कार्ट स्थलाकृति क्या होती है ? Karst Topography in hindi geography कार्ट अपरदन से बने भू-रूप 

कार्ट अपरदन से बने भू-रूप कार्ट स्थलाकृति क्या होती है ? Karst Topography in hindi geography किसे कहते हैं ? 

कार्ट स्थलाकृति
(Karst Topography)
नदी हिम व वायु की तरह भूमिगत जल भी भू-आकृतियों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है। अन्य बाह्य शक्तियों की तरह भूमिगत जल भी अवसादों का अपरदन परिवहन व निक्षेपण कर भू-आकृति का निर्माण करता है। भूमिगत जल हर जगह पाया जाता है, परन्तु इसका सर्वाधिक चूना प्रदेशों से दिखाई पडता है। चूना प्रदेशों में बनने वाली स्थलाकृतियों को काट स्थलाकति भी कहते है। कार्स्ट यूगोस्लाविया व आस्टिया के एडियाटिक सागर के तट के समीप चूना प्रस्तर, पठारी प्रदेश है। यहाँ भूआकृति जल द्वारा बनायी गयी स्थलाकृतियाँ देखी जा सकती हैं। कास्ट जर्मन भाषा का शब्द है। इटली में इसे सर्बिया में कार्स कहा जाता है। यूरोप चूना प्रदेश के नाम पर ही विश्व में जाना जाता है। इस प्रकार के सभी मैदानों को काट प्रदेश या कार्स्ट मैदान कहा जाता है। कार्ट मैदानों में भूमिगत जल एवं उसके क्रिया को महत्व दिया जाता है। कार्ट प्रदेशों में चूना, जिप्सम, डोलोमाइट जैसी घुलनसील चट्टानों के प्रस्तर मिलते है। ये चट्टान जल को बहुत जल्दी सोखती है, साथ ही घुलनशील प्रकृति होने के कारण भूआकृति जल यहाँ अपरदन निक्षेप व परिवहन सभी कार्य करता है। इस प्रकार के प्रदेश विश्व में – एड्रियाट्रिक (यूरोप), फ्रांस में कौस रीजन, ग्रीस, आटी, यूकेटान, मैक्सिको, जमैका, अमेरिका का उ० पोटर्रिको, फ्लोरिडा टेनिसी, द. इण्डियाना व केन्टुकी राज्य, पाकिस्तान में किरथर में मिलते हैं।
वर्षा का जल जब धरातल पर गिरता है तो इसका- (1) कुछ भाग वाष्पीकरण क्रिया द्वारा पुनः वायुमण्डल में मिल जाता है। (2) कुछ भाग ढालों से बहकर नदी-नालों में मिलता है एवं (3) कुछ भाग चट्टानों द्वारा सोख लिया जाता है। इससे भू-गर्भिक जल का निर्माण होता है, जो कुँओं, नलकूपों या सोर्स के रूप में दिखायी पड़ता है।
समुद्र वायुमण्डल एवं स्थल पर जल के एक चक्र में घूमने की क्रिया को जलीय चक्र (भ्लकतवसवहपबंस ब्लबसम) कहा जाता है। इस चक्र में जो हिस्सा धरातलीय चट्टानों में सोखा जाता है, वह पुनः धरातल पर प्रकट होकर वाष्पीकृत हो जाता है।
धरातल के भीतर जल निम्न तरह से पहुँचता हैः-
(1) सतह पर बहने वाला जल सीधे चट्टानों द्वारा सोख लिया जाता है।
(2) बर्फ व हिम की परतों से जल चट्टानों द्वारा सोखा जाता है।
(3) सागर, झीलों, तालाबों की तली से जल चट्टानों के द्वारा सोखा जाता है।
(4) ज्वालामुखी क्रिया से भाप के जल में बदलने से प्राप्त जल चट्टानों में संग्रहीत हो जाता है।
इसी प्रकार मेग्मा जब चट्टानों में प्रवेश करता है तब उपस्थित जल वाष्प मेग्मा के ठंडे होने पर जल में बदल जाती है । इसे मेग्मा जल या मेग्मेटिक वाटर (Magmatic Water) कहा जाता है।
