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ईसाई धर्म में महिलाओं की स्थिति women in christianity religion in hindi समाज महिला की स्थिति क्या है
समाज महिला की स्थिति क्या है women in christianity religion in hindi ईसाई धर्म में महिलाओं की स्थिति बताइए ?
ईसाई सामाजिक व्यवस्था (Christian Social Order)
प्रत्येक धार्मिक समूह की सामाजिक व्यवस्था कुछ सिद्धांतों के आधार पर संगठित होती है। ये सिद्धांत संगति और विचारों तथा सहअस्तित्व की समानता को आधार प्रदान करते हैं। आइए देखें कि ईसाई सामाजिक व्यवस्था किस प्रकार बनती है। ईसा मसीह की शिक्षाओं से हम ईसाई सामाजिक व्यवस्था के कुछ बुनियादी सिद्धांतों की जानकारी ग्रहण कर सकते हैं।
सार्वभौमिक भाईचारा (Universal Brotherhood)
ईसा मसीह के अनुसार आदर्श समाज का मूल सिद्धांत सार्वभौमिक भाईचारे का विचार है। लेकिन जैसे आदर्श व्यवहार का औचित्य और उद्देश्य परमेश्वर की इच्छा को पूरी करने और उसे प्रसन्न करने की इच्छा पर आधारित है, ठीक उसी तरह सार्वभौमिक भाईचारे का आधार भी परमेश्वर का प्रेम है। मनुष्य के प्रति प्रेम परमेश्वर के प्रति प्रेम से ही प्रवाहित होता है, यह विचार ईसा मसीह के उस जवाब से स्पष्ट होता है जो उन्होंने एक यहूदी व्यवस्थापक के प्रश्न करने पर उसे दिया था। उस व्यवस्थापक का सवाल थाः ‘‘हे गुरू, व्यवस्था में कौन-सी आज्ञा बड़ी है?‘‘ ईसा मसीह ने जवाब दिया: ‘‘तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख । बड़ी और मुख्य आज्ञा तो यही है और उसी के समान यह दूसरी भी है कि तू अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रख। ये ही दो आज्ञाएं सारी व्यवस्था और भविष्यवक्ताओं का आधार है‘‘ (मैथ्यू 22ः3540) इस संदर्भ में प्रयुक्त “पड़ोसी‘‘, जैसा कि ईसा मसीह ने स्पष्ट किया (देखिए ल्यूक 10ः28-37)। पास-पास रहने वालों का अर्थ नहीं देता, बल्कि उन सभी साथी स्त्री-पुरुषों से आशय रखता है जो एक-दूसरे से प्रेम रखते हैं या उनके काम आते हैं, चाहे वे कितनी भी दूरी पर रहते हों और चाहे उनके जो भी सामाजिक नाते हों। साथियों से प्रेम रखना साधारणतया सामाजिक ढांचों में समाविष्ट नहीं होता, क्योंकि वे हमेशा ‘‘हम‘‘ और ‘‘वे‘‘ का भेद करते हैं। अपने साथी स्त्री पुरुष से प्रेम रखने के विचार का पालन करना ईसाई धर्म के अनुयायियों के लिए इसलिए संभव है क्योंकि उनमें परमेश्वर के प्रति प्रेम होता है।
समतावादी दृष्टिकोण (Egalitarian Outlook)
