सत्रिया नृत्य किस राज्य से संबंधित है | असम का सत्रीया / सत्तरीय sattriya dance in hindi classical dance

sattriya is the classical dance of which state in hindi सत्रिया नृत्य किस राज्य से संबंधित है | असम का सत्रीया / सत्तरीय ?

 असम का सत्रिया
15वीं शताब्दी ईसवी में असम के महान वैष्णव संत और सुधारक श्रीमंत शंकरदेव द्वारा सत्रिया नृत्य को वैष्णव धर्म के प्रचार हेतु एक शक्तिशाली माध्यम के रूप में परिचित कराया गया। बाद में यह नृत्य शैली एक विशिष्ट नृत्य शैली के रूप में विकसित व विस्तारित हुई। यह असमी नृत्य और नाटक का नया खजाना, शताब्दियों तक सत्रों द्वारा एक बडी प्रतिज्ञा के साथ विकसित और संरक्षित किया गया है। (अर्थात् वैष्णव मठ या विहार) इस नृत्य शैली को अपने धार्मिक विचार और सत्रों के साथ जुड़ाव के कारण उपयुक्त ढंग से सत्रिया नाम दिया गया।
शंकरदेव ने विभिन्न स्थानीय शोध प्रबन्धों, स्थानीय लोक नृत्यों जैसे विभिन्न घटकों को शामिल करते हुए अपने स्वयं की नई शैली में इस नृत्य शैली की रचना की। नव वैष्णव आंदोलन से पहले असम में दो नृत्य शैलियां थीं जैसे ओजा पल्लि और अनेक शास्त्रीय तत्वों (अवयवों) सहित देवदासी। ओजा पल्लि नृत्यों के दो प्रकार अब तक असम में हैं दृसुकनानी, जिसमें ओजा पल्लि नृत्य सर्प देवी की पूजा के अवसर पर समूह गायन की संगति करते हैं। मनसा और व्याहार गीत, रामायण, महाभारत और कुछ पुराणों के असमी रूपांतर से ग्रहण किए गए हैं। शक्ति सम्प्रदाय (पंथ) का सुकनानी ओजा पल्लि है और व्याहार गीत वैष्णव सम्प्रदाय का है। श्रीमंत शंकरदेव ने सत्र में अपने दैनिक धार्मिक अनुष्ठानों में व्याहार गीतों को जोड़ा। अब तक भी व्याहार गीत असम के सत्रों के धार्मिक अनुष्ठानों का एक भाग है। ओजा पल्लि समूह के नर्तक केवल गायन और नृत्य ही नहीं करते पर मुद्राओं और शैलीबद्ध गतियों द्वारा वर्णन (आख्यान) को समझाते भी हैं। जहां तक देवदासी नृत्य का संबंध है, बड़ी संख्या में सत्रिया नृत्य के साथ लयात्मक शब्दों और पाद कार्य के साथ नृत्य मुद्राओं की साम्यता, देवदासी नृत्य का सत्रिया नृत्य पर स्पष्ट प्रभाव निर्देशित करती है। सत्रिया नृत्य पर अन्य दृश्यात्मक प्रभाव असमी लोक नृत्यों जैसे बिहू, बोड़ो आदि से है। इन नृत्य शैलियों में बहुत सी हस्तमुड़ाएं तथा लयात्मक व्यवस्थापन एक समान संचालित होता है।
सत्रिया नृत्य परंपरागत हस्तमुद्राओं, पाद कार्यों, आहार्य संगीत आदि के संबंध में सख्ती से बने सिद्धांतों के द्वारा सत्रिया नृतय की परंपरा संचालित होती है। इस परंपरा में विशिष्ट रूप से भिन्न दो धाराएं होती हैं – गायन बायनार नाच से खरमारनाच का आरंभ नाटकीय प्रस्तुतियों से युक्त भाओना संबंधित रंगपटल से होता है तथा दूसरे ऐसे नृत्य जो स्वतंत्र है जैसे चाली, राजस्थान चाली, झुमुरा, नादु भंगी आदि। इसमें चाली को चरित्र लालितयपूर्ण एवं शानदार- वीरोचित जुदाई को प्रदर्शित करते पुरूप चरित्र द्वारा निष्पादित किया जाता है।
संगीत वाद्य यंत्र
भारत के संगीत वाद्य
भारत विश्व में, सबसे ज्यादा प्राचीन और विकसित संगीत तंत्रों में से एक का उतराधिकारी है। हमें इस परम्परा का निरंतरता का ज्ञान संगीत के ग्रंथों और प्राचीन काल से लेकर आज तक की मूर्तिकला और चित्रकला में संगीत वाद्यों के अनेक दृष्टांत उदाहरणों से मिलता है।
हमें संगीत-सम्बंधी गतिविधि का प्राचीनतम प्रमाण मध्यप्रदेश के अनके भागों और भीमबटेका की गुफाओं में बन भित्तिचित्रों से प्राप्त होता है, जहां लगभग 10,000 वर्ष पूर्व मानव निवास करता था। इसके काफी समय बाद, हड़प्पा सभ्यता की खुदाई से भी नृत्य तथा संगीत गतिविधियों के प्रमाण मिले हैं।
संगीत वाद्य, संगीत का वास्तविक चित्र प्रस्तुत करते हैं। इनका अध्ययन संगीत के उदभव की जानकारी देने में सहायक हात है और वाद्य जिस जनसमूह से सम्बंधित होते हैं, उसकी संस्कृति के कई पहलुओं का भी वर्णन करते हैं। उदाहरण के लि गज बनाने के लिए बाल, ढोल बनाने के लिए प्रयोग की जाने वाली लकड़ी या चिकनी मिट्टी या फिर वाद्यों में प्रयुक्त जाने वाली जानवरों की खाल यह सभी हमें उस प्रदेश विशेष की वनस्पति तथा पशु-वर्ग की विषय में बताते हैं।
दूसरी से छठी शताब्दी ईसवी के संगम साहित्य में वाद्य के लिए तमिल शब्द श्कारूवीश् का प्रयोग मिलता है। इसका शाब्दिक अर्थ औजार है, जिसे संगीत में वाद्य के अर्थ में लिया गया है।
बहुत प्राचीन वाद्य मनुष्य के शरीर के विस्तार के रूप में देखे जा सकते हैं और जहां तक कि हमें आज छड़ी ओर लोलक मिलते हैं। सूखे फल के बीजों के झुनझने, औरांव के कनियानी ढांडा या सूखे सरस फल या कमर पर बंधी हुई सीपियों को ध्वनि उत्पन्न करने के लिए आज भी प्रयोग में लाया जाता है।
हाथ का हस्तवीणा के रूप में उल्लेख किया गया है, जहां हाथों व उंगलियों को वैदिक गान की स्वरलिपि पद्धति को प्रदशर्ति करने तथा ध्वनि का मुद्रा-हस्तमुद्रा के साथ समन्वय करने के लिए प्रयोग में लाया जाता है।
200 ईसा पूर्व से 200 ईसवी के समय में भरतमनि द्वारा संकलित नाटयशास्त्र में संगीत वाद्यों को ध्वनि की उत्पत्ति के आधार पर चार मुख्य वर्गों में विभाजित किया गया है –
1. तत् वाद्य अथवा तार वाद्य – तार वाद्य
2. सुषिर वाद्य अथवा वायु वाद्य – हवा के वाद्य
3. अवनद्व वाद्य और चमड़े के वाद्य – ताल वाद्य
4. घन वाद्य या आघात वाद्य – ठोस वाद्य, जिन्हें समस्वर स्तर में करने की आवश्यकता नहीं होती।