच अंतर को समझाने की कोशिश की है जो अपनी जेल की जिंदगी में भक्त और ईश्वर-भीरू हो गए। ईश्वरवाद से नास्तिकता को ओर अपने उविकास की प्रक्रिया के बारे में भगत सिंह बताते हैं कि कैसे अपने कॉलेज के दिनों में उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व के बारे में सवाल करने शुरू कर दिये थे। जब उन्होंने ईश्वर में विश्वास करने वालों की धारणाओं को काटने वाले तर्कों का अध्ययन करना शुरू किया तो आतंकवाद के बारे में उनके काफी रूमानी विचार जाते रहे, और वह यथार्थवादी हो गए।

‘‘न अब और रहस्यवाद, अब और अंधविश्वास () यथार्थवाद हमारा पंथ हो गया। भयंकर आवश्यकता के समय ताकत का इस्तेमाल उचित (ठहरा), सभी जन आंदोलनों के लिए हिंसा की नीति अनिवार्य। तरीकों के बारे में इतना ही।’’

भगत सिंह ने बताया है कि उनमें जो संक्रमण या बदलाव हुआ उसका कारण बाकुनिन, मार्स, लेनिन और वात्स्की का अध्ययन था। एक किस्म के रहस्यवादी नास्तिकता का उपदेश देने वाली नीरलम्ब स्वामी की किताब ‘कॉमन सेंस‘ ने भी उनके विचारों पर अपना प्रभाव छोड़ा। जब 1927 में पहली बार उनकी गिरफ्तारी हुई तो, पुलिस ने काकोरी कांड के बारे में उनसे जानकारी हासिल करनी चाही। उन्होंने उन्हें फांसी पर चढ़ा देने की धमकी दी और उनसे अपनी अंतिम प्रार्थना करने को कहा। काफी विचार के बाद उन्होंने पाया कि उन्हें प्रार्थना करने की कोई इच्छा ही नहीं थी और इस तरह वह नास्तिकता की पहली परीक्षा में खरे उतरे।

इस लेख में भगत सिंह ने इस बात से इंकार नहीं किया कि ईश्वर दंडित कैदी को तसल्ली और हिम्मत देने वाला एक मजबूत लंगर है। लेकिन उनका सोचना था कि इस जीवन में या मृत्यु के बाद के जीवन में किसी फल की इच्छा किए बिना बड़ा से बड़ा त्याग कर देने के लिए और भी बड़ी हिम्मत की आवश्यकता होती है। उन्होंने अपने कुछ साथियों के इस आरोप का खंडन किया कि ईश्वर के अस्तित्व को नकारना उनका अहंकार था। उन्होंने लिखा है:

‘‘जिस दिन हमें ऐसे स्त्री-पुरुष भारी संख्या में मिलेंगे जिनकी मानसिकता यह होगी. कि वे मानव जाति की सेवा और पीड़ित मानवता की मुक्ति के अलावा और किसी भी बात के प्रति अपने आपको समर्पित नहीं कर पाएंगे, वह दिन स्वतंत्रता के युग का पहला दिन होगा क्या उनके महान उद्देश्य पर गर्व करने को अंहकार समझा जा सकता है? उसे क्षमा कर देना चाहिए क्योंकि वह उस दिल में उमड़ने वाली महान भावनाओं, भाव, संवेग और गहराई को नहीं महसूस कर सकता आत्मनिर्भरता को हर बार अंहकार ही समझा जाएगा। यह अपने आप में एक दुखद स्थिति है, लेकिन इसका कोई चारा भी नहीं है।’’

भगत सिंह आलोचना और स्वतंत्र चिंतन को क्रांतिकारी के दो अनिवार्य गुण मानते थे। ष्उसके लिए कोई भी व्यक्ति इतना महान नहीं कि उसकी आलोचना न की जा सके। वह इसे दासता की निशानी मानते थे। वह परिवेश को समझने के लिए आस्था और विश्वास का इस्तेमाल होने देने के लिए तैयार थे। प्रत्यक्ष प्रमाण न होने की स्थिति में, धर्म के दार्शनिकों ने चीजों को समझाने के लिए कई तरीके ढूंढ लिए हैंय जिससे विभिन्न धार्मिक विचार और उनसे सम्बद्ध विश्वास और रीतियां बनीं।’’

