restriction enzymes were discovered by in hindi , प्रतिबंध एंजाइम की खोज किसने की थी

पढों restriction enzymes were discovered by in hindi , प्रतिबंध एंजाइम की खोज किसने की थी ?

पुनर्योगज डीएनए तकनीक (Recombinant DNA Technology)

अधिकतर जीवों में आनुवंशिक पदार्थ डीएनए ही पाया जाता है। डी एन ए एक स्थायी प्रकार का द्विलडीय अणु होता है जिसमें नाइट्रोजनी क्षारक युग्म एक विशिष्ट अनुक्रम में व्यवस्थित रह हैं। यदि इन नाइट्रोजनी क्षारकं युग्मों के अनुक्रम में परिवर्तन कर दिया जाये तो उत्परिवर्ती (mutant) प्रकार का डी एन ए प्राप्त होता है। इस उत्परिवर्ती डी एन ए से प्रोटीन संश्लेषण की क्रिया भी परिवर्तित हो जाती है अर्थात् डी. एन ए में न्युक्लिओटाइट्स का क्रम ही प्रोटीन संश्लेषण के दौरान अमीनों अम्लों के चयन एवं क्रम का निर्धारण करता है। अनेक एन्जाइम ( enzyme) भी प्रोटीन ही होते हैं जो उपापचयी क्रियाओं का संचालन करती है।

एक जीव के डी एन ए के साथ दूसरे जीव के डी एन ए के जोड़ देने की तकनीक को पुनर्योगज तकनीक (recombinant technique) तथा इस प्रकार प्राप्त संकरित डी एन ए को पुनर्योगज डी एन ए (recombinant DNA) कहते हैं। इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि इच्छित डी एन ए श्रृंखला दो स्त्रोतों से प्राप्त डी एन ए श्रृंखलाओं को जोड़ कर प्राप्त की जाती है। यह नवीन प्रकार का संयोजन है जो अब पुनर्योगज डी एन ए (recambinent DNA) कहलाता है। ये दो स्त्रोत जीवाणु, विषाणु, पादप अथवा कोई प्राणी भी हो सकते हैं। एक प्रकार से ये डी. एन.ए खण्डों का काट कर अन्य के साथ जोड़ने की क्रिया है। इसे जीन सम्बन्धन (gene splicing) के नाम से भी जाना जाता है। यह आनुवंशिक अभियान्त्रिकी (gene engineering) की प्रमुख शाखा के रूप में स्थापित हो चुकी है। यह क्रिया कुछ एन्जाइम्स की सहायता से करायी जाती है। पुनर्योगज डी एन ए बनाने की तकनीक वैज्ञानिकों द्वारा खोजी गयी दो सम्मुच की जानकारियों पर आधारित है।

  1. वाटसन व क्रिक (Watson and Crick) द्वारा उपलब्ध डी एन ए मॉडल से संरचना सम्बन्धित ज्ञान ।
  2. आस्ट्रेलिया के विलियम हेज (William Hays) एवं अमेरिका के जोशुआ लेडबर्ग (Joshua Lederberg) नाम वैज्ञानिकों द्वारा जीवाणुओं में जीवाण्विक गुणसूत्र के अतिरिक्त वृतीय डी एन ए (circular DNA ) या प्लाज्मिड (plasmid) की खोज। इन प्लाज्मिड्स पर कुछ ही विशिष्ट जीन पाये जाते हैं जो अन्य जीवाणुओं में स्थानान्तरित किये जाते हैं। जैसे प्रतिजैविकों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता, आविष उत्पादन आदि ।
  3. स्विट्जरलैण्ड के वर्नर आर्बर (Werner Arber) द्वारा प्रतिबन्धित एन्जाइम्स (restriction enzymes) की खोज। ये एन्जाइम्स डी एन ए को छोटे-छोटे खण्डों या टुकड़ों में विभक्त कर देते हैं। कुछ एन्जाइम इन विभक्त किये गये अंशों को पुनः जोड़ने की क्षमता रखते हैं अथवा इन्हें बढ़ाने या परिवर्तित करने की क्षमता रखते हैं।

