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स्थलरूप विकास के सिद्धांत क्या है ? ऐसी स्थलाकृति निर्मित होने का क्या कारण होता है क्यों होती है ?

ऐसी स्थलाकृति निर्मित होने का क्या कारण होता है क्यों होती है ? स्थलरूप विकास के सिद्धांत क्या है ?

स्थलरूप विकास के सिद्धान्त
(Theories of Landscape Development)
स्थलरूपों का सृजन प्रक्रमों द्वारा दीर्घकाल में होता है। इनका विकास क्रमिक होता है, परन्तु ही में व्यवधान उत्पन्न होते हैं। फलतः इनके विकास में अवरोधक स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जल बाह्म स्वरूप, जो दृष्टिगत है, अत्यन्त जटिल प्रक्रियाओं द्वारा सृजित होता है। भू-आकृति विज्ञानवेत्ताको इन जटिल प्रक्रियाओं की समस्याओं के निराकरण हेतु अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किये हैं। तर्क प्रक्रिया वैज्ञानिक प्रमाण, क्षेत्र पर्यवेक्षण, अनुभव आदि के द्वारा सिद्धान्तों में विशिष्टता का समावेश निरन्तर होता रहा, परन्तु समस्त समस्याओं का पूर्ण निराकरण सम्भव न हो सका। स्थलम्पों के अध्ययन-हेत अनेक विधाओं एवं उपगमों का प्रतिपादन किया गया है। सार्वभौमिक सिद्धान्त के अभाव में स्थलरूपों के विकास की समस्या जटिल बनी है। इनकी समस्याओं के समाधान हेतु वर्तमान तक ऐसे सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया गया है, जो सभी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत कर सके। प्रस्तुत अध्याय इसी का समीक्षात्मक विश्लेषण है।
स्थलरूप-विकास की समस्या
विस्तृत धरातल पर विद्यमान स्थलरूप, जो अनेक प्रक्रमों द्वारा सृजित हैं तथा जिन पर भूगर्भिक संरचना, जलवायुविक दशाओं, वानम्पतिक आवरण, प्रक्रमों के स्वभाव का प्रभाव पड़ता है, ये अन्यन्त जटिल स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। यदि उनकी समस्याओं का विश्लेषण किया जाय तो स्पष्ट होता है –
(क) स्थलरूपों के विकासकाल में अनेक अवरोध उपस्थित होते हैं, जो स्वरूप को अत्यन्त जटिल बनाते हैं। इनमें विवर्तनिक प्रक्रिया अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके द्वारा स्थलरूप प्रभावित होते है।
(ख) स्थलम्पों के विकास में संरचना एवं प्रक्रम दो अत्यन्त महत्वपूर्ण कारक हैं। संरचना के स्वभाव की भिन्नता स्थलरूपों के विकास में जटलिता एवं सरलता का समावेश करती है । भूगर्भिक संरचना किन स्थान विशेष के स्थलरूपा को नियन्त्रित एवं संवर्दि्धत करती है तथा इसका स्वभाव स्थलरूपा पा द्रष्टव्य होता है। प्रत्येक प्रक्रम अपने अनुसार स्थलरूपों का विकास करता है। प्रक्रमों की तीव्रता एव शायर पर स्थलरूपों का विकास निर्भर होता है।