धरातल पर बिछी हुई जलज या अवसादी चट्टानों में जल का पर्याप्त अंश होता है। पृथ्वी की आन्तरिक हलचलों में नीचे दब जाने पर भारी दबाव में इनमें से जल भगर्भ में संग्रहीत हो जाता है। इस जल को सहजात जल (Connate Water) कहते हैं।
इस प्रकार भूमिगत जल भूगर्भ में संग्रहीत होता है। यह विभिन्न स्थानों में विभिन्न गहराइयों पर मिलता है। किसी भी स्थान पर भूमिगत जल की उपलब्धता कई बातों पर निर्भर करता-
(1) चट्टानों की सरन्ध्रता- हर चट्टान में जल ग्रहण करने की क्षमता नहीं होती। अवसादी चट्टानें अधिक पोरस होती हैं व जल इन चट्टानों में आसानी से सोखा जाता है। सरन्ध्र चट्टानों के नीचे जब चट्टाने स्थित होती हैं, तब जल का संग्रह होता है।
(2) भूमि का ढ़ाल- तीव्र ढालू भूमि पर वर्षा का जल शीघ्रता से बह जाता है व चट्टाने उसे कम सोख पाती है, समतल भूमि पर जल आसानी से भू-गर्भिक चट्टानों में प्रवेश कर जाता है।
(3) जलवायु- आर्द प्रदेशों में जल की उपलब्धता अधिक होती है। अधिक वर्षा से सतह का जल के प्रभाव से आधार चट्टान तक पहुंच जाता है। यहाँ वाष्पीकरण भी कम होता है। अतः भूमिगत जल का संग्रह अधिक होता है। शुष्क प्रदेशों में वर्षा भी कम होती है व वाष्पीकरण अधिक इस कारण भूमिगत जल स्तर नीचा पाया जाता है।
(4) पहाड़ी व पठारी क्षेत्रों में मैदानों की तुलना में जलस्तर नीचा होता है। मैदानों में नदियों, झीलों की उपस्थिति से जल रिसकर भूगर्भ में एकत्रित होता रहता है। गंगा के मैदान के तराई क्षेत्रों में 4-10 फिट की गहराई पर ही जल मिल जाता है।
(5) मिट्टी की जल सोखने की क्षमता (Infliltration capacity) भी भूमिगत जल की मात्रा निश्चित करती है। रेतीली मिट्टी में जल का अवशोषण अधिक होता है और चिकनी मिट्टी बहत जल्द संपक्त हो जाती है।
उपरोक्त तत्वों के प्रभाव से हर स्थान में भूमिगत जल की मात्रा एवं उपस्थिति निश्चित होती है। भूगर्भ को जल की उपलब्धता के आधार पर निम्न भागों में बाँटा जाता है
(1) असंपृक्त क्षेत्र (Zone fo Non&Saturation) – यह सतह से लगा क्षेत्र होता है, जिससे होकर जल छिद्रों द्वारा सतह के नीचे प्रवेश करता है। केवल कुछ भाग मिट्टी के कणों द्वारा रोक लिया जाता है। वह वनस्पति के काम आता है।
(2) अर्द्ध संपृक्त क्षेत्र (Zone fo Intermittent Saturation) -यह जल स्तर की ऊपरी सीमा होती है। इस भाग की चट्टानों में वर्षा ऋतु या जल की मात्रा अधिक होने पर जल से भरा जाती है। शुष्क ऋतु में सूख जाती है। जलस्तर नीचे चला जाता है। इस क्षेत्र में खुदने वाले कुएँ अस्थायी होते है।
(3) स्थायी संपृक्त क्षेत्र-यह जलस्तर या जलरेखा का सबसे गहरा भाग होता है। प्रायः 200 से 300 मीटर की गहराई पर पाया जाता है, जहाँ हमेशा जल का संग्रह पाया जाता है। इसकी सीमा स्थायी जलरेखा कहलाती है।
