tools of genetic engineering in hindi , आनुवंशिक अभियांत्रिकी के औजार , जैविक टूल्स क्या है

जानिये tools of genetic engineering in hindi , आनुवंशिक अभियांत्रिकी के औजार , जैविक टूल्स क्या है ?

आनुवंशिक अभियांत्रिकी के औजार (Tools of Genetic Engineering)

आनुवंशिकी अभियांत्रिकी के अन्तर्गत विभिन्न कार्यों के निष्पादन हेतु अनेक जैविक औजारों (biological tools) की आवश्यकता होती है जिन्हें हम निम्नलिखित समूहों में विभक्त करते हैं-

(1) एंजाइम्स (Enzymes)

(2) वाहक (Vector) DNA

(3) बाह्य या पैसेन्जर DNA (Foreign or Passenger DNA)

(4) cDNA कोष (c DNA Bank)

(5) जीन कोष (Gene Bank)

  1. एंजाइम्स (Enzymes )

न्यूक्लिक अम्लों की विभिन्न अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करने हेतु अनेकों प्रकार के एंजाइम्स की आवश्यकता होती है। इन्हें तीन समूहों में विभक्त करते हैं जैसा कि सारणी नं. 2 में दर्शाया गया है। इनमें से प्रमुख एंजाइम्स का वर्णन इस प्रकार है-

  • एक्सोन्यूक्लिऐजेज (Exonucleases) – यह एक सूत्री DNA (single stranded DNA) के 5′ – 3′ सिरे पर व्यवस्थित नाइट्रोजनी क्षार युग्मों पर क्रिया कर इनका पाचन करते हैं। ये द्विसूत्रीय DNA पर अभिक्रिया पर रिक्त स्थान बनाते हैं।

(ii) एन्डोन्यूक्लिऐजेज (Endonucleases) – यह द्विसूत्री DNA के 5′ – 3′ सिरों के अतिरिक्त अन्य सभी स्थलों पर अभिक्रिया कर इन्हें विखण्डित करते हैं, किन्तु इनके द्वारा की जाने वाली क्रिया DNA के एक सूत्र पर ही सीमित होती है।

(iii).प्रतिबन्धित एंजाइम्स (Restriction endonucleases)- ये एंजाइम्स DNA सूत्र में न्यूक्लिओटाइड श्रृंखला में विशिष्ट स्थल को पहचान कर विखण्डित करने की क्षमता रखते हैं। प्राकृतिक रूप से सभी जीवाणुओं में पाये जाते हैं जो इन पर आक्रमण करने वाले विषाणुओं के प्रति रासायनिक हथियार (chemical weapon) के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं। चूँकि इनकी क्रिया सूक्ष्मजीवों में बाह्य DNA (foreign DNA) जो विषाणु से सम्बन्धित होता है तक ही सीमित रहती है अत: इन्हें प्रतिबन्धित ( restriction) एंजाइम्स नाम दिया जाता है। ये DNA के दोनों सूत्रों पर क्रिया कर इन्हें विखण्डित करने की क्षमता रखते हैं। इस समूह के एंजाइम की खोज के लिये डा. वर्नर आर्बर (Dr. Wrner Arber), डा. एच. ओ. स्मिथ ( Dr. H. O. Smith) व डा. नाथन्स (Dr. Nathans) को चिकित्सा क्षेत्र का 1978 का नोबेल पुरस्कार दिया गया। आज तक लगभग 475 विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्धित एंजाइम्स ज्ञात किये जा चुके हैं। इसका नामकरण प्राप्ति स्रोत के आध र पर किया जाता है। औद्योगिक रूप से काम में लाये जाने हेतु अनेक कम्पनियाँ इनका उत्पादन भी करती है। एक जीवाणु में एक से अधिक प्रकार के प्रतिबन्धित एंजाइम्स पाये जाते हैं। एक प्रतिबन्धित एंजाइम अग्र क्रियाएँ करता है-

(i) यह DNA अणु एक विशिष्ट क्षारक क्रम को पहचान कर 4 से 6 क्षारक खण्डों को पेलिन्ड्रोमिक अनुक्रम (palindromic sequences) में विखण्डित कर देता है।

(i) यह DNA अणु की दोनों लड़ियों को सीधे विमुख अंशों में विखण्डित नहीं करता वरन् एकान्तरित क्रम में कुछ दूरी पर विखण्डित करता है।

(ii) यह DNA अणु को विखण्डित कर अनुपूरक सिरों (complementary ends) युक्त अंशों में विभक्त करता है।