उपरोक्त जानकारियों का उपयोग कर पुनर्योगज डी एन ए तकनीक का विकास किया गया। इस क्रिया को निम्नलिखित चरणों में सम्पन्न कराया जाता है –

(i) इच्छित प्रोटीन का संश्लेषण करने वाले डी एन ए खण्ड को किसी जीव से प्राप्त करना । इसे बाह्य (foreign) या पेसेन्जर (passenger) डी एन ए कहते हैं।

(ii) डी एन ए में तो प्रतिकृतिकरण (replication) करने की क्षमता पायी जाती है किन्तु इसके खण्डों में नहीं पायी जाती । अतः यह आवश्यक है कि इस डी एन ए खण्ड को किसी अन्य जीव (जीवाणु या विषाणु) के प्लाज्मिड या डी एन ए खण्ड के साथ जोड़ दिया जाये जिसमें प्रतिकृतिकरण की क्षमता के गुण हो। इस अन्य जीव (जीवाणु/विषाणु) को वाहक ( vector) कहते हैं। वाहक में उपस्थित प्लाज्मिड या डी एन ए के भी अनेक टुकड़े कर दिये जाते हैं एवं इनमें से वांछित लक्षणों द्वारा डी एन ए खण्ड ही चुना जाता है। स्पष्ट है यह कार्य आसान नहीं है। वांछित लक्षण वाले डी एन ए का चयन कर लिया जाता है। इस वाहक डी एन ए के दोनों मुक्त सिरों का इच्छित प्रोटीन संश्लेषण करने वाले डी एन ए खण्ड के साथ जोड़ दिया जाता है। इस प्रकार संकरित डीएनए (hybrid DNA) अणु प्राप्त होता है।

(iii) इस संकरित डी एन ए को यदि किसी परपोषी कोशिका सामान्यतः जीवाणु में प्रवेश करा दिया जाये तो यह संकरित डी एन ए अपनी प्रतिलिपि बनाने लगता है।

(iv) संकरित डी एन ए इच्छित प्रोटीन संश्लेषण का गुण रखता है। अतः इच्छित प्रोटीन या एन्जाइम अथवा उत्पाद बनाता है।

पुनर्योगज डी एन ए बनाने की तकनीक (Techniques of forming recombinant DNA)

(i) डी एन ए की दोनों लडियों के अन्तिम सिरे पर नये डी एन ए की लड़ियों को जोडना । (प्रथम विधि ) : यह तो हम जानते ही हैं कि सदैव A क्षारक T क्षारक के साथ व G क्षारक C क्षारक के साथ हाइड्रोजन बन्ध बनाते हुए पाये जाते हैं। A व T तथा G व C संयुग्मी क्षारक T (conjugant base) कहलाते हैं। अतः यदि एक डी एन ए की दोनों लड़ियों के अंतिम सिरे पर यदि संयुग्मी क्षारक जोड़े जाये तो द्विकुण्डलीय संरचना बन जायेगी। इसका उपयोग इस प्रकार कि जाता है कि हम एक डी एन ए के एक सिरे पर कुछ क्षारक जोड देते हैं तथा दूसरे डी एन ए के सिरे पर वे क्षारक जोडें जो प्रथम डी एन ए से जोड़े गये क्षारकों से मेल खाते हैं तो द्विकुण्डलित संरचना बनकर तैयार हो जायेगी जिसे पुनर्योगज डी एन ए कहेंगे। इस कार्य हेतु विशिष्ट एन्जाइम ” अन्तस्थ स्थानान्तरकारी एन्जाइम’ (terminal transferase enzyme) लेते हैं। यह एन्जाइम डी एन ए की लड़ी के सिरे पर क्रमशः एक-एक करके नये क्षारक जोड़ सकता है।

