गुप्त काल की प्रमुख विशेषताएं बताइए | गुप्त काल की भाषा क्या थी | गुप्त काल वंश के संस्थापक कौन थे

गुप्त काल वंश के संस्थापक कौन थे गुप्त काल की प्रमुख विशेषताएं बताइए | गुप्त काल की भाषा क्या थी ?

गुप्तकाल

चतुर्थ शताब्दी के प्रारंभ में, उत्तरी भारत के क्षेत्रों पर कुषाण एवं शक राजाओं ने शासन किया, किंतु वे ज्यादा समय तक अपनी शक्ति को बनाए नहीं रख सके। इसी तरह दक्षिण भारत में, तृतीय रू शताब्दी ईस्वी के मध्य तक सातवाहन शासकों का शासन भी समाप्त हो गया। इन परिस्थितियों में चैथी सदी ईसा पूर्व के प्रारंभ से गुप्तों ने अपनी शक्ति को बढ़ाना प्रारंभ कर दिया। गुप्तों की उत्पत्ति का प्रश्न अज्ञात है। संभवतः वे मगध क्षेत्र के अत्यधिक संपन्न जमींदार वर्ग से संबंधित थे, जिसने कालांतर में अपनी शक्ति में अत्यधिक वृद्धि करके शासन ग्रहण कर लिया। पुराणों के अनुसार, गुप्तों का मूल साम्राज्य मगध एवं गंगा के क्षेत्रों में व्याप्त था, जो बाद में उत्तर-पश्चिमी बंगाल तक विस्तृत हो गया। चंद्रगुप्त प्रथम के शासनाधीश बनते ही यह वंश, राजवंश बन गया तथा चंद्रगुप्तप्रथम ने ही गुप्त साम्राज्य की नींव रखी। संभवतः उसका साम्राज्य साकेत (अवध), प्रयाग (इलाहाबाद) एवं मगध (द. बिहार) तक विस्तृतथा। उसने सिंधु नदी के पार के कुछ क्षेत्रों को भी विजित किया था।
उसके पश्चात उसका पुत्र समुद्रगुप्त लगभग 335 ईस्वी में गुप्त साम्राज्य का शासक बना। उसके शासन के संबंध में जानकारी का सबसे प्रमुख स्रोत हरिषेण द्वारा लिखित प्रयाग प्रशस्ति है, जो इलाहाबाद के अशोक के शिलालेख पर उत्कीर्ण है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त के विजय अभियानों एवं उसके द्वारा पराजित राजाओं की सूची भी प्राप्त होती है। इस प्रशस्ति से प्राप्त सूचनाओं के अनुसार, गुप्त साम्राज्य एक केंद्रीय साम्राज्य (उत्तर भारत में मध्य क्षेत्र) था, जिसका प्रमुख गुप्त सम्राट था। इसमें बहुत-सी गैर-राजनयिक एवं राजनयिक रियासतें भी सम्मिलित थीं।
गुप्त सम्राट द्वारा प्रत्यक्ष शासित क्षेत्र में एक बड़ा भू-भाग सम्मिलित था, जिसमें पूर्वी बंगाल एवं असम पूर्वी सीमा थे, जबकि हिमालय पर्वत उत्तरी सीमा का निर्धारण करता था। पश्चिमी सीमा पंजाब तक विस्तृत थी, जिसमें, सभंवतः लाहौर एवं करनाल से पहले के सभी जिले सम्मिलित थे। ऐसा माना जाता है कि समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त या गंगा का पश्चिमी तटीय मैदान तथा मध्य प्रदेश के सागर जिले पर भी विजय प्राप्त की थी।
समुद्रगुप्त के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय गुप्त साम्राज्य का शासक बना, जिसने 375 से 415 ईस्वी अर्थात लगभग 40 वर्षों तक शासन किया। उसने सम्पूर्ण पश्चिमी पंजाब, तथा वाहलिक क्षेत्र जिसकी पहचान बल्ख एवं बंग या पूर्वी बंगाल के रूप में की जाती है, को विजित कर लिया था। उसने पश्चिमी भारत पर भी विजय पाई थी तथा काठियावाड़ प्रायद्वीप के समस्त क्षेत्र को हस्तगत कर लिया