इनके द्वारा की जाने वाली क्रिया की प्रकृति के अनुरूप इन्हें दो उपसंवर्गों (subclasses) में विभक्त करते हैं।

उप समूह I – इस समूह के प्रतिबन्धित एन्जाइम्स DNA अणु पर विशिष्ट क्षारक अनुक्रम को पहचानते हैं किन्तु विखण्डन किसी अन्य स्थल पर करते हैं अर्थात् इनमें विदलन विशिष्टता नहीं पायी जाती है। इनका अणु भार लगभग 3,00,000 होता है। इनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं में एडिनोसिन, मिथिओनिन, Mg + 2 तथा ATP सहकारक भाग लेते हैं।

उप समूह II – इस समूह के प्रतिबन्धित एंजाइम्स DNA अणु पर विशिष्ट क्षारक अनुक्रम पहचानकर विशिष्ट स्थलों पर ही विदलन कर, प्रत्येक सूत्र को खण्डित कर देते हैं। इन खण्डित सूत्रों को प्रतिबन्धित खण्ड ( restricition fragments) कहते हैं। ये 4 या 5 अथवा 6 क्षारक युग्म क्रम वाले हो सकते हैं। भिन्न-भिन्न सिरों वाले खण्डों की प्रकृति भिन्न प्रकार की होती है जैसे इ. को आर.-I (Eco R-I) एन्जाइम्स DNA पर 51-3′ क्रम में ही अभिक्रिया करता है तथा G व A के मध्य ही विदलन करता है जैसा कि चित्र 22.2 द्वारा दर्शाया गया है। जिस बिन्दु या स्थल से एक DNA सूत्र की श्रृंखला को काटा जाता है, वे फटे हुऐ सांतरित (staggered) सिरे होते हैं जिन पर 5′ फॉस्फेट एवं 3′ हाइड्रोक्सिल समूह उपस्थित होता है। सांतरित सिरे अनुपूरक क्षारक युक्त सिरे “चिपचिपे सिरे” (sticky ends) कहलाते हैं, क्योंकि ये इसी प्रकार के एंजाइम्स के प्रभाव से कटे हुऐ वाहक DNA के समान क्षारक युग्म खण्ड के साथ संयोजित हो सकते हैं। इनका अणु भार 20,000 से 1,00,000 इकाई तक होता है। इनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं में Mg+ ही सहकारक के रूप में भाग लेता है।

5′-GAATTC-3′

3′ ← CTTAAG – 5′

5′-GAATTC-3′

3′-CTTAATG

इस समूह के एंजाइम जीवाणु के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि ये उन्हें विषाणुओं के प्रति प्रतिरक्षा प्रदान करते हैं। ये एंजाइम विषाणु के DNA को असमान भागों में विखण्डित कर निष्क्रिय बना देते हैं। ये एन्जाइम जीवाणु के आनुवंशिक कारक को विदलित नहीं करते क्योंकि आनुवंशिक कारक के क्षारक एक अन्य परिवर्ती एंजाइम मिथिलेज (methelase) की सहायता से मेथेलित (methylated) कर दिये जाते हैं। प्रतिबन्धित एंजाइम्स तथा परिवर्ती एंजाइम्स मिलकर जीवाणु में प्रतिबंध रूपान्तरण तंत्र ( restriction modification system) का निर्माण करते हैं।

कुछ प्रतिबन्धित एन्जाइम इनके स्रोत अभिज्ञान अनुक्रम (recognition sequence) तथा विदलित उत्पाद दर्शाये गये हैं।

(iv) न्यूक्लिएज (Nuclease ) – यह एक सूत्रीय DNA य द्विसूत्रीय DNA का जल अपघटन कर देता है, जिससे यह ससंजक सिरों (cohesive ends) युक्त बन जाता है। इन एंजाइम्स की क्रियाओं में से ससंजक सिरे कुन्द सिरों (blunt ends) में परिवर्तित हो जाते हैं।

(v) DNA लाइगेजेज (DNA ligases)- ये DNA के ससंजक सिरों पर सहसंयोजक बन्ध बनाकर इनका मुंह बन्द (seal) करते हैं। यह प्रतिबन्धित खण्डों (restriction fragments) को जोड़ने के काम में लाये जाते हैं। ये T4 फेज से प्राप्त किये जाते हैं अत: इन्हें T, DNA लाइगेज कहते हैं। इनके द्वारा की जाने वाली क्रिया हेतु DNA व ATP यह कारक आवश्यक होते हैं । ससंजक सिरों युक्त प्रतिबन्धित खण्ड कुन्द सिरों युक्त प्रतिबन्धित खण्डों की अपेक्षा 100 गुणा तीव्र गति से लाइगेशन (ligation) की क्रिया करते हैं।

