भारत विभाजन के किन्हीं पांच कारणों का वर्णन कीजिए , भारत के विभाजन में किस नेता का योगदान रहा

पढ़िए भारत विभाजन के किन्हीं पांच कारणों का वर्णन कीजिए , भारत के विभाजन में किस नेता का योगदान रहा ?

प्रश्न: भारत विभाजन के लिए उत्तरदायी कारकों का परीक्षण कीजिए। क्या भारत विभाजन अवश्यम्भावी था ? 
उत्तर: भारत विभाजन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी जिसके लिए किसी-न-किसी रूप में अंग्रेजी शासन, कांग्रेस और मुस्लिम लीग तीनों ही उत्तरदायी थे। मार्ले-मिण्टो सधार योजना के अन्तर्गत पहली बार मसलमानों को राजनीतिक बढावा देने और भारतीय राजनीति में साम्प्रदायिक तथ्यों को उभारने का प्रयास किया गया। लॉर्ड मिण्टो ने ‘मुस्लिम राष्ट्र‘ शब्द का व्यवहार पहली बार किया तथा मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की, परन्तु इसके बावजूद 1921 ई. तक कांग्रेस और लीग के सहयोगात्मक सम्बन्ध रहे। 1921 ई. में जिन्ना मुस्लिम लीग से पृथक हो गए और गांधीजी एवं कांग्रेस की नीतियों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। कांग्रेस की नीतियों एवं कार्यों ने इसमें और अधिक वृद्धि की।
द्वितीय विश्व-युद्ध के पश्चात् विभाजन की माँग बढ़ने लगी। गाँधीजी ने मुसलमानों को सन्तुष्ट कर तथा भारत की अखण्डता को बचाए रखने के प्रयास में 1940 ई. में रामगढ़ के कांग्रेस अधिवेशन में बँटवारे के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया। परन्तु उनका सैद्धान्तिक पक्ष यह था, यह विभाजन वैसा ही होना चाहिए जैसा एक संयुक्त हिन्दू परिवार में होता है। वे वयस्क मताधि पर गठित एक संविधान सभा की व्यवस्था चाहते थे तथा मसलमानों को यह निर्णय लेने का अधिकार देना चाहते थे कि वे इस बात को स्वयं निश्चित करें कि अलग रहना चाहते हैं अथवा एक संयुक्त परिवार के सदस्य के रूप में। इसके पीछे गांधीजी का उद्देश्य अंग्रेजों के प्रयासों को असफल करना था।
गांधीजी के बढ़ते प्रभाव और कांग्रेस के प्रभाव को कम करने तथा द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मुस्लिम लीग का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त करने के उददेश्य से ‘अगस्त-प्रस्ताव‘ में लिनलिथगों ने जिन्ना को आश्वस्त किया कि अल्पसंख्यकों की स्वीकृति के बिना सरकार किसी भी संवैधानिक परिवर्तन को न तो लागू करेगी और न ही शक्ति द्वारा उन अल्पसंख्यकों को दबाएगी। इससे जिन्ना को एक प्रकार का ‘वीटो‘ प्राप्त हो गया जिसका लाभ उन्होंने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया। राजगोपालाचारी कांग्रेस के एकमात्र सदस्य थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए, कांग्रेस को मुस्लिम लीग के लाहौर प्रस्ताव को स्वीकार करने का अनुरोध किया। लीग ने इस अधिवेशन में पाकिस्तान की मांग की। लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
