प्रिंटिंग प्रेस का उदय एवं पत्रकारिता क्या है , भारत में प्रेस का उद्भव एवं विकास , स्वतंत्र भारत में भूमिका पर प्रकाश डालें

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मीडिया एवं संस्कृति
जनसंचार के प्रकार एवं कार्य
संभ्रांत समाज सूचना के प्रदायन हेतु जनसंचार पर निर्भर होते हैं। मार्शल मैकलुहान ने मीडिया को ‘व्यक्ति का प्रसार एवं विस्तार’ कहकर पुकारा। यह इस कारण किए जैसाकि जी.एल. केप्स और बी.सी. थार्नटन ने संकेत किया, ‘‘मीडिया लोगों के संप्रेषण, बोलने, संदेशों को सुनने की योग्यता का विस्तार करता है, और ऐसी आकृति दिखाना संभव बनाता है जो मीडिया के बिना अनुपलब्ध होगी’’। समाज में विभिन्न प्रकार की सूचनाओं के पारेषण द्वारा जनसंचार जागरूकता सृजन, चर्चा एवं ज्ञानव)र्न करता है। यह सभी संस्कृतियों के उद्गम एवं समय के साथ उनके संरक्षण के लिए बेहद अनिवार्य है। प्रारंभिक समय में, जब जनसंचार आज की तरह मौजूद नहीं था, तब विभिन्न प्रकार के साधनों से, विशेष रूप् से मौखिक संचार द्वारा, इसी प्रकार के उद्देश्य को पूरा किया जाता था। लेकिन वे माध्यम अनुप्रयोग में बेहद सीमित एवं उनका दायरा छोटा था। वह जनसंचार की तरह नहीं था। जब जनसंचार की भूमिका के बारे में बातचीत की जाती है, तो यह बात दिमाग में जन्म लेती है कि जनसंचार एकांत में प्रचालित नहीं होता। वे समाज में एवं समाज के लिए संचालित होता है; और प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति या, आधुनिक समय में तेजी से बढ़ रही है, बहुसंस्कृतियां होती हैं, जिनमें कई प्रकार की संस्कृतियां, प्रजातियां एवं चलन होते हैं। इसलिए जनसंचार पहले की अपेक्षा आज अधिक जटिल हो गया है।
जनसंचार दर्शकों पर अल्पावधिक, मध्यावधिक एवं दीर्घावधिक प्रभाव डालने में सक्षम है। अल्पावधिक प्रभावों में दर्शकों के विचारों को उद्घाटित करना; जागरूकता एवं ज्ञानवर्द्धन करना( असामयिक या गलत ज्ञान को बदलना; और दर्शकों को विशेष विज्ञापनों या घोषणाओं, प्रोत्साहनों या कार्यक्रमों के लिए तैयार करना शामिल है। मध्यावधिक उद्देश्यों में उपरोक्त सभी के साथ-साथ सामाजिक मापदंडों की अवधारणाओं, दृष्टि एवं व्यवहारों में परिवर्तन करना भी शामिल है। अंततः दीर्घावधिक उद्देश्यों में उपरोक्त कार्यों के अतिरिक्त अपना, गए सामाजिक मापदंडों की पुनर्संरचना पर ध्यान देना, और व्यवहार परिवर्तन का रख-रखाव करना शामिल है।
इन त्रिस्तरीय उद्देश्यों के प्रमाण जनसंचार के प्रभाविता के मूल्यांकन में उपयोगी होते हैं। इसलिए, जनसंचार संस्कृतियों के संरक्षण एवं विकास के संदर्भ में समाज में कुछ खास कार्यों का निष्पादन करता है।
