आकारजनक जलवायु की क्रिया-विधि क्या है ? वनस्पति का आकारजनक प्रक्रम पर प्रभाव किसे कहते है ?

वनस्पति का आकारजनक प्रक्रम पर प्रभाव किसे कहते है ? आकारजनक जलवायु की क्रिया-विधि क्या है ? 

जलवायु तथा चट्टान
यदि हम एक ही प्रकार की चट्टान को लें तो देखेंगे, भिन्न-भिन्न जलवायु में भिन्न-भिन्न प्रक्रम कार्यरत होते हैं। उदाहरण के
लिये लाइमस्टोन की चट्टान को प्रस्तुत किया जा सकता है। उष्णार्द्र जलवायु मे वर्षा की मात्रा अधिक होती है जिससे चूना-पत्थर अपक्षय तथा अपरदन की दृष्टिकोण से काफी कमजोर होता है। रासायनिक अपक्षय अधिक सक्रिय होता है। उष्ण शुष्क जलवायु में वर्षा की मात्रा कम तथा तापमान अधिक होता है, जिस कारण अपरदन तथा अपक्षय के लिये चूना-पत्थर कठोर होता है। ध्रुवीय जलवायु में तापमान 0°C से भी कम तथा वर्षा नहीं होती है, जिस कारण चूना पत्थर की चट्टान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। पेल्टियर महोदय ने स्पष्ट किया है कि जहाँ पर तापमान अधिक तथा वर्षा अधिक होती है, वहाँ पर रासायनिक अपक्षय अधिक होता है। जहाँ पर तापमान तथा वर्षा न्यून होती है, वहाँ पर भौतिक अपक्षय अधिक होता है।
जलवायु तथा प्रक्रम
जलवायु तथा प्रक्रम परस्पर तादात्म्य रूप से सम्बन्धित होते हैं। एक के ज्ञान के पश्चात् दूसरे का ज्ञान स्वतः हो जाता है। पवन प्रक्रम से मरुस्थलीय जलवायु तथा मरुस्थलीय या शुष्क जलवायु से पवन प्रक्रम का बोध होता है। इसी प्रकार अन्य जलवायु एवं प्रक्रमों का सम्बन्ध स्पष्ट होता है। वास्तव में, प्रक्रम अपनी जलवायु का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनके सम्बन्धों के आधार पर यह भी कहा जा सकता है, प्रक्रम जलवायु जनित होते हैं। प्रत्येक जलवायु में अलग-अलग प्रक्रम होते हैं। ऐसा नहीं होता है कि सभी जलवायु के सभी प्रक्रम एक हो। स्थलरूपों के निर्माण में प्रक्रमों का विशेष महत्व होता है। प्रत्येक प्रक्रम का अपना अलग-अलग स्थलरूप निर्मित होता है। जलवायु और प्रक्रमों के सम्बन्ध तथा उनकी क्रियाविधि का अध्ययन भू-आकृति विज्ञान में अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है, जिसका अध्ययन जलवायु भू-आकारिकी में किया जाता है। वास्तव में, विभिन्न प्रकार की जलवायु में विभिन्न प्रकार के प्रक्रम कार्यरत होते है, जिनकी क्रियाविधि पर जलवायु की भिन्नता का प्रभाव परिलक्षित होता है।
आकारजनक जलवायु की क्रिया-विधि
(i) तापक्रम की भिन्नता अपरदन के कारकों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालती है। यदि 0° सेल्सियस तापमान है तो रात्रि में तुषार के कारण जल का हिमीकरण हो जाता है तथा दिन में ताप वृद्वि के कारण द्रवीकरण हो जाता है जिस कारण चट्टानों में संकुचन तथा प्रसार होता रहता है। परिणामस्वरूप् चट्टानों के छिद्रों में दबाव तथा तनाव की क्रिया निरन्तर चलती रहती है। अतः कठोर से भी कठोर चट्टाने टूट जाती है। यदि यह क्रिया असंगठित पदार्थ वाली चट्टानों पर होती है, तो निश्चित रूप से मृदासर्पण सक्रिय होगा। यदि तापमान 0° सेल्सियस से भी कम होगा तो हिम का हिमद्रवण नहीं होगा, परिणामस्वरूप इसकी चट्टानों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
