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Categories: BiologyBiology

ट्राइकिन और नहरुमा क्या है | Trichin and Naharuma in hindi definition meaning biology

Trichin and Naharuma in hindi definition meaning biology ट्राइकिन और नहरुमा क्या है |

ट्राइकिन और नहरुमा
कुण्डलाकार ट्राइकिन एक लंबे अरसे से देखा गया है कि सूअर का मांस खानेवाले लोग कभी कभी बहुत बीमार पड़ते हैं। उनका तापमान तेजी से चढ़ जाता है और उन्हें अपनी पेशियों में दर्द महसूस होने लगता है।
अब यह निःशंक रूप से सिद्ध किया गया है कि ट्राइकिनवाला सूअर का मांस खाने के बाद ही लोग बीमार पड़ते हैं। ये ट्राइकिन छोटे छोटे गोल कृमि होते हैं जिनकी लंबाई ३-४ मिलीमीटर से अधिक नहीं होती। ये कृमि चूहों, सूअरों और मनुष्य के दारीर में रहते हैं। जब कूड़े-करकट में मुंह मारते हुए सूअर रोगग्रस्त चूहे का मृत शरीर निगल जाता है तो वह ट्राइकिन से पीड़ित होता है। ये ट्राइकिन मूअर से मनुष्य के शारीर में स्थानांतरित होते हैं।
सूअर के मांस के अंदर ट्राइकिन के डिंभ चूने के नन्हे नन्हे कैपसुलों से आवृत कुण्डलियों में पड़े रहते हैं। मनुष्य के शरीर में ये कैपसुलों से बाहर आकर बड़े कृमियों में विकसित होते हैं। ये कृमि पहले मनुष्य की छोटी आंतों में रहते हैं और फिर उनकी दीवालों में पैठ जाते हैं। यहां मादा-कृमि बड़ी भारी संख्या में नन्हे डिंभों को जन्म देते हैं। रक्त प्रवाह के साथ ये डिंभ पेशियों में चले जाते हैं। यहां डिभों के चारों ओर चूने के कैपसुलों का आवरण बन जाता है।
आज हमें पता चला है कि मनुष्य को ट्राइकिन किस प्रकार पीड़ित करते हैं और अब भोजन में सूअर के मांस का उपयोग करना खतरनाक नहीं रहा है। बूचड़खानों में माइक्रोस्कोप के जरिये मांस के टुकड़ों का निरीक्षण किया जाता है और उसमें यदि कोई ट्राइकिन हों तो वे आसानी से पहचाने जा सकते हैं। ट्राइकिनग्रस्त मांस बेचने की मनाही है। और यदि सूअर के मांस में कोई ट्राइकिन डिंभ हों भी तो खाना पकाते समय वे मर जाते हैं।
नहरुमा एशिया के दक्षिणी हिस्सों में – उदाहरणार्थ भारत में – कभी कभी नहरुमा नामक गोल कृमियों के कारण एक रोग का प्रादुर्भाव होता है। नहरुए से पीड़ित व्यक्ति के शरीर के विभिन्न हिस्सों में और विशेषकर हाथ-पैरों में सूजन पैदा होती है। यह सूजन आगे फोड़ों का रूप धारण करती है जिनमें से नहरुए के सिरे बाहर झांकने लगते हैं। फोड़े तब तक चंगे नहीं हो सकते जब तक कि नहरुया उसमें से हट न जाये। इसके लिए कृमि को एक छड़ी पर लपेटते हुए हर रोज तीन-चार सेंटीमीटर के हिसाब से धीरे धीरे फोड़े से बाहर निकाला जाता है। इस प्रकार मनुष्य के शरीर से निकाला गया कृमि १५० सेंटीमीटर तक लंबा और १.५ मिलीमीटर तक मोटा हो सकता है (प्राकृति २२)।
नहरुमा लोगों को किस प्रकार ग्रस्त कर देता है इसपर एक रूसी वैज्ञानिक अ० प० फेदचेन्को ने सन् १८६८ में बुखारा के दौरे के दौरान में रोशनी डाली। उन्होंने देखा कि वहां के लोग जहां से पीने और घरेलू कामों के लिए पानी लाते हैं वहीं नहाते भी हैं। उस पानी में नहानेवालों में ऐसे लोग भी थे जो घावों से पीड़ित थे।
