shehnai in hindi meaning definition शहनाई क्या है ? शहनाई किस प्रकार का वाद्य यंत्र है वादक कौन है ?
शहनाई
शहनाई एक कम्पिका युक्त बांध है। इसमें नलिका के ऊपर सात छिद्र होते हैं। इन छिद्रों को अंगुलियों से बंद करने और खोलने पर राग बजाया जा सकता है। इस वाद्य को मंगल वाद्य के नाम से जाना जाता है और अक्सर इसे उत्तर भारत में विवाह, मंदिर उत्सवों आदि के मंगलवार अवसर पर बजाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि शहनाई भारत में पश्चिम एशिया से आई। कुछ अन्य विद्वान भी हैं, जो यह मानते हैं कि यह वाद्य चीन से आया है। इस समय यह वाद्य कार्यक्रमों में बजाया जाने वाला प्रसिद्ध वाद्य है। वाद्य ही आवाज सुरीली होती है और यह राग संगीत को बजाने के लिए उपयुक्त है। दस शताब्दी के सन पचास के दशक के पर्व भाग में इस वाद्य को प्रसिद्ध बनाने का श्रेय उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को जाता है। आज के जाने-माने शहनाई वादकों में पंडित अनंत लाल और पंडित दया शंकर का नाम प्रमुख है।
अवनद्ध वाद्य
वाद्यों के वर्ग, अवनद्ध वाद्यों (ताल वाद्य) में पशु की खाल पर आघात करके ध्वनि को उत्पन्न किया जाता है, जो मिट्टी, धात के बर्तन या फिर लकड़ी के ढोल या ढांचे के ऊपर खींच कर लगायी जाती है। हमें ऐसे वाद्यों के प्राचीनतम उल्लेख वेदों में मिलते हैं। वेदों में भूमि दुंदुभि का उल्लेख है। यह भूमि पर खुदा हुआ एक खोखला गढ़ा होता था, जिसे बैल या भैंस की खाल से खींच कर ढका जाता था। इस गढ़े के खाल ढके हिस्से पर आघात करने के लिए पशु की पूंछ को प्रयोग में लाया जाता था और इस प्रकार से ध्वनि की उत्पत्ति की जाती थी।
ढोलों को उनके आकार, ढांचे तथा बजाने के लिए उनको रखे जाने के ढंग व स्थिति के आधार पर विविध वर्गों में बांटा जा सकता है। ढोलों को मुख्यतः अर्धवक, अंकया, आलिंग्य और डमय (ढालों का परिवार) इन चार वर्गों में बांटा जाता है।
उर्धृवक
उर्धवक ढालों को वादक के समक्ष लम्बवत् रखा जाता है और इन पर डंडियों या फिर उंगलियों से आघात करने पर ध्वनि उत्पन्न होती है। इनमें मुख्य हैं-तबले की जोड़ी और चंडा।
तबला
तबले की जोड़ी दो लम्बवत् ऊर्धवक ढोलों का एक समूह है। इसके दायें हिस्से को तबला कहा जाता है और को बांया अथवा श्डग्गाश् कहते हैं। तबला लकड़ी का बना होता है। इस लकड़ी के ऊपरी हिस्से को पश ढका जाता है और चमड़े की पट्टियों की सहायता से जोड़ा जाता है। चर्म पट्टियों तथा लकड़ी के नाम पाल से आयताकार (चैकोर) लकड़ी के खाल के हिस्से के बीच में स्याही को मिश्रण लगाया जाता है। तबले को हथौडी । हिस्से के किनारों को ठोंक कर उपयुक्त स्वर को मिलाया जा सकता है। बांया हिस्सा मिट्टी अथवा धात का जापा है। इसका ऊपरी हिस्सा पशु की खाल से ढंका जाता है और उस पर भी स्याही का मिश्रण लगाया जाता है ताना संगीतकार इस हिस्से को सही स्वर में नहीं मिलाते।
तबले की जोड़ी को हिन्दुस्तानी संगीत के कंठ तथा वाद्य-संगीत और उत्तर भारत की कई नृत्य शैलियों के पास प्रदान करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। तबले पर हिन्दुस्तानी संगीत के कठिन ताल भी बहुत प्रवीणता के साथ जाते हैं। वर्तमान समय के कुछ प्रमुख तबला वादक हैं-उस्ताद अल्ला रक्खा खां और उनके सुपुत्र जाकिर हुसैन, श अहमद और सामता प्रसाद।
तबला
तबले की जोड़ी दो लम्बवत् ऊर्धवक ढोलों का एक समूह है। इसके दायें हिस्से को तबला कहा जाता है और को बांया अथवा श्डग्गाश् कहते हैं। तबला लकड़ी का बना होता है। इस लकड़ी के ऊपरी हिस्से को पश ढका जाता है और चमड़े की पट्टियों की सहायता से जोड़ा जाता है। चर्म पट्टियों तथा लकड़ी के नाम पाल से आयताकार (चैकोर) लकड़ी के खाल के हिस्से के बीच में स्याही को मिश्रण लगाया जाता है। तबले को हथौडी । हिस्से के किनारों को ठोंक कर उपयुक्त स्वर को मिलाया जा सकता है। बांया हिस्सा मिट्टी अथवा धात का जापा है। इसका ऊपरी हिस्सा पशु की खाल से ढंका जाता है और उस पर भी स्याही का मिश्रण लगाया जाता है ताना संगीतकार इस हिस्से को सही स्वर में नहीं मिलाते।