तुषार का प्रभाव पवन के कार्यों पर भी पड़ता है। पवन शुष्क प्रदेशों में अपरदन के द्वारा विभिन्न स्थलाकृतियों का निर्माण अपघर्षण, सन्निघर्षण तथा अपवाहन के द्वारा करता है। परन्तु तुषार जलवायु में पदार्थ चिपचिपा हो जाता है, जिस कारण उतना सक्रिय कार्य नहीं कर पाता है, जितना कि शुष्क प्रदेशों में करता है।
बाही जल पर भी तुषार का प्रभाव पड़ता है। उष्णार्द्र जलवायु में नदी का प्रवाह निरन्तर चलता रहता है, परन्तु शीत जलवायु में जब हिमद्रवण होता है तो नदी का कार्य सक्रिय होता है, परन्तु हिमाकरण में इसका कार्य स्थगित हो जाता है। परिहिमानी जलवायु में भी ग्रीष्मकाल में जब द्रवीकरण बड़े पैमान पर होता है तो जल वाही जल के रूप में प्रवाहित होने लगता है। इस समय नदी बड़े-बड़े पदार्थो को वहन करने में समर्थ होती है।
तुषार का प्रभाव सागरीय प्रक्रमों पर पड़ता है। शरदकाल में तुषार के कारण तटवर्ती भागों पर हिम का जमान बड़े पैमाने पर हो जाता है जिस कारण सागरीय तरंगों का कार्य स्थगित हो जाता है। परन्तु कभी-कभी हिमीकरण तथा हिमद्रवीकरण के कारण सागर तटवर्ती चट्टानें टूट जाती हैं। परिणामस्वरूप क्लिफ का बड़े पैमाने पर विनाश हो जाता है।
(ii) अब तक, तापमान हिमांक (0° सेल्सियस) या इससे नीचे रहता है, का तुषार अपक्षय तथा अपरदन पर पड़ने वाले प्रभाव का विश्लेषण किया गया है। अब, तापमान जब इससे अधिक होता तो प्रक्रमों पर क्या प्रभाव पड़ता है, का विश्लेषण करेंगे। उष्णकटिबन्धीय शुष्क प्रदेशों में रात तथा दिन के तापमान में बहुत अन्तर होता है। दिन में तापमान अधिक होने के कारण चट्टानें फैल जाती हैं तथा रात्रि में तापमान कम होने के कारण चट्टानें सिकुड़ जाती हैं। फलस्वरूप चट्टानें टूट जाती हैं।
सामान्य चट्टानों में तापमान का संचालन कम गहराई तक हो पाता है, जिस कारण ऊपरी परत अधिक गर्म होकर फैल जाती है, परन्तु निचली परत अपेक्षाकृत अधिक शीतल रहती है। परिणामस्वरूप ऊपरी परत उधड़ने लगती है। कभी-कभी शुष्क तथा आर्द्र दशाओं में यदि अन्तर होता है तो. अपक्षय तथा प्रक्रमों में भिन्नता पाई जाती है। यदि मृत्तिका शैल है तो शुष्क दशाओं में तापमान की अधिकता के कारण विभिन्न आकारों में टूट जाती हैं। मान्टमोरिलोनाइट प्रकार की चट्टान में शुष्कता के कारण दरारें पड़ जाती हैं, जिसमें जल एकत्रित होने लगता है जिस कारण ऊपर स्थित मलवा नीचे की ओर सरकने लगता है।
वनस्पति का आकारजनक प्रक्रम पर प्रभाव
वनस्पतियों जलवायु का वास्तविक मापदण्ड होती हैं। भिन्न प्रकार की जलवायु में भिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ पाई जाती हैं। जलवायु, वनस्पति तथा मिट्टी का एक दूसरे से अन्तर्सम्बन्ध होता है। ये एक दूसरे को नियन्त्रित तथा प्रभावित करते हैं। जल वर्षा के समय जल बिन्दुकायें पड़ने लगती हैं तो वनस्पति के आवरण के कारण धरातल पर कम प्रभाव डालती हैं। जब धरातल पर वनस्पति का आवरण नहीं होता है तो जल बिन्दुकायें धरातल पर पड़ती है तो ढीले कणों को अपने स्थान पर से हटा देती हैं। यही क्रिया निरन्तर चलती रहती है, जिस कारण आस्फलन अपरदन होता है। जहाँ पर वनस्पतियों सघन होती हैं, वहाँ पर जल बिन्दुकायें पहले वनस्पतियों पर गिरती हैं, इसके बाद मन्दगति से धरातल पर गिरती हैं, जिस कारण आस्फलन अपरदन कम हो पाता है। जब वनस्पतियों के तने चिकने होते है तो वनस्पतियों पर रुका