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पारसी धर्म क्या है इन हिंदी , zoroastrianism in hindi के संस्थापक कौन थे , की विशेषताएं , इतिहास , स्थापना कब हुई

zoroastrianism in hindi पारसी धर्म क्या है इन हिंदी के संस्थापक कौन थे , की विशेषताएं , इतिहास , स्थापना कब हुई मुख्य देवता पूजा स्थल में अंतिम संस्कार कैसे होता है ?

पारसी धर्म
इस धर्म की उत्पत्ति पर्शिया में ईसा पूर्व छठी से सातवीं शताब्दी में जरथ्रुस्ट्र के द्वारा हुई थी। यह एक एकेश्वरवादी धर्म है, जो एक शाश्वत ईश्वर में विश्वास करता है जिसे अहुर मज्दा कहते हैं। अहुर मज्दा न्यायोचित व्यवहार तथा अच्छाई का प्रतीक है। अंग्र मैन्यु नामक ईष्र्या तथा बुरे व्यवहार का प्रतीक एक बुरी आत्मा भी होती है। ये दोनों आपस में संघर्षरत रहते हैं जो कि चिरंतन है। एक दिन अच्छाई की बुराई पर जीत होगी तथा वह अंतिम दिन होगा।
पारसियों का भारत से प्रथम संपर्क इस्लामिक आक्रमणों के कारण उनके ईरान से भाग कर आने के क्रम में 936 ईस्वी में हुआ। उन्हें सामान्यतः पारसी के नाम से जाना जाता है तथा वर्तमान में वे भारत में सर्वाधिक छोटे (तथा तेजी से कम हो रहे) समुदायों में से एक हैं। अधिकांशतः, वे मुंबई, गोवा तथा अहमदाबाद में रहते हैं। उनके अग्नि-मंदिर अतश बहरम के नाम से जाने जाते हैं तथा कदाचित ही कहीं देखने को मिलते हैं। वर्तमान में पूरे देश में केवल आठ ज्ञात मंदिर हैं।
उनका पवित्र ग्रन्थ ‘जेंद अवेस्ता’ प्राचीन अवेस्तन में लिखा गया है तथा उसमें 17 पवित्र गीत (गाथा) तथा अथुना वैर्यों (पवित्र मन्त्र) हैं। माना जाता है कि ये जरथ्रुस्ट्र के द्वारा ही रचित हैं। इन मूल पाठों के अनुवाद तथा शब्दावली ‘‘ज़ेन्द’’ कहलाते हैं। यह संकलन पांच भागों में विभाजित हैः
ऽ यास्नाः आयोजन तथा नैवेद्यों के साथ आराधना
ऽ विदेवदातः दैत्यों के विरुद्ध नियम
ऽ याश्ट्सः आराधना करना (प्रशंसा के माध्यम से)
ऽ खोर्देह अवेस्ताः नित्य की प्रार्थनाओं की पुस्तक
ऽ गाथाः इन्हें पांच अन्य भागों में बांटा जाता है। इन्हें अहुनावैती, उश्तावैती, स्पेन्ता-मैन्यु, वोहू-खशाथरा तथा वशिश्ता-इश्ति कहा जाता है।
वे आग की पूजा करते हैं, किन्तु वायु, जल तथा मिट्टी को भी पवित्रा तत्व मानते हैं। उनका मानना है कि मृत पदार्थ सभी तत्वों के लिए विकृत कारक है, इसलिए वे मृत शरीर को गिद्धों के द्वारा खाए जाने के लिए खुले में रखते हैं। इन खुले स्थानों को ‘दख्मा’ कहा जाता है, तथा उन्हें खाने वाले गिद्धों को ‘दख्मा नाशिनी’ कहा जाता है। भारत में ऐसा एकमात्र स्थान मुंबई में ‘टाॅवर्स आॅपफ साइलेंस’ है जहाँ उनके शवों को खुले में छोड़ दिया जाता है। आजकल लोगों ने अपने मृतकों को दफनाना भी आरम्भ कर दिया है।
पारसियों में तीन मुख्य धड़े हैंः
शहन्शाई अपने कैलेण्डर की गणना अंतिम सस्सानी राजा, यस्देगार्द से करते हैं।
कादमी उनका दावा है कि उनके पास प्राचीनतम तथा सर्वाधिक सटीक कैलेण्डर है।
फासली वे परम्परागत पारसी कैलेण्डर का पालन करते हैं।

ईसाई धर्म