(vi) क्षारीय फॉस्फेटेज (Alkaline phosphatase)- ये यौगिकों के मोनोफॉस्फेट एस्टर समूहों का जल अपघटन करते हैं। इस प्रकार प्रतिबन्धित एंजाइम द्वारा प्लाज्मिड के वृत्ताकार DNA के काटे गये सिरों को परस्पर पुनः जुड़ने से रोकने के लिये क्षारीय फॉस्फेटेज का उपयोग किया जाता है जो 5′ पर उपस्थित फॉस्फोरायल समूह का जल अपघटन कर देता है। एक प्लैज्मिड से प्राप्त प्रतिबन्धित खण्ड (restricted fragements) को बाह्य DNA (foreign DNA) के खण्ड से जोड़ने या क्लोन करने हेतु बाह्य DNA से प्राप्त प्रतिबन्धित खण्डों को क्षारीय फॉस्फेटेज से उपचारिता नहीं किया जाता है।

इस प्रकार लाइगेज व क्षारीय फॉस्फेटेज वाहक में पुनः वृत्तीकरण (recircularization) की क्रिया को रोकते हैं। देखें उपरोक्त

सारणी 22.2 – न्यूक्लिक अम्लों की क्रियाओं में उत्प्रेरण करने वाले

एन्जाइम्स

 

उत्प्रेरित की जाने वाली क्रिया

 

 
I.

1.

 

न्यूक्लिक अम्ल संश्लेषण

पॉलिमरेज

 

 

पूर्व में उपस्थिति पॉलीन्यूक्लिओटाइड्स के 3 – OH सिरों के साथ नये न्यूक्लिओटाइड ट्राइफॉस्फेट जोड़ा जाना एवं पायरोफॉस्फेट का मुक्त होना

2. लाइगेज

 

DNA श्रृंखला के खण्ड़ों के मध्य फॉस्फोडाएस्टर बन्ध बनाना ।

 

 

3. पुनर्योजन A प्रोटीन

 

समजात आनुवंशिक पुनर्योजन, DNA मरम्मत हेतु आवश्यक

 

4. उत्क्रम ट्रान्सक्रिप्टेज

 

अनुपूरक DNA (cDNA) में DNA न्यूक्लिओटाइड्स का ट्रान्सक्रिप्शन ।
5. न्यूक्लिओटिडाइल

ट्रान्सफरेज

 

आरम्भन पॉलीमर में 3-OH सिरे पर मोनोन्यूक्लिओटाइड ट्राइफॉस्फेट का संयोजित होना तथा पॉयरोफॉस्फेट का मुक्त होना

 

6. प्राइमिंग एंजाइम आरम्भन सूत्र कपर मुक्त 3′ OH सिरा उपलब्ध कराना जिससे यह ग्राही (receptor) बनकर प्रथम न्यूक्लिओटाइड का स्थानान्तरण कराए एवं प्रथम फॉस्फोडाएस्टर बन्ध का निर्माण DNA संश्लेषण में हो सकें।

 

7. पॉली (A) योजक एंजाइम

 

AMP अवशेषों के ATP के 3, 5′- फॉस्फॉडाएस्टर बन्ध से जोड़ना

 

8. केपिंग एंजाइम

 

RNA के उप अन्तिम न्यूक्लिओटाइड के साथ 7- मिथाइल गुएनोसिन का जोड़ा जाना ।

 

9. Q. B. रेप्लिकेज

 

विषाण्विक RNA का प्रतिकृतिकरण करना ।

 

II. न्यूक्लिक अम्ल जल अपघटन

 

 
10. न्यूक्लिएज पॉलीन्यूक्लिओटाइड्स के फॉस्फोडाएस्टार बन्धों का जल अपघटन करना
11. प्रतिबन्धित एन्डोन्यूक्लिएज DNA सूत्र को विभिन्न स्थलों पर पहचान कर खण्डों में विदलित करना।

 

III.

