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सुषिर वाद्य यंत्र के नाम क्या है ? sushir vadya instruments in hindi names list सुषिर वाद्य यंत्र कौन-कौन से हैं
sushir vadya instruments in hindi names list सुषिर वाद्य यंत्र के नाम क्या है ? सुषिर वाद्य यंत्र कौन-कौन से हैं
स्वरों के स्थान
प्रस्तुत रेखाचित्र-स्वरों के स्थान तथा 36 इंच की तार पर सा रे म ग प ध नि सा स्वरों को दिखाता है। चित्र में प्रत्येक स्वर की आंदोलन संख्या भी दिखाई गई है।
सुषिर वाद्य
सुषिर वाद्यों में एक खोखली नलिका में हवा भर कर (अर्थात फूंक मार कर) ध्वनि उत्पन्न की जाती है। हवा के मार्ग को नियंत्रित करके स्वर की ऊंचाई सुनिश्चित की जाती है और वाद्य में बने छेदों को उंगलियों की सहायता से खोलकर और बाद करके क्रमशः राग को बजाया जाता है। इस सभी वाद्यों में सबसे सर (साधारण) वाद्य है-बांसुरी। आम तौर पर बांसुरियां बांस अथवा लकड़ी से बनी होती हैं और भारतीय संगीतकार संगीतात्मक तथा स्वर-सम्बंधी विशेषताओं के कारण लकड़ी तथा बांस की बांसुरी को पसंद करते हैं। हालांकि यहां लाल चंदन की लकड़ी, काली लकड़ी, बेंत, हाथी दांत, पीतल, कांसे, चांदी और सोने की बनी बांसुरियों के भी उल्लेख प्राप्त होते हैं।
बांस से बनी बांसुरियों का व्यास साधारणतः करीब 1.9 से.मी. होता है पर चैड़े व्यास वाली बांसुरियां भी आमतौर पर उपयोग में लाई जाती हैं। 13वीं शताब्दी में शारंगदेव द्वारा लिखित संगीत सम्बंधी ग्रंथ श्संगीत रत्नाकरश् में हमें 18 प्रकार की बांसुरियों का उल्लेख मिलता है। बांसुरी के यह विविध प्रकार फूंक मारने वाले छेद और पहली उंगली रखने वाले छेद के बची की दूरी पर आधारित हैं।
सिन्धु सभ्यता की खुदाई में मुत्तिका शिल्प (मिट्टी) की बनी पक्षी के आकार की सीटियां और मुहरें प्राप्त हुई हैं, जो हवा और ताल वाद्यों को प्रदर्शित करती हैं। बांस, लकड़ी तथा पशु की खाल आदि से बनाए गए संगीत वाद्य कितने भी समय तक रखे रहें, वे नष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि लकड़ी या बांस की बनी बांसुरियां समय के आघात को नहीं सह पाई। इसी कारणवश हमें पिछली सभ्यताओं की किसी खुदाई में ये वाद्य प्राप्त नहीं होते।
यहां वेदों में श्वेनूश् नामक वाद्य का उल्लेख प्राप्त होता है, जिसे राजाओं का गुणगान तथा मंत्रोच्चारण में संगत करने के लिए बजाया जाता था। वेदों में श्नांदीश् नामक बांसुरी के एक प्रकार का भी उल्लेख प्राप्त होता है। बांसुरी के विविध नाम हैं, जैसे उत्तर भारत में वेणु, वामसी, बांसुरी, मुरली आदि और दक्षिण भारत में पिल्लनकरोवी और कोलालू।
ध्वनि की उत्पत्ति के आधार पर मोटे तौर पर सुषिर अथवा वायु वाद्यों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है- बांसुरियां और कम्पिका युक्त वाद्य बांसुरी