संसार के विशालतम धर्मों में से एक ईसाई धर्म के अनुयायी भारत में बड़ी संख्या में हैं। इसकी स्थापना ईसा मसीह के द्वारा जेरूसलम में की गयी थी। ईसा को सूली पर चढ़ाए जाने के तीन दिनों के पश्चात् उनके पुनर्जीवित होने के बाद इनके अनुगामियों की संख्या और अधिक बढ़ी। कुछ समय पश्चात्, यह रोमन साम्राज्य का राजधर्म बन गया तथा तीव्र गति से इसका प्रसार होना आरम्भ हुआ। रोमन-कैथोलिक ईसाई धर्म का आधार वैटिकन सिटी बनी। कुछ समय के बाद ईसाई धर्म में कई सुधार आन्दोलन हुए, तथा प्रोटेस्टेंट, मेथोडिस्ट आदि शाखाएं व्यापक रूप से प्रचलित हुईं।
ईसाई धर्म का मुख्य दर्शन एक ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास है जिसने इस जगत का निर्माण किया है। सृष्टि की सहायता की आवश्यकता होने पर वह दूत या मसीहा भेजता है। यीशू एक दूत थे, जो लोगों की ईश्वर प्राप्ति में सहायता करना चाहते थे तथा उनके मसीहा बन गए। उनका मानना है कि यीशू के धरती छोड़ने के पश्चात् ईश्वर की उपस्थिति का प्रतिनिधित्व पवित्र आत्मा ने किया। वस्तुतः, ईसाई पवित्र त्रिमूर्ति परमपिता (ईश्वर), पुत्र (यीशू) तथा पवित्र आत्मा की आराधना करते हैं।
ईसाइयों के पवित्रा ग्रन्थ को बाइबिल कहा जाता है। इसमें यहूदियों के ‘‘व्सक ज्मेजंउमदज’’ तथा पोप द्वारा निर्देशित रोमन कैथोलिक गिरिजा के द्वारा तय नवीन आलेखों के संकलन हैं। इस संकलन को श्छमू ज्मेजंउमदजश् कहा गया तथा दोनों को मिला कर बाइबिल बनी। वे क्रिसमस के दौरान यीशू के जन्म का उत्सव मनाते हैं तथा लोगों से पवित्र आराधना स्थल गिरिजाघर में समूह में एकत्रित हो कर प्रार्थना करने का आग्रह करते हैं। उनके मुख्य परम्पराओं में से एक वैप्तिस्म ;ठंचजपेउद्ध है जिसमें एक बालक या कोई व्यक्ति चर्च की सेवा में प्रवेश करता है। एक अन्य प्रथा है ‘‘युकारिस्ट’’ या ईश्वर के साथ रोटी तथा मदिरा बांटना जो ईश्वर और जीव के बीच एकता को प्रदर्शित करता है।
भारत में ईसाइयत के प्रसार की दो अवस्थाएं रही थींः प्रथम, मध्य काल के दौरान तथा द्वितीय ब्रितानियों के संरक्षण में 18वीं शताब्दी में मिशनरी अभियान। कुछ इतिहासकारों का तर्क है कि ईसा के दूतों में से एक संत थाॅमस 52वीं शताब्दी में भारत आए तथा उन्होंने तमिलनाडु तथा केरल में कार्य किया। इसका परिणाम केरल में सभी वर्गों से बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन के रूप में हुआ। माना जाता है कि वे मयलापुर में संत थाॅमस के प्रधान गिरिजाघर में दपफन हैं।
पुर्तगाली भी स्वयं के साथ ईसाई मिशनरियों को ले कर आये। उन्होंने अपनी शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए अकबर तथा उसके बाद जहांगीर से अनुमति ली। एक बड़ा क्रान्तिकारी परिवर्तन 1557 में तब आया जब रोमन कैथोलिक समाज के सदस्य संत फांसिस जेवियर को गोवा में एक प्रधान पादरी पद का दर्जा दिया गया।