था। प्रसिद्ध चीनी यात्री फाहयान चंद्रगुप्त द्वितीय के समय ही 405 ई. में भारत आया था तथा 411 ईस्वी तक यहां रहा। वह तत्कालीन भारत की विभिन्न दशाओं के संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियां देता है। अन्य प्रसिद्ध गुप्त शासक गोविंद गुप्त था। कुमार गुप्त प्रथम एवं स्कंदगुप्त (जिसने हूणों के आक्रमण से भारत की रक्षा की) भी गुप्त राजवंश के प्रसिद्ध शासक थे। स्कंद गुप्त की मृत्यु के पश्चात परवर्ती गुप्त शासक अयोग्य एवं निर्बल थे। वे विशाल गुप्त साम्राज्य के शासन को सफलतापूर्वक संचालित नहीं कर सके तथा छठी शताब्दी के मध्य तक आते-आते इसका पतन हो गया। गुप्तों ने देश को राजनीतिक एकता के सूत्र में आबद्ध किया तथा अच्छा प्रशासन दिया। उनके काल में उत्तर भारत की अत्यधिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक उन्नति हुई। उनके शासनकाल में ही ब्राह्मण धर्म प्रतिष्ठापित हुआ तथा पूरे देश में उसका प्रचार-प्रसार हुआ और समाज की चर्तवर्णिक व्यवस्था में कठोरता आई।

भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों के साम्राज्य

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में एक ओर जहां राजनीतिक उथल-पुथल की स्थिति थी। वहीं दूसरी ओर गांधार एवं कंबोज जैसे छोटे साम्राज्य राजनीतिक प्रभुत्व हेतु परस्पर संघर्षों में उलझे हुए थे। राजनीतिक व्यवस्था की इस स्थिति ने फारसियों को इस क्षेत्र पर आक्रमण हेतु प्रोत्साहित किया तथा भारत के उत्तर-पश्चिमी हिस्से में साम्राज्य स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया। छोटे राज्य चतुर्थ शताब्दी ईसा पूर्व के मध्य में उदित छोटे-छोटे स्वतंत्र शासकों द्वारा शासित हो रहे थे। उदाहरणार्थ-सिंधु नदी के पश्चिमी तट पर स्थित पुष्कलावती का साम्राज्य, सिंधु नदी के पूर्वी तट पर स्थित तक्षशिला इत्यादि। 326 ईसा पूर्व में, मेसीडोनिया के शासक सिकन्दर के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर आक्रमण के पश्चात् इस क्षेत्र में कई यूनानी बस्तियां बस गईं, यथा-अलेक्जेंड्रिया नगर (काबुल के क्षेत्र में), बऊकेफला (झेलम नदी के तट पर) एवं एक अन्य अलेक्जेंड्रिया सिंध क्षेत्र में। ये यूनानी क्षेत्र बाद में इस भाग के छोटे-छोटे राज्यों द्वारा पराजित करके अधिगृहित कर लिए गए। इस प्रकार विभिन्न राजनैतिक इकाइयां आपस में जुड़ कर एक हो गईं तथा एक प्रकार का संघ स्थापित हो गया। इस संघ ने इस क्षेत्र विशेष में मौर्य शक्ति को सुदृढ़ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उत्तर-पश्चिमी भारत में परवर्ती मौर्य काल में, जब मौर्यों की केंद्रीय सत्ता दुर्बल हो गयी तथा इस क्षेत्र में राजनीतिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गयी तब मध्य एशिया के कई शासक वंशों ने इस स्थिति का लाभ उठाने का प्रयास किया। इस स्थिति में यहां कई बाह्य आक्रमण हुए। वैसे इन आक्रमणों का एक महत्वपूर्ण कारण पार्थिया एवं बैक्ट्रिया में