जब इन दोनों नवनिर्मित डी एन ए को मिलाते हैं तो संयुग्मी क्षारक परस्पर संयुक्त होने का प्रयास कर निम्नलिखित संरचना बनाते हैं।

इस प्रकार नवनिर्मित डी. एन. ए. Z  में चार स्थानों पर रिक्त स्थान रह जाते हैं ये वो स्थान हैं, जहाँ लड़िया संयुक्त नहीं होतीं। इन रिक्त स्थानों को पूरा करने हेतु डी. एन. ए. लाइगेज (ligase), ना एन्जाइम प्रयुक्त करते हैं। इन स्थानों पर सह संयोजी बंध (covalent bond) बनाकर पूर्णतः नये जीन का निर्माण कर पुनर्योगज डी एन ए अणु बनाता है।

  • प्रतिबंधित एन्जाइमों के उपयोग द्वारा (द्वितीय विधि ) ( Method by using restricted enzyme) (second method) : इस विधि में भी सह संयोजी बंध बनाकर संकरित जीन का निर्माण प्रथम विधि के अनुसार करते हैं किन्तु इसमें विशेष प्रकार के एन्जाइम प्रतिबन्ध एन्जाइम (restriction enzyme) का उपयोग किया जाता है। इस प्रकार के लगभग 100 प्रकार के प्राप्त किये गये हैं। ये चाकू के समान डी एन ए अणु की लडियों को एक विशिष्ट क्षारक क्रम में पहचान लेते हैं एवं एन्जाइम के सक्रिय स्थल पर DNA की दोहरी लड़ी को काट देते हैं। अधि कतर एन्जाइम्स 4, 6.8 क्षारक लम्बाई को पहचान कर काटते हैं। कुछ एन्जाइम्स दोनों लडियों को काट कर कुन्द सिरे (bluntends ) में छोड़ देते हैं जबकि कुछ दोनों लड़ियों को सांसत क्षेत्र में काटते हैं और एक लड़ीय DNA कटे हुऐ भाग पर लटकता रहता है। ये सिरे चिपचिपे (sticky) सिरे कहलाते हैं। एन्जाइम विशिष्टता के कारण दोनों सिरों से प्राप्त DNA के अंशों पर ही क्षार अनुक्रम पाया जाता है। पर काट देते हैं यदि ई. कोली से प्राप्त एन्जाइम का उदाहरण लेकर इस विधि को समझाये, यह एन्जाइम जिसे ई. को आर. आई. एन्जाइम कहते हैं डी. एन. ए अणु में क्षारक क्रमों की पहचान कर क्षारक G व A के मध्य काट देता है।

यदि भिन्न स्त्रोतों से प्राप्त ऐसे दो डी एन ए के टुकड़ों को मिला दें तो संयुग्मी क्षारक परस्पर हाइड्रोजन बन्ध बनाकर द्विकुण्डलित संरचना बना लेगें। इसमें भी उपस्थित प्रथम विधि के समान दो छिद्र पाये जायेंगे जिन्हें डी एन ए लाइगेज का उपयोग कर पूर्णतः संकरित जीन प्राप्त किया जा सकता है। उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि ई. को आर, आई और डी एन ए लाइगेज की सहायता से दो भिन्न जीवों के जीन (जिसमें एक ई. कोली है) को संकरित कर नये कर जीन प्राप्त किये जा सकते हैं। जीन-इंजिनियरिंग के क्षेत्र में इन प्रयोगों की अपरिमित संभावनाएँ हैं, चाहे प्रयुक्त जातियों में कोई समानता हो या नहीं जैसे चूहे व छिपकली का संकर, तोते व घड़ियाल का संक आम व केले का संकर आदि यह अलग बात है कि इनके अभिलक्षण क्या होते हैं।