नेहरू ने भी अप्रत्यक्ष रूप से विभाजन के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस ने 1942 ई. के क्रिप्स प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया, लेकिन एक प्रस्ताव में उन्होंने कहा कि प्रस्तावित भारत संघ में किसी को भी उसकी इच्छा के विरुद्ध रखने पर सहमत नहीं है। उन्होंने यह भी संकेत किया कि कांग्रेस ने क्रिप्स के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया है, परन्तु भारत में अंग्रेजों की सहायता करने को तैयार है। भूलाभाई की योजना में भी यह निर्दिष्ट किया गया कि पुनर्गठित मंत्रिमण्डल में कांग्रेस और लीग बराबर-बराबर स्थान बांट लें। इस प्रस्ताव के विफल होने पर राजगोपालाचारी ने अपनी योजना प्रस्तुत की तथा जिन्ना से वार्ता की, परन्तु यह विफल हो गई।
भारत विभाजन की ‘कूपलैण्ड योजना‘ पहले ही तैयार की जा चुकी थी, जिसके अनुसार भारत का विभाजन चार भागों-सिन्धु घाटी, गंगाघाटी, ब्रह्मपुत्र का डेल्टा तथा दक्कन में किया जाना था। इन चार भागों में से दो मुस्लिम और दो हिन्दू बाहुल्य क्षेत्र थे जिससे केन्द्र में शक्ति सन्तुलन स्थापित किया जा सके और देशी राज्यों के लिए एक या अनेक संघों की व्यवस्था थी। चर्चिल द्वारा जिन्ना को लगातार आश्वासन दिए जा रहे थे अतः वे और अधिक महत्त्वाकांक्षी हो रहे थे। गांधीजी ने जिन्ना से भेंट कर राजगोपालाचारी योजना स्वीकार करने को कहा परन्तु जिन्ना ने अस्वीकार कर दिया। गांधी-जिन्ना वार्ता की विफलता ने जहाँ गांधीजी को निराश कर दिया, वहीं जिन्ना और कांग्रेस के अन्य नेताओं का विचार अनुदार बना दिया।
गांधीजी की स्वीकृति के बिना नेहरू, पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने मार्च 1947 ई. में जिन्ना के ‘दो राष्ट्र सिद्धान्त‘ को स्वीकृति प्रदान कर पंजाब का हिन्दू एवं मुसलमान बहुल इलाकों में विभाजन करने का प्रस्ताव कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में रखा। माउण्टबेटन ने इन गतिविधियों के आधार पर विभाजन की योजना तैयार कर ली और सरदार पटेल एवं नेहरू जी ने इसे अपना समर्थन प्रदान किया। परन्तु गांधीजी और मौलाना आजाद इसका विरोध करते रहे। बाद में गाँधीजी को भी बाध्य होकर इस योजना की स्वीकृति देनी पड़ी। 3 जून, 1947 को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की बैठक में विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकृति दे दी।
अन्नतः पण्डित गोविन्द बल्लभ पन्त ने माउण्टबेटन योजना को स्वीकृत करने का प्रस्ताव पेश किया। नेहरू और पटेल ने इसका समर्थन किया, परन्तु मौलाना आजाद और अन्य सदस्यों ने इसका विरोध किया। गाँधीजी ने सदस्यों से प्रस्ताव को स्वीकार करने का अनुरोध किया। उन्होंने कहा कि वे सदैव विभाजन के विरोधी रहे, परन्तु अब विभाजन के अतिरिक दूसरा उपाय नहीं था और 14 मतों के बहुमत से कांग्रेस ने भारत विभाजन स्वीकार कर लिया।
उपरोक्त विवेचना से स्पष्ट हो जाता है कि भारत का विभाजन एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम था। इसके लिए न तो अंग्रेजी शासन, जिन्ना, कांग्रेस, गांधी, नेहरू या पटेल अथवा साम्प्रदायिकता की भावना ही अकेले उत्तरदायी थी बल्कि परिस्थितियों ने भारत विभाजन की हर मोड़ पर उस रूपरेखा को तैयार कर दिया, जहां भारत विभाजन अवश्यम्भावी होने लगा। यह सत्य है जैसा कि आलोचक मानते हैं, कि अँगुली पर गिने जा सकने वाले लोगों ने भारत के भाग्यविधाता बन अपने सभी निर्णय भारतीय जनता पर आरोपित कर दिये। जनता के पास इसे मानने के अतिरिक्त कोई चारा न था।