व्याख्या का अर्थ क्या होता है | व्याख्या किसे कहते है ? अंग्रेजी में क्या कहते है , परिभाषा , उदाहरण explanation meaning in hindi

(explanation meaning in hindi) व्याख्या का अर्थ क्या होता है | सन्दर्भ व्याख्या किसे कहते है ? अंग्रेजी में क्या कहते है , परिभाषा , उदाहरण सहित लिखिए |

व्याख्या

व्याख्या में किसी भाव या विचार का विस्तार से विवेचन किया जाता है । वस्तुतः व्याख्या आशय और भावार्थ से भिन्न है । इसमें हम अपने अध्ययन, मनन एवं चिन्तन को प्रदर्शित कर सकते हैं ।

व्याख्या में प्रसंग का निर्देश करना अनिवार्य होता है। प्रसंग निर्देश संक्षिप्त एवं विषय के अनुकूल होना चाहिए । बेकार की बातों को प्रसंग निर्देश में शामिल नहीं करना चाहिए।

 अच्छी व्याख्या में मूल अवतरण के भावों एवं विचारों का समुचित एवं सन्तुलित विवेचन करना चाहिए । वस्तुतः विषय के गुण-दोष दोनों की समीक्षा यहाँ करनी चाहिए। यदि हम उसके पक्ष से सहमत हैं तो तर्कपुष्ट प्रमाणों से उसका विवेचन कर सकते हैं । यों अच्छी व्याख्या में विषय का खंडन-मंडन सप्रमाण करना चाहिए ।

व्याख्या के अन्तर्गत प्रारम्भ में मूल भावों अथवा विचारों का सामान्य अर्थ प्रस्तुत करना चाहिए। इसके बाद ही विषय का विवेचन शुरू करना चाहिए ।

यदि मूल अवतरण बड़ा है तो बड़ी सावधानी से व्याख्या करनी चाहिए । ऐसे बड़े अवतरणों में अनेक तरह के विचार हो सकते हैं । अतः अवतरण के मूल एवं गौण विचारों को पहले ढूँढ लेना चाहिए । इसके बाद इन मूल एवं गौण विचारों को क्रमशः विवेचित करना चाहिए । यदि अवतरण दो-ढाई पंक्तियों का है तो उस अवतरण के उन्हीं शब्दों का विवेचन करना चाहिए जिनसे मुल भाव एवं विचार स्पष्ट हो जायँ । प्रायः ऐसे छोटे अवतरणों में दार्शनिक तथ्य सन्निहित रहते हैं।

व्याख्या के अंत में टिप्पणी के रूप में कठिन शब्दों का अर्थ दे देना चाहिये । साथ ही व्याख्या में यदि कोई विशेष अर्थ या अलंकार अथवा भाषा का चमत्कार हो तो उसे भी टिप्पणी में दिया जा सकता है।

एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए कि मूल अवतरण के भावों या विचारों की समुचित विवेचना हुई है अथवा नहीं । अतः स्पष्ट है कि अवतरण से व्याख्या बड़ी होनी चाहिए । व्याख्या कितनी बड़ी हो, इसके लिए कोई खास नियम नहीं है ।

व्याख्या के लिए निम्नांकित बातों को स्मृति में रखना चाहिए- 

(1) व्याख्या में प्रसंग निर्देश अनिवार्य है।

(2) प्रसंग निर्देश संक्षिप्त, आकर्षक और विषय के अनुकूल होना चाहिए ।

(3) मूल भाव या विचार का विधिवत विवेचन करना चाहिए ।

(4) अवतरण के मूल विचारों का खंडन-मंडन करना चाहिए अथवा केवल खंडन या केवल मंडन भी किया जा सकता है।

(5) यदि कोई महत्वपूर्ण बात हो तो उसे टिप्पणी में लिखा जा सकता है ।

उदाहरण के लिए नीचे एक व्याख्या दी जा रही है-

मूल अवतरण—

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पाय ।

बलिहारी गुरु आपनो जिन गोविन्द दियो बताय।।

व्याख्याः-

प्रसंग-ये पंक्तियाँ संत कबीरदास द्वारा रचित श्बीजकश् के श्साखश् नामक अंश से उधृत हैं। यहाँ कबीरदास ने गुरु की महिमा का उद्घाटन किया है । गुरु की -पा से ईश्वर की प्राप्ति संभव होती है, इसीलिए गुरु सर्वप्रथम वन्दनीय है।