मनोरंजन के एक साधन के तौर पर, जनसंचार, विशेष रूप से रेडियो एवं टेलिविजन, बेहद लोकप्रिय है। एक शैक्षिक उपकरण के तौर पर, मीडिया न केवल ज्ञान का प्रसार करता है, अपितु सामाजिक उपयोगिता को बढ़ावा देने वाले कार्यों में भरसक प्रयासों (उदाहरणार्थ, सामाजिक विपणन) का एक हिस्सा भी बन सकता है। एक लोक संबंध उपकरण के रूप में, जनसंचार संगठनों को जनमत नेतृत्व, स्टेकहोल्डर्स और अन्य निगरानी तंत्रों के बीच विश्वास एवं सम्मान प्राप्त करने में मदद करता है। अंततः, वकालत एवं समर्थन के साधन के तौर पर, जनसंचार नेताओं को नीति एजेंडा बनाने, अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर चर्चा को आकार देने, और विशेष मत एवं दृष्टि के लिए समर्थन हासिल करने में सहायता करता है।
इस अध्याय में हम मुख्य जनसंचार प्रेस, रेडियो एवं टेलिविजन पर चर्चा करेंगे।

प्रेस एवं संस्कृति

प्रेस के उद्गम से ही इसकी विभिन्न प्रकार की भूमिका रही है। जिसमें मनोरंजन, सूचना विस्तार एवं लोगों को शिक्षित करना शामिल है। यद्यपि प्रारंभ में यह मनोरंजन के मुख्य उद्देश्य के साथ विभिन्न स्थानों पर चालू हुआ, लेकिन जल्द ही राजनीतिक, सामाजिक,एवं सांस्कृतिक विचारों की अभिव्यक्ति के एक अंग के तौर पर इसका अभ्युदय हुआ। प्रेस सामाजिक विचार एवं सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के भूत एवं वर्तमान प्रतिमान पर परिणामोन्मुख विमर्श के प्रतीक के रूप में सामने आया। समाचार-पत्रों एवं जर्नल्स ने लोगों के दिमाग पर गहरी छाप छोड़ी। भारत में प्रेस ने राजनीतिक एवं सामाजिक जागरूकता और प्रचार के सृजन, विचारधाराओं के निर्माण, विशेष रूप से राष्ट्रवादी विचारधारा, और जनमत के प्रशिक्षण, गतिशीलता एवं संगठित करने में योगदान देकर अपने विकास के शुरुआती चरण में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसने जन असंतोष एवं राष्ट्रीय चेतना के विकास के शृंखलाबद्ध करने के लिए एक नयी चेतना के निर्माण में मदद की। इसने लोगों को प्रोत्साहित किया, विशेष रूप से शिक्षित मध्यवग्र को, कि वे मौजूदा सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवहारों का आलोचनात्मक परीक्षण करें और सामाजिक शोषण को समाप्त करने के भरसक प्रयास करें। ब्रिटिश नीतियों का रहस्योद्घाटन किया गया जैसाकि वे उनके निहित स्वार्थों के सिद्ध करने का एक माध्यम थीं। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सुधार आंदोलनों एवं 20वीं शताब्दी के प्रथम कुछ दशकों के दौरान व्यक्तियों एवं संगठनों द्वारा प्रकाशित समाचार-पत्रों एवं जर्नल्स की उनकी सफलता में देश उनका बेहद ऋणी है। प्रकाशनों में छपने वाले लेखों एवं समीक्षाओं ने जनता की सामाजिक एवं सांस्कृतिक जागरूकता को हवा दी एवं इसमें वृद्धि की।

भारत में प्रेस का उद्भव

भारत का पहला समाचार-पत्र जेम्स आगस्टस हिक्की ने 1780 में प्रकाशित किया, जिसका नाम था द बंगाल गजट या कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर। किंतु सरकार के प्रति आलोचनात्मक रवैया अपनाने के कारण 1872 में इसका मुद्रणालय जब्त कर लिया गया। तदन्तर कई और समाचार-पत्रों/जर्नलों का प्रकाशन प्रारंभ किया गया। यथा-द बंगाल जर्नल, कलकत्ता क्रॉनिकल, मद्रास कुरियर तथा बाम्बे हैराल्ड इत्यादि। अंग्रेज के अधिकारी इस बात से भयभीत थे कि यदि ये समाचार-पत्र लंदन पहुंच गये तो उनके काले कारनामों का भंडाफोड़ हो जायेगा। इसलिये उन्होंने प्रेस के प्रति दमन की नीति अपनाने का निश्चय किया।
