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श्रमिक संघ अधिनियम क्या है | भारतीय श्रम संघ अधिनियम 1926 trade union act 1926 in hindi

trade union act 1926 in hindi श्रमिक संघ अधिनियम क्या है | भारतीय श्रम संघ अधिनियम ?

औद्योगिक संबंधों से जुड़े विधान
मजदूरी संबंधी बातचीत, अन्य सामूहिक सौदाकारी और संबंधित औद्योगिक विवादों के संदर्भ में औद्योगिक विधान अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। चूँकि जब सहयोग विफल हो जाता है, कानून की शक्ति उसी समय सबसे अधिक महसूस की जाती है, यह स्वाभाविक है कि कर्मचारी और नियोजक न्यूनतम खर्च पर समुचित सहमति पर पहुँच जाएँ यह सुनिश्चित करने के लिए विधानों के व्यापक समूह की आवश्यकता होती है। यहाँ कानून का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति को न्याय दिलाना और कुशलता प्राप्त करना है। वितरणीय उद्देश्य की माँग है कि सामूहिक सौदाकारी का परिणाम ‘समुचित‘ हो अर्थात् एक ही पक्ष सभी फायदों को नहीं हड़प ले। कुशलता उद्देश्य तब पूरा होता है जब हम न्यूनतम समय की बर्बादी करके और बिना व्ययपूर्ण कार्रवाइयों जैसे हड़तालों और तालाबंदियों के सहमति पर पहुँच जाते हैं। निःसंदेह, ये दो उद्देश्य शायद ही पूरा हो पाते हैं और हाड़ताल अथवा सौदाकारी जैसे गतिरोध आम हैं। अतएव, कानून को निलंबित सौदाकारी (मत्यावरोध की स्थिति) को भी ध्यान में रखना चाहिए और सुनियोजित कार्रवाइयों की सीमा अवश्य विनिर्दिष्ट कर देना चाहिए ताकि बातचीत न्यायिक प्रक्रिया से विचलित नहीं हो जाए। इसके अलावा, कानून में यह भी गुंजाइश रहना चाहिए कि राज्य हस्तक्षेपकारी अथवा मध्यस्थ की भूमिका निभा (विशेषकर लम्बे समय तक जारी विवादों में) सके जिससे कि कम से कम कुशलता का उद्देश्य पूरा किया जा सके। जब हम यह स्वीकार करते हैं कि श्रम विवादों का फर्म के अन्य संबंधों जैसे निवेशकों, आपूर्तिकर्ताओं वितरकों इत्यादि के साथ संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है, यह तर्क और अधिक बाध्यकारी हो जाता है।

तीन प्रमुख अधिनियम भारत में औद्योगिक संबंधों को विनियमित करते हैं: (प) औद्योगिक नियोजन (स्थायी आदेश अधिनियम, 1946 (पप) श्रमिक संघ अधिनियम, 1926 (पपप) औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947।

चूँकि हम औद्योगिक नियोजन अधिनियम पर पहले ही विचार कर चुके हैं, इस भाग में हम श्रमिक संघ अधिनियम और औद्योगिक विवाद अधिनियम पर ध्यान केन्द्रित करेंगे। संक्षेप में, यह उल्लेखनीय है कि औद्योगिक नियोजन अधिनियम ने श्रम ठेकों को पूर्ण और वैधानिक रूप से रक्षणीय बनाने का प्रयास किया। इस अधिनियम के अंतर्गत फर्म का न सिर्फ नियोजन की शर्तों को स्पष्ट करना अपित पहले ही कार्यकाल के निलंबन अथवा समाप्ति के संभावित दृष्टांत बताना दायित्व बन गया। इस मामले में ज्ञात विफलता, परिस्थितियों का पूर्ण रूप से सूची में सम्मिलित नहीं किया जाना, कटु विवाद को जन्म दे सकते हैं। इस अधिनियम में निलंबित किंतु विभागीय जाँच के अंतर्गत श्रमिक के लिए जीवन निर्वाह भत्ता (10 दिनों के मजदूरी के पचास प्रतिशत की दर पर) का भी उपबंध करता है।

