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society of jesus was founded by in hindi , जेसुइट संघ की स्थापना कब और किसके द्वारा की गई

पढ़िए society of jesus was founded by in hindi , जेसुइट संघ की स्थापना कब और किसके द्वारा की गई ?

प्रश्न: जेसुईट संघ की स्थापना कब और किसके द्वारा की गई? यह अपने उद्देश्यों में कहां तक सफल रहा?
उत्तर: स्पेन निवासी लोयोला ने 1534 में सैनिक संगठन के आधार पर रोम में जेसुईट संघ की स्थापना की। इसके सदस्य कठोर अनुशासन में चर्च की रक्षा करने तथा विदेशों में कैथोलिक धर्म का प्रचार करने का काम करते थे। प्रोटेस्टेंट के विरुद्ध कैथोलिक धर्म को खड़ा करने में जेसुईट संघ की विशेष भूमिका रही थी और इसी के प्रयासों के कारण कैथोलिक धर्म विश्वव्यापी हो पाया।

जैसुइट संघ या सोसाइटी ऑफ जीसस (Jesvist order or Society of Jesus)
यह संस्था 1534 ई. में एक स्पेनिश इग्नेशियस लोयला ने पेरिस में स्थापित की। यह 6 सदस्यों की संस्था थी। फ्रांसिस जेवियर (थ्तंदबपे ग्ंपअमत) इसके संस्थापक सदस्य थे जिन्हें धर्म प्रचार के लिए जापान भेजा गया था। 1540 ई. में पोप पॉल-प्प्प् ने इस संस्था को मान्यता दे दी। लोयला एक स्पेनिश सिपाही था।
संस्था का उद्देश्य कैथोलिक धर्म के विरोधियों का दमन करना व कैथोलिक चर्च में सुधार करना था। जैसईट संघ का पूरा संगठन सैनिक आधार पर था। इस संस्था के प्रमुख को जनरल कहा गया। जनरल का निवास रोम में स्थित था। इस संस्था का सदस्य बनने के लिए 2 वर्ष का कठोर प्रशिक्षण दिया जाता था। इस संस्था के सदस्यों को धर्म प्रचार के लिए विश्व के किसी भी स्थान पर भेजा जा सकता था। यह संस्था पोप के प्रति समर्पित थी। ये कैथोलिक से थोडी अलग इस मायने में थी कि इसके सदस्य अधिक कट्टर थे।
लोयला ने धर्म के प्रति श्रद्धा एवं आचार से पवित्र रहने का प्रण किया था और संगठन के सभी सदस्यों से भी ऐसा ही। प्रण करवाया। बाद में, स्पेन के सम्राट और रोम के पोप का संरक्षण भी इस संगठन को मिल गया। इस संगठन ने पोप तथा अन्य धर्माधिकारियों को भी सदाचारमय जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य किया। जैसुइटों का स्वयं का अपना जीवन अत्यन्त तप और सादगी का था। इस संगठन की दूसरी महत्वपूर्ण देन यूरोप में शिक्षा का प्रचार है। संगठन द्वारा शामिन स्कल यरोप के सबसे अच्छे स्कूल थे। जैसुइट धर्म प्रचारकों ने यूरोप के बाहर चीन, भारत, जापान, अमेरिका आदि में भी कैथोलिक धर्म का प्रचार किया। ऐसे साहसी धर्म प्रचारकों में से ही जेक्युअस मार्वेते थे, जिन्होंने मिसीसिपी घाटी के ऊपरी भाग की खोज की थी और वहां के आदिवासी लोगों को ईसाई बनाया। अपने प्रचार कार्य के सिलसिले में इस संगठन ने स्कूलों, चिकित्सा तथा सेवा केन्द्रों की स्थापना के माध्यम से मानवता की सेवा का काम भी किया था।