इकहरी बांसुरी अथवा दोहरी बांसुरियां केवल एक खोखली नलिका के साथ, स्वर की ऊँचाई को नियंत्रित करने के लिए अंगुली रखने के छिद्रों सहित होती हैं। ऐसी बांसुरियां देश के बहुत से भागों में प्रचलित हैं। लम्बी, सपाट, बड़े व्यास वाली बांसुरियों को निचले (मंद्र) सप्तक के आलाप जैसे धीमी गति के स्वर-समूहों को बजाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। छोटी और कम लम्बाई वाली बांसुरियों को, जिन्हें कभी-कभी लम्बवत् (उध्वाधर). पकड़ा जाता है, द्रुत गति स्वर-समूह अर्थात् तान तथा ध्वनि के ऊंचे स्वरमान को बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता है। दोहरी बांसुरियां अक्सर आदिवासी तथा ग्रामीण क्षेत्र के संगीतकारों द्वारा बजाई जाती हैं और ये मंच-प्रदर्शन में बहुत कम दिखाई देती हैं। ये बांसुरियां चोंचदार बांसुरियों से मिलती-जलती होती हैं. जिनके एक सिरे पर संकरा छिद्र होता है। हमें इस प्रकार के वाद्यों . का उल्लेख प्रथम शताब्दी के सांची के स्तूप के शिल्प में प्राप्त होता है, जिसमें एक संगीतकार को दोहरी बांसुरी बजाते हुए दिखाया गया है।
भारतीय कला में श्बाँसुरी वादक कृष्णश् विषय अत्यन्त लोकप्रिय है।
बासुरी और श्रीकृष्ण एक-दूसरे के पर्याय रहे हैं। कष्ण की मरली के स्वर से सभी पश-पक्षी. ग्वाले. ब्रज की गोपियाँ खिंची चली आती थीं। बाँसरी लोकप्रिय सषिर वाद्य यंत्र माना जाता है जो प्राकतिक बांस से बनाई जाती है। महाभारत एवं पुराणों में भगवान कृष्ण की बाँसुरी संबंधित कथाएं एवं रासलीलाओं का वर्णन मिलता है जिसमें कृष्ण की विभिन्न भींगमाओं का उल्लेख मिलता है।
हड़प्पा, मोहनजोरड़ो से प्राप्त मुहरों पर कृष्ण की लीलाओं का अंकन हुआ है। पतंजलि के श्महाभाष्यश् एवं श्मेगस्थनीजश् को श्इण्डिकाश् से कृष्ण (हेराक्लीज) की पूजा की लोकप्रियता का वर्णन मिलता है। मथुरा एवं द्वारिका से कृष्ण का संबंध होने के कारण यहां उनके सम्मान में बांसुरी बजाती हुई मुद्राओं की प्रतिमाएं मिली हैं।
नौवी-दसवीं सदी में भक्ति आंदोलन के बढ़ते प्रभाव तथा दक्षिण में आलवार संतों के प्रचार-प्रसार के कारण कृष्ण भक्ति का खूब प्रचार हुआ। श्आण्डालश् अलवार एवं मीराबाई की विरह वेदना में कृष्ण की बांसुरी को विशेष रूप से उल्लिखित किया गया है। विरह वेदना से लेकर मनोरंजन, आनंद एवं उदासी के क्षणों को दूर करता, कृष्ण की बांसुरी खेतिहर, पशुपालक वर्ग से लेकर राजा-महाराजाओं की संगीत सभाओं का अभिन्न अंग बन गया। परिणामस्वरूप मंदिरों में भगवान कृष्ण की बांसुरी बजाती त्रिभंगी मूर्तियों का निर्माण हुआ जिनको हम ओडिशा में जगन्नाथपुरी, महाराष्ट्र में बिठोबा और राजस्थान में श्रीनाथजी, दक्षिण में हम्मी के मंदिरों, मरिअम्मा के मंदिरों, पट्टकल मंदिरों के समूह में देख सकते हैं। साथ ही मणिपुरी और ओडिशी नृत्यों, पहाड़ी चित्रकला, राजस्थानी मंदिरों एवं महलों में भी बांसुरी वादक कृष्ण की लोकप्रियता दिखती है।
कम्पिका वाद्य
कम्पिका या सरकंडा युक्त वाद्य जैसे शहनाई, नादस्वरम् आदि वाद्यों में वाद्य की खोखली नलिका के भीतर एक अथवा दो कम्पिका को डाला जाता है, जो हवा के भर जाने पर कम्पित होती हैं। इस प्रकार के वाद्यों में कम्पिकाओं को नलिका के भीतर डालने से पहले एक साथ, एक अंतराल में बांधा जाता है। नलिका शंकु के आकार की होती है। यह हवा भरने वाले सिरे की तरफ से संकरी होती है और धीरे-धीरे दसरे सिरे पर खली होती जाती है तथा ए घंटी का आकार ले लेती है, ताकि ध्वनि की प्रबलता को बढ़ाया जा सके। वाद्य के मुख से एक अतिरिक्त कम्पिकाओं का समूह और कम्पिकाओं को साफ करने तथा व्यवस्थित रखने के लिए हाथीदांत अथवा चांदी की एक सुई लटकाई जाती है।
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