ईसाई सामाजिक व्यवस्था का एक अन्य महत्वपूर्ण सिद्धांत है-समतावादी दृष्टिकोण। ईसाई धर्म संस्था ने विभिन्न नस्लों, संस्कृतियों और वर्गों के लोगों को एक सूत्र में बांधा और उनमें संगतता, एकता और समानता की एक नई भावना जागृत की। प्रारंभिक चर्च के सबसे प्रमुख संगठनकर्ता पॉल ने इस बात को जोर देकर कहा कि ‘‘अब न कोई यहूदी रहा और न यूनानी, न कोई दास, न कोई नर, न नारी, क्योंकि तुम सब ईसा मसीह में एक हो‘‘ (गैलेशियन्स 3ः28)। शुरू में जो लोग अपने-अपने समुदायों के बंधनों को तोड़कर ईसाई बने, वे एक-दूसरे को ‘‘भाई‘‘ और ‘‘बहन‘‘ कहते थे, वे अपनी खाने पीने की चीजें मिल बांटकर इस्तेमाल करते थे, अपनी आमदनी को आम इस्तेमाल के लिए उदारतापूर्वक दान करते थे और अपने आपको उन्होंने एक समतावादी समुदाय के रूप में संगठित किया।
ईसा मसीह ने भी अपने अनुयायियों को एक नये किस्म का नेतृत्व और अधिकार दिया । उसके अनुसार भी समतावादी आदर्श को प्रोत्साहन मिला। साधारणतया, नेतृत्व करने वाला अपने पीछे चलने वालों से अपना आदेश मनवाने के लिए अपनी सत्ता और अपने अधिकार का इस्तेमाल करने का प्रयास करता है और लोग नेतृत्व वाले पद से मिलने वाले लाभों की लालच में ऐसा पद हथियाना चाहते थे। लेकिन ईसा मसीह ने यह शिक्षा दी कि तमाम सामर्थ्य और अधिकार परमेश्वर की ओर से मिलते हैं और नेतृत्व करने वाले का काम है अपने अधीन लोगों की सेवा करना।
दलितों की सेवा (Service of the Underprivileged)
ईसा मसीह की शिक्षा के अनुसार आदर्श समाज का एक और महत्वपूर्ण सिद्धांत है, दलितों की सेवा के प्रति चिंता और प्रतिबद्धता। मनुष्य के रूप में उम्र भर ईसा मसीह ने दुख में पड़े लोगों के प्रति अत्यधिक दया दिखाई। अपने अनुयायियों को भी ऐसा ही करने का उपदेश देते हुए ईसा मसीह ने कहा कि जो लोग निर्धनों, अजनबियों और सताए हुओं की देखभाल करते हैं, स्वर्गीय राजा अर्थात परमेश्वर उन्हें उसका समुचित फल देगा। ऐसे लोगों के प्रति किये गये दयालुता के कार्य स्वयं परमेश्वर के प्रति दया दिखाने के बराबर थे।
कार्यकलाप 1
ईसाई समाज को आपने जिस रूप में देखा और उसे लेकर आपके जो अनुभव रहे उनके आधार पर ‘‘हमारे समाज में ईसाई सामाजिक व्यवस्था‘‘ विषय पर लगभग दो पृष्ठ की टिप्पणी लिखिए। संभव हो तो, अध्ययन केन्द्र में अपने सहपाठियों के साथ इसका मिलान कीजिए।
ईसाई धर्म संस्था (चर्च) और व्यापक दुनिया (The Church and the Wider World)
ईसाई धर्म संस्था (चर्च) की ईसाई समाज में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। इसी से ईसाई विश्व दृष्टिकोण का निर्धारण होता है। चर्च व्यापक समाज और विश्व के साथ टकराव किस तरह प्रतिक्रिया देता है, इस बात का अध्ययन करना समाजशास्त्रीय दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। चर्च ईसा मसीह की शिक्षाओं के अनुरूप आदर्श समाज का क्रियान्वयन है। साथ ही, चर्च को व्यापक समाज के ढांचे के अंदर कार्य करना होता है। जिसके मूल्य और सामाजिक संबंधों के प्रतिरूप ईसाई सामाजिक व्यवस्था से मेल नहीं खाते। प्रारंभ से ही, ईसाई लोग इस विरोधभास को समझते थे और इन्हें इसके कारण कष्ट भी उठाने पड़े। ईसाई लोगों ने आदर्श ईसाई समाज को तो स्वर्गीय राज्य माना और मौजूद सामाजिक व्यवस्था को सांसारिक समाज या ष्संसारष् समझा।