प्रश्न: इनक्विजिशन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर: यह एक विशेष धार्मिक न्यायालय था। 1542 में पोप पाल प्प्प् ने इसे पुनर्जिवित किया। जो सर्वोच्च अधिकारों से युक्त था। इसका कार्य नास्तिकों का पता लगाना, उनका कठोर दमन करना, कैथोलिक चर्च के आदेशों को बलपूर्वक लागू करना, धर्म विरोधियों एवं विद्रोहियों को कुचल देना, दूसरे देशों से भेजी गयी धर्म सम्बन्धी अपील सुनना आदि था। इसके परिणामस्वरूप प्रोटेस्टेंटो पर अत्याचार किया गया और कैथोलिकों को बढ़ावा दिया गया।

प्रश्न: धर्म सुधार आंदोलन के क्या परिणाम निकले ?
उत्तर: धर्मसुधार आंदोलन के निम्नलिखित परिणाम निकले –
1. इसाई धर्म का विभाजन। कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेण्ट दो भाग में बंट गया।
2. कैथोलिक धर्म में सुधार – प्रतिधर्म सुधार हुआ।
3. धार्मिक असहिष्णुता का विकास – आपस में संघर्ष हुआ। मेरी ट्यूडर इसका प्रतीक है।
4. धार्मिक सहिष्णुता का विकास – एलिजाबेथ-प् की नीति (एडिक्ट ऑफ नेन्टिस्ट का उदाहरण)
5. सम्राटों की शक्तियों में वृद्धि।
6. धार्मिक विषयों पर मतभेदों की उत्पत्ति।
7. शिक्षा के क्षेत्र में विकास। 8. धार्मिक साहित्य का विकास – विभिन्न विद्वानों द्वारा पुस्तकें लिखी गई।

लोक चित्रकला परम्परा

सृष्टि के जन्म के साथ ही कला का उद्गम एवं विकास भी आरंभ हुआ। इसे हम मानव संस्कृति का विकास भी कह सकते हैं। प्रत्येक युग में मानव संस्कृति का विकास उन युगों की विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार से हुआ है। इसी विकास क्रम में स्थानीय परम्पराओं तथा कलाओं ने जन्म लिया। प्रत्येक जनपद, नगर, ग्राम व कस्बों में इन लोक कलाओं की अद्भुत छाप देखने को मिलती है। अपनी अनुभूतियों की स्वतंत्र अभिव्यक्ति मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है विभिन्न लोक कलाओं में प्रतीकात्मक शैली के अमूर्त आलेखन, चित्रण, रेखांकन आदि द्वारा सामाजिक, धार्मिक रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं को अभिव्यक्त किया गया है। किसी भी प्रकार की प्रसिद्धि की अपेक्षा किए बिना लोक कला की यह धारा हमारे पारिवारिक, सांस्कृतिक और धार्मिक जीवन की परम्पराओं के साथ जुड़कर आगे बढ़ती रही है तथा बिना किसी प्रलोभन, आश्रय तथा प्रोत्साहन की अपेक्षा कि,एक प्रांत से दूसरे प्रांत को जोड़कर लोक मानव की आत्मा को जोड़ती रही है। यह हमारे देश की समग्र संस्कृति एवं सभ्यता के विकास की निधि है।

