scope of biotechnology in hindi , जैव तकनीकी का कार्यक्षेत्र क्या है , development of biotechnology

पढ़िए scope of biotechnology in hindi , जैव तकनीकी का कार्यक्षेत्र क्या है , development of biotechnology ?

जैव तकनीक विकास के चरण (Steps in development of biotechnology) –

1150A.D. में इथेनाल का एवं 1300 में विनेगर उत्पादन के प्रमाण मिलते हैं। 1750 में फ्रान्स में मशरूम की खेती कृत्रिम तौर पर की जाती थी। इसके भी प्रमाण हैं कि 1670 में ताँबे के अयस्क से ताँबे की प्राप्ति हेतु सूक्ष्म जीवों का उपयोग किया जाता था। 1677 में लीवनहाक द्वारा यीस्ट कोशिकाओं की खोज की गयी एवं 1818 में यीस्ट के किण्वन गुणों की खोज हुई। इस दौरान प्रारम्भिक प्रकार के सूक्ष्मदर्शी की आविष्कार हो चुका था अतः प्राणी व पादप कोशिकाओं के संगठन व संरचना का ज्ञान वैज्ञानिकों ने प्राप्त किया।

लुइस पास्तेर (Louis Pateur, 1860-1910) के काल में यीस्ट (Yeast) के उपयोग से एल्कोहल प्राप्ति की विधि तो ज्ञात थी किन्तु इस क्षेत्र में विस्तृत अध्ययन 20वीं सदी में ही आरम्भ हुआ। जब विश्व के अनेक भागों में अध्ययन संस्थानों की स्थापना हुई। इस संदर्भ में महत्वपूर्ण खोज 1869 में फेड्रिक मीशर द्वारा न्यूक्लिक अम्लों का मवाद कोशिकाओं से पृथक किया जाना रहा। 1879 में एसिटोबैक्टर जीवाणु की खोज हुयी। 1928 में फ्लैमिंग द्वारा पेनिसिलिन प्रतिजैविक औषधि का उत्पादन किया गया। 1944 में एक अन्य प्रतिजैविक स्ट्रेप्टोमाइसिन की खोज हुयी ।

जैव तकनीक के विकास में ग्रेगर मेडल (Gregor Mendel 1827 1844) द्वारा मटर के पौधों पर किये गये प्रयोग एवं आनुवंशिकी के नियमों का प्रतिपादन, ए. ई. गैराड (A. E. Garrod, 1902) द्वारा मानव में आनुवंशिक विकारों की खोज एवं वास्तविक कारणों का विश्लेषण महत्वपूर्ण चरण रहा है।