चर्च और ‘‘संसार‘‘ (व्यापक समाज) के बीच यह विच्छेद कई सवाल खड़े करता हैः चर्च ने “संसार‘‘ के साथ सामंजस्य किस प्रकार किया? चर्च ने संसार को किस रूप में प्रभावित किया है? संसार ने चर्च को किस रूप में प्रभावित किया है? वास्तव में, ये सामंजस्य और समावेश के समाजशास्त्रीय मुद्दे हैं।
संसार के साथ सामंजस्य (Adaptation to the World)
‘‘संसार‘‘ के साथ सामजस्य करने की प्रक्रिया में चर्च का संसार को भावना और वास्तविकता में पूरा का पूरा स्वीकार कर लेने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि इससे ईसाई आदर्श का ही खंडन होगा और, संसार को पूरी तौर पर अस्वीकार कर देना भी संभव नहीं था, क्योंकि इससे तो शक्तिशाली राजनीतिक और धार्मिक सत्ता के साथ सीधी टक्कर होती और उसकी परिणति खूनी क्रान्ति में होती, जबकि यह ईसाई धर्म की भावना के खिलाफ है। प्रारंभिक चर्च ने वास्तव में इन दो छोरों के बीच का मार्ग अपनाया। उसने संसार को भावना के स्तर पर तो अस्वीकार कर दिया, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर उसे स्वीकार किया। एक अर्थ में यह दृष्टिकोण ईसा मसीह की शिक्षा से मेल खाता था। ईसा मसीह ने पुरानी व्यवस्था को नष्ट करने का नहीं बल्कि उसे बदलने का प्रयास किया। हां, यह बात अवश्य इसमें निहित थी कि ईसाई जीवन पद्धति सांसारिक जीवन से श्रेष्ठ थी, और अगर कभी परमेश्वर के आदेशों और नागरिक कानून के बीच कोई गंभीर टकराव हुआ, तो ईसाई व्यक्ति के लिए मनुष्य नहीं परमेश्वर की आज्ञा शिरोधार्य होनी चाहिए। (प्रेरितों के कार्य 5ः29)
नागरिक प्राधिकार (Civil Authority)
चर्च और ‘‘संसार‘‘ के बीच हुए समझौते में, यह माना गया कि राजनीतिक सत्ता और अन्य नागरिक आधार परमेश्वर की ओर से थे और इसलिए उनकी आज्ञा मानना आवश्यक था (रोमन 13ः1) और ईसाइयों ने कर चुकाने समेत अपने तमाम नागरिक कर्तव्यों का पालन किया। उसी तरह, हालांकि प्रत्येक व्यक्ति को ईसा मसीह खीष्ट में समान माना जाता है, फिर भी उस समय की पितृसतात्क और सामंती व्यवस्था के अनुरूप, पत्नी को पति की आज्ञा मानने और दास को अपने स्वामी की आज्ञा मानने का आदेश दिया गया, लेकिन अधिकारी वर्ग के लोगों से भी यह अपेक्षा की गई कि वे अपने अधीनस्थों के साथ प्रेम और लिहाज का व्यवहार करें (इफिसियों 5ः2-25, 6ः5-9)
चर्च के प्रसार और बढ़ते असर के साथ ईसाई मूल्य और आदर्श व्यापक समाज में फैलने लगे। पश्चिम सभ्यता ने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के जिन सिद्धांतों को अंगीकार किया उनका स्रोत ईसा मसीह की शिक्षाओं में ही है।
ईसाई धर्म संस्था (चर्च) पर समाज का प्रभाव (Society’s Impact on Church)
एक ओर अगर चर्च ने व्यापक समाज को प्रभावित किया है तो वहीं, कभी-कभी समाज ने भी चर्च को प्रभावित किया है। ऐसा यूरोप में विशेषकर मध्य युग में हुआ जब पूरा यूरोपीय समाज ईसाई हो गया और चर्च के पास अच्छी खासी राजनीतिक और आर्थिक सत्ता आ गई। इस प्रक्रिया में चचे में सासारिक मूल्य घुस आये।