पटुआ कला
बंगाल की पटुआ कला का इतिहास 1000 साल पहले का है। पटुआ, कुम्हारों की तरह, देवी.देवताओं की लोकप्रिय मंगल कहानियों को चित्रित करने वाले चित्रकार थे। सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी ये स्क्राॅल पेंटर या पटुआ पैसे और भोजन के लिए गांव-गांव जाकर कहानियां सुनाते हैं। अधिकतर पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले या 24 परगना और बीरभूम जिलों से आए हैं और स्वयं को चित्रकार कहते हैं। कटावदार डिजाइन या कागज का खर्रा (स्क्राॅल) एकसमान या विभिन्न आकारों के पेपर शीट से बनता है जिन्हें आपस में सिला जाता है और साधारण पोस्टर रंग से पोता जाता है। आजकल यह सिनेमा के दुष्परिणाम या साक्षरता प्रोत्साहन जैसे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर टिप्पणी करते हैं।
कालीघाट चित्रकला
कालीघाट चित्रकला 19वीं शताब्दी के कलकत्ता (अब कोलकाता) के शहरी जीवन के परिवर्तन का उत्पाद थी। तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी कलकत्ता (अब कोलकाता) में कालीघाट मंदिर की तीर्थस्थान के तौर पर बढ़ती महत्ता ने ग्रामीण बंगाल से प्रवासी स्क्राॅल पेंटर्स को मंदिर के आस-पास इकट्ठा कर दिया, और वे इस चित्रकारी को करने लगे। ये मिल पेपर पर पानी के रंगों की मदद से चिड़ियां एवं बछड़े के बालों से बने ब्रुश के साथ ये चित्रकारी करते थे। हिंदू देवी.देवता इस चित्रकारी के विषय थे।
पैटकर चित्रकला
झारखण्ड की पैटकर चित्रकला भारत में सबसे प्राचीन चित्रकलाओं में से एक है, और इसे राज्य के आदिवासी लोगों द्वारा बनाया जाता है। चित्रकला की यह प्राचीन सांस्कृतिक विरासत बंगाली समाज के बेहद सुप्रसिद्ध देवी मां मनसा से सम्बद्ध हैं। चित्रकला का विषय बेहद सामान्य है मृत्यु के बाद मानव जीवन का क्या होता है। दुर्भाग्यवश, यह कला रूप पतन की ओर अग्रसर है और जल्द ही विलुप्त हो जाएगा।
कोहवर एवं सोहरई चित्रकला
कोहवर एवं सोहरई चित्रकला झारखंड की बेहद कोमल एवं सुंदर कला है, लेकिन यह कलारूप विलुप्ति के संकट का सामना कर रही है। ये चित्रकला पवित्र या धर्मनिरपेक्ष हो सकती हैं, लेकिन महिला संसार से प्रासंगिक हैं। यह चित्रकारी विशेष रूप से विवाहित महिला द्वारा विवाह के और फसल के दौरान की जाती है और इस कौशल को कुल की सबसे युवा महिला को हस्तांतरित कर दिया जाता है।
कलमकारी
जैसाकि नाम से स्पष्ट होता है, कलमकारी कलम के साथ की जागी वाली चित्रकला है, जो तीव्र नोंक वाली बांस की होती है जो रंग के प्रवाह को विनियमित करती है। यह चित्रकारी सूती कपड़े पर की जाती है। कलमकारी का प्राचीन इतिहास है। आंध्र प्रदेश में श्रीकलाहस्ति एवं मछलीपट्नम इसके प्रमुख केंद्र हैं, और यह आज भी यहां निरंतर जारी है। श्रीकलाहस्ति के कलाकार दीवार पर लटकाने वाली तस्वीरों को बनाते हैं। इसका मुख्य विषय हिंदू धर्म से है। श्रीकलाहस्ति के कुछ दस्तकार भी खूबसूरत कपड़ा चित्रकारी बनाते हैं। कलमकारी के रंग सब्जियों से बना, जाते हैं। मछलीपट्नम के कलाकार विभिन्न रूपों के कमल के फूल, रथ के पहिए, तोता, फूल एवं पत्तियों के डिजाइन का प्रयोग करते हैं।