‘‘जहां प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलते, वहां दर्शन महत्वपूर्ण स्थान ले लेता है। जैसा मैं पहले ही कह चुका हूं, एक क्रांतिकारी मित्र कहते थे कि दर्शन मनुष्य की कमजोरी का परिणाम है। जब हमारे पुरखों के पास काफी खाली समय होता था कि इस दुनिया, इसके अतीत, वर्तमान और भविष्य, इसके कारणों के रहस्य को सुलझाने की कोशिश कर सकें, तो उनके पास प्रत्यक्ष प्रमाणों की कमी होने के कारण, उनमें से हरेक अपने ढंग से इस मसले को हल करने की कोशिश करता था। इसलिए, हमें विभिन्न धार्मिक पंथों के मूलभूत तत्वों में उतने अधिक अंतर मिलते हैं, कि वे कभी-कभी बहुत विरोधी और आपस में टकराने वाले स्वास्थ्य ग्रहण कर लेते हैं।’’

तमाम धर्मों के विरुद्ध भगत सिंह का तर्क यह था कि उनकी वे अन्वेषणकारी या खोजी प्रयोगधर्मी मनोवृत्तियां अब नहीं रह गई हैं, जो कि उन मूल चिंतकों की विशेषता हुआ करती थीं जो लोग उनका अनुसरण करते थे, वे उनके द्वारा बोले गए हर शब्द को मुखरित सत्य के रूप में स्वीकार करते थे और अपनी तरफ से सोचना बंद कर देते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि हर धर्म और संप्रदाय में ठहराव और सड़ाव आ गया है। इस तरह धर्म मनुष्य की प्रगति में बाधक बन गया है।

‘‘जो भी व्यक्ति प्रगति का समर्थन करता है, उसे पुराने धर्म के हर मुद्दे की
आलोचना, अविश्वास करना और उसे चुनौती देना चाहिए।’’

तर्क और केवल तर्क को ही कसौटी बनाकर यह परख की जानी चाहिए कि धर्म में संजोये जाने लायक है क्योंकि ईश्वर को सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ मानकर उसमें विश्वास करना बुनियादी तौर पर एक अबौद्धिक विश्वास है। ईसाई धर्म और इस्लाम के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि ईश्वर ने दुःख और चिंताओं वाले विश्व की रचना क्यों की। अगर इसका मकसद मनुष्य के दुःख में आनंद लेना है, तो ईश्वर की तुलना नीरो और चंगेज खां जैसे घृणित व्यक्तियों से होनी चाहिए। हिंदू वर्तमान जीवन के दुःखों का कारण पिछले जन्म में किए गए पापों को बताते हैं। लेकिन उनके पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर ने मनुष्य को इतना पूर्ण क्यों नहीं बनाया कि वह पापों से दूर रह सके। भगत सिंह ने अपने तर्क से यह जाना कि मनुष्य के भाग्य को नियंत्रित करने वाली कोई सर्वोच्च सत्ता नहीं है। मनुष्य ने प्रकृति को अपने वश में करके प्रगति की है और ऐसा कोई तर्क नहीं मिलता, जो ‘‘दुनिया को उसकी वर्तमान स्थिति में उचित ठहरा सके।’’ जो लोग मनुष्य जाति की उत्पत्ति के बारे में जानने को उत्सक थे, उनके लिए वह डार्विन को पढ़ने की सिफारिश करना चाहते थे। यह (उत्पत्ति) एक संयोग है और मनुष्य की बाद की सारी प्रगति का जवाब प्रकृति के साथ उसके लगातार संघर्ष और इस पर विजयी होने के उसके प्रयासों में दिया जा सकता है।

भगत सिंह की दृष्टि में, ईश्वर का विश्वास आवश्यक तौर पर उन लोगों की खोज नहीं थी जो एक सर्वोच्च सत्ता के होने के बारे में उपदेश देकर लोगों को अपनी अधीनता में रखना चाहते थे और फिर उसकी ओर से मिले अधिकार या स्वीकृति का दावा करके अपनी विशेष स्थिति को उचित ठहराना चाहते थे। बहरहाल, वह इस तर्क को स्वीकार करते थे कि धर्म की भूमिका बुनियादी तौर पर प्रतिक्रियावादी है क्योंकि इसने हमेशा अत्याचारी और शोषक संस्थाओं, व्यक्तियों और वर्गों का साथ दिया है। मूल रूप से, ईश्वर के विचार की खोज इसलिए की गई थी कि मनुष्य को उसके तमाम संकटों का सामना करने की हिम्मत मिले और उसके दर्प और अहंकार को भी दबाए रखा जाए। ‘‘ईश्वर का विचार संकट में पड़े मनुष्य के लिए मददगार है।’’