(ग) स्थलरूपों पर समय का प्रभाव नगण्य होता है। ये समय निरपेक्ष होते हैं। स्थलरूपों के विकास में समय अल्प एवं बहल दोनों होता है। कतिपय स्थलाकृतियाँ प्रेमी हैं जो अल्प समय में निर्मित हुई है, जबिक अनेक स्थलाकृतियाँ ऐसी भी हैं, जिनके निर्माण में अधिक समय लगा है। ऐसा नहीं है की वृद्धि के साथ साथ स्थलरूपों का विकास स्वतः होता रहे।
(घ) स्थलरूपों का विकास क्रमिक अवस्था में होता है। प्रत्येक अवस्था विकास की विराम-बिन्दु होती है, जिनसे स्थलरूपों के विकास की अवस्था का बोध होता है।
स्थलरूपों के विकास में वर्तमान तक किसी ऐसे निर्णायक सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं किया गया है, जो इनकी समस्याओं का निराकरण कर सके। प्रक्रम एवं संरचना स्थलरूपों के विकास में जटिलता उत्पन्न कर देती हैं। इसमें सभी विद्वान मतैक्य नहीं है। परिणामतः विचारों में भिन्नता के कारण सिद्धान्तों में भिन्नता स्वतः आ गयी। स्थलरूपों के विकास से सम्बन्धित जितने भी सिद्धान्त प्राप्य हैं, वे सभी आवश्यकता से अधिक सरल हैं। इनमें इनकी जटिलताओं का गहनता से अध्ययन नहीं किया गया है। हिगिन्स के अनुसार – वर्तमान में कोई भी ऐसा निर्णायक सिद्धान्त अथवा मॉडल अथवा भू-आकृति-तत्व का प्रतिपादन नहीं किया जा सका है, जो सभी स्थलरूपों की विशेषताओं को समाविष्ट कर सके। लघु क्षेत्रों के भ्वाकृतिक अध्ययन के आधार पर प्रतिपादित सिद्धान्त सभी स्थलरूपों की समुचित व्याख्या करने में समर्थ नहीं होते हैं। प्रायः भू-आकृति विज्ञानवेत्ता किसी लघु क्षेत्र के भ्वाकृतिक विश्लेषण के आधार पर अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन किये हैं, जो सार्वभौमिक नहीं हो सके। वास्तविकता यह है कि – स्थलरूपों के सृजन एवं विकास में विविध जटिलता एवं परिवर्तनशीलता द्रष्टव्य है। प्रत्येक स्थान के स्थलरूपों के विकास की प्रक्रिया प्रायः भिन्न होती है। ऐसी दशा में कोई एक सिद्धान्त अथवा विचार सभी स्थलरूपों की समस्त समस्याओं का समाधान करने में समर्थ नहीं होता है। जितने स्थलरूप हैं, उतने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करना भू-आकृति विज्ञान में आवश्यक है। स्थलरूपों के विकास की समस्याओं के समाधान-हेतु अलग-अलग सिद्धान्त अपरिहार्य हैं। हिगिन्स के अनुसार – “We need multiple theories or dffierent theories for dffierent purposes —- – as scientists we may all be seeking a ‘correct’ or ‘complete’ rational answer to landform origins but if the natural world in irrational] no internally complete and substantive theory or system would work”.