भूमिगत जल सतह की तरह बहने व क्षय करने की क्षमता नहीं रखता है। इसका कार्य हमें कुछ विशिष्ट चट्टानी प्रदेशों में ही मिलता है। कार्ट प्रदेशों में इसका कार्य देखने को मिलता है, परन्तु इसके लिये भी कुछ विशिष्ट दशाओं की आवश्यकता होती है-
(1) घुलनशील चट्टानों की मोटी परत होनी चाहिये।
(2) चूना डोलोमाइट आदि चट्टानों में संधियाँ छिद्र होने चाहिये जिससे जल भीतर जा सके।
(3) पर्याप्त वर्षा या नदी व झीलें हों जहाँ से भूमिगत जल की प्राप्ति हो।
कार्ट अपरदन से बने भू-रूप  –
वर्षा का जल चूना पत्थर के क्षेत्रों में संधियों व छिद्रों से प्रवेश करता है और अपरदन कार्य (रासायनिक अपरदन से) प्रारभ होता है। जल में कार्बन डाइ-ऑक्साइड घोल के रूप में मिली रहती है, जब चूने की चट्टानों से इसका संपर्क होता है तब चूने में रासायनिक क्रिया शुरू हो जाती है व चट्टानें घुलने लगती हैं। चूने के साथ वर्षा जल के सम्पर्क से CaCO3 ़ CO2 ़ H2O = C (HCO3)2 का घोल बनता है। इससे निम्नलिखित भू-आकृतियाँ बनती हैः-
(1) लेपीज (Lapies) – भूपृष्ठों पर चूने की चट्टानों के विस्तार पर जब कार्बन डाइ ऑक्साइड गैस मिश्रित जल प्रवेश करता है तब घुलन क्रिया से संधियाँ चौड़ी हो जाती हैं। बीच का भाग नुकीली पहाड़ियों जैसा दिखाई पड़ता है। चाकू के समान तेज धार वाली पहाड़ियाँ लेपीज कहलाती हैं। जर्मनी में कैरन, ब्रिटेन में क्लिन्ट, संयुक्त राज्य के फ्लोरिडा में बोगाज कहलाती है।
(2) विलय रंध्र (Sallow Holes) – चूने के प्रदेश में सबसे ज्यादा विस्तृत ये ही स्थलाकृति देखने को मिलती है। चट्टानों में पाये जाने वाले गड्ढे या छिद्र घुलन क्रिया से बड़े व गहरे हो जाते हैं। चट्टानों की संधियाँ भी घुलकर चौड़े गड्ढों में बदल जाती हैं। इन छिद्रों को विलय रंध्र कहा जाता है। सतह का जल इन छिद्रों से अदृश्य हो जाता है। इनका आकार कीप की तरह होता है, ऊपर चौड़ा व नीचे सँकरा। इनका विस्तार 100 फिट तक हो जाता है। सबसे गहरा विलय रंध्र – फ्रांस का ट्रोउ डे ग्लाज है जो 657 मीटर गहरा है।
(3) कार्ट खिड़की (Karst Window) – कार्ट प्रदेशों में निरन्तर घुलन क्रिया होने से कई विलय रंध्र बहुत बड़े हो जाते हैं व उनके मध्य का भाग ढह जाता है, इससे विस्तृत खिड़की जैसी आकृति बनती है, इसे काट खिड़की कहा जाता है।
(4) डोलाइन (Doline) – काट प्रदेशों के विशाल गर्त प्ले सिर्फ घुलन क्रिया से बने हों, उन्हें डोलाइन कहा जाता है। ये 200 फिट चौड़े व 30-50 फिट तक गहरे होते हैं। जब कभी इनमें पानी भर जाता है, तो इन्हें काट लेक (Karst Lkae) या सिक होल पॉड (Sick Hole pond) कहा जाता है।
(5) संकुण्ड (Uvala) – कई कार्स्ट खिड़कियों के मिल जाने से चूना प्रदेशों में विशाल विस्तृत गड्ढे बन जाते हैं, जिनका विस्तार 1-3 कि.मी. तक होता है, इनकी तली में पुनः विजय रंध्र बनने लगते है, जिससे जल लुप्त होने लगता है। ऐसे विशाल ध्वस्त क्षेत्र को युवाला कहा जाता है। इनमें अंधी घाटी (Blind Valley) का विकास देखा जा सकता है।