ओ.टी.ऐवरी (O.T.Avery), सी.एम. मेक्लिऑड (C.M. Macleod) तथा एम. मेक्कार्थी (M.Mcarty, 1940) ने जीवाणुओं में रूपान्तरण के वास्तविक आनुवंशिक पदार्थ की खोज की। जी. डब्ल्यू. बीडल (G.W.Beadle) एवं इ.सी. टॉटम (E.C. Tatum ; 1941 ) ने न्यरोस्पोरा क्रेसा (Neurospora crassa) पर प्रयोग करते हुए प्रदर्शित किया कि जीन्स जैव रसायनिक पथ द्वारा ही अभिव्यक्ति दर्शाते हैं। इन्होंने यह बताया कि एक विशिष्ट जीन ही एक विशिष्ट एन्जाइम के संश्लेषण हेतु उत्तरदायी होती है जिसे एक जीन एक एन्जाइम सिद्धान्त (One gene one enzyme theory) कहते हैं। 1953 में इन्सुलिन प्रोटीन की सम्पूर्ण संरचना का ज्ञान सेंगर (Sanger) ने प्रस्तुत किया। वाटसन व क्रिक (Watson and Crick ; 1953) ने डी. एन.ए का मॉडल प्रस्तुत कर संरचना का प्रतिकृतिकरण की क्रिया पर प्रकाश डाला। 1962 में सूक्ष्मजीवों की सहायता से यूरेनियम के खनन की विधि की खोज की गयी। नीरेनबर्ग (Nirenberg, 1963) ने आनुवंशिक कूट की खोज की जो जीवाणुओं व मानव पर पूर्णतः लागू होती है । मेरीफील्ड (Marriefield, 1963) ने स्वचालित पॉलीपेप्टाइड संश्लेषण करने वाली मशीन या यंत्र का विकास किया। एडमान एवं बेज (Edman and Begg. 1967) ने प्रोटीन अपघटन की विधियों की खोज की। सन् 1971 में स्टैन फोर्ड विश्वविद्यालय के पाल बर्ग एवं साथियों (Pul Berg and coworkers) ने सर्वप्रथम DNA के पुनर्योजित अणु (DNA recombinant molecule) का निर्माण किया। एर्बन, स्मिथ तथा नाथन्स (Arber, Smith and Nathans, 1972) ने DNA को विशिष्ट स्थलों पर काट कर द्वि- कुण्डलित हेलिक्स को खोलने में प्रयुक्त किये जाने वाले रेस्ट्रिक्शन एंजाइम्स ( restriction enzymes) की खोज की। 1971 में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीन (nif) का राइजोबीयम से क्लेबेसिएला में सफलतापूर्वक स्थानान्तरण के प्रयोग किये गये। गिलबर्ट, मेक्सम तथा सेंगर (Gillbert, Maxam and Sanger, 1976) ने DNA के द्रुत विश्लेषण की विधियों की खोज की। इताकुरा व साथियों (Itakura and coworkers, 1977) ने मानव सोमेटोस्टेटिन (somatostation) व इन्सुलिन (insulin) के लिये उत्तरदायी जीन्स का संश्लेषण किया। एच.जी. खुराना (H.G.Khorana, 1979) ) कोशिका में क्रियाशील कृत्रिम जीन का संश्लेषण करने में सफलता प्राप्त की। इताकुरा (Itakura, 1980) ने कृत्रिम जीन सम्मुच यंत्र (gene assembler) बनाने में सफलता हासिल की। हुड (Hood, 1981) ने स्वचालित प्रोटीन सूक्ष्म विश्लेषक बनाया। स्टेन्ले कोहन (Stanley Cohen) न हूँ कोलाई (E.coli) के प्लाज्मिड्स पर कार्य करने की विधि की खोज की। DNA लाइगेस (DNA ligase) की खोज जैव प्रौद्योगिकी में अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुई ।

1981 में मोनोक्लोनल एन्टीबॉडीज का रोग के निदान में उपयोग करने की खोज की गयी। 1984-85 में इन्टरफेरॉन का उपयोग कर रोगों के उपचार की विधि खोजी गयी।

ऊत्तक संवर्धन व प्रोटोप्लास्ट को कोशिका से पृथक करने की दिशा में क्लेरकर (Klercker, 1892), हेबरलेन्डट् (Haberlandt, 1902) ने महत्वपूर्ण कार्य किया । इन्होंने कोशिकाओं में पूर्णश्क्तता (totipotency) के गुणों का अध्ययन किया व्हाइट (Whit, 1994) ने टमाटर के पौधों की काटी हुई जड़ों के पात्रे (invitro) वर्धन के प्रयोग किये। वान ओवर बीक साथियों (Van over Beek and coworkers, 1941) ने धतूरे के पौधों को रसायनिक माध्यम व नारियल के दूध पर पोषत कर संवर्धन करने में सफलता प्राप्त की। एन्जिओपम पौधे में पुनरुदभवन की पात्रे वृद्धि का अध्ययन बाल (Ball, 1946) ने किया। स्कूग व तूसी (Skoog and Tsui, 1948) ने पादपों पुराशाखाओं के पोषक तरल द्वारा वृद्धि के प्रयोग तम्बाकू पर किये। एकबीजपत्री पौधे मक्का के एन्डोस्पर्म के संर्वधन ला रुए (Law Rue, 1946) व मोरेले तथा वेटमोर (Morel and Wetmore, 1953) ने अन्य भागों पर किये। टुलेके (Tuleeke, 1953) ने अगुणित परागकण के कैलस (calus) का संवर्धन करने में सफलता प्राप्त की। मुनीर, हिल्डेब्रान्डन्ट तथा रिकर (Munir, Hildebrandt & Riker, 1954) ने तरल पोषक माध्यम में अनेक कोशिकाओं का संबंध ‘न करने के प्रयोग सफलतापूर्वक किये। स्कूग व साथियों (Skoog et al. 1955) ने हेरिंग मछली के शुक्राणुओं में 6- फरफुरिलोमिनोप्यूरिन (6-furfurylaminopurine) नामक पदार्थ का विश्लेषण किया जो अण्ड में विदलन की क्रिया के समारम्भन को उत्तेजित करने में समक्ष था। स्कूग तथा मिलर (Skoog and Miller, 1957) ने ऑक्सिन व साइटोकाइनिन के उचित अनुपात के मिश्रण द्वारा तने व जड़ों के शीर्ष के कैलस पर वृद्धि के नियंत्रण के प्रयोग कर अग्रजनन के रसायनिक नियमन को समझाया। रिनर्ट ( Reinert, 1959) ने भ्रूणीय भाग को आहारयुक्त पोषक पदार्थ पर संवर्धित करने के प्रयोग किये। पादपों पर अनेक वैज्ञानिकों ने शोध कार्य पर विभेदन, भ्रूणपोषण, केलस वृद्धि आदि के प्रयोग सफलतापूर्वक किये।