स्थलरूप जटिलतन्त्रों का समुदाय होता है। विकास के प्रत्येक चरण में जटिलताओं का समावेश होता रहता है। इन समस्याओं का निराकरण स्थल विशेष के स्थलरूपों के अध्ययन द्वारा किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यकता है, गहन वैज्ञानिक एवं तार्किक अध्ययन की। हो सकता है कि ऐसा सिद्धान्त सार्वभौमिक स्तर प्राप्त न कर सके, परन्तु किसी स्थान विशेष के स्थलरूपों के विकास की समस्या का समाधान अवश्य कर सकता है। प्रायः विद्वानों ने किसी स्थान के स्थलरूपों के विकास की समस्याओं के समाधान-हेतु सीधे एवं सरल ढंग से सिद्धान्तों का प्रतिपादन कर दिये हैं, जो कुछ समस्याओं का समाधान तो कर देते हैं, परन्तु इनके द्वारा अनेक अन्य समस्यायें उत्पन्न हो जाती हैं।
प्रक्रम रूप उपागम पर किया गया शोध कार्य यह संकेत करता है कि किसी भी स्थलरूप के विकास की समस्याओं के निराकरण-हेतु एक नहीं, अपितु अनेक सिद्धान्तों की आवश्यकता होती है। स्थलरूपों की समस्या के समाधान-हेतु उस स्थान विशेष की अतीत की जलवायु का विश्लेषण करना आवश्यक होता है, क्योंकि किसी स्थलरूप के विकास में कार्यरत प्रक्रम को आधार माना जाता है, परन्तु यदि सूक्ष्म विश्लेषण किया जाय, तो स्पष्ट होता है कि अतीत में भी प्रक्रम कार्य किये हैं, जिनके अवशेष यत्र-यत्र परिलक्षित होते हैं। ऐसी दशा में, सिद्धान्त का वैज्ञानिक विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा सिद्धान्त में उत्कृष्टता के साथ-साथ संभव हो सकता है कि यह एक वर्ग के समस्त स्थलरूपों की समस्याओं का समाधान करने में समर्थ हो।
भ्वाकृतिक सिद्धान्त की अवधारणा
सिद्धान्त विषय के स्वरूप एवं उसकी उत्कृष्टता प्रदान करने में सहायक होते हैं। सार्वभौमिक सिद्धान्त के प्रतिपादित होते ही विषय वैज्ञानिक-स्तर प्राप्त कर लेता है। भू-आकृति विज्ञान को भी वैज्ञानिक स्तर प्रदान करने के लिए विद्वानों ने समय-समय पर अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किये हैं। स्थलरूपों के समस्या सम्बन्धी सिद्धान्त दीर्घकालीन एवं अल्पकालिक होने वाले परिवर्तनों के आधार पर प्रतिपादित किये गये हैं,
जो इनकी समम्याओं की व्याख्या नहीं कर सके हैं। इनके प्रतिपादन में -(i) स्थलमों के प्रक्रम एवं उनकी प्रक्रिया, (ii) स्थलरूपों के विकास में पड़ने वाले व्यवधान, (iii) मन की प्रक्रिया का विश्लेषण आदि का ध्यान देना आवश्यक होता है। साथ ही साथ उस जलवायु का भी विश्लेषण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में करके, उसके पड़ने वाले प्रभावों का नाम होता है।
स्थलरूपों के विकास सम्बन्धी सिद्धान्त – प्रलयवादिता सिद्धान्त एवं एकम्पताबाद की संकलन प्रतिपादन क्षेत्र पर्यवेक्षण के आधार पर किया गया है। ये सिद्धान्त समय के सन्दर्भ में तो सत्य इनको सार्वभौमिक-स्तर प्राप्त नहीं हो सका। डेविस ने सन् 1889-99 ई0 तक अनेक संकल्पना हो। प्रतिपादन करके, भू-आकृति विज्ञान को एक नई दिशा प्रदान की। ‘सरिता-जीवन का पूर्ण चक्र‘, ‘भौगोलिक चक्र‘ आदि इनके महत्वपूर्ण सिद्धान्त हैं। मिलबर्ट ने क्षेत्र पर्यवेक्षण के आधार पर – संरचना का नियम समांग ढाल-नियम, जल-विभाजक नियम, गतिक संतुलन सिद्धान्त आदि का प्रतिपादन कर विषय-वस्तु को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। भू-आकृति विज्ञान में निम्न विद्वानों के सिद्धान्त उल्लेखनीय है –