 

न्यूक्लिक अम्ल रूपान्तरण  
12. काइज न्यूक्लिक अम्ल के न्यूक्लिओसाइड् के a फॉस्फेट का स्थानान्तरण 5′- ट्रॉंइफॉस्फेट से 5-OH सिरे पर करना ।

 

13. टोपोआइसोमरेज

 

न्यूक्लिक अम्ल के अणुओं में विखण्डन व पुनः संश्लेषण द्वारा फॉस्फोडाएस्टर बन्धों की स्थिति में परिवर्तन कर इनकी संस्थिनिक संरचना (topological structure) में परिवर्तन करना ।

 

14. गाइरेज ATP की उपस्थिति में शिथिलित (relaxed) DNA में | अधिकुण्डलन (super coiling) कराना

 

15. अकुण्डलन ‘एंजाइम DNA को इसके अनुपूरक सूत्रों में ATP की उपस्थिति में खोलना ।

 

16. मेथिलेज

 

दाता S- एडिनोसिल – L मेथिलओसिन को ग्राही DNA अणु पर मेथिल समूहों का स्थानान्तरण कराना ।

 

17. इनसरटेज

 

DNA श्रृंखला में अनुपस्थित धारकों की पुनः प्रविष्टी उपयुक्त स्थलों पर कराना ।

 

18. ग्लाइकोसिलेज

 

न्यूक्लिओसाइड्स धारकों के ग्लाइकोसिडिक बन्धों का जल अपघटान कराना।

 

19. एल्कलाइन फॉस्फेटेज

 

यौगिकों से मोनोफॉस्फेट एस्टर समूहों का जल अपघटन कराना |

 

 

  1. वाहक (Vector) DNA –

वाहक DNA वे अणु होते हैं जो इनके साथ निवेशित बाह्य DNA (foreign DNA) को एक जीव से दूसरे जीव तक ले जाने का कार्य करते हैं, इन्हें वाहक DNAs भी कहते हैं। वाहक से हमारा आशय उस काय से होता है जो दाता व ग्राही के मध्य आनुवंशिक सूचना या पदार्थ (DNA) को जाता है, इस क्रिया के लिये जीवाण्विक प्लैज्मिड्स (plasmids), बैक्टिरिओफेग (bacteriophase), कॉस्मिड्स एवं विषाणु का उपयोग करते हैं। भिन्न-भिन्न दाता व ग्राही हेतु प्रकृति के अनुरूप भिन्न प्रकार के वाहक का चयन किया जाता है।

प्लाज्मिड्स (Plasmids) – अनेक जीवाणु कोशिकाओं में गुणसूत्र के अतिरिक्त प्लाज्मिड नामक संरचनाएँ आनुवंशिक पदार्थ के रूप में पायी जाती हैं। ये वृत्ताकार, दो लड़ों से बने DNA अणु के रूप में पायी जाते हैं। इसमें प्रतिकृति बनाने का गुण पाया जाता है ये स्वतः बिना किसी अन्य नियंत्रण के प्रतिकृति बनाते हैं। इनमें उपस्थित जीन्स धारक कोशिका की वृद्धि हेतु आवश्यक नहीं होती । यह इस प्रकार जीवाण्विक गुणसूत्र से भिन्न होते हैं।

वृत्ताकार प्लाज्मिड या DNA को एक स्थल पर काट देने से यह रेखीय प्रकृति का बन जाता. है, इसके दोनों सिरों पर बाह्य डी एन ए (foreign DNA) को जोड़ा जा सकता है। यह प्रतिकृति बनाने के दौरान अपनी एवं बाह्य डी एन ए की प्रतिकृति भी बनाता है। इसे संकरित डी एन ए (hybrid DNA) या काइमेरिक (chimeric) अंश कहते हैं। यह अंश जीवाणु के डी एन ए के साथ भी जोड़ा जा सकता है। ग्रैम अवर्णी जीवाणुओं में ऐसे प्लाज्मिड पाये जाते हैं जो अनेक पोषकों में वृद्धि व पोषण कर सकते हैं। अतः जीन क्लोनिंग हेतु अन्यन्त उपयोगी होते हैं।

जीवाणुओं में प्राकृतिक रूप में पाये जाने वाले प्लाज्मिड्स को बाह्यकोशिकीय तकनीकों द्वारा रूपान्तरित किया जाना संभव है।

कोहन एवं साथियों (Cohen et al. 1973)- ने पहली बार क्लोनिंग हेतु प्लाज्मिड का वा के रूप में प्रयोग किया। यह प्लाज्मिड आदर्श प्रकार का माना जाता है जिसमें निम्नलिखित गुण जाते हैं-

(i) यह आसानी से जीवाविण्क कोशिका से पृथक किया जा सकता है।

(ii) इसमें एक ही प्रतिबन्धित स्थल (restriction site) उपस्थित हो जिस पर एक या अधिक प्रतिबन्धित एंजाइम क्रिया करते हों।

