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Waste Water Treatment in hindi , अपशिष्ट जल उपचार क्या है , जल का शुद्धिकरण (Purification of water)

बताइए Waste Water Treatment in hindi , अपशिष्ट जल उपचार क्या है , जल का शुद्धिकरण (Purification of water) ?

विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजैविक कीटनाशी (Different types of microbial inecticides)

(a) जीवाणु (Bacteria) – लगभग 100 से अधिक प्रकार के रोगजनक जीवाणु उपलब्ध हैं जो कीटों में विभिन्न प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं। इनमें बेसिलस पॉपिलिए बैसिलस मोरब्स बै, थूरिन्जिएन्सिंस, स्ट्रेस्टोकॉक्स, स्यूडोंमोनाज आदि प्रमुख हैं। बे. थूरिन्जिएन्सिम का उपयोग मच्छर के लार्वा रूई, मक्का, सूर्यमुखी, बन्दगोभी के कीटों चने के छेदक, गन्ने के छेदक एवं अन्य छेदक कीटों के नियंत्रण हेतु किया जाता है। इसका व्यापारिक उत्पादन अमेरिका की लगभग 12 कम्पनियाँ कर रही है।

इसका उपयोग फसल कटाई तक कभी भी किया जा सकता है। बेसिलस थुरिन्जिएन्सिस इजराइलन्सिस यह इजराइल प्राप्त विभेद है जो डिप्टेरा गण के कीटों पर काफी प्रभावी पाया गया

(b) कवक (Fungi)- फाइकोमाइसिटिज, एस्कोमाइसिटिज, बेसिडिया माइसिटिज तथा ड्येटेरोमाइसिटिज समूह की कवक कीटों की विभिन्न जातियों पर आक्रमण करती है। कवक कीटों के अध्यावरण के भेद कर इनकी देह में प्रवेश करती हैं। यदि कवक के बीजाणु (spore) कीटों द्वारा भक्षण किये जाते हैं तो कीट अप्रभावित रहता है। रहता है अतः उचित परिणाम हेतु उग्र विभेद का कीट के क्यूटिकल के सम्पर्क में आना आवश्यक है । कवक विभेद की देह के अकुरण नलिका के अंकुरित होने के लिये मौसम में नमी का पर्याप्त मात्रा में आवश्यक है। अनेकों कवक जैसे एम्पजिलस फ्लैब्स, एल्फाटॉक्सिन तथा ब्यूवेरिया बेसिएना ब्यूवरसिन आदि आविष (toxin) स्त्रावण करते हैं जिनसे पोषण कीटों की मृत्यु हो जाती है। ये कवक स्तनियों के लिए भी हानिकारक हैं अतः इनका उपयोग वर्जित हैं।

सोवियत रूप में गेहूं के काकचेफर क नियंत्रण हेतु कवक द्वारा जनित रोग मेटारीजियम एनाइसोप्लीया जो एनाइसोप्लीया ऑस्ट्रेलिए का द्वारा उत्पन्न किया जाता है उपयोग में लाया जाता है। एन्टीमोरा एवं सोलीमोमाइसिज जाति के कवक एफिड्स और मच्छरों के नियंत्रण हेतु विश्व के अनेक भागों में उपयोगी पाये गये हैं। वर्टीसीलियम लिकेनी और हिर्सुटेला थोम्पसनी जाती के कवक एफिड्स, स्केल्स तथा माइट्स के नियंत्रण में उपयोग में लिये जा रहे हैं। अमेरिका की एबोट प्रयोगशाला के द्वारा हिर्सुटेला थोम्पसोनी के कोनिडिया का औद्योगिक उत्पादन किया जा रहा है, इसी प्रकार से केटरपिलर पेस्ट के नियंत्रण हेतु नोम्यूरेआ रिलेयी कवक उपयोग में लायी जा रही है।

कवक के बीजाणु पाऊडर, कणों या छिड़काव पदार्थों के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं।