वरली चित्रकला
वरली (महाराष्ट्र-गुजरात सीमा क्षेत्र पर रहने वाले मूल निवासी) लोगों ने 2500 या 3000 ईसा पूर्व इस चित्रकला परम्परा को शुरू किया था। उनकी शैल चित्रकला मध्य प्रदेश के भीमबैठका में 500 से 10,000 ईसा पूर्व में की गई शैलचित्रकारी से मिलती-जुलती है। इनकी चित्रकारी में वृत्तों एवं त्रिभुजों का प्रयोग किया गया है जिसमें वृत्त सूर्य एवं चंद्र को प्रतिम्बित करते हैं जबकि त्रिभुज पर्वतों और शंकुधारी वृक्षों के प्रतीक हैं। वग्र का प्रयोग मानव खोज को दर्शाता है जिसका प्रयोग भूमि के टुकड़े का संकेत करता है। चित्रों में पालघटा को उकेरा गया है जो देवी मां है और जीवन को दर्शाती है। प्रत्येक पेंटिंग्स का मूल आकार वग्रकार है, जिसे चैक या चैकट के तौर पर जागा जाता है। दो त्रिभुज अपनी ऊपर नोंक पर मिलते हैं जिसका प्रयोग मानव एवं जंतु शरीर को दर्शाने के लिए किया जाता है।
पारम्परिक चित्रकारी सामान्यतः घर के भीतर की जाती है। पत्तियों,शाखाओं, मिट्टी और गाय के गोबर से बनी दीवारें चित्रकारी के लिए एक लाल पृष्ठीाूमि प्रदान करती हैं। चित्रकारी करने के लिए केवल चावल के आटे एवं गोंद से बने सफेद मिश्रण का प्रयोग किया जाता है। वाॅल पेटिंग्स केवल विवाह या फसल कटाई जैसे विशेष अवसरों पर की जाती है।
थगंका चित्रकला
सिक्किम की मुख्य चित्रकला (तिब्बत की भी) थगंका है जिसमें भगवान बुद्ध के उच्चतम आदर्शों को प्रस्तुत किया जाता है। थगंका चित्रशैली को सूती कपड़े पर बनाया जाता है और प्रायः रेशम से फ्रेम किया जाता है। इसमें बौद्ध धर्म से संबंधित विभिन्न देवताओं एवं दर्शन को चित्रित किया जाता है। परम्परागत रूप से थगंका बौद्ध गुरुओं और विशिष्ट जाति समूह द्वारा बनाई जाती थी, और यह कौशल एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित किया जाता रहा। अब यह कला लोगों के एक बड़े भाग तक फैल गई है और इसने व्यावसायिक पहलू भी ग्रहण कर लिया है। इस कला रूप से प्राप्त धन ने कलाकारों को इस कला को जिंदा रखने में मदद करने के साथ-साथ बौद्ध मठों की भी मदद की है। थगंका के तीन प्रकार हैं। प्रथम प्रकार में बुद्ध के जीवन, उनमें जन्म, उनके जीवन के भ्रम दूर होना, उनकी ज्ञान की खोज और उनकी जीवन के प्रति समझ को चित्रित किया गया है। दूसरे प्रकार में बौद्ध धर्म के जीवन एवं मृत्यु के प्रति विश्वास को प्रतिबिम्बित किया गया है। तीसरे प्रकार की थगंका चित्रों में ऐसे चित्र बना, जाते हैं जिनका प्रयोग ध्यान एवं समाधि या देवताओं की पूजा करने के लिए किया जाता है। ऐसे पेंटिंग्स को सामान्यतः सफेद पृष्ठभूमि पर बनाया जाता है। थगंका में रंगों का बेहद महत्व है। सफेद रंग पवित्रता को प्रतिबिम्बित करता है, स्वर्णिम रंग जन्म या जीवन, ज्ञान और परिनिर्वाण का द्योतक है, लाल रंग चाहत की तीव्रता प्रेम एवं घृणा दोनों का प्रतिनिधित्व करता है, काला रंग क्रोध, पीला रंग करुणा एवं हरा रंग चेतना को दर्शाते हैं। थगंका में प्रयुक्त होने वाले सभी रंग प्रकृति से प्राप्त होने वाले सब्जियों या खगिज रंगों से तैयार किए जाते हैं।