अर्थविश्लेषण-गुरु और गोविन्द दोनों ही वन्दनीय हैं, पूज्य हैं। मनुष्य के लिए दोनों का समान महत्व है। हमें दोनों की पूजा करनी चाहिए। लेकिन यदि संयोग से गुरु और गोविन्द दोनों एक-साथ उपस्थित हों तो सर्वप्रथम गुरु की वन्दना करनी चाहिए और उसके बाद ईश्वर की । ईश्वर के दर्शन कराने का श्रेय गुरु को ही है । वही भगवान के पास जाने का मार्ग दिखाता है । वह मार्गदर्शक है, अन्यथा हम गोविन्द के दर्शन नहीं कर सकते । अतः गुरु धन्य है, वन्दनीय है, क्योंकि उसी की सहायता से हम संसार की बाधाओं के रहते हुए भी ईश्वर के दर्शन करते हैं।

विवेचन-यहाँ यह द्रष्टव्य है कि कबीरदास ने गुरु की इतनी वन्दना क्यों की है अथवा गुरु क्यों श्रेष्ठ है? वस्तुतः यह संसार माया से आबद्ध है, सर्वत्र माया का प्रबल आकर्षण विद्यमान है जिसके कारण हम मार्ग से भटक जाते हैं । ईश्वर को पाना तो दूर, उसकी पूजा भी विधिवत् संभव नहीं हो पाती है । मात्र एक गुरु ही है जिसके निर्देश से हम ईश्वर की साधना की ओर बढ़ते हैं। वह हमें सांसारिक बाधाओं से बचाकर ईश्वर के दर्शन कराने में सहायक होता है। यदि गुरु की सहायता न मिले तो गोविन्द के दर्शन करना असंभव है। इसीलिए संत कबीर ने सर्वप्रथम गुरु की वन्दना करने के लिए कहा है।

टिप्पणी—(1) लागू पाय-प्रणाम करूँ अर्थात वन्दना करूँ ।

  (2) गुरु को महत्वपूर्ण बताया गया है ।

अभ्यास के लिए कुछ अवतरण दिये जा रहे हैं-

( क ) आशय या अर्थ लिखिए—

1द्ध मनुष्यत्व का सच्चा द्योतक चरित्र है । प्रतिभा की सतेज दीप्ति भी शील और चरित्र के सौम्य प्रकाश के सामने धुंधली है।

2द्ध भाषा के विषय में भी पं० नेहरू के विचार सर्वथा निर्धान्त थे और वे चाहते थे कि हिन्दी का विकास सभी प्रकारके साम्प्रदायिक प्रभावों से मुक्त रहे । हिन्दू के साथ हिन्दी के गठबन्धन का संकेत मात्र भी उन्हें असह्य था और कदाचित् इसीलिए वे अपनी पूरी शक्ति से संस्-त के वर्धमान प्रभाव का अवरोध करते रहे । स्वतंत्रता के बाद हिन्दी को संस्-तनिष्ठ बनाने की प्रवृत्ति अत्यन्त बलवती हो उठी थी और इसके मूल में एकदम शास्त्रीय तथा राष्ट्रीय प्रेरणा ही थी जिसमें साम्प्रदायिक भावना का लेशमात्र नहीं था।

3. तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के ।

पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।।

(ख) निम्नांकित अवतरण का भावार्थ लिखिए-

1द्ध ब्रह्मचारी होने का यह अर्थ नहीं कि मैं किसी भी स्त्री को न छुऊँ, अपनी बहन को न छुऊँ, परन्तु ब्रह्मचारी होने का अर्थ यह है कि एक कागज को छूने से मुझमें विकार पैदा नहीं होता, वैसे ही किसी स्त्री को छूने से मुझमें विकार पैदा नहीं होना चाहिए । मेरी बहन बीमार हो और ब्रह्मचर्य के कारण मुझे उसकी सेवा करने से, उसे छूने से परहेज करना पड़े, तो वह ब्रह्मचर्य धूल के बराबर है । किसी मुर्दा शरीर को छूने से हमारा मन नहीं बिगड़ता, वैसे ही किसी सुन्दर से सुन्दर स्त्री को छूने से हमारा मन न बिगड़े तो हम ब्रह्मचारी हैं।

(ग) निम्नलिखित अवतरणों की व्याख्या करिये ।

(1)  मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय ।

    जा तन की झाँई परै, स्याम हरित इति होय।।

(2)  यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,

    रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है ।

    किस पर करते -पा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं ?

    गिरने से उसको सँभाल क्यों रोक नहीं लेते हैं ।

(3)  जो केवल बाह्य सौन्दर्य पर मुग्ध होकर अपूर्व शक्ति पर चकित रह गया, शील की ओर आकर्षित होकर उसकी साधना में तत्पर न हुआ, वह भक्ति का अधिकारी न हुआ ।