(iii) इनमें बाह्य DNA के रेखीय अणु के जुड़ जाने पर इसकी प्रतिकृतिकरण (replication) क्षमता पर विपरीत असर न होता हो ।

(iv) यह आसानी से जीवाणु कोशिकाओं में प्रेषित कराया जा सकता हों प्लाज्मिड रहित व प्लाज्मिड युक्त कोशिकाओं का चयन करना आसान हो ।

प्लाज्मिड्स में प्लाज्मिड अबुद्धकारी (tumour inducing) तथा रोमिल मूल अबुर्द्ध (hairy root tumours) प्रेरित करने वाले प्लाज्मिड्स काफी महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त इनके अनेक पोषक गुण जैसे प्रतिजैविक एवं भारी धातुओं के प्रति प्रतिरोधकता, नाइट्रोजन स्थिरीकरण, प्रदूषक, निम्नीकारक, जीवाणुनाशक एवं आविष उत्पन्न करने के गुण भी अत्यन्त महत्व के हैं। स्टेफिलोकोकस ऑरियस (Staphylococcus aureus) प्रभेद के प्लाज्मिड बड़े परास (broad host range) रखते हैं।

एग्रेबैक्टिरियस ट्यूमेफेसिएन्स (Agrobacterium tumefacients) नामक जीवाणु में T प्लाज्मिड् ́पाया जाता है, यह ग्रैम अवर्णी किस्म का शलाखा रूपी चल प्रकार का जीवाणु है तो मृदा में रहता है तथा नग्रबीजी ( gymnosperm) द्विबीजपत्री पौधों की जड़ों में धाव या कट (cut) के बनने से प्रवेश करता है। इसका प्लाज्मिड पादप कोशिका के DNA के साथ जुड़कर नवीन संयोग बना लेता है, इस कारण पोषण कोशिका की क्रियाएँ मुख्य दिशा में विमुख हो जाती है तथा एक गाँठ या अबुर्द्ध (crown gall or tumour) इस निवेशित स्थल पर अविभेदित (undifferentiated) रूप से बनती है। (Tj) प्लाज्मिड के डी एन ए को DNA स्थानान्तरित डी एन ए (transferred DNA) कहते हैं।

T, प्लाज्मिड का TDNA आदर्श वाहक तो है किन्तु इसके DNA में हेरफेर (manipulation) करना कठिन है। इसमें अनेक रेस्ट्रिक्शन स्थल ( restriction sites) तो है पर इनका उपयोग आसानी के साथ करना कठिन है। किन्तु T, प्लाज्मिड का TDNA यूकैरोयोट्स की प्रकृति का होता है जबकि यह जीवाणु प्लैज्मिड से प्राप्त होता है। यह पादप RNA पॉलिमरेज से अनुलेखित हो जाता है। इसमें इन्ट्रान्स (introns) होते हैं जो m- RNA के परिवर्तन होने पर अलग-अलग हो जाते हैं। अतः इन दो गुणों की उपस्थिति के कारण आदर्श वाहक कहते हैं।

ऐग्रोबैक्टिरियम की पोषक परास (range) काफी अधिक है। यह अनेक द्विबीज पत्री पौधों में आसानी से निवेशित किया जा सकता है। इसका TDNA काफी बड़ा होता है अतः इसे काट कर इसमें हेराफेरी करके उचित पोषक में निवेशित करा देते हैं। इस प्रकार अबुर्द्ध के स्थान पर इच्छित उत्तक या इनसे उत्पादित प्रोटीन, एंजाइम आदि प्राप्त किये जाते हैं। उपयोग में लेने से पूर्व प्लाज्मिड का पूरा मानचित्र (map) बनाकर अध्ययन किया जाता है कि इन पर कितने जीन कितनी – कितनी दूरी पर पर है। इसकी न्यूक्लिओटाइड श्रृंखला अनुक्रम किस प्रकार की है कौनसा स्थल प्रतिबन्धित एन्जाइम की क्रिया हेतु उपयोगी है आदि ।

  1. बाह्य या पैसेन्जर DNA (Foreign or Passenger DNA ) –

DNA के वे अणु जिन्हें एंजाइम्स का उपयोग कर दाता कोशिका के पृथक् किया जाता है व क्लोन (clone) किया जाता है इसे पैसेन्जर या बाह्य (passenger or foreign) DNA कहते हैं। इस प्रकार के DNA के रूप में निम्न प्रकार के DNA भी उपयोग में लाये जाते हैं जो इन्हीं के समान होते हैं-

