रोपड़ सभ्यता की खोज में मिले अवशेष क्या क्या है , ropar civilization is found in hindi रोपड़ किस नदी के किनारे स्थित है

ropar civilization is found in hindi रोपड़ सभ्यता की खोज में मिले अवशेष क्या क्या है रोपड़ किस नदी के किनारे स्थित है ?

रोपड़ (30.96° उत्तर, 76.53° पूर्व)
रोपड़ या रूपनगर पंजाब राज्य में एक जिला मुख्यालय है, जो सतलज नदी के बारा तट पर चंडीगढ़ से 40 किमी. की दूरी पर स्थित है। स्वतंत्र भारत का यह पहला हड़प्पाकालीन स्थल है, जहां उत्खनन कार्य किया गया। यहां के उत्खनन से मख्य सांस्कृतिक कालों का एक क्रम पाया गया है, जो इस प्रकार हैः हड़प्पा (200 ईसा पूर्व-1400 ईसा पूर्व), चित्रित धूसर मृदभाण्ड (700-1200 ईस्वी) एवं मध्यकाल (1200-1700 ईस्वी)।
रोपड़ हड़प्पाकालीन एक प्रमुख स्थल है। यहां से ऐतिहासिक महत्व की जो वस्तुएं प्राप्त हुई हैं, उनमें तांबे का जार एक टूटी कटोरी, टेराकोटा की बनी चूड़ियां, हड्डियां, खोल एवं कुछ हड़प्पाई मृदभाण्ड प्रमुख हैं। यहां से बैल की एक मूर्ति, तिकोनी बट्टी तथा कांसे का बना एक उस्तरा भी पाया गया है।
रोपड़ से एक लंबे अंतराल के बाद चित्रित धूसर मृदभाण्ड काल में लोगों के पुनः बसने के प्रमाण भी प्राप्त होते हैं। इस काल की सबसे मुख्य विशेषता सुघड़ एवं अच्छी तरह पकी हुई ईंटें हैं। इस काल में प्रयुक्त होने वाली सबसे प्रमुख धातु तांबा थी, जबकि लोहे के कुछ टुकड़ों की प्राप्ति से इस तथ्य के भी संकेत मिलते हैं कि इस काल में लोग लोहे को गलाने की कला से परिचित थे। यहां से प्राप्त अन्य प्रमुख वस्तुओं में बहुमूल्य पत्थर, मनके एवं टेराकोटा की बनी एक खिलौना गाडी प्रमख हैं।
तृतीय काल द्वितीय शहरीकरण से संबंधित है तथा इसी काल में महाजनपदों का उदय हुआ। चांदी के बने आहत सिक्के, गोलाकार कुएं, पकी हुई ईंटें, अगूठियां, पालिशदार पत्थर, हड्डियों एवं हाथी दांत से बनी वस्तुएं, जैसे-कंघी, पिन इत्यादि भी यहां से प्राप्त किए गए हैं।

रोजड़ी (22°15‘ उत्तर, 70°40‘ पूर्व)
गुजरात में स्थित रोजड़ी हड़प्पा सभ्यता का एक क्षेत्रीय केंद्र था। 1982 में प्रारंभ हुए रोजड़ी के उत्खनन से हड़प्पा सभ्यता की सामान्य स्थिति एवं सौराष्ट्र क्षेत्र में इस सभ्यता की विशिष्ट स्थिति दोनों के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। यहां से प्राप्त विभिन्न स्तरों की रेडियो कार्बन तिथियों से क्षेत्रीय कालक्रम को पुनर्परिभाषित करने में सहायता मिली है। यहां से प्राप्त विभिन्न पूर्वपाषाणकालीन वानस्पतिक अवशेषों से प्राचीन सौराष्ट्र की जीविकोपार्जन व्यवस्था के बारे में पता चलता है जो तत्कालीन सिंध एवं पंजाब की इस व्यवस्था से नितांत भिन्न थी, जहां मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा स्थित थे। यहां से उत्खनित प्रमाण भी प्राचीन भारतीय कृषि व्यवस्था के साथ अफ्रीकी बाजरे (मोटा अनाज) के समन्वय को समझने में हमारी मदद करते हैं।
यहां पर अधिवास का अंतिम समय लगभग 2000 ई.पू. से 1700 ई.पू. था, जब मोहनजोदड़ो तथा उत्तर के कई अन्य क्षेत्रों का परित्याग किया जा रहा था, जिससे यह पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता का कथित अंत जैसाकि सामान्यतः प्रस्तुत किया गया, एक बेहद अलग प्रक्रिया थी।