सारणी 2.1 भ्वाकृतिक सिद्धान्त तथा उनके प्रतिपादक
समय अध्येता सिद्धान्त क्षेत्र
1899 डेविस भौगोलिक चक्र आर्द्र प्रदेश
1903,05,30 डेविस भौगोलिक चक्र शुष्क प्रदेश
1900,06 डेविस भौगोलिक चक्र हिमानी क्षेत्र
1912 डेविस भौगोलिक चक्र सागर तटीय प्रदेश
1919 जॉनसन भौगोलिक चक्र सागर तटीय प्रदेश
1911 बीदी कार्ट-चक्र कार्ट प्रदेश
1948 स्वीजिक कार्ट-चक्र कार्ट-प्रदेश
1950 पेल्टियर परिहिमानी अपरदन-चक्र परिहिमानी प्रदेश
1924 पेंक भ्वाकृतिक सिस्टम परिहिमानी प्रदेश
1933 क्रिकमें पैनप्लेनेशन-चक्र परिहिमानी प्रदेश
1948 किंग पेडीप्लेनेशन चक्र मरुस्थली क्षेत्र
1953,62,63.67 किंग भ्वाकृतिक सिस्टम मरु प्रदेश
1966 पुध सबाना अपरदन-चक्र सवाना प्रदेश

स्थलरूपों के विकास के सिद्धान्त के प्रणयनोपरान्त भू-आकृति विज्ञान में मात्रात्मक अध्ययन प्रवृति का विकास हुआ। इसकी व्याख्या गणितीय आधार पर की गयी। इसके प्रतिपादन में स्ट्रालर, हाट आदि विद्वान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिन्होंने मात्रात्मक आधार पर अध्ययन किया है। अध्ययन जहाँ पर एक और समस्याओं के समाधान हेतु वैज्ञानिक विश्लेषण करने में सहायक होता है, वहीं दूसरी ओर स्थलरूपों के विकास की समस्याओं के समाधान में असफल है। स्थलरूपों के विकास के सिद्वान्तों का ऐतिहासिक विश्लेषण करें तो स्पष्ट होता है – (क) प्रयोजनाल सिद्धान्त (ख) सार्वभौमिक सिद्वान्त (ग) ऐतिहासिक सिद्धान्त, (घ) वर्गीकरणातक सिद्धान्त, (ड) कार्य-कारणात्मक सिद्धान्त, (च) यर्थाथवादी सिद्धान्त, तथा (छ) परम्परावादी सिद्धान्त आदि प्रमुख हैं।
(क) प्रयोजनात्मक सिद्धान्त (Teleological Theory) – प्रारम्भ में इस सिद्धान्त के प्रतिपादन का आधार अन्ध विश्वास था। कार्य-कारण के तर्कों का सहारा न लेकर ‘ईश्वर की कृपा‘ का विचार प्रस्तुत हा जाता था। उदाहरणार्थ – ज्वालामुखी के उद्गार अथवा भूकम्प आगमन आदि के वैज्ञानिक कारणों की खोज न करके ‘ईश्वर-कृपा प्रदत्त‘ माना जाता था। लघु स्थलरूपों पर विद्वानों का ध्यान आकर्षित नहीं हुआ बल्कि त्वरित निर्मित, जो ईश्वर की कृपा द्वारा हुआ है, का अध्ययन किया गया। मन्दगति एवं सीमित क्षेत्रों में निर्मित स्थलरूपों की कोई व्याख्या नहीं की गयी। प्रयलवादिता का सिद्धान्त इस मत का प्रमुख सिद्धान्त माना जाता है। 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक इस प्रकार के सिद्धान्तों का प्रचलन था। धीरे-धीरे इसका प्रभाव क्षीण होने लगा तथा वर्तमान में पूर्णरूपेण विलीन हो गया।