मिशनरियों के अभियान का द्वितीय चरण 18वीं शताब्दी में आरम्भ हुआ जब उन्होंने बंगाल पहुँच कर धर्मांतरण के द्वारा वातावरण में बदलाव ला दिया। मिशनरियों ने धर्मान्तरित हो चुके लोगों को आधुनिक (अंग्रेजी) शिक्षा तथा चिकित्सकीय सहायता देने पर ध्यान केन्द्रित करना आरम्भ किया। आज भी यंग मेंस क्रिश्चियन एसोसिएशन (वाई.एम.सी.ए.) तथा महिलाओं के लिए वाई.डब्ल्यू.सी.ए. यीशू के सन्देश को भारत के छोटे-छोटे जनजातीय भागों में पहुंचाती हैं, जहां वे स्थानीय लोगों का धर्मांतरण करा उन्हें शिक्षा तथा चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध कराते हैं। ईसाई धर्म के अंतगर्त सीरियन क्रिश्चियंस आॅपफ केरल, प्रोटेस्टेंट समूह जैसे छोटे सम्प्रदाय भी हैं जो आज भी सक्रिय हैं तथा फल-फूल रहे हैं।

सिक्ख धर्म
सिक्ख धर्म का इतिहास गुरु नानक (1469.1539) के जीवन, समय तथा शिक्षाओं से आरम्भ होता है। वे स्थापित मान्यताओं से हटकर स्वतंत्रा दृष्टिकोण से युक्त थे। उन्होंने हिन्दू धर्म को संगठित संघर्ष प्रदान किया। उन्होंने न केवल पंजाब के लोगों के तत्कालीन जीवन पति की आलोचना की बल्कि अपने अनुगामियों को सामाजिक-धार्मिक संगठन का एक वैकल्पिक मार्ग भी प्रदान किया। उन्होंने एक धर्मशाला में एकत्रित होकर सामूहिक आराधना तथा एक साथ भोजन करने की परंपरा के माध्यम से अपने अनुयायियों के सामुदायिक जीवन को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया।
गुरु नानक ने न केवल तात्कालिक सामाजिक व्यवस्था की भत्र्सना की बल्कि इसका विकल्प भी प्रदान किया। उनके लिए, मानव अस्तित्व का परम लक्ष्य मोक्ष था जिसे जन्म-मृत्यु के अंतहीन चक्र से मुक्त हो कर प्राप्त किया जाता है। यह मुक्ति जन्म, वर्ग, जाति तथा लिंग से इतर सभी मनुष्यों का विशेषाधिकार था। यह मुक्ति पंडितों तथा मौलवियों द्वारा सुझाए गए मार्गों.मूर्ति या पुस्तक पूजा से नहीं प्राप्त की जा सकती। न ही इसे अपनी सांसारिक संपत्तियों या घर-बार का त्याग कर के प्राप्त किया जा सकता है। इसे गुरु द्वारा सिक्खाये गए सही विश्वास, सही आराधना तथा सही आचरण के बल पर प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने आराधना की नयी पद्धति यथा सामुदायिक रसोई (लंगर) का विकास किया।
नानक का धर्म अत्यंत व्यवहारिक है वे वैराग्य की बात नहीं करते, मुक्ति के लिए घर तथा आराम छोड़ने की बात भी नहीं करते। उन्होंने अपने अनुयायियों को अपने परिश्रम के बल पर अपनी गृहस्थी चलाने वाले, सामुदायिक आयोजनों (संगत) में सम्मिलित होने वाले तथा मुख्य आराधना स्थलों यथा गुरुद्वारा तथा धर्मशाला में आयोजित कीर्तन (ईश्वर की प्रशंसा में गाए जाने वाले सामुदायिक गीत) में सम्मिलित होने वाले आदर्श व्यक्ति बन कर जीवन बिताने को कहा।
उनके द्वारा रचित दोहों में से एक इस प्रकार है ‘‘हे नानक, जो अपने परिश्रम का पफल खाते हैं उन्हें सही मार्ग की पहचान है।’’ सिक्ख धर्म में एक अनुगामी से बिना अपनी आजीविका को प्रभावित किए ईश्वर के निकट होने की आशा की जाती है। सिक्ख धर्म की इस व्याहारिक शिक्षा ने पंजाब के खत्री व्यापारियों तथा अन्य व्यापारी वर्गों को बहुत अधिक प्रभावित किया तथा आरम्भिक चरण में यही वर्ग सिक्ख धर्म के पहले अनुयायियों में से एक बना।
