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मजदूरी संदाय अधिनियम 1936 क्या है | payment of wages act 1936 in hindi न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948
payment of wages act 1936 in hindi मजदूरी संदाय अधिनियम 1936 क्या है न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के प्रावधान या विशेषताएँ ?
मजदूरी और प्रसुविधाओं से संबंधित विधान
किसी श्रमिक के उपार्जन (आमदनी) में विशेष रूप से अनेक संघटक होते हैं जैसे मूल मजदूरी, मंहगाई भत्ता, बोनस, कतिपय वस्तु-रूप प्रसुविधा (जैसे चिकित्सा अथवा कार्य स्थान पर खाद्य), और आस्थगित संदाय जैसे सेवानिवृत्ति प्रसुविधा। चूंकि मजदूरी अनेक रूप में दी जाती हैं एवं दीर्घकालीन नियोजन में इसके महत्त्वपूर्ण निहितार्थ होते हैं, और तद्नुसार श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए कानून बनाए गए हैं । तथापि, जिस मूल अवधारणा पर सरकार ने मजदूरी विधानों को अधिनियमित किया वह यह था कि कम मजदूरी अर्जित करने वाले श्रमिकों को विधान के माध्यम से विशेष सुरक्षा की आवश्यकता है जबकि अधिक मजदूरी अर्जित करने वाला श्रमिक, यदि चूक अथवा संविदा भंग होती है तो स्वयं ही कानूनी उपचार प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार विभिन्न विधान पारित किए गए हैं जिनके माध्यम से नियोजकों को श्रमिकों, विशेषकर कम मजदूरी अर्जित करने वाले श्रमिकों के प्रति अपना वित्तीय उत्तरदायित्व पूरा करना अपेक्षित है।
मजदूरी के मामले में पहला महत्त्वपूर्ण अधिनियम मजदूरी संदाय अधिनियम (Payment of Wages Act), 1936 था जिसका लक्ष्य मजदूरी का तुरंत तथा नियमित भुगतान और नियोजकों द्वारा जानबूझकर चूक करने एवं श्रमिकों के शोषण को रोकना था। इस अधिनियम ने राज्य को औद्योगिक प्रतिष्ठानों में मजदूरी पद्धति की निगरानी करने और दोषी पाए गए नियोजकों पर भारी जुर्माना करने की शक्ति प्रदान की। उद्योग की दृष्टि से इस अधिनियम का दायरा अत्यधिक विस्तृत है क्योंकि इसके क्षेत्राधिकार में कारखाना अधिनियम, 1948 के अंतर्गत आने वाले कारखाने, रेलवे, निर्माण, उद्योग, खान, मोटर परिवहन सेवाएँ, बागान और अनेक अन्य उद्योग आते हैं। किंतु इस अधिनियम का संरक्षण किस श्रमिक को मिलेगा यह निर्धारित करने के लिए अधिकतम मजदूरी सीमा नियत की गई है। 1982 के इसके संशोधन के अनुसार, इस अधिनियम के अन्तर्गत वे श्रमिक आते हैं जो एक महीने में 1600 रु. से कम अर्जित करते हैं। स्पष्ट है, श्रमिकों की दृष्टि से इस अधिनियम का दायरा सिकुड़ता जा रहा है, क्योंकि यह अधिकतम सीमा बहुत ही कम है और निश्चित तौर पर पिछले बीस वर्षों से इसमें संशोधन की त्तकाल आवश्यकता है।