(c) रिकेट्सिया (Rickettsiae)- वाइरस की भाँति के ये सूक्ष्मजीव जिनमें अनेक लक्षण जीवाणुओं के समान पाये जाते हैं विकल्पी रोगजनक होते हैं। इनमें उपापचयी क्रिया अत्यन्त तीव्र होती है। ये विषमभोजी प्रकृति के जन्तु हैं जिनका संवर्धन सरल कृत्रिम माध्यम में संभव नहीं है। रिकेट्सियेला मिलोलोन्थे ( विले) और मार्टिग्रोनी तथा रिकेट्सियेला पॉपिले ड्यूटकी और गुडेन मेलोलोन्थ मेलालोन्था ( लिनियस ) और पॉपिलिया जेपोनिया न्यूमेन जाति के कीटों में रोग उत्पन्न करते हैं। रिकेट्सिया समूह के सूक्ष्मजीवों में पोषकों के प्रति विशिष्टता कम स्तर की पायी जाती है तथा ये कशेरुकी जन्तुओं में भी रोग उत्पन्न करते हैं अतः इनका उपयोग आजकल नहीं किया जाता है।

(d) वायरस (Viruses)- वायरस में DNA या RNA अणु होता है ये सूक्ष्मजीव विशिष्ट प्रकार के कणों “विरियोन” (virion) का संश्लेषण करने की क्रिया का नियंत्रण करते हैं। विरियन कण केन्द्रक अम्ल तथा आवरण द्वारा बने होते हैं। जिनमें वायरल जीनोम (viral genome) पाया जाता है। न्यूक्लियर पॉलिहेड्रोसिस विषाणु (Nuclear polyhedrosis virus) (NPV) भी शक्तिशाली कीटनाशक गुण रखता है। रुई पर बाल वर्म कीट को नष्ट करने हेतु उपयोगी पाया गया है। सेन्डोज कम्पनी ने एल्कार (Elcar) नाम से इसे बाजार में प्रस्तुत किया है।

कीटों में छः प्रकार के वायरस हैं जो रोग उत्पन्न करते हैं ये निम्न प्रकार से हैं-

(i) बेकूलोवायरस (Baculoviruses)

(ii) साइटोप्लाज्मिक पॉलीहेड्रोसिस वायरस (Cytoplasmic polyhedrosis viruses)

(iii) एन्टोमोपॉक्स वायरस (Entomopox viruses)

(iv) इरिडोवायरस (Iriodovirus)

(v) डेन्सोवायरस (Densovirus)

(vi) छोटे· RNA वायरस (Small RNA viruses)

वायरस प्रकृति में मुक्त रूप में पाये जाते हैं और लेपिडॉप्टेरा, हाइमेनॉप्टेरा, कालिऑप्टेरा, डिप्टेरा कीट समूहों में रोग उत्पन्न करने में सक्षम हैं, वैज्ञानिकों के द्वारा पहचाने तथा अनेक अन्य प्रकार गये हैं। इनमें से अनेकों वायरस मनुष्य व अन्य पालतू पशुओं में रोग उत्पन्न करने वाले वायरस से समानता रखते हैं। वायरस साधारणतः कार्य प्रणाली में धीमे रहते हैं अतः संक्रमण के उपरान्त लगभग एक सप्ताह का समय नाशक जीव की मृत्यु में लगता है ये सूर्य के प्रकाश व अल्ट्रावॉयलेट किरणों मृदा की ऊपरी सतह पर अधिकतम संख्या में पाये जाते हैं। द्वारा निष्क्रिय हो जाते हैं। वायरस पोषक के प्रति अत्यधिक विशिष्टता रखते हैं। बेकुलोवायरस का उपयोग ही कीटनाशी मनुष्य, पालतू जानवरों के रूप में किया जाता है, क्योंकि ये ही सुरक्षित प्रकार के वायरस हैं व पौधों को प्रभावित नहीं करते। सॉ फ्लाई (saw fly) की समष्टि का अमेरिका व कनाड़ा में इनके द्वारा नियंत्रण किया गया है। हेलियोथिस जाति के काटन बॉलवर्म के नियंत्रण हेतु न्यूक्लियर पॉलिहेड्रोसिस वायरस, एल्फा केटरपिलर, जिप्सी मॉथ, कॉडलिंग मॉथ, केबेज बटरफ्लाई के नियंत्रण के लिये विभिन्न प्रकार के वायरस उपयोग में लाये गये हैं।

