(structure of seed in hindi) द्विबीजपत्री बीज की संरचना को समझाइये dicot seeds ? चित्र
बीज की संरचना (structure of seed) : बीजों की संरचना और आकार में अत्यधिक विविधता पायी जाती है .आर्किडेसी कुल के पौधों के बीज आकार में सबसे छोटे होते है जहाँ बीज का भार मात्र लगभग 20 माइक्रो ग्राम ही होता है। इसके विपरीत लोडोइसिया माल्डीविया के बीज सबसे बड़े होते है और प्रत्येक बीज का भार लगभग 6 किलोग्राम तक होता है। बीजों की आकृति गोल , अण्डाकार , प्रतिअंडाकार या पतली चपटी हो सकती है। इसके अतिरिक्त बीज की सतह चिकनी , झुर्रीदार , उभारों और खांचों युक्त या रोमयुक्त आदि हो सकती है। बीजों के रंग में भी विविधता पायी जाती है जो पीले , भूरे , लाल , काले या चितिदार हो सकते है।
द्विबीजपत्री बीज की संरचना (structure of dicot seed)
एक प्रारूपिक द्विबीजपत्री बीज की आकारिकीय संरचना में निम्नलिखित भाग पाए जाते है –
(1) बीज चोल अथवा बीजावरण (seed coat) : यह बीज का सुरक्षात्मक आवरण होता है जो दो परतों का बना होता है –
(a) बाह्य आवरण जो प्राय: कठोर होता है , इसे टेस्टा कहते है।
(b) आंतरिक झिल्ली जो पतली और कागज के समान होती है , इसे टेग्मेन कहते है।
बीज चोल के ऊपरी सिरे पर एक छिद्र उपस्थित होता है जिसे बीजाण्ड द्वार (micropyle) कहते है , इसके द्वारा बीज में जल प्रविष्ट होता है। बीज का वृन्त जिसकी सहायता से यह बीज फलभित्ति से जुड़ा होता है फ्यूनीक्यूलस (funiculus) कहलाता है।
जिस स्थान पर बीज आगे चलकर वृन्त से पृथक होता है , उस स्थान पर इसका निशान बीज की सतह पर रह जाता है , इसे नाभिक (hilum) कहते है। नाभिक के द्वारा जल सरलता से बीज के भीतर प्रवेश करता है। माइक्रोपाइल के सम्मुख , हाइलम से आगे एक उभार राफे (raphe) पाया जाता है जो फ्यूनीक्यूलस के आधारीय भाग को निरुपित करता है और अध्यावरणों से संयोजित रहता है।
इस प्रकार सामान्यतया बीजाण्ड के अध्यावरण से बीजचोल अथवा बीजावरण विकसित होता है। द्विअध्यावरण बीजाण्डो में प्राय: दोनों अथवा कभी एक ही अध्यावरण बीज चोल का निर्माण करता है। जब दोनों ही अध्यावरण बीज चोल बनते है तब बाहरी अध्यावरण टेस्टा के रूप में और आन्तरितक अध्यावरण टेग्मेन के रूप में विकसित होता है।
(2) भ्रूण (embryo)
भ्रूण का विकास भ्रूण कोष में अंड समुच्चय के निषेचन से होता है। तरुण पौधे में भ्रूण , बीज चोल में आवरित रहता है। भ्रूण स्पष्टतया दो भागों में विभेदित रहता है –
(i) बीजपत्र (cotyledons) : ये भ्रूण की पर्ण होती है और इनकी संख्या द्विबीजपत्री पौधों में प्राय: 2 और एकबीजपत्री पौधों में सदैव एक होती है। कभी कभी ये भोज्य पदार्थो का संचय करके मांसल हो जाती है परन्तु यदि इनमें भोज्य पदार्थ संचित नहीं होते है तो ये पतली झिल्ली के समान ही रहती है। ये बीजपत्र एक निश्चित अक्ष अथवा टाइजेलम अथवा बीजपत्री पर्वसन्धि पर कब्जे अथवा चूल के समान जुड़े रहते है और एक पुस्तक के दो पृष्ठों की तरह आमने सामने खुल जाते है।
(ii) टाइजेलम (tigellum) : यह भ्रूण का मुख्य अक्ष होता है जो ऊपरी सिरे पर नुकीला और बीजपत्रों के बाहर निकला हुआ होता है , जहाँ माइक्रोपाइल से आगे मुलांकुर अथवा अवशिष्ट मूल होता है जो कि आगे चलकर जड़ का विकास करता है। टाइजेलम के दुसरे सिरे पर पक्षवत प्रांकुर होता है जो कि प्ररोह की प्रथम अग्रस्थ कलिका कही जा सकती है , और आगे चलकर प्ररोह का निर्माण करती है। बीजपत्रों के जुड़ाव स्थान के ऊपर अवस्थित अक्ष का भाग बीजपत्रोपरिक कहलाता है जो प्रांकुर और अक्ष के मध्य में होता है जबकि नीचे वाला हिस्सा बीजपत्राधार होता है।
(3) भ्रूण पोष (endosperm)