श्रमिक संघ अधिनियमः श्रमिक संघ अधिनियम उन कुछ कानूनों में से एक है जो औपनिवेशिक दिनों से ही लगभग अपरिवर्तित रहा है। इस अधिनियम में परिवाद अभिव्यक्त करने, सामूहिक सौदाकारी में सम्मिलित होने और स्वयं के बीच नागरिक तथा राजनीतिक हितों के संवर्धन के लिए श्रमिकों द्वारा संघ के गठन को मान्यता दी गई है। संघ के पंजीकरण के लिए कम से कम सात सदस्यों की आवश्यकता होती है और इसकी स्थापना कारखाना स्तर तथा उद्योग स्तर पर की जा सकती है। संघ के आधे पदाधिकारी अनिवार्य रूप से उस उद्योग में नियोजित होने चाहिए जिसका कि वह संघ है। इस अधिनियम का एक सबसे महत्त्वपूर्ण उपबंध यह है कि संघ के सदस्यों और पदाधिकारियों को वास्तविक व्यवसाय संघ कार्यकलापों के संबंध में आपराधिक और सिविल मुकदमे से सुरक्षा प्रदान की गई है।

जहाँ इस अधिनियम का ट्रेड यूनियनवाद में अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान है, पिछले पचास वर्षों में बदली हुई परिस्थितियों के मद्देनजर इसमें संशोधन के लिए कुछ नहीं किया गया है। यदि हम ध्यानपूर्वक पढ़ें, तो इस अधिनियम में पहले ही मान लिया गया है कि ट्रेड यूनियन (श्रमिक संघ) स्पष्टतः श्रमिक संघ का रूप है जो राजनीतिक और नागरिक हितों के संवर्धन सहित अनेक कार्यकलापों में संलग्न होता है। इसलिए, यह एक अनुत्तरित प्रश्न रह जाता है कि यूनियन का कौन सा कार्यकलाप वास्तविक नहीं है। यदि मजदूरी मांगों को लेकर किये गये हड़ताल को वैध यूनियन व्यवहार कहा जाए तो असंबद्ध और दूरगामी राजनीतिक मुद्दों के लिए काम रोकना भी वैध यूनियन कार्यकलाप माना जा सकता है। इस अधिनियम के सामान्य स्वरूप और पदाधिकारियों के लिए (सिविल अथवा आपराधिक मुकदमों से) विशेष उन्मुक्ति उपबंधों के कारण ट्रेड यूनियनों ने राजनीतिक संरक्षण को आकर्षित किया है और संभवतः सामूहिक सौदाकारी के परिदृश्य को जटिल बना दिया है।

पिछले तीस वर्षों में, ट्रेड यूनियन सामूहिक सौदाकारी के शक्तिशाली संघ बन गए हैं और श्रमिक संघ अधिनियम के लक्ष्यों में तद्नुरूप परिवर्तन किया जाना चाहिए जिससे कि इसको अधिक विशिष्ट और अधिक प्रभावी बनाया जाए। उदाहरण के लिए श्रमिक संघ अधिनियम यह निर्धारित करने में कि क्या संघों को मजदूरी पर सौदाकारी करने का कानूनी अधिकार है अथवा नहीं, सहायक नहीं है। न ही इसमें यह कहा गया है कि एक से अधिक संघ होने की स्थिति में कौन सा संघ सौदाकारी एजेन्ट होगा। क्या सौदाकारी इकाई स्तर पर होना चाहिए अथवा उद्योग स्तर पर? क्या नियोजकों के अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों जैसे नए लोगों को मजदूरी पर रखने, कामबंदी और आधुनिकीकरण के संबंध में संघ के साथ विचार-विमर्श करना आवश्यक है? श्रमिक संघ अधिनियम इन प्रश्नों पर मूक है और अन्य अधिनियम भी इस मामले में सहायक नहीं है। परिणामस्वरूप, राज्य और कभी-कभी न्यायालय को इस शून्य को भरने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ता है।