तबले की जोड़ी को हिन्दुस्तानी संगीत के कंठ तथा वाद्य-संगीत और उत्तर भारत की कई नृत्य शैलियों के पास प्रदान करने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। तबले पर हिन्दुस्तानी संगीत के कठिन ताल भी बहुत प्रवीणता के साथ जाते हैं। वर्तमान समय के कुछ प्रमुख तबला वादक हैं-उस्ताद अल्ला रक्खा खां और उनके सुपुत्र जाकिर हुसैन, श अहमद और सामता प्रसाद।
आलिंग्य
तीसरा वर्ग आलिंग्य ढोल हैं। इन ढोलों में पशु की खाल को लकड़ी के एक गोल खांचे पर लगा दिया जाता है और गले या इसे एक हाथ से शरीर के निकट करके पकड़ा जाता है, जबकि दूसरे हाथ को ताल देने के लिए प्रयुक्त किया जाता है। इस वर्ग में डफ, डफली आदि आते हैं, जो बहुत प्रचलित वाद्य है।
डमरू
डमरू ढोलों का एक अन्य प्रमुख वर्ग है। इस वर्ग में हिमाचल प्रदेश के छोटे श्हुडुकाश् से लेकर दक्षिणी प्रदेश का विशाल वाद्य श्तिमिलश् तक आते हैं। पहले वाद्य को हाथ से आघात देकर बजाया जाता है, जबकि दूसरे को कंधे से लटका कर डंडियों और उंगलियों से बजाया जाता है। इस प्रकार के वाद्यों को रेतघड़ी वर्ग के ढोलों के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इनका आकार रेतघड़ी से मिलता-जुलता प्रतीत होता है।
घन वाद्य
मनुष्य द्वारा अविष्कृत सबसे प्राचीन वाद्यों को घन वाद्य कहा जाता है। एक बार जब यह वाद्य बन जाते हैं तो फिर ३९ बजाने के समय कभी भी विशेष सुर में मिलाने की आवश्यकता नहीं होती। प्राचीन काल में यह वाद्य मानव शरीर । विस्तार जैसे डंडियों, तालों तथा छडियों आदि के रूप में सामने आए और ये दैनिक जीवन में प्रयोग में लाई जाने वाला वस्तुओं, जैसे पात्र (बर्तन), कड़ाही, झांझ, तालम् आदि के साथ बहुत गहरे जुड़े हुए थे। मूलतः यह वस्तुएं लय प्र करती है और लोक तथा आदिवासी अंचल के संगीत तथा नृत्य के साथ संगत प्रदान करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है।
झांझ वादक, कोणार्क, उड़ीसा
उड़ीसा के कोर्णाक स्थित सूर्य मंदिर में हम एक 8 फीट ऊंचा शिल्प देख सकते हैं, जिसमें एक स्त्री को झांझ बजाते हुए प्रदर्शित किया गया है।
भारत में वाद्य यंत्रों को पारम्परिक रूप से किन समूहों में वर्गीकृत किया जाता रहा है?
संगीत में गायन तथा नृत्य के साथ-साथ वादन का भी अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। वादन का तात्पर्य विशिष्ट पद्धति निर्मित किसी वाद्य यंत्र पर थाप देकर, फूंककर या तारों में कम्पन पैदा करके लयबद्ध तरीके से संगीतमय ध्वनि उत्पनन करना है।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुए वाद्य-यंत्रों को मुख्यतरू चार समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता ह
ऽ घन-वाद्य, जिसमें डण्डे, घण्टियां, मंजीरे आदि शामिल किए जाते हैं. जिनको आपस में ठोककर मधर ध्वनि निकाली जाती है।
उदाहरण – चिमटा, मंजीरा, डाण्डिया आदि।
ऽ अवनद्ध-वाद्य या ढोल, जिसमें वे वाद्य आते हैं, जिनमें किसी पात्र या ढांचे पर चमडा मढा होता है। जैसे –
ढोलकर, खंजरी, गना।
ऽ सुषिर-वाद्य, जो किसी पतली नलिका में फेंक मारकर संगीतमय ध्वनि उत्पन्न करने वाले यंत्र होते हैं। जैसे –
बांसुरी, शहनाई।
ऽ तत-वाद्य, जिसमें वे यंत्र शामिल होते हैं जिनसे तारों में कम्पन्न उत्पन्न करके संगीतमय ध्वनि निकाली जाती है। जैसे-
सितार, वीणा, सारंगी, संतूर आदि।