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streptococcus in hindi , स्ट्रैप्टॉकोक्कस जीवाणु , स्ट्रेप्टोकोकस बैक्टीरिया कहाँ से आता है , वर्गीकरण , रोग , उपचार
जानिये streptococcus in hindi , स्ट्रैप्टॉकोक्कस जीवाणु , स्ट्रेप्टोकोकस बैक्टीरिया कहाँ से आता है , वर्गीकरण , रोग , उपचार ?
स्ट्रेप्टोकोकॅस (Streptococcus)
स्ट्रेप्टोकोकस गोलाकार आकृतियों वाले जीवाणु हैं जो श्रृंखला के रूप में उपस्थित रहते हैं। ये ग्रैम सवर्गी प्रकार के जीवाणु हैं जो मवाद रहित अथवा मवाद युक्त घावों, गठिया ज्वर आदि मनुष्य तथा अन्य जन्तुओं में उत्पन्न करते हैं। बिलोर्थ (Billorth ; 1874 ) के द्वारा इनकी खोज एवं नामकरण किया गया। (स्ट्रेप्टोज अर्थात् कुण्डल या मरोड़ युक्त, कॉकस अर्थात् अति सूक्ष्म फल समान रचना वाले जीवाणु) इन जीवाणुओं को ऑस्टन (Augston ; 1881 ) ने फोड़ों से तथा रोजनबेक (Rosenbach ; 1884) द्वारा मवाद युक्त घावों से प्राप्त करने का कार्य किया। इनमें निम्न लक्षण पाये जाते हैं-
(i) इनकी कोशिकाएँ जोड़े हुए या श्रृंखला बनाते हुए पायी जाती हैं।
(ii) ये केटेलेज ऋणात्मक होते हैं।
(iii) इनमें किण्वन होता है एवं उत्पादन लेक्टिक अम्ल बनाता है।
वर्गीकरण (Classification)
स्ट्रेप्टोकोकॉई को पोषण के आधार पर अविकल्पी अवायुवीय (obligate anaerobes) तथा विकल्पी वायुवीय (faculatative anaerobes) समूहों में विभाजित किया गया है। इन्हें रक्तलयनकारी (haemolysis) गुणों के आधार पर ब्राउन (Brown ; 1919) ने तीन संवर्गों में विभक्त किया है- 1. एल्फा (a)- वे रक्तलयनकारी स्ट्रेप्टोकोकॉई जो निवह के चारों ओर एक पर्त के रूप में आंशिक रक्तलयनकारी क्रिया करते हैं तथा हरा रंग उत्पन्न करते हैं। लयनकारी क्षेत्र 1-2 mm चौड़ा होता है जिसके भीतर अलयनित लाल रक्त कणिकाएँ उपस्थित रहती हैं; यहः क्षेत्र अनियमित आकार का पाया जाता है।
- बीटा (B) रक्तलयनकारी स्ट्रेप्टोकोकॉई जो लयनीकृत क्षेत्र 2-4 mm चौड़ा बनाते हैं ; यह स्पष्ट आकार युक्त होता है तथा यह क्षेत्र रंगहीन होता है। इन जीवाणुओं द्वारा लाल रक्त कणिकाओं का पूर्ण लयन किया जाता है।
- गामा (y)- अलयनकारी स्ट्रप्टोकोकॉई जो रक्त युक्त माध्यम में किसी भी प्रकार का परिवर्तन लाने में असक्षम होते हैं।
ब्राउन (Brown) ने माँस के सूप में पेप्टोन एगार मिलाकर माध्यम तैयार किया जिसमें 5% घोड़े का रक्त मिलाने के उपरान्त इन जीवाणुओं द्वारा लाल रक्त कणिकाओं पर होने वाली लयनकारी क्रियाओं का सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन कर a, B वy प्रकार के स्ट्रेप्टोकोकॉई का वर्गीकरण किया।
अधिकतर रोगजनक स्ट्रेप्टोकोकाई B समूह के हैं जिन्हें रक्तलयनकारी स्ट्रेप्टोकोकॉई कहते हैं। a. प्रकार के स्ट्रेप्टोकोकाई जन्तुओं के गले में सहभोजी (commensal) के रूप में रहते हैं यह कभी-कभी संक्रमणकारी भी हो जाते हैं। लक्षणों के आधार पर ये चार प्रकार के हो सकते हैं- 1. पायोजेनिक – स्ट्रे. पायोजन्स, स्ट्रे. निमोनिई एवं स्ट्रे. स्कार्लिटिनी ये विभिन्न प्रकार के जैव- विष स्त्रावित करते हैं। इनमें हानिकारक हीमोलाइसिन या स्ट्रेप्टोलाइसिन किण्वक प्रमुख हैं अतः ये हीमोलाइटिक स्ट्रेप्टोकोकॉई भी कहलाते हैं।
- विरिडेन्स – स्ट्रे. विरिडेन्स (St. viridens) – ये अवसरवादी रोगजनक होते हैं; जो त्वचा पर सामान्यतः पाये जाते हैं। इनके द्वारा हरा रंग उत्पन्न किया जाता है।
- एन्टेरोकोकॉई-स्ट्रे. ऐन्टेरोकोकॉई एवं स्ट्रें. फीकेलिस (St- faecalis) -आहारनाल के आन्त्रीय भाग में पाये जाते हैं।