पंथ और उपपंथ (Sects and Sub-divisions)
आज ईसाई धर्म संस्था का अनेक पंथों और उपपंथों के कारण जो जटिल रूप दिखाई पड़ता है उसका कारण है मूल पंथों का बाइबिल के बताये मार्ग से भटक जाने के फलस्वरूप दबाव समूहों का उदय। पंथ कहलाने वाले इस तरह के असंतुष्ट समूह या तो (1) मूल पंथ में समाकलित हैं, या (2) वे मुख्य चर्च से अलग हो जाते हैं या उससे निकाल दिये जाते हैं, ऐसा तब होता है जब असंतुष्ट गुट अपने पंथ अलग बना लेते हैं।
प) पहले प्रकार की स्थिति चैथी, पाँचवीं और छठी शताब्दियों के मठ आंदोलनों में देखने को मिलती है। ये आंदोलन ईसा मसीह की शिक्षाओं के अनुरूप जीवन जीने के कुछ सदस्यों के प्रयास की अभिव्यक्ति थे जबकि मूल धर्म संस्थाओं (रोमन कैथोलिक और ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स चर्च) का सांसारिक जीवन की ओर अधिक झुकाव था। अंत में मठ आंदोलनों का समाकलन मूल धर्म संस्थाओं में हो गया जो इसके फलस्वरूप नवीकरण की प्रक्रिया से गुजरी।
पप) दूसरी प्रकार की स्थिति यूरोप में 16वीं शताब्दी के सुधारवादी आंदोलन में देखी जा सकती है। इस दौर में कई असंतुष्ट गुट रोमन कैथोलिक चर्च से अलग हो गये और इस चुनौती के फलस्वरूप उनमें भी नवीकरण की प्रक्रिया चली। प्रोटेस्टेंट चर्च केवल बाइबिल की सत्ता को मानते हैं, जबकि रोमन कैथोलिक और ईस्टर्न ऑर्थोडाक्स चर्चा ने बाटबिल के अलावा अपनी चर्च परंपराओं को भी अधिकाधिक माना।
बॉक्स 2
इस तरह, चर्च और ‘‘संसार” के बीच होने वाला समझौता असंतुष्टि, नवीकरण या विलग्न की सदा विद्यमान प्रक्रिया की ओर भी ले जाता है। लेकिन इन तमाम बदलावों में बाइबिल स्थिरता प्रदान करने वाली शक्ति का काम करती है । चर्चों को स्थायित्व देने के अलावा, बाइबिल को विभिन्न चर्चों के बीच विश्वासों और मूल्यों की एक बुनियादी एकता बनाने का भी श्रेय जाता है। फिर भी, अलग-अलग चर्च बाइबिल की व्याख्या अलग अलग ढंग से करते हैं।
समाजशास्त्र के विद्यार्थी के रूप में आपकी रुचि समूह निर्माण की गतिशीलता को जानने में होनी चाहिए। इस अनुभाग में आपको ईसाई धर्म में समूह निर्माण के बारे में अवश्य कुछ अतिरिक्त जानकारी मिली होगी। आपकी रुचि उस संस्थात्मक संजाल के बारे में जानने में भी होनी चाहिए जिसके माध्यम से ईसाई समाज संचालित होता है । इस समाज के पर्यों और संस्कारों के बारे में भी आपकी दिलचस्पी हो सकती है। इन सभी पक्षों के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए आप ई.एस.ओ.-12 की इकाई 17 पढ़ सकते हैं। हमने उस इकाई में भारतीय संदर्भ में इन सभी पहलुओं पर विचार किया है। अगले अनुभाग में हम भारत में ईसाई धर्म के विषय में संक्षेप में विचार करेंगे।
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