सेल्यूसिड साम्राज्य का दुर्बल होना भी था। द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में बैक्ट्रिया के यूनानी शासकों ने उत्तर-पश्चिमी भारत की ओर अभियान किया तथा ये इंडो-ग्रीक्स (हिन्द-यवन) पुकारे गए। हिन्द-यवन शासकों ने ही सर्वप्रथम भारत में सोने के सिक्के जारी किए। इनके चांदी के सिक्के भी अत्यंत गुणवत्तायुक्त थे। इसने भारत के स्थानीय शासकों की मुद्रा प्रणाली पर गहरा प्रभाव डाला। यूनानी विचारों ने भारतीय ज्योतिष विज्ञान एवं खगोल विज्ञान को भी प्रभावित किया। संस्कृत भाषा में खगोल विज्ञान के लिए प्रयुक्त शब्द श्होराशास्त्रश् यूनानी भाषा के शब्द ‘होरोस्कोप‘ से लिया गया है। खगोल शास्त्र में ग्रहणों की परिगणना की विधि भी यूनानियों की ही देन है। हिन्द-यवनों ने भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग में कला की हेलेनिक शैली का भी प्रादुर्भाव किया, इसी से आगे चलकर गंधार कला शैली विकसित हुई मिनांडर या मिलिंद हिन्द-यवनों का प्रसिद्ध भारतीय शासक था, जिसकी राजधानी शाकल (वर्तमान स्यालकोट) थी।
उत्तर-पश्चिम भारत में आने वाली अन्य विदेशी जाति ‘शक‘ थी। इन्हें ‘सीथियन‘ के नाम से भी जाना जाता था। यह मध्य एशिया में निवास करने वाली खानाबदोश एवं बर्बर जाति थी। भारत में शकों की पांच मुख्य शाखाएं थींः तक्षशिला के शक; मथुरा के शक; महाराष्ट्र के शक (क्षहरात वंश) एवं सौराष्ट्र के शक (कादर्मक वंश) शक महाक्षत्रप रुद्रदमन प्रथम (कार्दनक वंश) भारत का महान शक शासक था। इसने एक बड़े भू-भाग पर अपने साम्राज्य की स्थापना की। इसका साम्राज्य गुजरात, कोंकण, नर्मदा घाटी, मालवा एवं काठियावाड़ में फैला था। इसने संस्कृत का पहला अभिलेख-जूनागढ़। अभिलेख जारी किया था। रुद्रदमन की मृत्यु के पश्चात भी शक चैथी शताब्दी ईस्वी तक इस क्षेत्र में शासन करते रहे, जब तक कि गुप्तों ने उन्हें पराजित नहीं कर दिया।
उत्तर एवं उत्तर-पश्चिमी भारत में शासन करने वाली एक अन्य विदेशी जाति ‘पार्थियन‘ थी, जिन्हें ‘पहलवों‘ के नाम से ज्यादा जाना जाता है। ये मूलतः ईरान के निवासी थे। भारतीय-पहलव शासक गांडोफर्नीज एक महान शासक था। इसके साम्राज्य में पार्थियन साम्राज्य के कुछ ईरानी भू-क्षेत्र तथा काबुल से पंजाब तक का क्षेत्र सम्मिलित था। उसके शासन के दौरान, इजराइल से ईसाई धर्म प्रचारक संत थॉमस के नेतृत्व में एक धर्म-प्रचारक दल भारत आया था।
उत्तर-पश्चिमी भारत पर पहलवों के बाद कुषाणों ने अपना शासन स्थापित किया तथा धीरे-धीरे अपने साम्राज्य की सीमाओं को उत्तर भारत तक विस्तृत कर लिया। कुषाण, चीन की यू-ची जनजाति की पांच शाखाओं में से एक थे। कनिष्क, कुषाणों का एक महान शासक था, जिसकी राजधानी पुरुषपुर (पेशावर) थी। कनिष्क का साम्राज्य उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार से लेकर, पश्चिम में उत्तरी अफगानिस्तान तक विस्तृत था। इन क्षेत्रों से विलासिता की कई वस्तुओं की प्राप्ति से यह अनुमान लगाया गया है कि कुषाणों