फ्रांसीसी आक्रमण के भय से लार्ड वेलेजली ने सभी समाचार-पत्रों पर सेंसर लगा दिया। समाचार पत्रों का पत्रेक्षण अधिनियम, द्वारा सभी समाचार-पत्रों के लिये आवश्यक कर दिया गया कि वो अपने स्वामी, संपादक और मुद्रक का नाम स्पष्ट रूप से समाचार-पत्र में अंकित करें। इसके अतिरिक्त समाचार पत्रों को प्रकाशन के पूर्व सरकार के सचिव के पास पूर्व-पत्र्रेक्षण (Pre censorsip) के लिये समाचार-पत्रों को भेजना अनिवार्य बना दिया गया।
प्रतिक्रियावादी गवर्नर-जनरल जॉन एडम्स ने 1823 में नियमों को आरोपित किया। नियम के अनुसार, बिना अनुज्ञप्ति लिये प्रेस की स्थापना या उसका उपयोग दंडनीय अपराध माना गया। ये नियम, मुख्यतयाः उन समाचार-पत्रों के विरुद्ध आरोपित किये गये थे, जो या तो भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होते थे या जिनके स्वामी भारतीय थे। इस नियम द्वारा राजा राममोहन राय की पत्रिका मिरात-उल-अखबार का प्रकाश न बंद करना पड़ा।
1835 के इस नये प्रेस अधिनियम के अनुसार, प्रकाशक या मुद्रक को केवल प्रकाशन के स्थान की निश्चित सूचना ही सरकार को देनी थी और वह आसानी से अपना कार्य कर सकता था। यह कानून 1856 तक चलता रहा तथा इस अवधि में देश में समाचार-पत्रों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
1857 के विद्रोह से उत्पन्न हुई आपातकालीन स्थिति से निपटने के लिये 1857 के अनुज्ञप्ति अधिनियम से अनुज्ञप्ति व्यवस्था पुनः लागू कर दी गयी। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से ही नागरिक स्वतंत्रताओं की रक्षा का मुद्दा, जिनमें प्रेस की स्वतंत्रता का मुद्दा सबसे प्रमुख था, राष्ट्रवादियों के घोषणा-पत्र में सबसे प्रमुख स्थान बनाये हुये था। 1824 में राजा राममोहन राय ने उस अधिनियम की तीखी आलोचना की, जिसके द्वारा प्रेस पर प्रतिबंध लगाया गया था।
1870 से 1918 के मध्य राष्ट्रीय आंदोलन का प्रारंभिक चरण कुछ प्रमुख मुद्दों पर केंद्रित रहा। इन मुद्दों में भारतीयों को राजनीतिक मूल्यों से अवगत कराना, उनके मध्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना, राष्ट्रवादी विचारधारा का निर्माण एवं प्रसार, जनमानस को प्रभावित करना तथा उसमें उपनिवेशी शासन के विरुद्ध राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत करना, जन-प्रदर्शन या भारतीयों को जुझारू राष्ट्रवादी कार्यप्रणाली से अवगत कराना एवं उन्हें उस ओर मोड़ना प्रमुख थे। इन उद्देश्यों के प्राप्ति के लिये प्रेस, राष्ट्रवादियों का सबसे उपयुक्त औजार साबित हुआ। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी अपने प्रारंभिक दिनों से ही प्रेस को पूर्ण महत्व प्रदान किया तथा अपनी नीतियों एवं बैठकों में पारित किये गये प्रस्तावों को भारतीयों तक पहुंचाने में इसका सहारा लिया।