बाइन्डिग व साथियों (Binding and coworkers, 1970) ने पिटूनिया (Petunia) के स्ट्रेप्टोमाइसिन रोधी कैलस प्राप्त किये। प्रोटोप्लास्ट को पादप कोशिकाओं से अलग करने में सफलता प्राप्त करने के बाद कार्लसन व साथियों (Carlson et al, 1972) ने प्रजातियों के प्रोटोप्लास्ट को मिलाने में सफलता प्राप्त की इन्होंने तम्बाकू की दो प्रजातियों के प्रोटोप्लास्ट को मिलाकर परालैंगिक संकर (parasexnal hybrid) को पुररुदभवन द्वारा प्राप्त किया। इसी क्रम में टमाटर व आलू, धतुरा व एट्रोफा, जौ व चावल, गेहूं व ओट, जौ व गन्ना ज्वार के संकर (hybrid) प्राप्त करने में सफलता हॉसिल हुई। काओ एवं मिचायलुक (Kao and Michayaluk, 1974) ने बताया कि पादपों के प्रोटोप्लास्ट के संलयन हेतु पॉली इथाईलीन ग्लाइकॉल (polyethylene glycol) PEG अत्यधिक सक्रिय प्रकार का अभिकर्मक है। एल्फोल्डी (Alfodi, 1981) के अनुसार प्रोटोप्लास्ट मिश्रण से जैव तकनीक द्वारा पुनर्योजित सूक्ष्मजीव भी प्राप्त किये जा सकते हैं। इस तकनीक में दोनों जीवों के कोशिकाद्रव्य में तथा दोनों जीवों के DNA में अन्योन्य क्रियाएँ होती हैं। इस तकनीक का उपयोग कर शेडर (shieder, 1982) ने पादपों मे नाशक कीट व रोगों के प्रति प्रतिरोधकता उत्पन्न करने में सफलता प्राप्त की। दो प्रजातियों के प्रोटोप्लास्ट के मिश्रण के फलस्वरूप इनके जीवद्रव्य परस्पर मिल जाते हैं, इस प्रकार प्राप्त जीव प्रजननिक रूप से स्वस्थ कायिक संकर (somatic gybrid) कहलाते हैं। यह आवश्यक नहीं कि शीघ्र ही इनके केन्द्रक भी युग्मित हो जायें। इस प्रकार प्राप्त द्विकेन्द्रकीय रचना हेटरोकेरयोन ( heterokaryon) कहलाती है। यदि दोनों प्रजातियों के केन्द्रक परस्पर विलीन हो जाते हैं तो इस रचना को सिनकैरयोसाइट (synkaryocyte) कहते हैं। डूड्स व राबर्ट (Doods and Roderts; 1985) के अनुसार कभी-कभी दोनों प्रजातियों के केन्द्रक मिल जाते हैं, किन्तु किसी एक के केन्द्रक का संदेश लुप्त हो जाता है ऐसी रचना साइब्रिड (Cybrid) या कोशिकाद्रव्यी संकर (cytoplasmic hybrid) कहलाती है।

पादपों में आनुवंशिक अभियांत्रिकी का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। नाइट्रोजन का स्थायीकरण करने वाले जीवाणुओं जैसे राइजोबियम (Rhizobium) में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीन निफ (Nif) उपस्थित होता है। इस जीवाणु कोशिका को लाइसोजाइम (lysozyme) एंजाइम से उपचारित कर खोला गया तथा इसके DNA का रेस्ट्रिक्शन एन्डोन्यूक्लिएस से उपचारित कराने पर Nif जीन पृथक कर लिया गया। इस जीन को किसी वाहक (vector) जैसे जीवाणु में निवेशित कराकर क्लोनिंग कराने में सफलता मिली। इस प्रकार Nif जीन की पुनरावृत्ति अनेकों कापी को पादपों में स्थानान्तरण कर नॉन लेग्यूमिनस (non leguminous) पादपों में स्वयं नाइट्रोजन स्थिरीकरण का गुण आ जाये। इसके प्रयास किये जा रहे हैं। इस विधि से गन्ने या गेहूं अथवा चालव की फसल से बिना खाद दिये अत्यधिक उपज प्राप्त की जा सकेगी।