प्रारंभिक ऐतिहासिक काल (200 ईसा पूर्व-600 ईस्वी)
में कला एवं उद्योग दोनों क्षेत्रों में कई नई विशेषताएं दर्ज की गयीं। यक्ष एवं यक्षिणी की प्रतिमाएं, आभूषण एवं कुछ अन्य वस्तुओं की प्राप्ति इस काल से संबंधित है।
यहां से शक एवं कुषाणकालीन कई सिक्के भी प्राप्त किए गए हैं। यहां से चंद्रगुप्त प्रथम का एक सोने का सिक्का भी मिला है। एक गड्ढे में यहां 200 ईसा पूर्व से 600 ईस्वी काल के सिक्कों का एक ढेर भी प्राप्त किया गया है। पुरातात्विक उत्खननों से यहां 8वीं-10वीं शताब्दी के दौरान समृद्धि के अनेक प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
यहां से मध्यकालीन प्रमाण भी पाए गए हैं, जिनमें बहुवर्णी चमकदार मृदभांड, सजावटी वस्तुएं तथा हवन सामग्री सम्मिलित हैं। मुगलकाल में प्रयुक्त होने वाली लखौरी ईंटें भी यहां से मिली हैं। यहां से मुबारकशाह खिलजी (1316-1320 ई.) एवं इब्राहीम लोदी (1517-1526 ई.) के सिक्के भी मिले हैं, जोकि उनके आधिपत्य का प्रमाण हैं।

रूपनाथ (23°10‘ उत्तर, 79°56‘ पूर्व)
मध्य प्रदेश में सलीमाबाद (जबलपुर) नामक स्थान के समीप कैमूर की पहाड़ियों में स्थित रूपनाथ अशोक के एक लघु शिलालेख की प्राप्ति के लिए प्रसिद्ध है। यहां एक श्लिंगश् की उपस्थिति से यह शैव धर्म के अनुयायियों का एक प्रसिद्ध धार्मिक केंद्र है। ऐसी मान्यता है कि अशोक के समय से ही यह स्थान हिन्दू धर्म के लोगों के लिए एक प्रमुख धार्मिक स्थल रहा होगा। संभवतः रूपनाथ से एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र भी होकर गुजरता था। यह मार्ग इलाहाबाद (प्रयाग) से भड़ौच जाता था तथा रूपनाथ से होकर गुजरता था।

साकेत/अयोध्या (26.80° उत्तर, 82.20° पूर्व)
साकेत छठी शताब्दी ईसा पूर्व के प्रमुख गणराज्य उत्तरी कोसल की राजधानी था। पतंजलि के महाभाष्य में इसका उल्लेख प्राप्त होता है। टालमी ने अपनी कृति ‘भूगोल‘ में इसका उल्लेख ‘सोगेडा‘ के नाम से किया है तथा फाह्यान ‘शा-चि‘ नाम से इसका उल्लेख करता है। जातक कथाओं में साकेत का उल्लेख महत्वपूर्ण नगर के रूप में किया गया है। कोसल साम्राज्य का महत्वपूर्ण नगर होने के साथ ही साकेत तत्कालीन भारत के छः सर्वाधिक महत्वपूर्ण नगरों में से भी एक था। साकेत से श्रावस्ती को एक प्रमुख मार्ग भी जाता था किंतु इस पर लुटेरों का आतंक होने के कारण व्यापारियों एवं यात्रियों का इस मार्ग पर चलना अत्यंत जोखिम भरा कार्य था।

सालसीट (19°12‘ उत्तर, 72°54‘ पूर्व)
सालसीट एक छोटा द्वीप है, जो मुंबई के समीप अरब सागर में स्थित है। 16वीं शताब्दी में गुजरात के शासक से इसे पुर्तगालियों ने छीन लिया। सालसीट पर अधिकार को लेकर पुर्तगालियों एवं मराठों में सदैव संघर्ष चलता रहा। पेशवा बालाजी बाजीराव के भाई चिमाजी अप्पा के समय मराठों ने 1739 में सालसीट को पुर्तगालियों से छीन लिया।
बेसीन के साथ सालसीट भी प्रारंभ से ही अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के आंखों की किरकिरी बना हुआ था। क्योंकि यह राजस्व प्राप्ति का एक प्रमुख स्रोत होने के साथ ही कपास उत्पादक मालवा क्षेत्र में पहुंचने का आसान माध्यम भी था। इसीलिए 1782 की सालबाई की संधि में अंग्रेजों ने मराठों पर सालसीट को सौंपने का दबाव डाला तथा शीघ्र ही इसे ब्रिटिश साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।