श्रमिक संघ अधिनियम में अस्पष्टता के बावजूद नियोजक, संघों के साथ बातचीत करना श्रेयस्कर समझते हैं और मजदूरी (तथा अन्य विषयों) को कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौता का अंग बना देते हैं। राज्य सरकारें भी सामूहिक सौदाकारी को प्रोत्साहित करती हैं। इसलिए संघ वस्तुतः अनेक विषयों पर सौदाकारी कर सकता है और चूंकि किसी एक संघ का श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने का वैधानिक एकाधिकार नहीं होता है, अनेक संघ सौदाकारी के लिए उपस्थित हो जाते हैं और प्रत्येक संघ बड़ी संख्या में श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने का दावा भी करते हैं। इस तरह की समस्याओं का समाधान श्रमिक संघ अधिनियम में संशोधन करके किया जा सकता है।

 कुछ उपयोगी पुस्तकें एवं संदर्भ
अनन्त, टी.सी.ए., के. सुन्दरम और एस. डी. तेन्दुलकर, (1998). एम्पलायमेण्ट पॉलिसी इन साउथ एशिया, इंटरनेशनल लेबर ऑफिस
फैलॅन, पीटर और रूँबर्ट ई. बी. लूकस, (1993) “जॉब सिक्यूरिटी रेग्युलेशन एण्ड दि डायनामिक डिमाण्ड फोर इण्डस्ट्रियल लेबर इन इंडिया एण्ड जिम्बाब्वे‘‘ जर्नल ऑफ डेवपलपमेंट इकोनॉमिक्स, खंड 40, सं. 2
मौली, वी.सी. (1990). लेबर लैण्डस्केप: ए स्टडी ऑफ इण्डस्ट्रियल एण्ड एग्रेरियन रिलेशन्स इन इंडिया, स्टर्लिंग पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली।
रामास्वामी, ई.ए. और उमा रामास्वामी, (1995). इंडस्ट्री एण्ड लेबर: ऐन इण्ट्रोडक्शन, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, नई दिल्ली।
वेंकट रत्नम, सी.एस., (1995) “इकोनॉमिक लिबरलाइजेशन एण्ड दि ट्रांसफोर्मेशन ऑफ इण्डस्ट्रियल रिलेशन्स पॉलिसीज इन इंडिया‘‘ ए. वर्मा, टी.ए. कोचन और आर.डी. लैण्ड्सबरी (मके.), एम्प्लायमेंट रिलेशन्स इन दि ग्रोइंग एशियन इकोनोमीज, रूटलेज, सांख्यिकी प्रकाशन में।
इंडियन लेबर ईयर बुक, श्रम मंत्रालय, भारत सरकार।

शब्दावली
सामूहिक सौदाकारी ः नियोजक (अथवा नियोजकों) और कर्मचारियों के प्रतिनिधित्व के रूप में यूनियनों के बीच बातचीत, सामूहिक सौदाकारी कहलाता है। इस तरह की सौदाकारी मजदूरी, बोनस, कामबंदी, छंटनी, आधुनिकीकरण और मजदूरी पर नए लोगों के रखने के संबंध में हो सकता है।
औद्योगिक विवाद ः विशेषरूप से हड़ताल और तालाबंदी औद्योगिक विवादों के दो मुख्य घटक हैं, हालाँकि विवाद के अन्य अनेक रूप भी हो सकते हैं। परिवाद की अभिव्यक्ति या सामूहिक सौदाकारी में लाभ उठाने के लिए श्रमिकों द्वारा सोंच समझकर, बड़े पैमाने पर और संगठित अनुपस्थिति हड़ताल है। तालाबंदी श्रमिकों की कुछ माँगों को पूरी नहीं करने अथवा सौदाकारी की अपनी स्थिति सुदृढ़ करने अथवा घाटा को कम करने के लिए नियोजकों द्वारा घोषित अस्थायी बंदी है। ये विवाद प्रायः तब होते हैं जब सौदाकारी में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है।
कामबंदी ः पुनः बुलाए जाने की संभावना के साथ अस्थायी तौर पर नौकरी की समाप्ति।
छंटनी ः नौकरी की स्थायी तौर पर समाप्ति ।
सुलह ः विवाद में सम्मिलित सभी पक्षों के साथ चर्चा के माध्यम से विवादों के निपटारे में सरकार की मध्यस्थता।
न्यायानिर्णयन ः वैधानिक उपबंधों के माध्यम से विवादों का निपटारा।

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