1973 में पालबर्ग (Paul Berg) ने बीयर व कोहन (Bayer and Kohen) की तकनीक, (जिसमें DNA लाइगेज का उपयोग कर ई कोलाई की नयी कोशिकाओं में प्लाज्मिड्स को निवेशित कराने एवं रोपित करने में सफलता प्राप्त की थी) का इस्तेमाल कर SV 40 विषाणु के जीन कोई. कोलाई में जोड़े जाने (splice) की संभावना व्यक्त की। विश्व भर के वैज्ञानिकों ने इसके संदर्भ में सुझाया कि यदि यह पुनर्याजित ई. कोलाई (Ecoli) यदि प्रयोगशाला से बाहर वातावरण मुक्त हो जाता है तो मनुष्य के आंत्र में प्रवेश कर अबुर्द्ध (tumor ) उत्पन्न करने लगेगा (SV 40 के जीन लक्षण)। इस प्रकार DNA पुरर्योगज तकनीक के संभावित खतरों से वैज्ञनिकों ने आगाह किया एवं ऐसे परीक्षणों पर रोक लगाये जाने के सुझाव दिये जिसके अनुसार कठोर नियमों की सीमा में ही ऐसे प्रयोगों को किये जाने की अनुशंसा की ।

वैज्ञानिकों ने भ्रूण कोशिकाओं में नयी जीनों का समावेश कराकर ट्रान्सजेविक जन्तुओं (transgenic animals) को विकसित करने में सफलता प्राप्त कर ली है। पामिटर एवं साथियों (Palmiter et. al 1983) ने चूहों में मानव वृद्धि हार्मोन्स का जीव प्रविष्ट कराकर चूहों के रूपान्तरित प्रभेद प्राप्त करने में सफलता प्राप्त की है जिन्हें महामूसे कहा गया है। पालतू प्राणियों या जीव जन्तुओं की नस्ल सुधारने की दिशा में यह सकारात्मक पहल है। सिमन्स व साथियों (Simons et. al 1988) ने DNA माइक्रोइजेक्शन तकनीक द्वारा ट्रॉन्सजेनिक भेड़ों व सुअरों का निर्माण किया है। इन भेड़ों के दूध में मानव में रक्त का थक्का बनाने वाले आवश्यक (IX) नवं कारक भी ‘उपस्थित थे। इस प्रकार इन ट्रान्सजेनिक जन्तुओं से आवश्यक प्रोटीन व एक क्लोन प्रतिरक्षियाँ भी प्राप्त की जा सकती हैं। कोहलर एवं मिल्सटीन ( Kohler and Milstein) को 1984 में जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हाइब्रिडोमा तकनीक विकसित करने एवं हाइब्रिडोमा प्राणी से मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी प्राप्त करने हेतु नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। 1990 में सूक्ष्मजीवों की सहायता से भूमिगत तेल के दोहन तथा शोधन किये जाने की खोज की गयी ।