समाना (30.16° उत्तर, 76.19° पूर्व)
समाना वर्तमान पंजाब में स्थित है। मध्यकालीन भारत में यह महत्वपूर्ण सीमावर्ती सामरिक केंद्र था।
दिल्ली सल्तनत के समय में यह भारतीय शासकों के लिए समस्या का एक प्रमुख स्रोत था क्योंकि मंगोल बार-बार इस पर अधिकार कर लेते थे। बलबन ने भटिंडा के साथ समाना की सुरक्षा के लिए व्यापक कदम उठाए। उसने समाना के किले की मरम्मत कराई तथा इसकी चारदीवारी से सुरक्षा और बढ़ाई गई। साथ ही उसने व्यास नदी को पार कर आने वाले मंगोलों के आक्रमण से बचाव के लिए यहां भारी सैन्य बल तैनात किया।
दिल्ली सल्तनत का सुल्तान एवं तुगलक वंश का संस्थापक गियासुद्दीन तुगलक सुल्तान बनने से पहले समाना का ही राज्यपाल था।

संभल (28.58° उत्तर, 78.55° पूर्व)
आगरा के समीप, उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित संभल, प्रारंभ से ही एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। अपने प्रारंभिक समय में यह राजपूत शासकों के अधीन था। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ ही यह दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बन गया। यद्यपि इसका महत्व तब बढ़ा जब, साम्राज्य के पूर्वी हिस्से में उत्पन्न अव्यवस्था को समाप्त करने के लिए सिकंदर लोदी ने अपना मुख्यालय संभल को बना लिया। बाद में उसने अपना मुख्यालय संभल से आगरा स्थानांतरित कर दिया।
शेरशाह सूरी के सेनापति निसार खान ने 1540 ई. में कन्नौज के युद्ध के उपरांत संभल पर अधिकार कर लिया। इस समय यहां का राज्यपाल हुमायूं का सेनापति मिर्जा अस्करी था, जो इस आक्रमण के उपरांत भाग खड़ा हुआ। लेकिन हुमायूं ने कुछ समय पश्चात संभल पर पुनः अधिकार कर लिया तथा इसे मुगल साम्राज्य का एक हिस्सा बना लिया।
अकबर के शासनकाल के दौरान, 1556 ई. में संभल के मिर्जाओं ने सुल्तान के विरुद्ध विद्रोह किया किंतु शीघ्र ही यह विद्रोह कुचल दिया गया।

सांभर (26.92° उत्तर, 75.2° पूर्व)
सांभर या शाकंभरी अजमेर में सांभर झील के तट पर, जयपुर के पश्चिम में राजस्थान में स्थित है। आठवीं सदी में एक चैहान सरदार समंत ने अजमेर के निकट सांभर नामक राज्य की स्थापना की थी। उसके उत्तराधिकारी अजयदेव ने वर्तमान अजमेर नगर की स्थापना की तथा वहां एक शक्तिशाली दुर्ग बनवाया। चैहान वंश के प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज तृतीय की अजमेर से जुड़ी शौर्यगाथाएं सर्वप्रसिद्ध हैं। पृथ्वीराज ने 1191 ई. में तराईन के प्रथम युद्ध में मु. गौरी को बुरी तरह पराजित किया था।
सांभर झील, खारे पानी की एक प्रसिद्ध झील है, जो खारे पानी की भारत की सबसे बड़ी झील भी है। ऐसा कहा जाता है कि इस झील का निर्माण दुर्गा की अवतार शाकंभरी ने छठी शताब्दी ई. में किया था। इस झील के उत्तरी तट पर पानी से नमक का निर्माण किया जाता है।

सामूगढ़ (27.18° उत्तर, 78.02° पूर्व)
सामूगढ़ आगरा के समीप उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका ऐतिहासिक महत्व उस उत्तराधिकार के युद्ध की वजह से है, जो शाहजहां के बाद औरंगजेब एवं उसके भाई दाराशिकोह के मध्य सिंहासन की लड़ाई के लिए हुआ था। इस युद्ध में औरंगजेब ने दाराशिकोह को बुरी तरह पराजित किया था। ऐसा कहा जाता है कि भारत के सिंहासन पर औरंगजेब का अधिकार सामूगढ़ की विजय से ही सुनिश्चित हो गया था।