फेदचेन्को ने यह सिद्ध कर दिया कि लोगों के घावों में से नहरुषों के डिंभ निकलकर पानी में मुक्त रूप से प्रवेश करते हैं। जैसा कि बाद में देखा गया , साइक्लाप (आकृति २३) नामक सूक्ष्म क्रस्टेशिया इन डिंभों को निगल लेते हैं। साइक्लाप के शरीर में ये डिंभ १ मिलीमीटर लंबे हो जाते हैं। यहां वे तब तक रहते हैं जब तक मनुष्य उन्हें पानी के साथ निगल न ले। मनुष्य के शरीर में प्रवेश करने के बाद वे उसकी आंत की दीवाल में सूराख बनाकर रक्त वाहिनियों में पैठ जाते हैं और इन दुसरी ओर फीता-कृमि की लिंगन्द्रियां बहुत ही विकसित होती हैं। हर वृत्तखण्ड में ५०,००० तक अंडे तैयार होते हैं। एकदम पीछे की परिपक्व अंडों वाली संधियां कृमि के शरीर से कट जाती हैं और विष्ठा के साथ मनुष्य की प्रांतों से बाहर निकलती है।
फ्रीता-कृमि परिवर्द्धन जब कूड़े-करकट में मुंह मारता हुआ सूअर ऐसे अंडों वाले वृत्तखण्ड को निगल जाता है तो सूअर की प्रांत में ये अंडे सेये जाकर उनसे छोटे छोटे गोल डिंभ तैयार होते हैं। हर डिंभ के छः तेज आंकड़े होते हैं जिनसे प्रांत की दीवाल को खोदकर वह अंदर जाता है और रक्त में पैठ जाता है। रक्त-प्रवाह डिंभों को सारे शरीर में फैलाता है और वे विभिन्न इन्द्रियों में और विशेषकर पेशियों में डेरा डालते हैं। कुछ समय बाद ये डिंभ सफेद-से, अर्द्धपारदर्शी और मटर के आकार के बुलबुलों में परिवर्तित होते हैं। ये हैं ब्लेडर कृमि जो काफी देर पेशियों में जमे रहते हैं।
यदि ऐसा मांस अधपका या अधभूना रह जाये और आदमी उसे खा जाये तो वह फीता-कृमियों से ग्रस्त हो जाता है। मनुष्य शरीर की उष्णता और पाचक रसों के परिणामस्वरूप डिंभ से कृमि का सिर बाहर निकल आता है। प्रांत की दीवालों में अपने चूपकों और आंकड़ों को गड़ाकर चिपका हुआ यह कृमि मनुष्य द्वारा पचाया गया भोजन अवशोपित करता है और पलता-पुसता है। जिस बुलबुले से कृमि का सिर निकल आता है वह बुलबुला धीरे धीरे गल जाता है। इसके बाद गरदन पर वृत्तखण्ड वनने लगते हैं। तीन या चार महीने में फीता-कृमि २-३ मीटर लंबा हो जाता है।
फीता-कृमि के परिवर्द्धन के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि एस्कराइड के उलटे यह कृमि दो मेजवानों के शरीरों में रहता है। ये हैं मनुष्य और सूअर। मनुष्य, जिसके शरीर में फीता-कृमि की संख्या बढ़ती है, अन्तिम मेजबान कहलाता है जबकि सूअर-मध्यस्थ मेजवान।
दो मेजबानों के आश्रय से रहने के कारण एस्कराइड की अपेक्षा फीता-कृमि का जनन अधिक कठिन होता है। इसी से फीता-कृमि की और भी बड़ी उर्वरता का स्पष्टीकरण मिलता है।
फीता-कृमियों को विशेष औषधियों की सहायता से मनुष्य की प्रांत से बाहर कर दिया जा सकता है। बहुत बार ऐसा होता है कि कृमि का शरीर प्रांत के अंदर टूट जाता है और इससे इस परजीवी का मजबूती से चिपका हुआ सिर वहीं का वहीं रह जाता है। ऐसे मामलों में गरदन से नये वृत्तखण्ड तैयार होते हैं और फीताकृमि फिर बढ़कर पहले जितना लंबा हो जाता है।