इस दिशा में सबसे चौंकाने वाली बात किसी जीव की एकल कोशिका से पूरे जीन को प्राप्त करने की है जिसे क्लोन (clone) कहते हैं। एडिनबर्ग के रासलिन इन्स्टीट्यूट के डॉ. इआन विल्मट (Dr. Ian Wilmut ; 1997) ने छ: वर्षीय गर्भवती भेड़ के स्तन से एक कोशिका को अलग कर संवर्धन माध्यम से प्रयोगशाला के कृत्रित वातावरण में रखा। इसे पोषक तत्व इतने कम मात्रा में दिये गये कि वह निष्क्रिय हो गयी अर्थात् इसने विभाजन करना बन्द कर दिया तथा इसके जीन अक्रिय हो गये। एक अन्य भेड़ से एक अनिषेचित अण्डाणु लिया गया तथा DNA व केन्द्रक को इससे पृथक् कर दिया। इस केन्द्रक रहित अण्डाणु था स्तन ग्रन्थि से प्राप्त निष्क्रिय कोशिका को साथ-साथ रखा गया। इन पर विद्युत की हल्की तरंगें डाली जिससे इनमें परस्पर क्रिया आरम्भ हो गयी । अण्डाणु ने अक्रिय कोशिका के केन्द्रक को अपने में समा लिया एवं विभाजन की क्रिया आरम्भ हो गयी। छः दिनों के पश्चात् एक भ्रूण का निर्माण हुआ जिसे तीसरी मादा भेड़ के गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर दिया गया। गर्भावधि पूर्ण होने पर इस भेड़ ने क्लोन डॉली को जन्म दिया। इस प्रकार नर व मादा भेड़ के बिना समागम के या बिना निषेचित अण्ड के क्लोन प्राप्त किया। डॉली भेड़ रंग, रूप व गुणों को कोशिका दाता भेड़ के समान है, यह भी कहा गया है कि वैज्ञानिक को चूहों व वानरों के क्लोन तैयार करने में सफलता मिल गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने मानव क्लोन तैयार करने पर रोक लगा दी है। वैसे आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों को दावा है कि उन्होंने वह तकनीक प्राप्त कर ली है, जिससे एक जैसे गुणों वाली अधिक दूध देने वाली गायें (क्लोन) प्राप्त की जा सकें।

जैवतकनीकी का कार्यक्षेत्र (Scope of biotechnology)

जैव तकनीकी विज्ञान चूंकि अनेक आधारभूत विज्ञान की शाखाओं का एक सामूहिक रूप है इसमें इन विज्ञानों का आणविक स्तर लेकर आज तक विकसित तकनीकों को सम्मिलित कर प्रयोग किये जो रहे हैं। अब तक किये गये प्रयोगों के अनेक उत्साहवर्धक परिणाम सामने आये हैं। इस शताब्दी के आरम्भ में केम बीजमेन (Chaim weizmann ) 1920 में फ्लोस्ट्रिडियम एसिटीब्यूटाइडलिकम (Clostridium acetobutylicum) का उपयोग मॉड (starch) से ब्यूटेनाल व इथेनाल के उत्पादन हेतु किया । यह रसायन प्रथम विश्वयुद्ध में विस्फोटकों में उपयोग में लाये जाते थे। इससे जैवतकनीकी का प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उपयोग किये जाने की सम्भावनाएँ बलवती हुयी । द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान (1940 में ) एलेक्जेंडर फ्लैमिंग ( Alexander Flemming, 1929) ने पेनिसिलियम नौटेटम (Penicillium notatum) से औद्योगिक तौर पर पेनेसिलिन बनाने की खोज की। तीसरी प्रमुख खोज इस क्षेत्र में एक जीव की डी.एन.ए. को अन्य जीवों में स्थानान्तर कर पुनर्योगज DNA प्राप्त करना, इसमें लाभदायक उत्पाद प्राप्त करना, जीवों की प्रतिरोधकता को रोगों या कीटों के प्रति बढ़ाना। फसलों की पैदावार बढ़ाना, पोषक पदार्थों की मात्रा एवं गुणवता वृद्धि करना। जैव प्रौद्योगिक द्वारा प्रतिजैविक औषधियों, एन्जाइम, विटामिन, इन्टरफेरान, हार्मोन आदि प्राप्त करना। मोनोक्लोनल प्रतिरक्षी को प्राप्त करना, कैन्सर व अन्य जटिल रोगों का निदान एवं निवारण या उपचार करना ।

भूमिगत तेल एवं अन्य खनिजों की प्राप्ति, ऊर्जा की प्राप्ति एवं पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने हेतु भी अनेक सरल प्रयोग किये जा चुके हैं। अतः इसका कार्यक्षेत्र अपरिमित शताब्दीयों तक खोज जारी रहे तो भी कार्य अधूरा ही रहेगा। कुछ प्रमुख कार्यक्षेत्र निम्नलिखित प्रकार से वर्णित किये जा सकते हैं-