के समय साम्राज्य में समृद्धि थी। कुषाणकालीन आभूषण सुंदर डिजाइन युक्त हैं, जिन पर जंतुओं एवं पौधों के चित्र बने हुए हैं। व्यापार अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था तथा विभिन्न व्यापारिक निगमों को पर्याप्त संरक्षण एवं स्थिरता प्राप्त थी। कनिष्क एक महान निर्माता भी था तथा उसने मथुरा, तक्षशिला, पेशावर एवं कनिष्कपुर में कई सुंदर इमारतों एवं मूर्तियों का निर्माण कराया। उसने साहित्यिक गतिविधियों को भी पर्याप्त संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया।

 

भारत एवं पश्चिम के मध्य प्राचीन व्यापारिक मार्ग

भारत एवं सुमेर, क्रीट, मिस्र तथा पश्चिम के देशों के मध्य प्रारंभिक व्यापारिक संपर्क सिंधु घाटी सभ्यता के समय लगभग 3000 ईसा पूर्व ही स्थापित हो गया था। पुरातात्विक प्रमाण (हड़प्पाई मुहरों एवं कार्नेलियन मनकों का मेसोपोटामिया की शाही कब्र में प्राप्ति, सिन्धु घाटी में मिस्र के मुहरों की प्राप्ति इत्यादि) भारत एवं मेसोपोटामिया, मिस्र, ओमान, बहरीन एवं अन्य देशों के साथ नियमित व्यापारिक संकेत की सूचना देते हैं। पंजाब में सिकंदर द्वारा 327-325 ईसा पूर्व के मध्य विभिन्न बस्तियां बसाने के पश्चात यहां के यूनानी निवासियों एवं यूनानी सेना ने पश्चिमी एशिया एवं ईरान की ओर अभियान किए। इससे उत्तर-पश्चिमी भारत के अफगानिस्तान एवं ईरान होते हुए तथा वहां से पूर्वी भूमध्यसागर की ओर नए मार्ग खुल गए। आहत सिक्कों के वितरण के साथ ही दक्षिण में उत्तरी काले ओपदार मृदभाण्डों की उपस्थिति से इस बात की जानकारी प्राप्त होती है कि व्यापारिक संपर्क प्रायद्वीपीय क्षेत्रों तक फैल चुका था। उदाहरण के लिए, दक्कन में प्रतिष्ठान तक। मुख्य व्यापारिक मार्ग गंगा नदी के साथ था, जो राजगृह एवं कौशाम्बी से उज्जैन होते हुए भड़ौच तक जाता था। यद्यपि लंबी दूरी के इस व्यापार में अधिकांशतया विलासिता की वस्तुओं का ही व्यापार होता था। धातु के सिक्कों की मुद्रा से व्यापारिक विनिमय और आसान हो गया।
मौर्य प्रशासन द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में सड़कों का निर्माण करने एवं तुलनात्मक रूप से दूर-दराज के क्षेत्रों से सम्पर्क स्थापित करने के कारण समुद्रपारीय गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला। हिन्द-यवन राजाओं की उपस्थिति, जो उत्तर-पश्चिम में आकर बस गए थे, से भी पश्चिमी एशिया एवं पूर्वी भूमध्यसागर में सम्पर्क बढ़ाने में मदद मिली। रोमन साम्राज्य में मसालों, कपड़ों, बहुमूल्य रत्नों एवं विलासिता की अन्य वस्तुओं की भारी मांग से दक्षिणी एवं पश्चिमी भारत से पूर्वी भूमध्यसागर को होने वाले व्यापार को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला। इससे भारतीय व्यापारी दक्षिण-पूर्व एशिया की यात्रा के लिए प्रोत्साहित हुए। इस व्यापार से व्यापारी वर्ग अत्यंत समृद्ध हो गया। मौर्य शासकों का पश्चिम एवं पूर्वी भारत के अधिकांश स्थलीय एवं जलीय व्यापारिक मार्गों पर नियंत्रण था, जो देश से बाहर जाते थे। चंद्रगुप्त मौर्य की सेल्यूकस के साथ संधि से चंद्रगुप्त को उत्तर-पश्चिमी एवं पश्चिमी भारत के उन समस्त भू-क्षेत्र पर नियंत्रण स्थापित करने में सहायता मिली, जो भारत को भूमध्यसागरीय क्षेत्रों से जोड़ते थे। दक्कन की विजय से मौर्य साम्राज्य को कई महत्वपूर्ण बंदरगाह प्राप्त हो गए।