एक यथार्थवादी के नाते भगत सिंह इस तरह की धारणाओं से मुक्ति पाना चाहते थे।

‘‘मैं नहीं जानता कि मेरे मामले में ईश्वर का विश्वास और दैनिक प्रार्थना करना, जिसे मैं मनुष्य का सबसे स्वार्थपूर्ण और नीच काम मानता हूं, मददगार साबित हो सकता है या नहीं, या उनसे मेरा मामला और भी बदतर हो जाएगा। मैंने नास्तिकों को तमाम मुश्किलों का पूरी हिम्मत के साथ सामना करने के बारे में पढ़ा है, इसलिए मैं आखिर तक सिर ऊंचा करके खड़ा रहने की कोशिश कर रहा हूंय फांसी के तख्ते पर भी।’’

सामाजिक क्रांति के बारे में उनके विचार
समाज के, और भारत के लिए वह जिस प्रकार के समाज की कल्पना करते थे, उसके बारे में भगत सिंह के विचार मार्क्सवाद और रूसी साम्यवाद से प्रभावित थे। क्रांति से वह क्या समझते थे, इस बारे में उन्होंने अदालत के सामने स्पाष्ट कर दिया था कि क्रांति से वह यह. समझते थे कि समाज का पुनर्संंगठन आधार पर (हो)….जिसमें सर्वहारा की प्रभुसत्ता को मान्यता दी जाए और एक विश्व संघ मानवता को पूंजीवाद के बंधन से और साम्राज्यवादी युद्धों के संकट से मुक्त करे।’’

इनमें से कुछ विचारों को उन्होंने आगे अपनी किताब ‘‘इंट्रोडक्शन टू द ड्रीमलैंड’’ में समझाया। ‘‘ड्रीमलैंड’’ राम सरन दास की काव्य कृति थी, जिन्हें आजीवन निर्वासन मिला था। भगत सिंह ने अपनी भूमिका में लिखा कि राजनीतिक दल स्वाधीनता के बाद किस तरह का समाज बनाना चाहते हैं। इस बारे में उनके पास कोई अवधारणा नहीं थी। उन्होंने केवलं विदेशी शासन से स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य बनाया हुआ था और इनका: एकमात्र अपवाद गदर पार्टी थी जो चाहती थी कि भारत एक गणतंत्र बने। उनके अनुसार ये पार्टियां, क्रांतिकारी नहीं थीं, उनके लिए क्रांति का अर्थ था ष्वर्तमान स्थितियों को पूरी तौर पर नष्ट करने के बाद, नए और अनकलित आधार पर समाज के क्रमबद्ध पुनर्निर्माण का कार्यक्रम’’। वह गांधीवादियों के इस विचार से सहमत नहीं थे कि विनाश रचना का रास्ता नहीं है। उनकी दृष्टि में ‘‘विनाश रचना के लिए न केवल आवश्यक है, बल्कि अनिवार्य भी है’’। उनका सुझाव था कि हिंसक क्रांति से एक ऐसे समाज का निर्माण हो, जहां फिर हिंसा सामाजिक संबंधों का स्वभाव न रहे। वह कलह टालने के लिए विभिन्न धर्मों के विचारों को मिलाने के विचार के भी खिलाफ थे। इसकी जगह वह एक धर्म-निरपेक्ष जिदगी की वकालत करते थे।

भगत सिंह ने खैरात और खैराती संस्थाओं के खिलाफ भी अपने विचार व्यक्त किए, जिनका समाजवादी समाज में कोई स्थान नहीं है। सामाजिक संगठन का निर्माण इस सिद्धांत की धरी पर होगा कि ‘‘न कोई जरूरतमंद होगा और न गरीब, न भीख दी जाएगी, न भीख ली जाएगी।’’ काम करना सबके लिए अनिवार्य होगा। मानसिक और शारीरिक मजदूरी के आधार पर कोई बड़ा या छोटा नहीं होगा और पारिश्रमिक बराबर होगा। बहरहाल, वह इस विचार से असहमत थे कि केवल शारीरिक मजदूरी ही उत्पादक मजदूरी मानी जाए। सबके लिए अनिवार्य शारीरिक मजदूरी की बात उन्हें कोरी आदर्शवादिता और. अव्यावहारिक लगती थी।