(ख) सार्वभौमिक सिद्धान्त (Immanent Theory) – प्रयोजनात्मक सिद्धान्त के प्रभावहीन होने के उपरान्त भू-आकृति विज्ञानवेत्ता कारणों की खोज करने लगे। लघु घटनाओं को महत्व दिया जाने लगा। नदी की अपरदन शक्ति, पवन के अपरदनात्मक प्रभाव, मैदान सजन-प्रक्रिया आदि का विश्लेषण इनकी आन्तरिक प्रकृति के आधार पर किया गया। जेम्स, हटन एवं जॉन प्लेफेयर ने अपरदन तथा निक्षेप द्वारा स्थलरूपों की व्याख्या प्रस्तुत की। स्मिथ, लेस्ले एवं पावेल ने ‘स्थलरूपों के विकास में संरचना का महत्वपूर्ण स्थान होता है‘ के आधार पर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि स्थलरूपों में संरचना का प्रभाव द्रष्टव्य होता है। संरचना के इस विश्लेषण के उपरान्त विभिन्न स्थानों की संरचना का गहनता से अध्ययन किया गया तथा निष्कर्ष निकाला गया कि विभिन्न स्थानों की संरचना भिन्न-भिन्न होती है, जिनका प्रभाव स्थलरूपों पर पड़ता है। परिणामतः ‘संरचना एवं उच्चावच के मध्य घनिष्ट सम्बन्ध विद्यमान होता है‘ संकल्पना का प्रतिपादन किया गया। ‘मैदान का सृजन संरचना के मुलायम गुण के कारण होता है‘ की महत्वपूर्ण व्याख्या की इस समय प्रस्तुत की गयी। आन्तरिक प्रकृति के आधार पर स्थलरूपों की व्याख्या द्वारा इस प्रकार के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया। उदाहरणार्थ – यदि किसी क्षेत्र में उच्च भाग विद्यमान हैं, तो इसका कारण चट्टान का कठोर होना है। यदि किसी स्थान पर घाटी का सृजन हुआ है, तो चट्टान का मुलायम होना है। दीर्घकाल तक इस प्रकार के कारणात्मक सिद्धान्तों की व्याख्या की जाती रही, परन्तु जब 19वी शताब्दी में लघु क्षेत्रों का गहन अध्ययन किया गया तो स्पष्ट हुआ कि शैल-संरचना का प्रभाव स्थलरूपों के विकास में अत्यल्प है। परिणामतः सार्वभौमिक सिद्धान्त का अवसान होने लगा।
(ग) ऐतिहासिक सिद्धान्त (Historical Theory) – अतीत की घटनाओं के आधार पर स्थलरूपों की व्याख्या इस सिद्धान्त के अन्तर्गत की जाती है। इसमें ‘अतीत में ऐसा हुआ होगा‘ के आधार पर स्थलरूप विकास-नियम का प्रतिपादन किया गया। इनमें ‘अपरदन-चक्र सिद्धान्त‘, ‘अनाच्छादन कालानुक्रम सिद्धान्त‘ एवं ‘विवर्तनिक सिद्धान्त‘ प्रमुख हैं।
वास्तव में, ये सिद्धान्त एकाकी घटनाओं के आधार पर प्रतिपादित किये गये, जिस कारण इन्हें वैज्ञानिक स्तर प्रदान नहीं किया गया। डेविस द्वारा प्रतिपादित ‘अपरदन चक्र सिद्धान्त‘ स्थलरूपों की व्याख्या एव वर्गीकरण-हेतु-अत्यन्त सफल माना गया। इस सिद्धान्त का आधार ऐतिहासिक विकास क्रम था। डेविस महोदय ने क्षेत्र-पर्यवेक्षण के उपरान्त, इतिहास का अध्ययन किया तथा अनेक तर्कों का सहारा लेकर स्थलरूप के विकास को ‘अपरदन-चक्र सिद्धान्त‘ के रूप में प्रस्तुत किया। स्थलरूपों के अध्ययन में यही से एक नया अध्याय प्रारम्भ हआ, जो वर्तमान तक चला आ रहा है एवं कतिपय आधुनिक भूगोलवेत्ता का छोड़कर सभी इसको किसी-न-किसी रूप में स्वीकार किये हैं। ‘अपरदन-चक सिद्धान्त के आधार पर