उपरोक्त सभी प्रकार के सूक्ष्मजीवी कीटनाशकों का उपयोग भिन्न-भिन्न जातियों के कीटों के नियंत्रण हेतु संभव है किन्तु यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल है, यह अत्यन्त विशिष्ट एवं वैज्ञानिक विधि है जिसका उपयोग बहुत सावधानी पूर्वक किया जाना अत्यन्त आवश्यक है, उस क्षेत्र में अभी बहुत अधिक अनुसंधान का कार्य एवं फील्ड ट्रायल्स (field trials) किये जाने की आवश्यकता कीटनाशकों का उपयोग विशेषतः विशिष्ट परिस्थितियों में तथा तकनीकी कर्मचारियों के द्वारा ही किया जा सकता है। इन कीटनाशकों का उपयोग पूर्ण सुरक्षात्मक उपाय व सावधानियों को रखकर ही किया जाना अपेक्षित है।

अपशिष्ट जल उपचार (Waste Water Treatment)

जल प्रोटोप्लाज्मा का लगभग 60-90% भाग होता है, जल के बिना जीवन असम्भव है। जल एक महत्वपूर्ण घोलक है जिसकी उपस्थिति में कोशिकाओं के भीतर उपापचयी क्रिया सम्पन्न होती है। पृथ्वी की सतह का तीन चौथाई भाग समुद्री, नदियों झरनों, झीलों आदि के जल से घिरा हुआ है। जल एक चक्र के रूप में नियमित क्रिया द्वारा जीवों, जल के स्त्रोतों एवं वातावरण में घूमता रहता है, इसे जल चक्र (water cycle) या हाइड्रोलोजिक चक्र (hydrologic cycle) कहते हैं। प्रकृति में जल वायुमण्डल, पृथ्वी की सतह, जल के संग्रहित स्त्रोत एवं भूमिगत अवस्था में पाया जाता है। वर्षा का जल एवं बर्फ जो पर्वनों से मुक्त होता है पृथ्वी की सतह पर गिरने के उपरान्त यह दूषित हो जाता है। नदियों, झरनों तथा समुद्रों के जल में अनेकों प्रकार के सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं। भूमिगत जल पृथ्वी की पर्तों से गुजरने के उपरान्त धीरे-धीरे सूक्ष्मजीवों से रहित होता है । छनन क्रिया विभिन्न स्तर पर इस क्रिया में सहायक होती है। झरनों व गहरे कुओं के जल में सूक्ष्मजीव बहुत की कम मात्रा में पाये जाते हैं। समुद्री जल में भी अनेकों प्रकार के सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं।

प्रकृति में रसायनिक तौर पर शुद्ध जल नहीं पाया जाता यहाँ तक कि भाप के ठण्डा होने पर वायुमण्डलीय गैसे इससे घुल जाती है। जिसमें CO2 प्रमुख है। वर्षा का जल भी कार्बोनिक अम्ल युक्त होता है। मृदा में अकार्बनिक आयन इसमें मिलकर इसे कुछ स्तर तक अस्वच्छ बनाते हैं। इसमें कार्बनिक पदार्थ व जीवाणु भी मिल जाते हैं।

जीवों द्वारा उपयोग किये जाने के उपरान्त जल गन्दा एवं जीवाणुओं युक्त हो जाता है। बरसात का जल बहता हुआ जल, मूत्र, मिट्टी, कार्बनिक व अनेकों अकार्बनिक लवण के घुलते रहते के कारण दूषित हो जाता है जिसे अपशिष्ट जल या अनुपयोगी जल कहते हैं। मल पदार्थों के कारण में कॉलीफार्मस जीवाणु एकत्रित होते जाते हैं, इस समूह के सदस्यों में ई.कोली, एरोबैक्टर एरोजेन्स प्रमुख है। कभी-कभी क्लोस्ट्रीडियम व अन्य अंशों के जीवाणु भी जल में पाये जाते हैं। वाहित मल-मूत्र युक्त जल ( sewage water) घरेलू उपयोग के पश्चात् का गन्दा जल होता है जिसमें मल, मूत्र, नहाने धोने के पश्चात् का गन्दा जल, उद्योगों में उपयोग किया हुआ दूषित जल, कृषि व पशुओं के उपयोग में लिये जाने के बाद का गन्दा जल होता है जो मनुष्य के लिये किसी भी काम का नहीं होता है। शहरी जली में स्ट्रेप्टोकोकॉइ, माइक्रोकोकॉइ, प्रोटीयस, स्यूडोमोनास, लेक्टोबैसिली, वायरस एवं प्रोटोजोआ भी पाये जाते हैं जो अधिकतर रोगजनक (pathogenic) होते हैं। इनके द्वारा पेचिश, पोलिओ, हैजा, हिपेटाइटिस, टाइफाइड, ज्वर आदि रोग उत्पन्न किये जाते हैं।