भगत सिंह ने अपराध और दंड जैसे मसलों पर भी अपने विचार व्यक्त किए। दंड अपराधी का पुनर्वास करने के विचार से दिया जाना चाहिए। ष्जेलों को सुधार-गृह होना चाहिए, निरा नर्क नहीं’’। वह यह मानते थे कि युद्ध शोषण के आधार पर चलने वाले समाज की विशेषता है। समाजवादी समाज में युद्ध की संभावना को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि । इसे पंजीवादी समाज से अपनी रक्षा करनी होगी। उनका यह भी सुझाव दिखाई देता है कि क्रांतिकारी युद्ध विश्व की समाजवादी व्यवस्था बनाने के लिए आवश्यक होगा। शिक्षा उद्विकास के जरिए शांतिपूर्ण क्रांति को वह कोरी आदर्शवादिता मानते थे।’’ सत्ता हथियाने के बाद, शांतिपूर्ण तरीकों का इस्तेमाल रचनात्मक कार्य के लिए किया जाएगा, ताकत का इस्तेमाल रुकावटों को कुचल देने के लिए किया जाएगा।‘‘

बोध प्रश्न 2
टिप्पणी: 1) अपने उत्तर नीचे दिए गए स्थान पर लिखें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिए गए उत्तरों से कर लें।
1) भगत सिंह क्रांतिकारियों के लिए किन दो गुणों को सबसे महत्वपूर्ण मानते थे?
2) क्या भगत सिंह यह मानते थे कि धर्म एक प्रतिक्रियावादी शक्ति है? यदि हां तो इसके क्या कारण थे?

बोध प्रश्न 2 के उत्तर :
1) भगत सिंह क्रांतिकारियों के लिए आलोचना और स्वाधीन चिंतन को सबसे महत्वपूर्ण गुण मानते थे।
2) हां। वह इस तर्क को स्वीकार करते थे कि धर्म बुनियादी तौर पर एक प्रतिक्रियावादी शक्ति है क्योंकि यह हमेशा अत्याचारी और शोषक वर्गों और संस्थाओं का साथ देती

कांग्रेसी नेतत्व का अस्वीकार
भगत सिंह के ष्अंतिम संदेशष् से यह बात समझ में आती है कि क्रांतिकारियों और कांग्रेसी नेताओं के बीच मतभेद क्यों थे। चैरी चैरा कांड के बाद, जिसमें एक ऋद्ध भीड़ ने अंग्रेजी पुलिस वालों समेत एक पुलिस चैकी को आग लगा दी थी, असहयोग आंदोलन का वापस ले लिया जाना, क्रांतिकारियों को बहुत खला था और उन्होंने इसे विश्वासघात माना था। इसी तरह, तथाकथित गांधी-इनिन समझौते और सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित, किया जाना भी एक बड़ी गलती माना गया। यहा तक कि कांग्रेस के अपने पूर्ण स्वराज के लक्ष्य की घोषणा को भी अंग्रेजों से कुछ रियायतें हथिया लेने का अधमना प्रयास माना गया।

भगत सिंह का कांग्रेस के खिलाफ आरोप यह था कि यह किसी क्रांतिकारी शक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। यह उन बर्जआ की प्रतिनिधि थी जो किसी भी संघर्ष में अपनी संपत्ति को हाथ से नहीं जाना देना चाहते थे। असली क्रांतिकारी तत्व तो किसानों और मजदूरों में थे। लेकिन इन शक्तियों को कांग्रेस जागत नहीं करती थी। कांग्रेस संघर्ष में मजदरों और गरीब किसानों की हिस्सेदारी से इसलिए डरती थी क्योंकि उसे पूंजीपतियों या जमींदारों के हितों के खिलाफ नियंत्रित रखना मुश्किल लगता था। भगत सिंह का विचार यह था कि कांग्रेस वास्तव में मध्यम वर्गों और निम्न मध्यम वर्गों की प्रनिनिधि थी और उसे सामाजिक क्रांति में सचमुच कोई दिलचस्पी नहीं थी।