अनाच्छादन कालुनक्रम सिद्धान्त‘ का प्रतिपादन किया गया। इसके अन्तर्गत पृथ्वी के ग्राह्य सेल की ऐतहासिक संरचना द्वारा स्थलाकृतियों के विकास एवं विनाश की व्याख्या की गयी। दोनो विचारधारायें अलग-अलग धाराओं में प्रवाहित होकर स्थलरूप संगम पर मिल गयी, क्योकि दोनों का उद्देश्य ‘स्थलरूपों के विकास‘ का क्रमिक विश्लेषण करना था। ‘अनाच्छादन कालानुक्रम सिद्धान्त‘ के साम्य विवर्तनिक सिद्वान्त का प्रतिपादन किया गया है। प्रारम्भ में इस सिद्धान्त को मान्यता दी गयी, परन्तु बाद में अनेक अवरोंधों के कारण इसको उतनी ख्याति न मिल पायी, जितनी डेविस के सिद्धान्त को मिली। ऐतिहासिक विकास की समस्या का समाधान करने में कुछ कमियों के साथ समर्थ रहे, यहीं कारण है कि वर्तमान में भी इन सिद्वान्तों का महत्व है।
(घ) वर्गीकरणात्कम सिद्धान्त (Taxonomic Theory) – वर्तमान में, स्थलरूपों के सूक्ष्म विश्लेषण हेतु विस्तृत क्षेत्रों को लघु इकाइयों में वर्गीकृत किया जाता है। सूक्ष्मतर इकाई के अध्ययन से उस की अधिकाधिक सूचनायें एकत्रित की जा सकती हैं तथा स्थलरूपों के विकास सम्बन्धी सिद्धान प्रतिपादन किया जा सकता है। जलवायु भूआकारिकी के अध्ययनार्थ जलवायु भूआकारिकीवेत्ताओं ने संसार को जलवायु प्रदेशों में विभक्त कर, उनके स्थलरूपों के विकास की व्याख्या प्रस्तुत की है। अनुसार जलवायु ऐसा कारक है जो स्थलरूपों के विकास को नियंत्रित एवं विकसित करता है। इसी प्रकार भू-आकृति विज्ञानवेत्ता संसार को भू-प्रदेशों में विभक्त कर उनको पुनः उप प्रदेशों में वर्गीकृत कर. स्थलों की व्याख्या करने का प्रयास किया है। वर्तमान में अनेक विद्वान मात्रात्मक एवं गुणात्मक आधारों पर संसार को भू-प्रदेशों में बाँटकर विस्तृत भ्वाकृतिक अध्ययन में संलग्न हैं। किंग का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो वर्तमान में विश्व भूआकारिकी का अध्ययन कर रहे हैं। जितनी सूक्ष्मतर इकाई का चयन किया जाएगा, उतना ही विषय-वस्तु का विश्लेषण सत्यता के निकट होगा। साथ-ही-साथ क्षेत्र पर्यवेक्षण भी सरल होगा। वर्गीकरण की अवधारणा में सबसे विकट समस्या प्रदेशों के परिसीमन की है। प्रदेशों के परिसीमन का आधार क्या हो? यह कठिन समस्या भूगोलवेत्ता के लिए होती है। नदी, पठार, पर्वत आदि को सीमांकन का आधार माना जाय, तो क्षेत्र के विस्तृत होने की सम्भावना बनी रहती है। इसके लिए अन्य भ्वाकृतिक आधारों पर क्षेत्र का परिसीमन करके स्थलरूपों की व्याख्या आवश्यक हो जाती है।