संभवतः न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948, अधिक सफल अधिनियम रहा है, जिसमें कृषि सहित सभी प्रकार के नियोजन और व्यवसायों के लिए समुचित सरकार, केन्द्र अथवा राज्य, द्वारा न्यूनतम मजदूरी नियत करना और समय-समय पर उनमें संशोधन करना अपेक्षित है। चूँकि इस अधिकार के प्रयोग का राजनीतिक महत्त्व है, राज्य सरकारें स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार न्यूनतम मजदूरी नियत करने (अथवा संशोधन करने) पर पूरा-पूरा ध्यान देती हैं। तथापि, न्यूनतम मजदूरी लागू करना अभी भी एक समस्या है। किंतु यह अधिनियम निश्चित रूप से उन श्रमिकों के हाथ मजबूत करता है जो अधिक संगठित हैं।
उपर्युक्त दो अधिनियम जहाँ कतिपय स्तर के ऊपर मूल मजदूरी का भुगतान नियोजक के मौलिक उत्तरदायित्व के रूप में सुनिश्चित करते हैं, वहीं बोनस संदाय अधिनियम, 1965 में अधिशेष के एक हिस्से की भी गारंटी की गई है। इसके वर्तमान स्वरूप में (1970-72 में कतिपय संशोधन के पश्चात्) कारखाना अधिनियम, 1948 के अंतर्गत सभी कारखाने और बीस या अधिक श्रमिक (एक वर्ष के दौरान किसी भी दिन) नियोजित करने वाले सभी अन्य प्रतिष्ठानों को अपने सभी कर्मचारियों को उनके वार्षिक वेतन अथवा मजदूरी का 8.33 प्रतिशत की दर से बोनस का भुगतान करना चाहिए। इतना ही नहीं बोनस का भुगतान लाभ अर्जित करने के सापेक्षिक नहीं है। घाटा उठाने वाले फर्म को भी इस दायित्व का पालन करना होगा। इस दृष्टि से बोनस मूल मजदूरी के सदृश है और दोनों में अंतर सिर्फ इसकी बारम्बारता तथा भुगतान के समय के संबंध में ही है।
प्रसुविधा संघटक के संबंध में, दो अधिनियम आकस्मिक चोट, मृत्यु, और निरूशक्त्ता के लिए उपबंध करते हैं: श्रमिक प्रतिकर अधिनियम, 1923 और कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948। सामान्यतया कर्मचारी इन दोनों अधिनियमों के दायरे में नहीं आते हैं। पहला अधिनियम कार्य से संबंधित दुर्घटनाओं के मामले में नियोजकों पर क्षतिपूर्ति के भुगतान का दायित्व डालता है और इसमें राज्य सरकारों की क्षतिपूर्ति को न्यूनतम तथा अधिकतम राशि विनिर्दिष्ट करने (और समय-समय पर संशोधन करने) का अधिकार दिया गया है। दूसरी ओर दूसरे अधिनियम ने बीमा व्यवस्था के सृजन का मार्ग प्रशस्त किया है। प्रतिमाह 6500 रु. से अधिक अर्जित करने वाले श्रमिकों के लिए तीन पक्षों – नियोजकों, कर्मचारियों और सरकारों (केन्द्र, राज्य अथवा स्थानीय) द्वारा प्रशासित और वित्तपोषित अस्पतालों और क्लिनिकों का बहुत विस्तृत नेटवर्क है जिसमें वे और उनके परिवार के सदस्य मातृत्व प्रसुविधा, औद्योगिक चोटों का उपचार और सामान्य चिकित्सीय देखभाल की सुविधा ले सकते हैं। कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम पूरे भारत में लागू है और इसके अंतर्गत सभी फैक्टरियाँ जो विद्युत से चलती हैं तथा 10 या अधिक व्यक्तियों को नियोजित करती हैं और दुकान, थिएटर, होटल इत्यादि जैसे प्रतिष्ठान आते हैं। वर्ष 1998 में, ई एस आई स्कीम 22 राज्यों के 640 केन्द्रों में चल रही थी जिसके अंतर्गत 8.36 मिलियन कर्मचारी और कुल 35.29 मिलियन लाभार्थी थे।