सामान्य अपशिष्ट जल में कार्बनिक पदार्थों को अपघटित करने वाले सूक्ष्मजीव एवं मीथेनोजेनिक जीवाणु भी पाये जाते हैं। यह जल यदि स्वच्छ जल के स्त्रोत में कुछ मात्रा में छोड़ा जाता है तो तनुकरण की क्रिया होती है एवं कार्बनिक पदार्थों का ऑक्सीकरण वायुवीय परिस्थितियों में होता रहता है। जल स्त्रोत के तल पर कुछ अपशिष्ट पदार्थ बैठ जाते हैं तथ कुछ समय उपरान्त इस जल स्त्रोत का जल सामान्य हो जाता है किन्तु यदि प्रदूषित जल अधिक मात्रा में किसी जल स्त्रोत में छोड़ा जाता है तो सूक्ष्मजीव जल में उपस्थित अधिकतम ऑक्सीजन का उपयोग कर लेते हैं एवं इसमें रहने वाले जन्तु तथा पौधे मृत हो जाते हैं और जल सड़ने लगता है, यह जल अनुपयोगी होता है।

जल में प्रदूषण के स्तर का मापन (Measurement of the level of pollution in water)

रासायनिक ऑक्सीजन माँग (biochemical oxygen demand) BOD “BOD” किसी जल द्वारा ऑक्सीजन की वह मात्रा है जो कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थों क्रिया विघटन हेतु आवश्यक है। विघटन (decomposition) वह वायुवीय जैविक क्रिया है जो विशिष्ट प्रकार के सूक्ष्मजीवों द्वारा सम्पन्न होती है। उच्च सान्द्रता वाले या अधिक मैले (अपशिष्ट ) जल की BOD दर अर्थात् ऑक्सीजन की आवश्यकता की दर 2000 से 7000 mg O, प्रति लीटर या अधिक होती है कम मैले जल की BOD दर केवल 100-300mg/लीटर अथवा कम होती है। किसी भी जल की शुद्धता का परीक्षण उसकी BOD दर निकाल कर करते हैं। इसी प्रकार रासायनिक ऑक्सीजन मांग (chemical oxygen demand – COD) रसायनिक रूप से ऑक्सीकृत होने वाले कार्बनिक पदार्थ मात्रा है। COD का मान BOD से अधिक होता है।

वहित मल-मूत्र युक्त जल या मैले जल में 99.5-99.9% जल तथा 01. 0.5% अकार्बनिक, कार्बनिक पदार्थ घुलनशील या निलम्बित अवस्था में पाये जाते हैं। इन पदार्थों में लिग्नोसेल्यूलोस, सेल्यूलोस, प्रोटीन, वसा, कोलायडी अवस्था के ठोस पदार्थ, घुलनशील शर्करा, वसीय अम्ल, अमीनों अम्ल, एक्लोहॉल व अनेक तत्वों के आयन होते हैं। घरेलू अनुपयोगी जल में डिटरजेन्ट, कीटनाशी, पुतिरोधी (antiseptic) पदार्थ तथा औद्योगिक अनुपोगी जल में तेल, धातुओं, रासायनिक पदार्थों, डेयरी पदार्थ, कागज एवं वर्णक पदार्थों की मात्रा पायी जाती है।

जल का शुद्धिकरण (Purification of water)