(ड.) कार्य-कारणात्मक सिद्धान्त (Functional Theory) – भू-आकृति विज्ञान में सन् 1950 ई० के बाद नब क्रान्ति का आविर्भाव हुआ, जो सांख्यिकीय क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। इस क्रान्ति के द्वारा स्थलरूपों की व्याख्या सरल एवं सत्यता के निकट की जाने लगी। फलतः परिमाणात्मक भू-आकृति विज्ञान का उदय हुआ। गिलबर्ट, हार्टन, स्ट्रालर आदि विद्वानों ने परिमाणात्मक-आधारशिला पर स्थलरूपों के विकास की व्याख्या प्रस्तुत की। इसके द्वारा भू-आकृति विज्ञान में अनेक भ्वाकृतिक मॉडलों का निर्माण किया गया, जो अन्य कई स्थलरूपों की विशेषताओं को अन्तर्निहित किये हैं। क्या परिमाणात्मक अध्ययन स्थलरूपों के विकास की समस्या-हेतु उपयुक्त है? भू-आकृति विज्ञानवेत्ता के लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। वास्तव में, वर्तमान में भू-आकृति विज्ञान में सांख्यिकी प्रयोग तीव्रगति से बढ़ रहा है, जो समस्या के समाधान में सफल तो नहीं हुआ, परन्तु विषयवस्तु को दुरूह अवश्य बनाया है। परिमाणात्मक विधि तो उत्तम है, क्योंकि इसके द्वारा विषय को वैज्ञानिकता मिल सकती है, परन्तु वर्तमान में शोधकर्ता सांख्यिकी का अल्पज्ञान रखते हुए भी इसका प्रयोग अधिक मात्रा में कर रहे हैं तथा बारीकियों को समझे बिना निष्कर्ष निकालते हैं. जो भ्रामक परिणाम प्रस्तुत करते हैं। साथ-ही-साथ किसी स्थान के स्थलरूपों में वर्तमान प्रक्रमों द्वारा निर्मित स्थलरूपों के अलावा अतीत के प्रक्रमों द्वारा निर्मित स्थलरूप भी विद्यमान होते हैं, जिनका सम्यक् विश्लेषण सांख्यिकीय विधि द्वारा सम्भव नहीं है। प्रक्रमों की कार्य-दर का मापन. क्षेत्र पर्यवेक्षण, अतीत के प्रक्रमों की क्रिया विधि एवं मात्रा के अनुमान द्वारा स्थलरूपों के विकास की समस्या का समाधान किया जा सकता है।
(च) यथार्थवादी सिद्धान्त (Realistic Theory) – इसके अन्तर्गत प्रक्रमों की क्रिया-विधि, दृश्य स्थलरूप की संरचना एवं इनके अन्तर्सम्बन्धों की व्याख्या की जाती है। ‘संरचना स्थलरूपों के विकास में नियन्त्रक कारक होती है की आधार शिला पर अध्ययन वर्तमान में प्रस्तुत किया गया। इसके लिए लधु आकार दृश्य स्थलरूपों का चयन कर, इसके अन्त में स्थिति संरचना का भौतिक एवं रासायनिक क्रिया-विधि विश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है। इसके अध्ययन में सबसे बड़ी समस्या भू-आकृति विज्ञानेवत्ता के क्योकि इनको रासायनशाख का पूर्णज्ञान होना चाहिए, जबकि ऐसा प्रायः अत्यल्प द्रश्च्य है। साथ ही साथ लघु स्तरीय मापन पर प्रक्रमों की क्रिया-विधि एवं वृहत् स्तरीय मापन पर प्रक्रमों की क्रिया-नया तुलनात्मक विश्लेषण नहीं किया जा सकता है।
(छ) परम्परावादी सिद्धान्त (Conventionalist Theory) – परम्परावादी सिद्धान्त के अन्तर्गत सर्वप्रथम सिद्धान्त का प्रारूप तैयार कर उसकी पुष्टि क्षेत्र पर्यवेक्षण के आधार पर की जाती है अथवा सर्वप्रथम क्षेत्र पर्यवेक्षण कर किसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जाता है। दोनों दशाआंे सर्वेक्षण आवश्यक है। इस सिद्धान्त का व्यावहारिक पक्ष अत्यन्त प्रबल है। इस पक्ष को ध्यान में रखकर क्षेत्र पर्यवेक्षण किया जाता है।