इस विधि द्वारा प्राणियों व वनस्पति की नयी जातियाँ उत्पन्न की जा सकती है। उन्नत किस्में भी प्राप्त की सकती है। हो सकता है ऐसे प्राणी उत्पन्न हो जाये जो मनुष्य से अधिक शक्तिशाली हो या ऐसे जीवाणु बन जाये जो महामारी फैलाकर मनुष्य जाति का विनाश कर दें। अतः पालबर्ग वैज्ञानिक जिन्होंने इस तकनीक की खोज की यह प्रस्ताव भी रखा कि इस प्रकार के शोध कार्यो पर फिलहाल रोक लगा दी जाये ताकि इस तकनीक का दुरूपयोग न किया जा सके। यद्यपि किसी जीव में डी.एन.ए. की मात्रा भी अत्यधिक होती है जिन्हें छांट कर अलग-अलग करना चुनना व पुनर्योगज डी.एन.ए. बनाना इतना अधिक सरल कार्य नहीं है।

(iii) क्लोनिंग (तृतीय विधि) (Cloning third method) : जीन के नवीन मेल अथवा संयोग (combination) बनाने की यह क्रिया जीन क्लोनिंग (Gene cloning) कहलाती है, यह जीन अभियांत्रिकी का अत्यन्त महत्वपूर्ण उपकरण (tool) है, इस क्रिया के निम्नलिखित चरण है-

(i) आवश्यक जीन (gene fragment) को पृथक करना। यह पृथकित D.N.A. दाता DNA (donor DNA) या पैसेन्जर (passenger) अथवा बाह्य (foreign) DNA कहलाता है। यह क्रिया : रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम्स (restriction enzymes) के द्वारा की जाती है।

(ii) दाता DNA को वाहक (vector) या क्लोनिंग वेक्टर में निवेश (insertion) कराना। यह इस क्रिया का द्वितीय पद है। वाहक जीवाणु (bacteria) या बैक्टीरियोफेग (bacteriophage) हो सकता है, इस वाहक कोशिका के DNA के साथ दाता DNA जुड़ जाता है व पुनर्योगज DNA (recombinant DNA) बनता है। इस प्रकार वाहक कोशिका के भीतर स्वयं के जीन्स के अतिरिक्त निवेशित जीन्स (दाता DNA ) भी होते हैं।

(iii) वाहक कोशिका का पोषक कोशिका जो जीवाणु होती है में प्रवेशित कराते हैं। पोषक जीवाणु कोशिकाओं का संवर्धन करने पर ये अपनी संतति को जन्म देती है जिनमें स्वयं के जीन्स साथ-साथ बाह्य या दाता DNA के जीन्स की अनेक प्रतिकृतियाँ या इनके उत्पाद प्रोटीन, एन्जाइम आदि बनाते हैं।

यह तो विदित ही है कि डी.एन.ए. से डी.एन.ए. की प्रतिकृति तभी बनती है जब यह एक विशेष जीन से संयुक्त होता है। यह जीन ही प्रतिकृति बनाने का आदेश देता है तभी डी. एन. ए. का अनुलिपिकरण होता है व एक डी.एन.ए. के जैसा ही दूसरा डी. एन. ए. अणु बन जाता है। कोशिकाओं में इन पुनर्लिपिकरण जीनों की संख्या सीमित होती है, जैसे यदि जीवाणु का उदाहरण लें तो इनके गुणसूत्र में 3-5 हजार जीन हो सकते हैं किन्तु इनमें पुनर्लिपिकरण जीन एक ही होता है। . पुनर्लिपिकरण जीन की एक विशेषता यह भी है कि यह पैतृक डी.एन.ए. से अलग कर यदि किसी अन्य डी.एन.ए के साथ जोड़ दिया जाये तो यह दूसरे डी.एन.ए का पुनर्लिपिकरण करने लगता है, इस गुण का ही उपयोग इन तकनीक हेतु किया जाता है।