इन वर्षों में कई निर्भीक एवं प्रसिद्ध पत्रकारों के संरक्षण में अनेक नये समाचार-पत्रों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इन समाचार-पत्रों में प्रमुख थे हिन्दू एवं स्वदेश मित्र जी सुब्रह्मण्यम अय्यर के संरक्षण में, द बंगाली सुरेंद्रनाथ बगर्जी के संरक्षण में, वॉयस आफ इंडिया दादा भाई नौरोजी के संरक्षण में, अमृत बाजार पत्रिका शिशिर कुमार घोष एवं मोतीलाला घोष के संरक्षण में, इंडियन मिरर एन.एन. सेन के संरक्षण में, केसरी (मराठी में) एवं मराठा (अंग्रेजी में) बाल गंगाधर तिलक के संरक्षण में, सुधाकर गोपाल कृष्ण गोखले के संरक्षण में तथा हिन्दुस्तान एवं एडवोकेट जी.पी.वर्मा के संरक्षण में। इस समय के अन्य प्रमुख समाचार-पत्रों में-ट्रिब्यून एवं अखबार-ए-एम पंजाब में, गुजराती, इंदू प्रकाश ध्यान, प्रकाश एवं काल बंबई में तथा सोम प्रकाश, बंगनिवासी एवं साधारणी बंगाल में उल्लेखनीय थे।
इन समाचार-पत्रों के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य, राष्ट्रीय एवं नागरिक सेवा की भावना थी न कि धन कमाना या व्यवसाय स्थापित करना। इनकी प्रसार संख्या काफी अधिक थी तथा इन्होंने पाठकों के मध्य व्यापक प्रभाव स्थापित कर लिया था। शीघ्र ही वाचनालयों (लाइब्रेरी) में इन समाचार-पत्रों की विशिष्ट छवि बन गयी। इन समाचार-पत्रों की पहुंच एवं प्रभाव सिर्फ शहरों एवं कस्बों तक ही नहीं था अपितु ये देश के दूर-दूर के गावों तक पहुंचते थे, जहां पूरा का पूरा गांव स्थानीय वाचनालय (लाइब्रेरी) में इकट्ठा होकर इन समाचार-पत्रों में प्रकाशित खबरों को पढ़ता था एवं उस पर चर्चा करता था। इस परिप्रेक्ष्य में इन वाचनालयों में इन समाचार-पत्रों ने न केवल भारतीयों को राजनीतिक रूप से शिक्षित किया अपितु उन्हें राजनीतिक भागीदारी हेतु भी प्रोत्साहित एवं निर्मित किया। इन समाचार पत्रों में सरकारी की भेदभावपूर्ण एवं दमनकारी नीतियों की खुलकर आलोचना की जाती थी। वास्तव में इन समाचार-पत्रों ने सरकार के सम्मुख विपक्ष की भूमिका निभायी।
सरकार ने प्रेस के दमन के लिये विभिन्न कानूनों का सहारा लिया। उदाहरणार्थ भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) की धारा-124, के द्वारा सरकार को यह अधिकार दिया गया कि वह ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोगों में असंतोष उत्पन्न कर रहा हो या उन्हें सरकार के विरुद्ध भड़का रहा हो, उसे गिरफ्तार कर सरकार तीन वर्ष के लिये कारावास में डाल सकती है या देश से निर्वासित कर सकती है। लेकिन निर्भीक राष्ट्रवादी पत्रकार, सरकार के इन प्रयासों से लेशमात्र भी भयभीत नहीं हुये तथा उपनिवेशी शासन के विरुद्ध उन्होंने अपना अभियान जारी रखा। सरकार ने समाचार-पत्रों को सरकारी नीति के पक्ष में लिखने हेतु प्रोत्साहित किया तथा उन्हें लालच दिया, जबकि वे समाचार-पत्र जो सरकारी नीतियों एवं कार्यक्रमों की भर्त्सना करते थे, उनके प्रति सरकार ने शत्रुतापूर्ण नीति अपनायी। इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी पत्रकारों के सम्मुख यह एक चुनौती भरा कार्य था कि वे उपनिवेशी शासन के प्रयासों एवं षड़यंत्रों को सार्वजनिक करें तथा भारतीयों को वास्तविकता से अवगत करायें। इन परिस्थितियों में पत्रकारों, स्पष्टवादिता, निष्पक्षता, निर्भीकता एवं विद्वता जैसे गुणों का होना अपरिहार्य था।