(i) उन्नत फसलों का विकास (Development of improve crops) – आनुवंशिक स्तर पर सुधार कर अनेक फलों व अन्न उपजाने वाली उन्नत किस्में (जेनेटिकली इम्प्रूण्ड प्लान्ट्स जी.आई. पी.) विकसित की जा चुकी है एवं अनेकों पर प्रयोग जारी है। प्रकाश, रोगों, कीटों एवं वातावरणीय कारकों, सूखा, बाढ़ आदि से प्रतिरोधक क्षमता युक्त पादप प्रजातियाँ उत्पन्न की गयी हैं। फसलों की पैदावार बढ़ाकर कम क्षेत्रफल से अधिक मात्रा में अन्न या फल प्राप्त कर सकते हैं ताकि अधि क से अधिक जनसंख्या को भर पेट भोजन उपलब्ध कराया जा सके। अनुपजाऊ या बंजर भूमि को सुधार कर उसके अनुरूप ही नयी किस्में विकसित की जा सकती है।

कायिक रूप से प्रजनन करने वाले फलों केला, आलू, गन्ना आदि में प्रोटोप्लास्ट संवर्धन व उत्तक संवर्धन द्वारा कम समय से अधिक पौधे तैयार किये जा सकते हैं एवं किये जा रहे हैं। अनेकों लुप्त होती पादप जातियों, जड़ी-बूटियों पर जैवविधिता को संरक्षित किये जाने हेतु भी कार्यक्षेत्र खुला है।

(ii) खाद्यानों की गुणवत्ता में विकास (Development of improve foods) – प्रोटोप्लास्ट संलयन द्वारा नये प्रकार के फल सब्जियाँ द्वारा एवं खाद्यान्न पदार्थ प्राप्त किये गये हैं एवं अनेकों पर शोध कार्य जारी है जिससे इनके स्वाद गन्ध, स्वरूप एवं पोषण गुणों में सुधार आने की सभावनाएँ हैं। कुछ फल बहुत जल्दी पकते हैं और खराब हो जाते हैं। यदि फलों के पकाने वाले जीन को सुधार कर अधिक समय लेने वाला बनाया जा सके तो ऐसे फल व सब्जियाँ आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजी जा सकती हैं एवं आर्थिक हानि से बचा जा सकत है। इस प्रकार टमाटर, अंगूर, लीची, आम आदि को अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। अमेरिका में फलों को अधिक समय तक परिरक्षित रखने हेतु इन पर कृत्रिम लेप कर दिया जाता है जिससे किसानों को व उपभोक्ता दोनों को उचित लाभ मिलता है।

(iii) पर्यावरण का संरक्षण (Environmental protection) – जैव प्रौद्योगिकी द्वारा विकसि तकनीकों से कीटनाशी, खरपतवारनाशी एवं रसायनिक खाद का उपयोग कर करके पर्यावरण को प्रदूषण से बचाया जा सकता है। रोजाना निकलने वाले घरेलू एवं औद्योगिक कूड़े-कचरे का जैवतकनीक द्वारा निस्तारण कर वातावरण को शुद्ध बनाया जा सकता है। वायू प्रदूषण व जल प्रदूषण का उपचार भी जैवप्रौद्योगिकी द्वारा सुलभ करने हेतु अनेक तकनीकें विकसित की गयी है जो फैक्टरियों, कारखाने एवं वाहित मल आदि को पुनः उपचारित कर सकने में सक्षम हैं। समुद्र में फैलने वाले तेलीय प्रदूषण को रोकने हेतु भी तकनीक खोज ली गयी है जिसे रीमिडिएशन नाम दिया गया है।

(iv) जीवन स्तर में सुधार (Improve life style) – जैव तकनीक विज्ञान द्वारा रोगों के निदान, उपचार आदि की संभावनाएँ विकसित हुई हैं जैसे मोनोक्लोनल एन्टीबॉडीज द्वारा रोग निदान, इन्टरफेरान, स्टीराइड हार्मोन, टीकें, आदि का उत्पादन। अब तो प्रतिरोपण हेतु देह के अंग वृक्क, यकृत, नेत्र, हृदय आदि अन्य प्राणियों के विकसित किये जाने की संभावनाएँ भी व्यक्त की जा रही हैं।

ऊर्जा संकट जो विश्व के सामने आ रहा है उसका समाधान भी जीवाणुओं द्वारा किण्वन से एल्कोहल, बायोगैस, प्राकृतिक गैसों का कृत्रिम उत्पादन किये जाने की संभावनाएँ भी दिखाई देती हैं। जोजोबा की खेती कर डीजल-पेट्रोल का स्थानापन्न ईंधन मिल सकेगा इसमें कोई सन्देह नहीं रह गया है।