अंत में, हम सेवानिवृत्ति प्रसुविधा पर विचार करते हैं। जैसा कि भलीभाँति मालूम है, दीर्घकालीन नियोजन के साथ सदैव ही सामान्यतया सेवा निवृत्ति-पश्चात् प्रसुविधा के रूप में, आस्थगित भुगतान जुड़ा रहता है जो श्रमिक के कार्यकाल के अंतिम चरण में उसके अपने वेतन और सेवानिवृत्ति योजनाश् में उसके अपने अंशदान पर निर्भर करता है। इसके दो प्रभाव होते हैं रू श्रमिकों को कड़ी मेहनत के लिए प्रोत्साहन और वृद्धावस्था बीमा। सामान्यतया, सेवानिवृत्ति योजना नियोजक और कर्मचारी दोनों के अंशदान पर आधारित होता है और पूरे विश्व में सरकारें उन्हें खूब प्रोत्साहित करती हैं।
कर्मचारी भविष्य निधि और प्रकीर्ण उपबंध अधिनियम, 1952 सभी कारखानों और, अन्य प्रतिष्ठानों के लिए अपने कर्मचारियों के लिए भविष्य निधि की स्थापना अनिवार्य करता है। आरम्भ में इस अधिनियम की सीमा अत्यन्त सीमित थी और यह सिर्फ 6 उद्योगों पर लागू था। किंतु 1998 में इसके दायरे का विस्तार 177 उद्योगों तक किया गया और 2.99 लाख प्रतिष्ठान इस कार्यक्रम में सम्मिलित हुए। 212.20 लाख अभिदाताओं को वृद्धावस्था बीमा लाभ प्रदान किया गया। इस स्कीम के अनुसार, नियोजक और कर्मचारी दोनों, भविष्य निधि ट्रस्ट में प्रत्येक, कर्मचारी की मूल मजदूरी का लगभग 10 प्रतिशत की दर से, अंशदान करते हैं और यह कोष समय के साथ बढ़ता जाता है (प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत की दर से ब्याज अर्जित करता है।) कर्मचारी सेवानिवृत्ति के पश्चात् संचित राशि निकालता है। कर्मचारी परिवार पेंशन, स्कीम 1971 के नाम से 1971 में एक थोड़ी-सी भिन्न स्कीम शुरू की गई, जिसमें एक मुश्त निकासी के स्थान पर, सेवानिवृत्त व्यक्ति अथवा उसके उत्तरजीवी को मासिक पेंशन मिलेगा।
बोध प्रश्न 3
1) मजदूरी और बोनस से संबंधित मुख्य अधिनियमों का वर्णन कीजिए।
2) क्या मजदूरी संदाय अधिनियम, 1936 का दायरा समय के साथ विस्तृत हो रहा है? व्याख्या कीजिए।
3) सही के लिए (हाँ) और गलत के लिए (नहीं) लिखिए।
क) बोनस संदाय अधिनियम सिर्फ लाभ अर्जित करने वाले कारखानों पर लागू होता है। ( )
ख) न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 प्रबन्धकों पर लागू नहीं होता है। ( )
ग) मजदूरी संदाय अधिनियम, 1936 कम मजदूरी वाले श्रमिकों पर लागू होता है। ( )
घ) कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम न सिर्फ कर्मचारी, अपितु उसके/उसकी परिवार के सदस्यों के लिए भी
चिकित्सा बीमा का उपबंध करता है। ( )
बोध प्रश्न 3 उत्तर
1) मजदूरी संदाय (भुगतान) अधिनियम, 1936 और बोनस संदाय (भुगतान) अधिनियम, 1965
2) औद्योगिक नियोजन अधिनियम के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत अधिक उद्योग लाए गए हैं। उस अर्थ में, इसका दायरा व्यापक हुआ है। किंतु श्रमिकों की दृष्टि से इसका दायरा घटा है। इसका कारण यह है कि सम्मिलित किए जाने वाले श्रमिकों के लिए अधिकतम सीमा के रूप में नियत मजदूरी स्तर में बार-बार संशोधन नहीं किया गया है। 1982 से यह स्तर 1600 रु. प्रतिमाह है। यह निश्चित तौर पर श्रमिकों के बड़े भाग को बाहर छोड़ देता है।
3) (क) नहीं (ख) हाँ (ग) हाँ (घ) हाँ
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