  • पूरक DNA (complementary DNA) cDNA
  • संश्लेषित DNA (synthetic DNA) sÓNA
  • यादृच्छिक DNA (Random DNA ) rDNA

McDNA का संश्लेषण m-RNA टेम्पलेट का उपयोग का उत्क्रम ट्रान्सक्रिप्टेज (reverse transcryptase) एंजाइम की उपस्थिति में किया जाता है। चूँकि यह m- RNA की प्रतिलिपि होती है, इसे प्रतिलिपि DNA (copy DNA) cDNA भी कहते हैं। यह क्रिया क्षारीय माध्यम में DNA -RNA जटिल द्वारा करायी जाती है। DNA पॉलीमरेस एंजाइम की उपस्थिति में एकल DNA सूत्र पर cDNA सूत्र का निर्माण होता है। CDNA विशिष्ट जीन युक्त खण्ड होता है अतः इसे वाहक के से जोड़ने हेतु उपयोग में लाया जाता है। हरगोविन्द खुराना (H.G. Khurana) को CDNA का रासायनिक संश्लेषण करने में सफलता मिली। इन्होंने संश्लेषित cDNA प्राप्त किया जिसके सिरे चिपचिपे (sticky) थे एवं अन्तिम सिरों पर बाह्य DNA जोड़ा जा सकता था। इस प्रकार एक कोशिका में अनेक m-RNA बनते हैं। जिनसे DNA बनाये जा सकते हैं जिनको बैक्टिरिया के प्लाज्मिड DNA से जोड़कर पोषक जीव में प्रवेशित कराया जाता है।

DNA संश्लेषण की इस विधि से ही शॉट गन का उपयोग कर DNA के यादृच्छिक खण्डों (radom segments) का संश्लेषण किया जाता है। इसके लिये प्राणी के सम्पूर्ण DNA को प्रतिबन्धि त एन्डोन्यूक्लिऐज (restriction endoinuclease) से क्रिया कराते हैं। अत: DNA अनेक खण्डों में विभक्त हो जाता है DNA के प्रत्येक खण्ड को अलग-अलग वाहक के साथ जोड़कर DNA के अनेक पुनर्योजित DNA प्राप्त किये जाते हैं, जिन्हें पोषक में स्थानान्तरित कर इनके विशिष्ट जीन उत्पाद प्राप्त किये जाते हैं।

  1. cDNA कोष (c DNA Bank)

एक यूकैरियोटिक प्राणी की कोशिका में हजारों प्रकार के m-RNA पाये जाते हैं जो विभिन्न प्रोटीन, एन्जाइम या हार्मोन बनाते हैं अतः इनसे इतने ही प्रकार के DNA बनाये जा सकते हैं जिनका उपयोग औद्योगिक रूप से संभव है। विलियम्स (Williams 1981) ने इस आधार पर DNA क्लोन कोष बनाने का प्रस्ताव रखा। DNA क्लोन कोष (CDNA clone bank) से अभिप्राय है-

“ऐसे जीवाणु रूपान्तरणों की समष्टि (bacterial transformation population) जिनकी प्रत्येक इकाई में एक cDNA प्लाज्मिड के साथ जोड़ा गया है।” इस प्रकार प्रत्येक m- RNA के आधार पर बने C-cDNA तथा प्लाज्मिड DNA युक्त जीवाणु प्राप्त जाते हैं। इस प्रकार 5000 से 10,000 क्लोन युक्त बैंक या पुस्तकालय बनायी जा सकती है।

  1. जीन कोष (Gene Bank) –

किसी भी प्राणी के सम्पूर्ण DNA या जीनोम (genome) का वाहक के साथ संयोजित DNA के खण्डों का संकलन कर जीन बैंक या जीन पुस्तकाल (gene library) बनाना संभव हो गया है। इस प्रकार एक प्राणी के DNA की एक प्रतिलिपि ब्राहक के DNA के साथ संयोजित हमेशा उपलब्ध रहती है। इसी प्रकार प्रत्येक DNA के नाइट्रोजन क्षारक युग्मों का अनुक्रम ज्ञात होता है जो किसी भी परिवर्तन के होने पर विकार का कारण ज्ञात करने में सहायता मिलती है। चिकित्सा के क्षेत्र में इसके अनेक लाभ हैं। पादपों में नयी किस्मों की खोज का कार्य इससे अधिक आसान हो गया है।