कुछ जीवाणुओं में छोटे वृत्ताकार डी. एन. ए. अणु जिन्हें प्लैज्मिड (plasmids) कहते हैं पाये जाते हैं इनमें पुनरावृत्ति की क्षमता पायी जाती है, अर्थात् इसमें पुनर्लिपिकरण जीन उपस्थित होता है। हमें पुनर्लिपिकरण जीन चाहिए किन्तु अरबों कोशिकाओं में से प्लेज्मिड कैसे अलग करें, इसका वैज्ञानिकों ने आसान तरीका तलाश किया है। कुछ जीवाणुओं के प्लैज्मिड में ऐसा जीन पाया जाता है जो ऐसे एन्जाइम बनाता है जो पेनिसिलिन जैसे एन्टीबायोटिक को नष्ट कर देते हैं अर्थात् इन पर पेनिसिलिन का कोई प्रभाव नहीं होता। यदि हम ऐसे जीवाणुओं का संवर्धन पेनिसिलिन युक्त माध्यम में करे प्लैज्मिड-युक्त कोशिकाओं की प्राप्ति हो जायेगी। इनसे प्लैज्मिड प्राप्त किये जा सकते हैं।

यह क्रिया निम्नलिखित प्रकार से करायी जाती है –

  1. इच्छित प्रोटीन का संश्लेषण करने वाले डी.एन.ए. खण्ड को किसी एक जाति (species 1) से प्राप्त करते हैं। इसे दाता डी एन ए (donor DNA) कहते हैं। इसे प्रतिबन्धित एन्जाइम्स की सहायता से छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लिया जाता है। प्रतिबन्धित एन्जाइम्स आण्विक कैचीं (molecular scissors) के समान होते हैं जो डी.एन.ए. के विशिष्ट बिन्दु को पहचान कर (न्यूक्लिओटाइड अनुक्रम के आधार पर काट देते हैं।)
  2. जीवाणु कोशिका जिसमें प्लाज्मिड हो को लिया जाता है। इसे खोल कर इससे प्लाज्मिड पृथक कर लिये जाते हैं। प्रतिबन्धित एन्जाइम का उपयोग कर इसके वृतीय डी एन ए को खोल कर रेखीय (linear) प्रकृति का बना लिया जाता है इसे वाहक (vector) कहते हैं।
  3. एन्जाइमों की विशिष्टता के कारण दोनों स्रोतों से प्राप्त डी. एन. ए. के टुकड़ों पर एक ही क्षार अनुक्रम (base sequence) पाया जाता है। इन्हें चिपकने वाले सिरे (sticky ends) कहते हैं। डी.एन. ए लाइगेज एन्जाइम की सहायता से ऊष्मायन करने पर इन दोनों स्रोत के डी एन ए अंशों को जोड़ कर पुनः वृताकार डी एन ए बना लिया जाता है। इसे संकर प्लाज्मिड (hybrid plasmid) कहते हैं। इस प्रकार प्राप्त डी एन ए अणु पुनर्योगज डी एन ए (recombinant DNA) होता है।
  4. अगले पद में इस संकरित प्लाज्मिड को एक अन्य जीवाणु कोशिका में प्रविष्ट कराया जाता है। जहाँ यह प्रतिकृतिकरण की क्रिया करता है। यह प्रक्रिया रूपान्तरण (transformation) कहलाती है। इस प्रकार संकरण कोशिका का निर्माण होता है।

यदि इच्छित डी एन ए के स्थान पर संश्लेषित डी एन ए को लियो जाये तो अधिक अच्छा – होगा। दाता डी एन ए का टुकड़ा जितना बड़ा होगा उसमें उपद्रव्यों के मिलने की संभावना भी अधि क होगी एवं क्षारक अनुक्रम भी जटिल होगा। व्यवस्थित उत्पादों को अलग करना एवं शुद्ध अवस्था में प्राप्त करना जटिल कार्य है। रासायनिक तौर पर उसी डी एन ए अंश का संश्लेषण करना लाभदायक रहता है जिसमें क्षारक अनुक्रम लगभग 18 होता है। इस प्रकार के डी एन ए में 80 प्रतिशत तक हो सकते हैं। जबकि 6 क्षारक युग्म वाले डी एन ए में केवल 10 प्रतिशत अपद्रव्य पाये जाते हैं।