जल को शुद्ध करने हेतु जल के लक्षणों के अनुरूप शुद्धिकरण की अनेकों विधियाँ निकाली गयी हैं। घरेलू उपयोग हेतु या शहर अथवा कस्बे में वितरण हेतु जल विभिन्न विधियाँ से शुद्ध करके गन्धहीन, रंगहीन, निजर्मी या संक्रमण रहित बनाया जाता है, यह क्रिया गहरे कुओं या टेंकों में की जाती है। नगर में वितरण हेतु जल के शुद्धिकरण हेतु तीन प्रमुख क्रियाएँ की जाती है।

  • अवसादन (Sedimentation )- जल एक निश्चित सीमा तक कुछ समय तक टेंकों एकत्रित करके शुद्ध किया जाता है। शुद्धिकरण की दर अवसादन क्रिया एवं निलम्बित पदार्थों की प्रकृति, जल के भौतिक, रसायनिक एवं जैविक लक्षणों पर निर्भर करती है। जल में एलम, लौह, लवण, कोलॉयडी सिलीकेट आदि मिला कर अवसादन कर को तीव्र किया जाता है और जल में ऊर्णी (flocculant) अवशेष बन जाता है। सूक्ष्मजीव एवं निलम्बित कण टेंक के तल पर बैठ जाते हैं। इस क्रिया के लिये सक्रियित कार्बन (activated carbon) भी जल में मिलाया जाता है जो जल के स्वाद में, रंग में अन्तर प्रकट करने वाले लवणों को अवशोषित कर लेता है, इस विधि से सूक्ष्मजीव पूर्णतया नष्ट नहीं होते अतः जल निजर्मित ( sterilized) नहीं होता ।

(2) छनन (Filtration)—- कार्बनिक पदार्थों, सूक्ष्मजीवों एवं निलम्बित कणों को जल से पृथक करने हेतु जल की मिट्टी के विभिन्न प्रकृति के छनकों (filters) के द्वारा छाना जाता है अत: जल शुद्ध एवं पारदर्शी हो जाता है जिसे सामान्यतः पीने हेतु उपयोग में नहीं लाया जाता है।

(3) निसंक्रमण (Disinfection)- उपरोक्त दोनों क्रियाओं के पश्चात् जल को पीने योग्य बनाने हेतु यह क्रिया अत्यन्त आवश्यक होती है। जल को सूक्ष्मजीवों से मुक्त करने हेतु कैल्शियम या सोडियम हाइपोक्लोराइड डाला जाता है यह जल में क्लोरीन मिलाई जाती है। जल में क्लोरीन की मात्रा का निर्धारण जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करता है, इसे क्लोरीन माँग (chlorine demand) नाम से जाना है। जल में 0.1-0.2 अंश प्रति करोड़ ( parts per million) ppm अवशेषी क्लोरीन रहें इतनी मात्रा में छोड़ी जाती है। आवश्यकता से अधिक क्लोरीन जल में मिलाने पर यह विशिष्ट गन्ध एवं विशिष्ट स्वाद युक्त हो जाता है, यह क्लोरीन जल में उपस्थित कार्बनिक पदार्थों के साथ मिलकर क्लोरिफिनोल बनाती है। कभी-कभी अमोनिया या ओजोन मिलाकर भी जल शुद्ध किया जाता है। ये कार्बनिक पदार्थों का विघटन कर ऑक्सीजन मुक्त करते हैं । क्लोरीन द्वारा सूक्ष्मजीव तो नष्ट हो जाते हैं किन्तु इनके जीवाणु (spore) जीवित रहते हैं। जल को अधिक स्वच्छ व शुद्ध करने के लिये क्लीरीन के स्थान पर सूक्ष्मजीवनाशी अल्ट्रावायलट किरणों का उपयोग आज कल किया जाने लगा है, इस विधि से जल शुद्ध करने पर गन्ध व स्वाद भी सामान्य बना रहता है। इन सब क्रियाओं के बावजूद को 10 मिनट तक उबाल कर शुद्ध करना अधिक सुलभ व सस्ता तथा सुरक्षित है। नगर में वितरण हेतु जल शुद्धिकरण क्रिया को चित्र 26.5 द्वारा दर्शाया गया है। इस क्रिया को आठ बिन्दुओं में विभक्त किया गया है। जो निम्न प्रकार से हैं-