भगत सिंह का मानना था कि समझौते और सामंजस्य करने में कोई बुराई नहीं, बशर्ते कि लक्ष्य स्पष्ट हो और नीतिगत प्रबंधों के कारण ऐसे समझौते आवश्यक हों। तिलक की रणनीति को सही मानते हए उन्होंने कहा था कि उन्हें अगर आधी रोटी दी गई, तो वह इसे तो स्वीकार कर लेंगे, लेकिन बाकी आधी के लिए लड़ते रहेंगे। असली खतरा तब उठता है जब स्थिरतावादी शक्तियां हावी होकर बदलाव में रुकावट खड़ी कर देती हैं।

जहां तक संवैधानिक सुधारों का सवाल है, भगत सिंह को वे जिम्मेदार सरकार के हर इम्तिहान में अधूरे लगते थे। कार्यपालिका असेम्बली द्वारा पारित प्रस्तावों पर वीटो का इस्तेमाल करती थी। क्या कार्यपालिका का चुनाव करके और इसे विधायिका के प्रति जिम्मेदार बनाकर इसे बदला जाएगा? वह अवाम की हिस्सेदारी के इम्तिहान को चुनावों में भी आजमाना चाहते थे। क्या सभी को वोट डालने का अधिकार होगा या केवल संपत्ति के श्मालिकों को? उन्होंने प्रांतीय स्वायत्तता के इम्तिहान को भी लागू करना चाहा और इस नतीजे पर पहुंचे कि केंद्रीकृत ऐकिक (या केंद्रीकरणवादी) व्यवस्था इसे खारिज कर देगी।

उन्होंने क्रांतिकारियों को यह सलाह दी कि वे अपने अंतिम लक्ष्य, अपनी वर्तमान स्थिति और काम करने के तरीकों और साधनों के बारे में स्पष्ट हों। लक्ष्य समाजवादी क्रांति और उससे पहले राजनीतिक क्रांति होनी चाहिए। केवल अंग्रेजी राज का तख्ता पलट देना ही काफी नहीं था। मजदूरों और किसानों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला, अगर लॉर्ड रीडिंग की जगह सर पुरुषोत्तम दास ठाकर ले लें या लार्ड इर्विन की जगह सर तेजबहाद सप ले लें। क्रांति मजदूरों और किसानों के भले के लिए होनी चाहिए और उन्हें इसका आभास कराया जाना चाहिए। यह सर्वहारा द्वारा सर्वहारा के लिए सर्वहारा क्रांति होनी चाहिए।

इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, भगत सिंह ने क्रांतिकारियों से कहा कि वे क्रांति की तैयारी करने के लिए एक संगठित दल और ष्पेशेवर क्रांतिकारियों के बारे में लेनिन के विचारों का अनुसरण करें। इसके लिए, वह चाहते थे कि युवक इस तरह के दल का गठन करके अध्ययन समूहों को संगठित करें, भाषणों का आयोजन करें और किताबें और पत्रिकाओं का प्रकाशन करें और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को शिक्षित और भर्ती करें। फिर भी वह यह नहीं चाहते कि कोई अनुशासित दल आवश्यक तौर पर गुप्त भी हो। वह हिंसा को भी अनिवार्य नहीं मानते थे। राजनीतिक कार्यकर्ताओं से वह अपेक्षा यह करते थे कि वे जनता के बीच जाकर काम करें और किसानों तथा मजदूरों की सक्रिय सहानुभूति हासिल करें। वह ऐसे दल को साम्यवादी दल भी कहते थे।

भगत सिंह आर्थिक स्वाधीनता को अंतिम लक्ष्य मानते थे। लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता को वह पहला कदम मानते थे। उन्हें इस बात पर कोई आपत्ति नहीं थी कि छोटे-छोटे लाभों के लिए मजदूर खुद अपने आपको संगठित करें। लेकिन इन्हें लक्ष्य नहीं माना जाना चाहिए।

अंतिम बात, भगत सिंह का क्रांतिकारियों से यह कहना था कि वे अपनी अपेक्षाओं को लेकर अत्यधिक सतर्क और संतुलित रहें। उनकी यह चेतावनी थी कि वे कोरे आदर्शवादी सोच से बचें। भावुक और लापरवाह व्यक्ति क्रांति नहीं कर सकते। इसके लिए आवश्यक बातें धीरज, त्याग और व्यक्तिवाद का न होना थीय साहस, दृढ़ इच्छा और सतत परिश्रम क्रांतिकारियों के अनिवार्य गुण थे।