केंचुए, एस्कराइड, आंकड़ा-कृमि और फीता-कृमि के बीच की महत्त्वपूर्ण संरचनात्मक अन्तर के होते हुए भी हमें इनमें साधारण विशेषताएं कुछ साधारण विशेषताएं भी दिखाई देंगी। इन्हीं विशेषताओं के अनुसार उन्हें कृमियों के समूह में रखा जाता है जिनमें से तीन समुदाय विशेष महत्त्वपूर्ण हैं – चपटा कृमि (फीता-कृमि), गोल कृमि (एस्कराइड और आंकड़ा-कृमि) और कुंडलि कृमि (केंचुपा)। सभी कृमियों के लंबे शरीर होते हैं। उनके न पैर होते हैं और न घन कंकाल भी। सीलेण्ट्रेटा के उल्टे, कृमियों के इन्द्रिय-तन्त्र होते हैं।
कृमियों की अधिक जटिल संरचना से हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। कि धरती पर उनका उदभव सीलेण्ट्रेटा के बाद हुआ।
प्रश्न – १. कौनसी संरचनात्मक विशेषताएं फीता-कृमि को एस्कराइड से भिन्न दिखाती हैं ? २. फीता-कृमि की कौनसी विशेषताएं उसके परजीवी अस्तित्व से सम्बन्ध रखती हैं ? ३. फीता-कृमि का परिवर्द्धन और लोगों में उसका संक्रमण कैसे होता है ? ४. फीता-कृमि के विरुद्ध कौनसे उपाय अपनाये जाते हैं ? ५. कृमियों की समान विशेषताएं क्या हैं ?

एस्कराइड और आंकड़ा-कृमि
एस्कराइड की संरचनात्मक विशेषताएं स्वतंत्रता से जीवन बितानेवाले कृमियों के अलावा ऐसे कृमियों का एक बड़ा समूह है जो मनुष्य और अन्य प्राणियों के शरीर में रहते हैं। इन्हें परजीवी कृमि कहते हैं। जिस प्राणी का विशेषताए वे आश्रय करते हैं वह ‘मेजबान‘ कहलाता है। परजीवी कृमि मेजबान को नुकसान पहुंचाकर खाते-पीते और जीते हैं। वे मेजबान को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। परजीवी कृमियों में एस्कराइड (आकृति २१) शामिल है जो मनुष्य की प्रांत में रहता है और इर्द-गिर्द का अधपचा अन्न खाकर अपनी जीविका चलाता है। एस्कराइड मनुष्य शरीर की उष्णता भी बांट लेता है और अपने शत्रुओं के विरुद्ध एक आश्रय के रूप में उसका प्रयोग करता है। एस्कराइड का वृत्तखंडरहित , ठोस और लचीला शरीर लगभग २० सेंटीमीटर लंबा, गुलाबी रंग का और आगे और पीछे की ओर नुकीला होता है। यह दोनों सिरों में अच्छी नोकों वाली गोल पेन्सिल जैसा दीख पड़ता है। ऐसे कृमि उनके शरीरों के आकार के कारण गोल कृमि कहलाते हैं। अपने शरीर को मरोड़कर एस्कराइड आंत में आसानी से आगे-पीछे सरक सकता है। पाचक रसों के प्रभाव से उसकी त्वचा उसके शरीर की अच्छी तरह रक्षा करती है।
संक्रमण एस्कराइड की विशेषता है उसकी विशाल उर्वरता। मादा एस्कराइड मनुष्य की प्रांत में २,००,००० तक सूक्ष्म अंडे देती है। इन अंडों पर एक मोटा-सा आवरण होता है और विष्ठा के साथ उनका उत्सर्जन होता है। जब साग-सब्जी के बगीचों में विष्ठा-द्रव की खाद डाली जाती है उस समय नियमतः ये अंडे बड़ी भारी संख्या में जमीन में चले जाते हैं। यदि कोई आदमी इन वगीचों की साग-सब्जी या बेर-बेरियों को विना धोघे खाये तो उनके साथ साथ ये अंडे भी उसके पेट में चले जायेंगे। एस्कराइड का संक्रमण अस्वच्छ लोगों के संपर्क से भी हो सकता है।
इस संक्रमण में कुछ हद तक घरेलू मक्खियों (आकृति ५७) का भी हाथ होता है। खुले पाखानों में अंडे देनेवाली ये मक्खियां अक्सर अपने पैरों पर एस्कराइड के अंडे ले जाती हैं। फिर बाजारों, रिहाइशी घरों, भोजनशालाओं और दुकानों का चक्कर काटते हुए वे इन अंडों को भोजन-पदार्थों पर छोड़ देती हैं।