  1. बड़े टेंक या आशय में जल एकत्र कर बड़े आमाप के दूषित पदार्थों को पृथक करना।
  2. जल को वायु में स्प्रे करना ताकि इसमें ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ जाये।
  3. जल को पाइप द्वारा रसायनिक पदार्थ मिलाये जाने वाले कक्ष में स्थानान्तरित कर उर्णीकरण की क्रिया करना ।
  4. उर्णीकृत पदार्थों का जल में मिलाने व अवशेष बनाने की क्रिया ।

5.अवसादन कक्ष में उर्णीकृत पदार्थों का जल के तल पर बैठ जाना ।

  1. जल का छाना जाना ।
  2. जल का क्लोरीनेशन ।
  3. पाइपों में भेजे जाने से पूर्व संग्रहण करना ।

निस्पंदक या छनके (Filters)- अपशिष्ट जल को छनन क्रिया द्वारा शुद्ध करने के संयंत्र (plants) आजकल उपयोग में लाये जाते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं-

(1) धीमी गति वाले रेत निस्पंदक (Slow sand filters) – इनके संयंत्र (plants) को स्थापित करने हेतु अधिक क्षेत्र की आवश्यकता पड़ती है इनमें छनन की गति धीमी रहती है। इन निस्पंदकों या छनकों में फर्श, कंकरीट का बना होता है जिसमें जल के निकास हेतु टाइल्स के टुकड़ों का स्तर कंकटीट स्तर के नीचे बनाया जाता है। कंकरीट स्तर पर टाइल्स का पतला स्तर होता है जिस पर मोटी बजरी का प्रथम स्तर होता है। बजरी के प्रथम स्तर पर महीन बजरी का द्वितीय स्तर होता है। द्वितीयक स्तर के ऊपर 3-4 फीट बालू रेत का स्तर बना होता है। जल ऊपर से नीचे धीरे-धीरे रिस कर एकत्रित होता जाता है शुद्ध जल का टोंटी द्वारा प्राप्त किया जाता है। धीमी गति वाले निस्पंदक आविल जल (turbid water) द्वारा रुक जाते हैं तथा काम करना बन्द कर देते हैं अत: इन्हें बार-बार साफ करना आवश्यक होता है। कोलॉयडी एवं ऊर्णी (flocculent) पदार्थ जिनमें शैवाल, जीवाणु एवं प्रोटोजोआ होते हैं महीने रेत के स्तर पर एकत्रित हो जाते हैं। यह स्तर श्लेष्मी – जैली समान होता है जो रेत के कणों के मध्य रिक्त स्थान को भर देता है अतः छनन स्तर (filter bed) अधिक प्रभावी बन जाता है जीवाणुओं पर ऋण आवेश होता है तथा कोलॉयडी पदार्थों पर धन आवेश रहता है अतः जीवाणु इस स्तर द्वारा अवशोषित होते जाते हैं। इस स्तर में उपस्थित प्रोटोजोआ जीवाणुओं को अपना आहार बनाते रहते हैं। सूक्ष्मजीवों के उपापचयी क्रियाएँ जल के रसायनिक अंश को घटाती रहती है, इस सिद्धान्त पर यह छानने का कार्य करते हैं। श्लेष्मिक जैली स्तर के अत्यधिक मोटा होने पर छनके की कार्य क्षमता घट जाती है अतः छनके की सफाई करने से उपरान्त ही पुनः उपयोग में लाना उचित होता है। इन छनकों के द्वारा जल में से 98% सूक्ष्मजीव इस विधि से छन जाते हैं और निस्पंद जल शुद्ध प्रकृति का प्राप्त किया जाता है।

(2) द्रुतगति वाले रेत निस्पंदक (Rapids sand filters)- ये भी धीमी गति वाले छनकों के सिद्धान्त पर कार्य करते हैं एवं इन्हीं की भाँति बनाये जाते हैं। इनमें जल को प्रवाहिम करने से पूर्व एलम या फैरस सल्फेट द्वारा पूर्व – अभिक्रियित (pretreated) किया जाता है। अतः जल टेंक में एकत्रित हो जाता है और टेंक के पेंदें में अवक्षेप के रूप में दूषित पदार्थ एकत्रित हो जाते हैं। शुद्ध जल को पम्प द्वारा प्रवाहित कर एकत्रित कर लिया जाता है। इन छनकों को भी बार-बार साफ करना आवश्यक होता है। ये निस्पंदक धीमी गति के निस्पंदकों की अपेक्षा 50 गुना तीव्र गति से कार्य करते हैं।

