जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना क्या है ? (Tidal Hypothesis of James Jeans in hindi)

Tidal Hypothesis of James Jeans in hindi जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना क्या है ?

जेम्स जीन्स की ज्वारीय परिकल्पना (Tidal Hypothesis of James Jeans)
जेम्स जीन्स महोदय ने पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी ‘ज्वारीय परिकल्पना‘ की विचारधारा 1919 में प्रतिपादित किया तथा इसका संशोधन 1929 में किया। इस परिकल्पना में इन्होंने बताया कि – सौर मण्डल का निर्माण सूर्य जो कि अपने स्थान पर स्थिर, तप्त गैसीय पिन्ड था तथा एक विशालकाय तारा जो कि गतिशील था, के संयोग से हुआ। विशालकाय तारा एक पथ के सहारे निरन्तर आगे बढ़ रहा था। ज्यों-ज्यों तारा सूर्य के निकट आने लगा, इसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव सूूर्य के बाह्य भाग पर पड़ने लगा। सूर्य तथा तारे के बीच दूरी कम होती गयी, जिससे आकर्षण शक्ति बढ़ती गयी। परिणामस्वरूप सूर्य से कुछ भाग उभरना प्रारम्भ कर दिया। जब सूर्य की आकर्षण शक्ति और अधिक हो गयी, तो सिगार के आकार का ज्वार सूर्य के बाह्य भाग में उठ गया, जिसे फिलामेण्ट (filament) की संज्ञा दी गयी। सूर्य के निकटतम दूरी पर पहुँचने पर अधिकतम आकर्षण शक्ति के कारण फिलामेण्ट सूर्य से अलग हो गया, जो कि हजारों किलोमीटर लम्बाई की आकृति का था। तारा सूर्य के मार्ग पर नहीं था, जिससे गति करता दूर निकल गया। दूर जाने के कारण फिलामेन्ट तारे के साथ जा नहीं सका, बल्कि सूर्य के चारों तरफ चकर लगाने लगा। ऐसा इसलिये हुआ कि- तारे की आकर्षण शक्ति के कारण फिलामेन्ट सूर्य की आकर्षक शक्ति से बाहर आ गया।
फिलामेन्ट का मध्यवर्ती भाग मोटा तथा किनारे का भाग पतला था। ऐसा इसलिये हुआ कि एक तरफ तो सूर्य की आकर्षक शक्ति तथा दूसरी तरफ तारे की आकर्षक शक्ति थी। धीरे-धीरे फिलामेण्ट ठण्डा होने लगा, जिस कारण इसके आयतन में संकुचन होने लगा। निरन्तर फिलामेण्ट ठंडा हो रहा था. आयतन कम हो रहा था। एक स्थिति ऐसी आयी कि यह कई टुकड़ों में टूट गया, घनीभूत होकर ग्रहों का निर्माण हुआ। यही क्रिया ग्रहों पर हुई जिस कारण उपग्रहों का निर्माण हुआ।

(1) सूर्य, (2) बुध, (3) शुक्र, (4) पृथ्वी, (5) मंगल, (6) क्षुद्र ग्रह,
(7) बृहस्पति, (8) शनि, (9) यूरेनस, (10) नेपचून।

आलोचना – प्रारम्भ में इस संकल्पना की काफी सराहना हुयी, क्योंकि ऐसा विश्वास किया जाता था कि यह परिकल्पना सौरमण्डल की उत्पति, स्थिति तथा आकार आदि समस्याओं को हल करने में समर्थ, परन्तु आधुनिक वैज्ञानिक तर्क के आगे टिक नहीं सकी। वास्तव में, देखा जाय तो जेम्स जीन्स महोदय ने कुछ समस्याओं का समाधन नहीं कर पाये हैं। उदाहरण के लिये जो विशालकाय तारा था वह कहाँ चला गया? इसका समुचित उत्तर जेम्स जीन्स नहीं दे पायें। वर्तमान समय में तारों के बीच दूरी की गणना की जा चुकी है। इसी आधार पर नेविन ने बताया कि ब्रहाण्ड में तारे एक दूसरे से इतनी दूरी पर स्थिर है कि इसमें पारस्परिक संघर्ष हो ही नहीं सकता। साथ-ही-साथ सूर्य और ग्रहों के बीच दूरी की समस्या का समाधान इस परिकल्पना के द्वारा नहीं होता।
रसेन की द्वैतारक परिकल्पना (Binary Star Hypothesis Russetl)