(6) (Polie) – जब दो या अधिक सकुण्ड मिल जाते हैं, तब विशाल गड्ढे को राजकुण्ड कहा जाता है। इसमें छोटी-छोटी नदियाँ बहती देखी जा सकती हैं, जो किसी विलय छिद्र में लुप्त हो जाती है।
(7) प्राकृतिक पुल (Natural Bridges)- कई बार दो राजकुण्ड या सकुण्ड के मध्य जल चढ़ानों को घोल देता है, परन्तु ऊपर सतह की चट्टाने अप्रभावित रहती हैं, ऐसे कार्ट खिडकी व प्राकृतिक पल का निर्माण होता है।
(8) कन्दरा (Cavern) – भूमिगत जल चट्टान की परतों के झुकाव के सहारे आगे बढ़ता जाता है। व चट्टानों को घोलते हुए लम्बी कन्दराओं का निर्माण करता है। इनका सम्पर्क एक गड्ढे से दूसरे गड्डे तक हो जाता है। कन्दराओं की लम्बाई 100-1500 फिट तक पायी जाती है। वर्जीनिया में इस प्रकार की सुरंग की लम्बाई 900 फिट है, चौड़ाई 130 फिट व ऊँचाई 75 फिट तक है व इसमें रेल लाइन स्थापित है। प्रारम्भ में इनका आकार सुरंग (Tunnel) जैसे होता है व धीरे-धीरे अत्यधिक विशाल रूप धारण कर लेती है, तब इन्हें गुफायें या कन्दरा कहा जाता है। केनटकी की मेनाथ गुफा 8 मील लम्बी, 80 फिट ऊँची व 250 फिट चौड़ी है। फ्रांस व ग्रीस में भी ऐसी कन्दरायें देखी जा सकती हैं।
(9) कार्ट घाटियाँ (Karst Valleys)- स्थलखण्ड के नीचे भूमिगत जल विभिन्न घाटियों का निर्माण करता है। सतह पर बहने वाली नदियाँ थोडी दर बहने के बाद किसी रन्ध्र से आदृश्य हो जाती हैं व भूमिगत होकर घुलन क्रिया से अपनी घाटी बनाती है। घोल रंधों के धंसकने से ये जर्जर हो जाती हैं. इसे धंसती निवेशिका (Sinking creek) कहा जाता है। धरातल पर शेष शुष्क घाटी को (Blind Valley) अधा घाटा कहत है।
निक्षेपात्मक स्थलरूप –
कार्स्ट प्रदेशों में भूमिगत जल द्वारा घुलिस पदार्थो के निक्षेपण से निम्न भू-रूप बनते हैः-
(1) ग्रन्थिका (Nodule)- चूना व अन्य खनिजों से युक्त जल संधियों या छिद्रो में भर जाता है। कालान्तर में वाष्पीकरण या अन्य कारणों या अन्य कारणों से जल समाप्त हो जाता है ततथा खनिजों के निक्षेप से संधि भर जाती है। इसे ग्रन्थिका कहते है। फ्रांस में इस प्रकार के निक्षेप देखे जा सकते है।
(2) जियोड (Geode) – चूना प्रदेशों में गोल आकार के निक्षेपित ग्रन्थिकाओं को जियोड कहा जाता है।
(3) खनिज शिराएँ (Mineral Veins) -भूमिगत जल के धोल से निक्षेपित पदार्थो के द्वारा चट्टानों की संधे व दरारें भर जाती है, जिससे चट्टानों में खनिज शिराएँ बन जाती हैं। अधिकांश सोना, चांदी, सीसा ताँबा इसी प्रकार की शिराओं में मिलता है।