जल शाखाओं से होता हुआ तने के सहारे सतह पर पहुँचता है, जब कभी इनका प्रवाह तीव्र होता है, तब अपरदन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। इन क्रियाओं में वनस्पति की भिन्नता के कारण भिन्नता होती है। भूमध्य रेखीय जलवायु में वनस्पतियाँ अत्यधिक सघन होती हैं जिस कारण जल तने के सहारे तीव्रगति से धरातल पर प्रवाहित होता है। उष्ण तथा उपोष्ण कटिबन्धीय जलवायु में पतझड़ वनस्पतियां पाई जाती हैं, जिस कारण वहाँ पर मौसम के अनुसार अपरदन पर प्रभाव पड़ता है। ग्रीष्म ऋतु में जब ये अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं, तब आस्फलन अपरदन होता है, परन्तु जब इनकी पतियां नही गिरती है तो तनों के सहारे वाही जल सक्रिय हो जाता है। शुष्क जलवायु में वनस्पति का आवरण नही पाया जाता है जिस कारण आस्फालन अपरदन सक्रिय हो जाता है। शुष्क तथा अर्द्धशुष्क जलवायु में छिट-पुट वनस्पतियाँ झाड़ियों के रूप में पाई जाती हैं, जिस कारण नाममात्र का अन्तरारोधन होता है, परन्तु आस्फाल अपरदन अधिक सक्रिय होता है। शीतोष्ण कटिबन्धीय जलवायु में घासों का आवरण होता है जिस कारण दोनों न्यून होते हैं। यदि वनस्पतियों का आवरण रहता है तो ताप नीचे धरातल पर नहीं पहुँच पाता है। परन्तु जहाँ पर आवरण नहीं होता है वहाँ पर ताप नीचे धरातल पर पहुंचता है। परिणामस्वरूप दोनों में अपक्षय की सक्रियता में काफी अन्तर आ जाता है।
यदि वनस्पति का आवरण किसी स्थान विशेष पर पाया जाता है तो वहां पर वाहीजल इसके कारण रुक-रुक कर प्रवाहित होता है, जिस कारण अपरदन कम होता है, परन्तु जिस स्थान पर वनस्पतियों का आवरण कम होता है, वहाँ पर वाहीजल तीव्रगति से प्रवाहित होता है, जिस कारण अपरदन अधिक होता है।
यदि भूतल पर जलवायु का अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि बहुत बार जलवायु में परिवर्तन हुआ है। यदि हम किसी वर्तमान स्थलरूप का अध्ययन करते हैं तो प्राचीन जलवायु के भी स्थलरूप दिखाई पड़ते हैं। इस आधार पर यह शंका व्यक्त की जाती है कि – क्या यह स्थलरूप वर्तमान जलवायु का प्रतिफल है।
जलवायुभू-आकारिकी को आज मान्यता प्रदान नहीं की गई है। जब तक धरातल के विभिन्न क्षेत्रों के आकारमितिक आँकड़े नहीं प्राप्त हो जाते हैं, तब तक इसके विषय में निश्चित धारणा नहीं बन पायेगी। डगलस महोदय ने बताया है कि – स्थलरूपों के निर्माण में जलवायु का कोई महत्वपूर्ण स्थान नही होता है। स्टोडर्ट महोदय ने बताया है कि संरचना का महत्व जलवायु की अपेक्षा अधिक होता है।
जलवायु भू-आकारिकी की मान्यताओं को पूर्णरूप से अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है, क्योकि विभिन्न प्रकार के जलवायु में विभिन्न प्रकार के प्रक्रम कार्य करते हैं तथा विभिन्न प्रकार के स्थलरूप् का निर्माण करते हैं। यह सत्य है-चाहे स्थलाकृति नवीन हो या प्राचीन, परन्तु निर्माण विशेष प्रकार की जलवायु में ही हुआ होगा। इसका स्पष्टीकरण प्लेट विवर्तनिक सिद्धान्त के आधार भी किया जा सकता है। प्लेटो में गति होने के कारण ये एक दसरे के निकट या दूर चली जाती हैं जिस कारण जलवायु बदल जाना स्वाभाविक है, परन्तु प्राचीन स्थलरूप तो एक विशेष प्रकार की जलवायु में बना होगा। इस प्रकार जलवायु भूआकारिकी पूर्ण रूप से अस्वीकार तो नहीं की जा सकती है।