45 ईस्वी के लगभग हिन्द महासागर के पार बहने वाली मानसूनी हवाओं की खोज से पुनः समुद्रपारीय व्यापार को प्रोत्साहन मिला। इन हवाओं की खोज से समुद्र में यात्रा करने वाले व्यापारियों का भय कम हो गया तथा वे आसानी से अपने गंतव्य स्थलों तक पहुंचने लगे। यूनानी भाषा में लिखित ‘पेरिप्लस ऑफ द इरीथ्रियन सी‘ (जो अज्ञात लेखक द्वारा 80-115 ईस्वी के मध्य लिखी गयी थी) में भारतीय तट पर स्थित विभिन्न बंदरगाहों का उल्लेख किया गया तथा भारत एवं रोमन साम्राज्य के मध्य विभिन्न व्यापारिक मदों की विस्तृत सूची दी गई। एक अन्य यूनानी रचना टॉल्मीकृत ‘जियोग्राफी‘ (150 ईस्वी) में भी व्यापार-वाणिज्य की व्यापक चर्चा की गयी। प्लिनी की नेचुरेलिस हिस्टोरिया (प्रथम शताब्दी ईस्वी), जो लैटिन भाषा में लिखित है, में भारत एवं इटली के मध्य होने वाले व्यापार का उल्लेख किया गया है। भूमध्यसागर के एक नगर सिकंदरिया में भारतीय व्यापारियों का एक बड़ा वर्ग जाकर बस गया। यह नगर व्यापार की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण था।
संगम साहित्य में भी तत्कालीन व्यापार से संबधित कई जानकारियां प्राप्त होती हैं। रोमन साम्राज्य के साथ होने वाला भारतीय व्यापार रोम के सोने के सिक्कों की प्राप्ति का एक प्रमुख माध्यम था। ये रोमन सिक्के आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु एवं कर्नाटक में व्यापक रूप से पाए गए हैं। दक्कन में, व्यापारिक भागों एवं तटीय क्षेत्रों से कई शहरी केंद्रों का उद्भव हुआ। तमिलनाडु में पुहार (चोल) एवं मुजरिस (चेर) जैसे प्रसिद्ध बंदरगाह अस्तित्व में आए, जो भारत से होने वाले समुद्रपारीय व्यापार के प्रमुख केंद्र थे। इन बंदरगाहों से विदेशों को विलासिता की विभिन्न वस्तुओं का निर्यात किया जाता था।
जातक कथाओं एवं अर्थशास्त्र में भी भारतीयों द्वारा किए जाने वाले समुद्रपारीय व्यापार के संबंध में महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं। उत्तरापथ एवं दक्षिणापथ भारत के दो सर्वप्रमुख व्यापारिक मार्ग थे। प्रथम मार्ग पुष्कलावती (वर्तमान चारसदा) से प्रारंभ होकर तक्षशिला, मथुरा, कौशाम्बी एवं वाराणसी होता हुआ पाटलिपुत्र तक एवं आगे चम्पा एवं चंद्रकेतुगढ़ तक जाता था। जबकि अन्य मार्ग मथुरा को उज्जैयिनी से जोड़ता था तथा आगे नर्मदा के मुहाने पर स्थित भड़ौच बंदरगाह तक जाता था। तीसरा मार्ग सिन्धु नदी के समानांतर स्थित था, जो सिंधु नदी के प्रारंभ में स्थित पाटल को तक्षशिला से जोड़ता था। यूनानी लोगों को उत्तरापथ के साथ-साथ दक्षिणापथ की जानकारी भी थी जो कि प्रायद्वीपीय भारत से संबद्ध था।