निगले हुए अंडों से मनुष्य की प्रांत में डिंभ तैयार होते हैं। ये डिंभ यहीं नहीं रहते बल्कि प्रांत की दीवाल में सूराख बनाकर घुस जाते हैं और फिर रक्तवाहिनियों में पैठ जाते हैं। रक्त-प्रवाह इन डिंभों को फेफड़ों में ले जाता है जहां वे कुछ समय रहते हैं। यहां उन्हें काफी मात्रा में ऑक्सीजन मिलता रहता है और वे रक्त ही को अपना आहार बनाये रहते हैं। फिर ये डिंभ श्वास-वाहिनियों के जरिये गले में पहुंच जाते हैं, लार के साथ निगले जाते हैं और फिर जठर में और उसके बाद प्रांत में पहुंचते हैं। यहीं अपना स्थायी निवास बनाकर वे बड़े कृमियों में विकसित होते हैं।
बहुत-से अंडे मेजवान के शरीर में नहीं पहुंच पाते और मर जाते हैं। फिर भी दिये हुए अंडों की मात्रा इतनी विशाल होती है कि एस्कराइड का अस्तित्व सुनिश्चित हो जाता है।
एस्कराइड विरोधी उपाय एस्कराइड अक्सर बच्चों को तंग करते हैं। बच्चा पीला एस्कराइड विरोधी पड़ जाता है, सुस्त हो जाता हैय नींद में उसकी लार टपकने लगती है, वह अपने दांतों को पीसने लगता है और बेचैन-सा सोता है। एस्कराइड से पीड़ित बच्चे देर तक काम नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि एस्कराइड ऐसे पदार्थ उगलते हैं जो शरीर को विपाक्त कर देते हैं। गंभीर मामलों में ये एस्कराइड प्रांत में बाधा उत्पन्न करते हैं या प्रांत की दीवाल को फाड़ डालते हैं जिसके कारण रोगी की मृत्यु हो सकती है।
इसी लिए कमरे और बर्तन-भांडों को साफ-सुथरा रखना, भोजन करने से पहले हाथ धो लेना, ठीक से न धोयी हुई साग-सब्जियां और बेर-बेरियां न खाना और खाने की चीजों को मक्खियों से बचाये रखना अत्यावश्यक है।
जब कभी तुम्हें पेट में दर्द महसूस होगा, फौरन डॉक्टर के पास जाओ। छूत के मामले में माइक्रोस्कोप के सहारे विष्ठा का निरीक्षण करने से एस्कराइड के अंडे दिखाई देते हैं। कृमियों के लिए विषैली दवाओं के उपयोग से उन्हें मनुष्य की प्रांत से बाहर कर दिया जा सकता है।
एस्कराइड के अलावा मनुष्य के – विशेषकर बच्चों के – शरीर में निवास करनेवाला एक और परजीवी कृमि है। आंकड़ा-कृमि। ये एस्कराइड की ही शकल के छोटे छोटे सफेद कृमि होते हैं। रात में ये रेंगकर प्रांत से बाहर आकर त्वचा पर अंडे डालते हैं। इससे गुदा के पास तेज खुजली होने लगती है। जब सोया हुआ बच्चा दाह होती हुई त्वचा को खुजलाने लगता है तो इन कृमियों के अंडे उसके नाखूनों में इकट्ठे होते हैं। यदि बच्चा खाना खाने से पहले अपने हाथ धो न ले तो ये अंडे भोजन के साथ उसकी प्रांत में प्रवेश करते हैं।
गंदी आदतों वाले बच्चे हमेशा खुद पीड़ित रहते हैं और दूसरों को पीड़ित कर देते हैं।
परजीवी कृमियों को गरम पानी और थोड़े-से एसेटिक एसिड की पिचकारी के सहारे प्रांत से बाहर कर दिया जा सकता है।
छूत से बचने का सबसे निश्चित उपाय है स्वच्छता। साफ-सुथरी आदतों वाले बच्चे कभी भी एस्कराइड और आंकड़ा-कृमियों से पीड़ित नहीं होते।
प्रश्न – १. एस्कराइड क्या नुकसान पहुंचाते हैं ? एस्कराइड और आंकड़ा-कृमियों की छूत से बचने के लिए कौनसे उपाय अपनाये जाते हैं ?

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