बोध प्रश्न 3
टिप्पणीः 1)अपने उत्तर नीचे दिए स्थान पर लिखें।
2) अपने उत्तरों का मिलान इकाई के अंत में दिए उत्तरों से कर लें।
1) भगत सिंह कांग्रेस पर किस तरह का आरोप लगाते थे?.
2) भगत सिंह……..ष्को अंतिम लक्ष्य मानते थे।

बोध प्रश्नों के उत्तर
बोध प्रश्न 3
1) भगत निह कांग्रेस पर यह आरोप लगाते थे कि वह क्रांतिकारी शक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। वह मानते थे कि कांग्रेस बुर्जुआ (मध्यम वर्ग) की पार्टी थी और गरीब किसान वर्ग को इससे बाहर रखा गया था।
2) आर्थिक स्वाधीनता।

सारांश.
भगत सिंह का महत्व इस बात में है कि वह अपने समय के क्रांतिकारियों के चरित्र और तेवर के प्रतीक थे। वह सक्रिय कार्यकर्ता भी थे और चितक भी। उनके विचार उनकी शहीदी मृत्यु से कहीं कम नहीं थे।

भगत सिंह की पारिवारिक पृष्ठभूमि, उनकी शिक्षा, भारत में क्रांतिकारियों के साथ उनके संपर्क और यूरोपीय क्रांतिकारियों की रचनाओं का उनका अध्ययन, इन सबने भगत सिंह को क्रांतिकारी बनाने में अपना योगदान दिया। वह आस्था से आतंकवादी नहीं थे। वह अतिवादी परिस्थितियों में ही आतंकवाद को उपयोगी मानते थे और एक महान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए साधनों के चयन के मामले में वह तटस्थ थे।

भगत सिंह भारत में अंग्रेजी राज को अनैतिक, अनौचित्यपूर्ण और बुरा मानते थे। वह चाहते थे कि स्वतंत्रता के लिए जो संघर्ष हो, उसमें समझौता न हो। लेकिन देश की स्वतंत्रता मजदूरों और किसानों की बहुसंख्या के लिए एक और भी बड़ी स्वतंत्रता की ओर एक कदम था। वह चाहते थे कि किसानों और मजदूरों के शोषण का अंत हो। यह उनका अंतिम लक्ष्य था।

उनका मानना यह भी था कि कांग्रेस का राष्ट्रीय आंदोलन अपने लक्ष्यों के बारे में स्पष्ट नहीं था और बुर्जुआ के हितों की रक्षा करना चाहता था। उन्होंने गांधीवादी तरीकों और नीतियों की खुलकर आलोचना की। वह व्यक्तिवादी पंथ को बढ़ावा देने के विरोधी थे। आलोचना और स्वाधीन चिंतन क्रांतिकारी के लिए अनिवार्य गुण थे।

वह एक ऐसा दल चाहते थे जिसमें अनुशासित, परिश्रमी, समर्पित और अटल युवक हों। उन पर रूसी क्रांतिकारी प्रयोग का बहुत प्रभाव पड़ा और इसे वह भारत के भविष्य के विकास के लिए एक आदर्श नमूना मानते थे।

कुछ उपयोगी पुस्तकें
बक्षी, एस.आर. ‘‘भगत सिंह ऐंड हिज आइडियोलॉजी’’, कैपिटल पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 1981
देओल, जी,एस. ‘‘शहीद भगत सिंह-ए बायोग्राफी’’ पंटियाला, 1969
ठाकुर, गोपाल ‘‘भगत सिंह: द मैन ऐंडा हिज टाइम्स’’ नई दिल्ली, 1962
गुप्ता, एम.एन. ‘‘दे लिब्ड डेंजरसली‘‘ पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1969
संधु वी. ‘‘भगत सिंहः पत्र और दस्ताबेज’’ राजपाल ऐंड संस, दिल्ली, 1983
जोशी वी.एस. ‘‘मृत्युंजवा आत्मयज्ञ’’ राजा प्रकाशन, पुणे, 1981 (मराठी)
भगत सिंह ‘‘अमी कशासाथी लढात महोत’’ः (मराठी) मगोवा प्रकाशन, पुणे, 1987