राष्ट्रीय आंदोलन, प्रारंभ से ही प्रेस की स्वतंत्रता का पक्षधर था। लार्ड लिटन के शासनकाल में उसकी प्रतिक्रियावादी नीतियों एवं अकाल (1876-77) पीड़ितों के प्रति उसके अमानवीय रवैये के कारण भारतीय समाचार-पत्र सरकार के घोर आलोचक बन गये। फलतः सरकार ने 1878 में देशी भाषा समाचार-पत्र अधिनियम (vernacular press Act) द्वारा भारतीय प्रेस को कुचल देने का प्रयास किया।
1883 में सुरेंद्रनाथ बगर्जी देश के ऐसे प्रथम पत्रकार बने, जिन्हें कारावास की सजा दी गयी। श्री बगर्जी ने द बंगाली के आलोचनात्मक संपादकीय में कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पर,एक गिर्णय में बंगाली समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया तथा उनकी निंदा की। प्रेस की स्वतंत्रता के लिये किये जा रहे राष्ट्रवादी प्रयासों में बाल गंगाधर तिलक की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी। तिलक ने 1893 में गणपति उत्सव एवं 1896 में शिवाजी उत्सव प्रारंभ करके लोगों में देशप्रेम की भावना जगाने का प्रयास किया। उन्होंने अपने पत्रों मराठा एवं केसरी के द्वारा भी अपने प्रयासों को आगे बढ़ाया।
स्वतंत्रता के पश्चात् संविधान सभा द्वारा मौलिक अधिकारों के रूप में भारतीय नागरिकों को प्रदत्त विभिन्न अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न भारतीय समाचार-पत्र कानूनों की समीक्षा की गयी और उन्हें स्वतंत्रता प्रदान की गई।

प्रिंट मीडिया का प्रभाव
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प्रायः, विशेष रूप से टेलिविजन के व्यापक तौर पर आने से पूर्व, समाचार-पत्र स्थानीय संस्कृतियों एवं प्रजातीय परम्पराओं के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य थे। समाचार-पत्रों में रहस्योद्घाटन लोक स्वीकरण के लिएएक पूर्व शर्त थी। बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के अमेरिका में, उदाहरणार्थ, आप्रवासियों के प्रजातीय परम्पराओं को ‘पिछड़ा’ या ‘अल्पविकसित’ समझा जाता था क्योंकि उन्हें समाचार-पत्रों में उचित स्थान नहीं मिलता था।
1960 के दशक के पश्चात् टेलिविजन ने सांस्कृतिक एजेंडा (इस मामले में ग्रामीण एवं शहरी दोनों में) को स्थापित करने में सर्वोच्च भूमिका अख्तियार कर ली। हालांकि सांस्कृतिक मंच के तौर पर समाचार-पत्र की महत्ता समाप्त नहीं हुई। रेडियो, टेलिविजन, कम्प्यूटर, वर्ल्ड वाइड वेब-‘द टेक्नोलॉजी वेब’, उच्च स्थान पर हैं, लेकिन समाचार-पत्रों और पत्रिकाएं अभी भी लोगों के सांस्कृतिक परम्पराओं को मोड़ने के संदर्भ में सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का एक साधन अभी भी बना हुआ है।