सामान्यतया भ्रूणकोष में अवस्थित द्विकेन्द्रकी केन्द्रीय कोशिका भी निषेचन के बाद भ्रूणपोष का निर्माण करती है। प्राय: यह पोषक प्रकृति का ऊतक है , जिसका प्रमुख कार्य विकासशील भ्रूण को पोषण प्रदान करने का होता है। किसी बीज के भ्रूण के द्वारा पोषण हेतु उपयोग किये गए पदार्थो की मात्रा के अनुसार भ्रूणपोष की आकृति और साइज कम अथवा अधिक हो सकती है। बीजों में भ्रूणपोष के परिमाण के आधार पर दो प्रकार के बीज विभेदित किये गए है –
(i) भ्रूणपोषी बीज (endospermic seed or albuminous seeds) : इस प्रकार के बीजों में संचित भोज्य पदार्थ भ्रूणपोष में उपस्थित रहता है। यहाँ बीजपत्रों में भोज्य पदार्थ नही रहता अत: बीज पत्र पतले होते है , और केवल पोष्य पदार्थ शोषक अंगों अथवा चूषक अंगों का ही कार्य करते है। उदाहरण – अधिकांश एक बीजपत्री पौधे जैसे – धान , गेहूं और मक्का और द्विबीजपत्री पौधों में अरण्डी और पपीता आदि।
(ii) अभ्रूणपोषी बीज (non endospermic seed or exalbuminous seed) : इस प्रकार के बीजों में भ्रूण के परिवर्धन के दौरान ही भ्रूणपोष को पूरी तरह से अवशोषित या प्रयुक्त कर लिया जाता है। इस प्रकार परिपक्व बीज में भ्रूणपोष केवल एक पतली परत के द्वारा ही निरुपित होता है और कुछ पौधों में यह पतली परत भी अनुपस्थित होती है , उदाहरण – मटर , सेम और चना आदि। इन पौधों के परिपक्व बीज में संचित खाद्य पदार्थ बीज पत्रों में संग्रहित रहते है।
(4) परिभ्रूणपोष (perisperm)
बीजाण्ड संरचना की प्रारम्भिक अवस्थाओं में बीजाण्डकाय पाया जाता है , जो गुरूबीजाणु और भ्रूणकोष को पोषण प्रदान कर इनकी वृद्धि में सहायक होता है। इस प्रकार पोषण प्रदान करने की प्रक्रिया में अंततः बीजाण्डकाय नष्ट हो जाता है। परन्तु कभी कभी इसकी कुछ परतें बाकी बच जाती है जो भ्रूणपोष के बाहर एक पतले आवरण (परत) अथवा झिल्ली के रूप में दिखाई देती है। इसे परिभ्रूणपोष कहते है। यह संरचना द्विबीजपत्रियों के केवल कुछ उदाहरणों जैसे काली मिर्च में ही दिखाई देती है।
सामान्य रचनाओं के अतिरिक्त कुछ अन्य संरचनाएँ भी बीज में दिखाई देती है , जो केवल कुछ ही पौधों में विद्यमान होती है।
(5) केरन्कल (caruncle)
यह युफोर्बियेसी के सदस्य पादपों में बीज के बीजाण्डद्वार वाले छोर पर सफ़ेद रंग की एक मांसल संरचना पायी जाती है जो बाह्य अध्यावरण के ऊपरी सिरे पर उपस्थित कुछ कोशिकाओं के प्रचुरदभवन के परिणामस्वरूप विकसित होती है। इसे केरन्कल कहते है और सामान्यतया यह बीजाण्डवृंत के पाशर्व में अथवा पूरे बीजाण्डद्वार पर पाया जाता है।
(6) ओपरकुलम (operculum)
यह एक प्लग अथवा डाट के समान संरचना होती है जो बीज के बीजांडद्वार वाले छोर पर पायी जाती है। यह संरचना अधिकांश एक बीजपत्री पौधों में पायी जाती है। बीजों के अंकुरण के समय ओपरकुलम हट जाता है। इसका निर्माण बीजाण्डकाय के शीर्ष से या एक्सोस्टोम अथवा एन्डोस्टोम अथवा बीज के नाभिक वाले क्षेत्र में होता है।
(7) एरिल (aril)
यह विशिष्ट संरचना भी केवल कुछ द्विबीजपत्री पौधों में ही पायी जाती है। सामान्यतया यह बीज में उपस्थित रंगीन और माँसल उपांग संरचना होती है। यह उपांग टेस्टा (बाह्य बीज चोल) और बीजाण्डवृंत के मध्य से निषेचन के पश्चात् अभिवृद्धि के रूप में विकसित होती है , उदाहरण – लीची और मायरिस्टिका फ्रेगेरेन्स।
बीजावरण के अन्दर उपस्थित बीज की सभी संरचनाएँ संयुक्त रूप से मिलकर बीज संहति अथवा करनेल कहलाती है।
उपयुक्त अवधि के लिए जल में भिगों देने से बीज जल को अवशोषित करके फूल जाते है , ऐसे फूले हुए बीजों में इनके विभिन्न भागों का आसानी से अध्ययन किया जा सकता है। इस प्रकार से सुगम अध्ययन हेतु , बीजों को जल में एक अथवा दो दिन के लिए रखा जाता है। इस प्रकार से फूले हुए बीज नरम भी हो जाते है।