आजकल दाब छनके (pressure filiters). डॉयएटोमाइट फिल्टर, मेम्ब्रेन फिल्टर आदि का भी उपयोग किया जाने लगा है। जल संग्रह करने के संयंत्रों व टेंकों में शैवाल उत्पन्न हो जाती है. इसे कॉपर सल्फेट या कॉपर एसीटेट की सूक्ष्म मात्रा को जल में डालकर नष्ट किया जाता है। घरों में काम आने वाले फिल्टर क्ले फिल्टर या एस्बेस्ट्स फिल्टर होते हैं जो इन्हीं सिद्धान्तों पर कार्य करते हैं।

अपशिष्ट जल के उपचार की क्रिया (Waster water treatment technique) गाँव से नगर व नगर से महानगरीय सभ्यता के विकास के साथ ही अपशिष्ट पदार्थों व अपशिष्ट जल के उपचार एवं समापन की समस्या वृहत् रूप धारण कर चुकी है। अपशिष्ट जल जो नहाने- धोने, मल-मूत्र, कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ युक्त अनेक औद्योगिक क्षेत्रों से प्राप्त शहरी जल नालियों द्वारा बहता हुआ शहर से बाहर एकत्रित होता है, सीवेज जल (sewage water) या अपशिष्ट जल कहलाता है। आरम्भ में यह झील, नदी, समुद्र या खुले मैदानों में बहा दिया जाता था। किन्तु इसकी अत्यधिक मात्रा में उपस्थिति के कारण इसका उपचार अपघटनी क्रियाओं द्वारा न होने के कारण प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है। अनेक रोग, महामारी आदि इसके कारण गन्दी बस्तियों में अक्सर होते रहते हैं। अत: इस जल का उपचार द्वारा हानि रहित बनाने पुन: उपयोग में लाने के बारे में अनेक शोध कार्य किये गये हैं। महानगरों में जल उपचार के अनेक संयंत्र लगाकर इस समस्या के समाधान हेतु प्रयास किये जा रहे हैं।

अपशिष्ट जल में अनेक स्त्रोतों से एकत्रित अपशिष्ट पदार्थ होते हैं । मानव अपशिष्ट एवं अन्य पालतू जानवरों के मल-मूत्र युक्त जल में रोगजनक, अरोगजनक, जीवाणु, कार्बनिक पदार्थ, भोजन अपशिष्ट एवं सफाई में काम आने वाले यौगिक होते हैं। इसमें केवल 2% कार्बनिक ठोस व शेष जल होता है। औद्योगिक अपशिष्ट जल में अजैवनिम्नीकरण यौगिक जैसे DDT एवं पॉलीक्लोरीनेटेड डाइ-फिनाइल यौगिक हानिकारक भारी धातुएँ जैसे पारा, केडमियम, कॉपर, निकल, जिंक, आदि होते हैं। ये हानिकारक होने के कारण सूक्ष्मजीवों के लिये भी घातक होते हैं अतः उपचार की क्रियाओं में भी बाधक होते हैं। अनुपयोगी भोज्य पदार्थ जो मधनिर्माण शालाओं (breweries) से कार्बनिक पदार्थों के रूप में जल के साथ लाये जाते हैं। अहानिकारक होने के बावजूद कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में वृद्धि करते हैं अतः इन्हें हटाना आवश्यक होता है। भोज्य पदार्थों की डिब्बाबंदी के उद्योग एवं बूचड़खानों से निष्कासित जल में भी इस प्रकार के अपशिष्ट पदार्थ होते हैं। यह पूर्व में बताया जा चुका है कि कार्बनिक पदार्थों के कारण जल की BOD में वृद्धि हो जाती है। अत: शुद्ध जल में परिवर्तित करने हेतु उपचार की आवश्यकता होती है।

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