रसेल महोदय ने जेम्मजीग की परिकल्पना को परिमार्जित किया। रसेल वास्तव में चाहते थे कि जेम्सजीन्स के परिकल्पना में जो ग्रहों के वर्तमान कोणिक आवेग तथा सूर्य और ग्रहों के बीच की दूरी की समस्या है, इसका समाधान हो जाय, इसलिये इन्होंने द्वैतारक परिकल्पना का प्रतिपादन किया। उन्होने बताया कि – सौर मण्डल की उत्पत्ति सूर्य तथा दो अन्य तारों की सहायता से हुई है। एक तारा सूर्य का साथी तारा था, जो कि सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगा रहा था, दूसरा विशालकाय तारा एक पथ के सहारे आगे बढ़ रहा था। धीरे-धीरे विशालकाय तारा साथी तारे के समीप आया, किन्तु इसकी परिक्रमा की दिशा साथी तारे के विपरीत थी। इस विशालकाय तारे से सूर्य काफी दूरी पर था, जिस कारण सूर्य पर इसकी आकर्षण शक्ति का प्रभाव नहीं पड़ सका, परन्तु यह तारा ज्यों-ज्यों साथी तारा के निकट आ रहा था, आकर्षण शक्ति के कारण साथी तारे में उभार होना प्रारम्भ हो गया। विशालकाय तारे की निकटता बढ़ती गयी, आकर्षण शक्ति बढ़ती गयी, जिससे उभार बढ़ता गया। निकटतम दूरी तथा अधिकतम आकर्षण शक्ति के कारण कुछ पदार्थ साथी तारे से अलग होकर विशालकाय तारे की दिशा में घूमने लगे। इसी पदार्थ से ग्रहों तथा उपग्रहों का निर्माण हुआ।
आलोचना- इस तरह रसेल महोदय दो तारों की परिकल्पना करके सूर्य तथा ग्रहों के बीच की दूरी तथा उसके समीप आवेग की समस्या का वैज्ञानिक स्तर पर तो समाधान प्रस्तुत कर दिया, परन्तु कई अन्य समस्यायें खड़ी हो गयी। उदाहरण के लिये रसेल ने बताया कि साथी तारे से पदार्थ निःसृत हुआ, परन्तु साथी तारा का बचा हुआ भाग क्या हुआ? जब पदार्थ से ग्रहों तथा उपग्रहों का निर्माण हुआ? जब पदार्थ से ग्रहों तथा उपग्रहों का निर्माण हुआ तो साथी तारा का अस्तित्व बाद में कहाँ है? इस ससम्या का समाधान नहीं हो पाया है। एक और जटिल समस्या है कि जब ग्रहों तथा उपग्रहों का निर्माण हो रहा था तो ये सूर्य से काफी दूर थे, परन्तु जब विशालकाय तारा दूर चला गया तो सूर्य की आकर्षण परिधि से प्रभावित हो हुए। साथ-ही-साथ वह कौन सी प्रक्रिया थी जिसके परिणामस्वरूप ग्रह तथा उपग्रह सर्य की आकर्षण परिधि में आ गये। इसका निराकरण नहीं कर पाया है।
होयल तथा लिटिलटन का सिद्धान्त (Theory of Hoyle and Lyttleton)
होयल तथा लिटिलटन ने सौर मण्डल की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन अपने निबन्ध ष्छंजनतम व िजीम न्दपअमतेमश् में सन् 1935 में किया था। लिटिलटन के अनुसार – ब्रह्माण्ड में दो तारे नहीं वरन तीन तारे थे, सूर्य, उसका साथी तारा तथा पास आता हुआ तारा। साथी तारा सूर्य से काफी दूर था। साथी तारे का विघटन हुआ, जिससे ग्रहों तथा उपग्रहों का निर्माण हुआ। होयल के अनुसार – तारे हाइड्रोजन गैस के बने थे जो कि ब्रह्माण्ड में छितराई हाइड्रोजन गैस का तीव्रता से उपभोग कर रहे थे, जिससे आकार में वृद्वि के साथ-साथ तापमान बढ़ता गया। एक स्थिति ऐसी आयी कि हाइड्रोजन का भण्डार समाप्त हो गया। फलस्वरूप साथी तारे में केन्द्रीय प्रतिक्रिया प्रारम्भ हो गयी, जिस कारण साथी तारा ध्वस्त होकर भयंकर रूप में विस्फोटिक हो गया। जब साथी तारे का भंयकर विस्फाट हुआ तो परावर्तन ने साथी तारे के गर्मभाग को सूर्य की गुरुत्वाकर्षण के बाहर फेंक दिया तथा शेष गैस के भाग से गोलाकार गैस तस्तरी का निर्माण हुआ, जो कि सूर्य का चक्कर लगाने लगीं। धीरे-धीरे घनीभूत हुयी, जिससे ग्रहों का निर्माण हुआ। भयंकर विस्फोट के कारण अत्यधिक ताप की उत्पत्ति हुई जिससे ग्रहों के पदार्थों में भारीपन आ गया।