- लेक्टिक – समूह के जीवाणु अरोगजनक व लाभकारी होते हैं स्ट्रे. लेक्टिस, थर्मोफिलिस एवं स्ट्रे. क्रिमोरिस दुग्ध से दही व छाछ बनाने में काम आते हैं।
मुक्त कोकॉई गोलाकार व अण्डाकार आकृति के होते हैं। इनका व्यास 0.5-1.0 होता है। ये कोकॉई श्रृंखला (chain) बनाते हुये उपस्थित रहते हैं । श्रृंखला बनाने की क्रिया कोकॉई द्वारा एक तल पर विभाजन करने की प्रकृति के कारण होती है जो पुत्री कोशिकाओं के लगातार संलग्न होते रहने के कारण बढ़ती जाती है। श्रृंखलाओं में युग्म बनाने की क्रिया अधिकतर पायी जाती है। स्ट्रेप्टोकोकॉई अचल प्रकार के जीवाणु हैं जो बीजाणु उत्पन्न नहीं करते हैं । कुछ विभेदों में सम्पुट (capsule) पाया जाता है जो हाएलूरोनिक अम्ल द्वारा बना होता है । पेनिसिलिन द्वारा प्रभावित होकर ये L-अवस्थाओं में परिवर्तित होकर निवह बनाते हैं ।
संवर्धन क्रियाएँ (Cultural reaction)
स्ट्रेप्टोकोकॉई 22-44°C तामक्रम पर तीव्रता से वृद्धि करते हैं इसके लिए भी आदर्श तापक्रम 37°C ही हैं। ये शर्करा बहुत माध्यमों या रक्त अथवा सीरम जैसे द्रवीय माध्यमों से संवर्धन करते हैं। संवर्धन माध्यम में उचित वृद्धि हेतु pH 7.4 की आवश्यकता होती है।
प्रतिरोधकता (Resistance)
स्ट्रप्टोकोकॉई की अधिकतर जातियाँ 55°C तापक्रम पर 15-20 मिनट तक रखने से नष्ट हो जाती है। स्ट्रे. फिकेलिस 60°C तापक्रम पर 30 मिनट तक रखने से नष्ट हो जाती है।
आविष पदार्थों के उत्पादन (Toxin production)
स्ट्रेप्टोकोकॉई समूह के जीवाणुओं द्वारा हीमोलाइसिन, ल्योकोसिडीन, फाइब्रिनोलासिन,इरिथ्रोजेनिन, हांएलूरोनिक अम्ल, मीटोजन, डी आक्सी रारबो न्यूक्लिएस आदि विषैली पदार्थो का उत्पादन किया जाता है, जो जन्तुओं की देह में अनेकों प्रकार के विपरीत प्रभाव उत्पन्न करते हैं।
रोगजनकता (Pathogenicity)
स्ट्रेप्टोकोकॉई की कुछ जातियाँ प्राणियों की श्वास नली एवं आंत्र में सहभोजी के रूप में रहती हैं किन्तु कभी-कभी ये भी रोग उत्पन्न करती हैं। स्ट्रे. हीमोलाइटिक्स जन्तुओं की त्वचा में प्रवेश कर विभिन्न प्रकार के ज्वर, गले की बीमारियाँ, मैनिन्जाइटिस, निमोनिया आदि रोग उत्पन्न करते हैं। स्ट्रे. पायोजेन्स के संक्रमण से पूतिक गलशोथ ( septic sore throat) उत्पन्न होता है इसके दौरान संक्रमण से 12-24 घण्टे में त्वचा पर दरारें (rash) उत्पन्न हो जाते हैं; तेज ज्वर होता है व उल्टियाँ होने लगती हैं। एक अन्य चर्म रोग इम्पेटिंगो कॉन्टेजिओसा (impetigo contagiosa) में त्वचा पर द्रव से भरे फफोले हो जाते हैं, इनमें जलन व खुजली होती है। ये संक्रमण के 2-4 सप्ताह में उत्पन्न होते हैं।
निमोनिया (pneumoniae) ऊपर श्वास नाल मार्ग में कष्ट के कारण होता है। यह स्ट्रे. निमोनिई (St. pneumoniae) द्वारा उत्पन्न होता है। रोगी को सर्दी लगती है, गले में सूजन व छाती में दर्द होता है। इसके कारण प्लुरिसी (pleurisy) रोग हो जाता है।
निदान (Diagnosis)
घावों से मवाद का (स्ट्रेप्टोकोकॅस) स्लाइड पर लेपन बनाकर रक्त एगार पर संवर्धन कराकर स्ट्रेफिलोकॉकस की भाँति पहचान की जाती है। ब्राउन की विधि (वर्गीकरण) द्वारा लयनकारी क्रियाओं के द्वारा o, B वy प्रकार के स्ट्रेप्टोकोकॅस का निदान किया जाता है।
उपचार (Therapy)
स्ट्रे. पायोजन्स को सलफोनेमाइड्स के द्वारा नष्ट किया जाता है, यह जाति पेनिसिलिन तथा प्रतिजैविक औषधियों के प्रति संवेदनशील है किन्तु स्ट्रे. विरिडेन्स पेनिसिलिन द्वारा नियंत्रित की जा सकती है। इरिथोमाइसिन का उपयोग भी किया जाता है।
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