आरम्भ में मुगलों तथा सिक्खों के बीच मधुर संबंध थे, किन्तु जहांगीर के आदेश पर गुरु अर्जुनदेव की पफांसी विवाद का विषय बन गयी। खुशवंत सिंह जैसे कुछ विद्वान् इसे ‘सिक्खों के पहले बलिदान’ के रूप में देखते हैं। गुरु हरगोविंद सिंह (1604-44) ने लड़ाकू वृत्ति की नींव रखी तथा रामदासपुर में प्रतिरोध के लिए अपनी स्वयं की सेना बनाई। उन्होंने सिक्ख पंथ को सिक्ख सैन्य दल में परिवर्तित कर दिया, जिसके सदस्य ‘संत सैनिक’ या ‘सैनिक संत’ कहलाते थे।
गुरु हरगोविन्द पहले गुरु थे, जिन्होंने दो तलवारों को धारण किया, पहली पीरी जो आध्यात्मिकता की प्रतीक थी तथा दूसरी मीरी जो कि सांसारिकता की प्रतीक थी तथा इस प्रकार यह भक्ति और शक्ति का प्रतीक थीं। उन्होंने अपने लौकिक प्राधिकार को प्रदर्शित करने के लिए तथा रोज-मर्रा के काम-काज तथा प्रतिरक्षा के उद्देश्य से अकाल तख्त तथा लोहारगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया।
अगले दो गुरु गुरु हरराय तथा गुरु हरकिशन सतत् रूप से लड़ाइयों में व्यस्त रहे इन्हें औरंगजेब के द्वारा गिरफ्रतार कर लिया गया। गुरु तेगबहादुर ने भी गुरुओं की परम्परा को आगे बढाया तथा अपने नियंत्रण वाले क्षेत्रा में संप्रभु सत्ता स्थापित की। वे भी सतत् रूप से मुगल बादशाह औरंगजेब के साथ संघर्षरत रहे तथा उन्हें 1675 में दिल्ली में मौत के घाट उतार दिया गया।
गुरु गोविंद सिंह अंतिम गुरु थे, जिनकी मृत्यु के पश्चात् व्यक्तिगत गुरु परम्परा का अंत हो गया तथा गुरु के अधिकार गुरु ग्रन्थ तथा गुरु पंथ को हस्तांतरित कर दिए गए। ऐसा इसलिए किया गया कि मुगलों तथा पहाड़ी सरदारों के विरुद्ध संघर्ष में गुरु गोविंद सिंह के चार पुत्रों की मृत्यु हो गयी। अपनी मृत्यु के ठीक पूर्व उन्होंने सिक्खों के हित में निर्णय लेने के अधिकार को गुरु ग्रंथ साहिब/आदि ग्रंथ को हस्तांतरित कर दिया। जो कि सिक्ख संतों की वाणी होने के कारण उनका नैतिक समर्थन भी प्राप्त कर चुका था। इसे अंततः, 1678 में संकलित किया गया।
गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की जोकि गैर-खालसा सिक्खों से स्पष्ट रूप से भिन्न थे, जिन्हें सहजधारी सिक्ख भी कहा गया। उनमे नानक पंथी, भल्ला तथा उदासी सम्मिलित थे। ये वैसे समूह थे जो या तो नानक के शब्दों का अनुसरण करते थे या सिक्ख धर्म में गुरु परम्परा से इतर अन्य धार्मिक अधिकार प्राप्त व्यक्तियों के आदेशों का पालन करते थे। खालसा पंथ में प्रवेश पाने वाले पहले पांच लोगों को पंचप्यारे कहा गया इन्ही पंजप्यारों के माध्यम से गुरु गोविन्द सिंह ने भी खालसा पंथ में प्रवेश पाया।
दीक्षा प्राप्त सिक्ख ‘सिंह’ कहे जाते थे तथा महिलाएं ‘कौर’ कहलाती थीं। एकसमान बाह्य वेश-भूषा द्वारा सिक्ख अनुयायियों ने समरूपता के नए स्तर को प्राप्त किया। खालसा सिक्खों को अपने बाल काटने की अनुमति नहीं थी तथा वे अपने पास स्वरूप के रूप में पांच ‘क’ (कच्छा, केश, कंघा, कृपाण तथा कड़ा) को धारण करते थे। शारीरिक स्तर पर इस प्रकार के भेद ने आन्दोलन को एकरूपता प्रदान की तथा उन्हें अपने सह-धर्मपालकों से अलग स्वरूप प्रदान किया।

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