(4) स्टैलेक्टाइट व स्टैलेजमाइट (Stalactite and Stalagmite) – चूना प्रदेशों में धीरे-धीरे सिस्ता जल कन्दराओं की छत से टपकता है। जितने समय जल की बूंद छत से चिपकी रहती है, उस समय भी उसमें घले खनिज छत से चिपक जाते हैं व पानी नीचे गिर जाता है। प्रत्येक बूंद टपकने के साथ यह किया करती है। धीरे-धीरे जल पर खनिज व चूने का जमाव बढ़ता जाता है तथा वो लटकते हुए स्तम्भ के रूप में दिखाई पड़ते हैं। छत पर चौड़े व नीचे जमाव सेंकरे होते जाते हैं। इन्हें स्टैलेक्टाइट कहा जाता हहै। ठीक इसी प्रकार जब बँदे नीचे गिरती हैं तब शेष धुला पदार्थ कन्दरा के फर्श पर जम जाता है। धीरे-धीरे यह निक्षेप भी ऊँचा होने लगता है व स्तम्भ का रूप ले लेता है। इसे स्टैलेग्माइट कहा जाता है। ये छत से लटकने वाले स्तम्भों की तुलना में मोटे व ऊँचे होते हैं। कभी-कभी कन्दराओं में छत से लटकने वाले व सतह से बनने वाले स्तम्भ परस्पर मिल जाते हैं, तब इन्हें कन्दरा स्तम्भ (Cave Pillars) कहा जाता है। विचित्र आकार-प्रकार के निक्षेपों को कई नामों से पुकारा जाता है – लटकते परदे (भ्ंदहपदह ब्नतजंपदे), पाषाण जंगल (Petrified forest), धारीदार वचिक (Fluted Screens) आदि। संयुक्त राज्य अमेरिका के न्य मैक्सिको प्रान्त की कार्क्सवाद कन्दरा में ऐसे स्तम्भ देखे जा सकते हैं। फ्रांस के लोजरी कक्ष में भी ऐसे स्तम्भ मिलते हैं।
कार्ट क्षय चक्र (Karst Cycle fo Erosion)-कार्स्ट प्रदेश में सिविजक (Civijic) द्वारा अपरदन चक्र प्रस्तुत किया गया है।
(1) प्रारम्भिक अवस्था – इस अवस्था में धरातल के ऊपर बहता जल अपना मार्ग तय करता है। छोटीछोटी नदियों या नालों के रूप में इसका बहाव बनता है व कुछ जल चट्टानों द्वारा सोख लिया जाता है। अपरी अवसादी चट्टानों की परत के अपरदित हो जाने पर चूने की चट्टानें सतह पर आ जाती हैं। कभी-कभी उत्थान या भ्रंश क्रिया से भी आन्तरिक चूने की चट्टानें धरातल पर प्रकट हो जाती हैं।
(2) युवावस्था – इस अवस्था में कार्ट प्रदेश में जल धीरे-धीरे संधियों को चौड़ा करने लगता है, जगहजगह विलय रंध्र बन जाते हैं। धरातल ऊबड़-खाबड़ हो जाता है। सतह पर लेवीज, कार्ट खिड़की विलय रंध्र दिखायी पड़ते हैं।
(3) प्रौढ़ावस्था- दूसरी अवस्था में लम्बे समय तक चलने वाली घुलन क्रिया के परिणाम दिखायी पड़ते है। चूना प्रदेशों में बड़े-बड़े गड्ढे, जैसे युवाला पोलजे बन जाते हैं, जल सतह पर न बहकर भूमिगत हो जाता है। अंधी घाटी व कन्दराओं, सुरंगों का निर्माण होता है। धरातलीय अपवाह लुप्त हो जाता है। प्रदेश में जगह-जगह धरातल ध्वस्त होकर विषम बन जाता है। धंसती निवेशिकाओं, कार्स्ट खिड़की कार्स्ट पुल बन जाते है। निक्षेप से गुफाओं में स्टैलेग्माइट व स्टैलेग्टाइट आकृतियों का निमार्ण होता है।
(4) वृद्धावस्था- अन्तिम अवस्था में राजकुण्ड का पूर्ण विकास होता है। गुफाओं व सुरंगों के ध्वस्त हो जाने से जल प्रवाह पुनः दिखाई पड़ने लगता है। समस्त चट्टाने घुलकर बह जाती है व आधार की कठोर चट्टान सतह पर आ जती है। कुछ कठोर हिस्से जो घुलने से रह जाते हैं खड़े पाये जाते है। जिन्हें हम्स (hams) कहते है। यह अवस्था वर्जीनिया एवं फ्रांस में कासेसे में देखी जा सकती है।