बाह्य या पेसेन्जर डी एन ए का वाहक डी एन ए में प्रवेश (Integration of foreign or passenger D.N.A. with vector DNA)

जीवाणुओं में कुछ विशिष्ट एन्जाइम्स जैसे लाइसोजाइम (lysozyme) की सहायता से कोशिकाओं का चयन कर इनमें से डी. एन. ए. प्राप्त किया जाता है। इसे अपकेन्द्रण मशीन (centrifuge) द्वारा शुद्ध कर लिया जाता है। बाह्य डी. एन.ए को वाहक डी. एन. ए. के साथ जोड़ने या समाकलन (integration) करने की निम्नलिखित विधियाँ काम में लायी जाती है।

(i) रेस्ट्रिक्शन एन्जाइम्स के उपयोग द्वारा (By the use of restriction enzymes) : ही प्रकृति के रेस्ट्रिक्शन ( प्रतिबन्धित) एन्जाइम द्वारा भिन्न स्रोतों को काटे जाने पर चिप चिपे सिरे वाले काम्पलीमेन्टरी डी.एन.ए. खण्ड प्राप्त होते हैं जिन्हें लाइगेज एन्जाइम से सील कर पुनर्योग डी. एन. ए. प्राप्त किया जाता है।

(ii) पुच्छ विस्तार द्वारा (By extending tais) : यदि दोनों स्रोतों से प्राप्त डी एन ए पर रेस्ट्रिक्शन स्थल अनुपस्थित हो या एक पर अनुपस्थित हो अथवा भिन्न प्रकृति के रेस्ट्रिक्शन स्थल उपस्थित हो तो इस विधि को काम में लाते हैं। वाहक डी. एन. ए को वृत्तीय प्रकार से रेखीय प्रकार का बना लिया जाता है। चार में से किसी एक डी. ऑक्सीराइबोन्यूक्लिओटाइड फॉस्फेट्स (deoxyribonucleotide phosphates) जैसे dATP, dTTP, dCTP या dGTP की उपस्थिति में पॉलि A, पॉली Tपाली C, या पाली G (AAA, or TTT or CCC or GGG) युक्त एक सूत्री स्वतन्त्र सिरे अथवा पुच्छ का विस्तार द्विकुण्डलित डी एन ए के 3′ सिरे पर डी. एन. ए. पॉलीमरेज एन्जाइम (DNA polymerase enzyme) की उपस्थिति में किया जाता है। इसी प्रकार पेसेन्जर या बाह्य डी. एन. ए. में भी इसी के अनुरूप क्रिया करायी जाती है। इस प्रकार विस्तार की गयी पुच्छ/ सिरा वाहक अणु का सम्पूरक (complementary) होता है। अतः दोनों स्रोतों के सम्पूरक डी. एन. ए. अणुओं को लाइगेज एन्जाइम की सहायता से जोड़ दिया जाता है।

(iii).संयोजकों के उपयोग द्वारा (By the use of Linkers) : यदि बाह्य डी.एन.ए. अणु में रेस्ट्रिक्शन स्थल अनुपस्थित हो या चिप सिरे प्राप्त करना भी सम्भव न हो तो इस विधि का उपयोग किया जाता है। T लाइगेज की T4 उपस्थिति में ज्ञात अनुक्रम के संश्लेषित 8-10 संश्लेषित क्षार युग्म डी. एन. ए. के भोटें सिरे पर जोड़ दिये जाते हैं। इस प्रकार इसी सम्पूरक अनुक्रम का वाहक डी.एन.ए. इसे उपलब्ध कराया जाता है। भिन्न भिन्न संयोजकों हेतु भिन्न-भिन्न रेस्ट्रिक्शन स्थल उपलब्ध कराये जाते हैं। • चिपचिपे सिरों को लाइगेज द्वारा जोड़कर पुनर्योगज डी.एन.ए. प्राप्त किया जाता है।