सांची (23.47° उत्तर, 77.73° पूर्व)
सांची मध्य प्रदेश के विदिशा से लगभग 9 किमी. की दूरी पर दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित है। सांची बौद्ध स्तूपों के लिए पूरे संसार में प्रसिद्ध है। यहां की पहाड़ी पर बौद्ध शासक अशोक ने एक विशाल स्तूप का निर्माण करवाया था। ईंटों से निर्मित इस स्तूप के चारों ओर लकड़ी की बाड़ लगाई गई है। यहां अनेक विहार, स्तूप एवं मंदिर भी हैं। यह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से बारहवीं शताब्दी के लगभग तेरह सौ वर्षों से संबंधित बेहद परिष्कृत एवं भली-भांति संरक्षित स्तूपों, और बौद्ध कला एवं वास्तुकला-बौद्ध कला की लगभग संपूर्ण शृंखला को समेटे हुए-के दृष्टिगत् बेजोड़ है। दीर्घकाल तक बौद्ध धर्म से संबंधित होने के कारण सांची को ‘चैत्यगिरी‘ के नाम से भी जाना जाता है।
सांची की पहाड़ी पर एक बड़ा तथा दो छोटे कुल तीन स्तूप हैं। इन स्तूपों में बड़ा स्तूप ‘महास्तूप‘ कहलाता है, जो महात्मा बुद्ध के अवशेषों पर निर्मित है। दूसरा स्तूप अशोककालीन धर्म प्रचारकों एवं तीसरा बुद्ध के दो प्रिय शिष्यों-महामोद्ग्ल्यान एवं शारिपुत्र के अवशेषों पर बना है। महास्तूप अशोककालीन एवं दूसरे एवं तीसरे स्तूप शुंग-सातवाहनकालीन माने जाते हैं। यद्यपि शुंग काल में महास्तूप का जीर्णाेद्धार किया गया। उस पर पत्थर लगाए गए, चारों दिशाओं में तोरण द्वार बनाए गए तथा वेदिका को भी पाषाण का बना दिया गया। पहले यह लकडी से बनी थी। महास्तप के तोरण द्वारों पर बुद्ध के जीवन से संबंधित विभिन्न घटनाओं एवं जातक कथाओं से संबंधित सुंदर दृश्यों को उत्कीर्ण किया गया है। महास्तूप के दक्षिणी द्वार के समीप अशोक का एक स्तंभ भी खंडित अवस्था में पाया गया है। यहां से दो गुहा मंदिरों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।
सांची के पर्वत शिखर पर, ऊंचाई में लगभग 91 मीटर, बौद्ध स्मारकों का समूह है, जोकि अधिक दूरी से भी ध्यान अपनी ओर खींच लेते हैं।
सांची के महान धार्मिक आधिष्ठान का आधार, भविष्य में कई शताब्दियों तक बौद्ध धर्म के एक शानदार केंद्र के रूप में पहचाने जाने वाले स्थल को संभवतः अशोक ने (लगभग 273-236 ई.पू.) निर्मित कराया, जब उसने यहां पर एक स्तूप तथा एक विशालकाय स्तंभ लगवाया था।
सांची के सर्मपणात्मक अभिलेख स्पष्टतया यहां पर बौद्ध प्रशासन की समृद्धि दर्शाते हैं, यह बहुत हद तक विदिशा के समृद्ध व्यापारियों के कारण तथा इसके दो प्रमुख व्यापार मार्गों पर सामरिक महत्व की स्थिति के कारण था। दूसरी शताब्दी ई.पू. के लगभग मध्य में जब शुंग साम्राज्य था, पाषाणीय कोषस्थीकरण किया गया तथा बुद्ध के स्तूपों का विस्तार किया गया। अगली शताब्दी में भी यही धार्मिक महत्वाकांक्षा तथा सृजनात्मक शक्तियां निरंतर कार्य करती रहीं। सातवाहन शासन के समय स्तूप 1 तथा स्तूप 3 में सुपरिष्कृत रूप से तराशे गए प्रवेश द्वारों के अलंकरण को बढ़ाया गया।
क्षत्रपों के शासनकाल में दीर्घकालीन निष्क्रियता के बाद गुप्त शासन में सांची की मूर्तिकला संबंधी गतिविधि में पुनर्जागरण हुआ। सत्रहवें मंदिर में हमें गुप्त काल के मंदिर की वास्तुकला के प्राचीनतम मंदिरों में से एक मिला, जिन्हें संतुलित अनुपात, संयमित अलंकरण तथा लालित्य के लिए जाना जाता है। सातवीं तथा आठवीं शताब्दी के चिन्ह, जिन्होंने सांची में अनेकों मठ तथा मंदिरों का निर्माण देखा, इस स्थल में बौद्ध संप्रदाय की समृद्ध स्थिति को दर्शाते हैं।
14वीं शताब्दी के पश्चात सांची लगभग उपेक्षित रहा तथा किसी का ध्यान इसकी ओर नहीं गया। पुनः 1818 में लोगों का ध्यान उसकी ओर अंग्रेज जनरल टेलर ने खींचा. जब उसने इसके अवशेषों को खोजा।