ओटोश्मिड की अन्तर तारक धूलि-परिकल्पना (Inter Steler Dust Hypothesis of Otto Schimidt)
ग्रहों तथा सूर्य के बीच में कोणीय आवेग में अन्तर, ग्रहों की संरचना में अन्तर, इनकी गति तथा दूरी में अन्तर, ग्रहों के पथों में अन्तर तथा अनेक अन्य सौर मंण्डल सम्बन्धी समस्याओं को ध्यान में रखकर रूसी वैज्ञानिक ओटो स्मिड ने पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी परिकल्पना का प्रतिपादन सन् 1943 ई० में किया था। इनके अनुसार – पुराकाल में तारों से निःसृत धूल कणों एवं गैसों की विस्तृत राशि ब्रह्माण्ड में फैली हुई थी। सूर्य एक पथ के सहारे अग्रसर था। जब वह इनके निकट से गुजरा तो अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा इन पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित किया तथा ये पदार्थ सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाने लगे।
धूल-कण तथा गैसें सूर्य के चारों ओर निरन्तर चक्कर काट रहे थे। धूलकण सर्वप्रथम संगठित एवं घनीभूत होकर तस्तरी का रूप धारण कर सूर्य का चक्कर लगाने लगा। आपसी टकराव के कारण धीरे-धीरे इनकी गति मन्द पड़ने लगी। गैस-कण में यह क्रिया नहीं हुई। धूलि कणों की गति जब मन्द पड़ गयी तो ये ग्रहों के भ्रूण के रूप में परिवर्तित हो गये। ये समय के परिप्रेक्ष्य में अनेक धूल-कणों को आत्मसात करते गये। इनका आकार विस्तृत होता गया, जिसे श्मिड महोदय ने ‘स्टीरॉयड‘ की संज्ञा प्रदान की। स्टीरॉयड का आकार निरन्तर विस्तृत हो गया तथा अन्त में ग्रहों का रूप धारण कर लिया। जो छोटे-छोटे भ्रूण थे तथा जिनका विकास बाद में हुआ, वे इन ग्रहों का चक्कर लगाने लगे, जिसे उपग्रह की संज्ञा दी गयी।
श्मिड महोदय ग्रहों तथा उपग्रहों का निर्माण सूर्य से न मानकर धूल कणों एवं गैसों जैसे अन्य पदार्थ से होता है, बताकर सूर्य तथा ग्रहों के बीच के कोणीय आवेग में अन्तर को समाप्त कर दिया। साथ-ही-साथ इन्होंने गणितीय विश्लेषण के आधार पर इस समस्या को हल करने का प्रयास किया। वर्तमान में विभिन्न ग्रहों में तापमान सम्बन्धी अन्तर द्रष्टव्य है। इसके लिये श्मिड महोदय ने बताया कि – जो भू्रण सूर्य के निकट था, उसका तापमान कम था। यही कारण है कि ग्रहों एवं उपग्रहों के तापमान में अन्तर परिलक्षित होता है। इनके अनुसार ग्रहों तथा उपग्रहों का निर्माण धूल कणों तथा गैसों के द्वारा हुआ है। ये विभिन्न परिमाण वाले थे, परिणामतः भिन्न-भिन्न दूरी पर संगठित जिस कारण वर्तमान में ग्रहों तथा उपग्रहों के बीच दूरी में अन्तर है।
श्मिड महोदय गैसों एवं धूल कणों को तारों से निःसृत मानकर अपनी परिकल्पना का आधार वैज्ञानिक रखा, परन्तु इन्होंने यह स्पष्ट करने का प्रयास नहीं किया कि ये पदार्थ किन प्रक्रियाओं के फलस्वरूप निःसृत हुऐ या ये पदार्थ उसी तारे के साथ क्यों नहीं घूमने लगे या सूर्य इनको कैसे आकर्षित कर लिया आदि अनेक प्रश्न हैं, जो इस परिकल्पना द्वारा हल नहीं होते हैं।
इन सिद्धान्तों एवं परिकल्पनाओं के अलावा विद्वानों ने समय-समय पर प्रयास किये हैं, जिनमें फॉन वाइसकर की परिकल्पना, अल्पवेन की-अन्तर तारक मेघ परिकल्पना, रासजन की – परिभ्रमण एवं ज्वारीय परिकल्पना, बनर्जी की-सीफीड परिकल्पना आदि प्रमुख हैं। ब्रह्माण्ड की अनेक समस्यायें उलझी हुई हैं, जिनका समुचित समाधान कोई भी परिकल्पना प्रस्तुत नहीं कर सकी है।