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उच्चावच के प्रकार कितने होते हैं ? relief features types in hindi in geography प्रथम श्रेणी के उच्चावच

relief features types in hindi in geography प्रथम श्रेणी के उच्चावच उच्चावच के प्रकार कितने होते हैं ?

भू-आकृति विज्ञान का विषय क्षेत्र
भू-आकृति विज्ञान की विविध परिभाषाओं और विज्ञानों के साथ संबंधों से इसके विषय क्षेत्र की वशालता तो पता चल गई है। सामान्यतः किसी क्षेत्र विशेष या भौतिक प्रदेश की भू आकारिकी के अंर्तगत थलरूपाों के निम्नलिखित पक्षों का अध्ययन किया जाता है।
(1) स्थलरूपाों की विशेषतायें: इसके अंर्तगत स्थलरूपाों की सामान्य विशिष्टताये स्थलरूपाों को आकारमितिक विशेषतायें स्थलरूपा प्रकारिकी का अध्ययन किया जाता है।
(2) स्थलरूपाों का उद्भव एवं विकास: स्थलरूपाों की उत्पत्ति की प्रक्रिया, स्थलरूपाों का विकास वं विनाश, स्थलरूपाों का पुनर्जनन, स्थलरूपाों का पुनर्नवीकरण आदि को समाविष्ट किया जाता है।
(3) स्थलरूपाों के निर्माणक भ्वाकृतिक प्रक्रम:
(अ) भ्वाकृतिक प्रक्रमों का स्वरूपा- इसमें अन्तर्जात भ्वाकृतिक प्रक्रम अर्थात वलन, पर्वतत, प्रशन, उत्सवलन, असंवलन आदि तथा बर्हिजात प्रक्रम इसमें अपक्षय व अपरदन का समावेश होता है।
(ब) भ्वाकृतिक प्रक्रमों की क्रियाविधि- इन क्रियाओं में अपक्षय की प्रक्रियायें, भौतिक, रासायनिक एवं जैविक प्रक्रियायें, अपरदन की क्रियाय अवसाद परिवहन की क्रिया, अर्थात्, कर्षण, साल्टेशन, निलम्बन उड़ाव आदि समावेश होता है।
(4) स्थलरूपाों की रचना सामग्रीः इसके अंर्तगत चट्टानों की प्रकृति उनके प्रकार, चट्टानों के तरों की स्थिति सरंचना, चट्टानों का यांत्रिक एवं रासायनिक संघटन आदि का समावेश होता है।
(5) समय कारक: इसके अंतर्गत मेगा मापक (चक्रीय समय), मेसोमापक (प्रवणित समय) तथा माइक्रो मापक (स्थिर दशा समय)आदि का समय कारक मापक माना जाता है।
(6) अध्ययन के उपागमः इसके अंर्तगतः समय-आधारित स्थलरूपा उपागम समय-स्वतंत्र स्थल रूपा उपागम, संरचना-स्थलरूपा उपागम, प्रक्रम-स्थलरूपा उपागम आदि का समावेश होता है।
भू-आकृति विज्ञान के अध्ययन केन्द्र की श्रेणियाँ:
विस्तार एवं आकार की दृष्टि से भूतल के उच्चावच्चों, जो भूआकृति विज्ञान के अध्ययन का केन्द्र स्थल हैं, को तीन वृहद् श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:
(1) प्रथम श्रेणी के उच्चावच (Relief features of the first order) – इस वर्ग के अंतर्गत भूतल के प्रमुख उच्चावच्चो को ही सम्मिलत किया जाता है। उदाहरण महाद्वीप तथा महासागर दो विशाल स्थलरूपाों के वर्तमान रूपा तथा वितरण, उत्पत्ति एवं विकास की समुचित व्याख्या वांछित होती है। समस्त ग्लोब के 70.8 प्रतिशत भाग पर जलमण्डल (सागर एवं महासागर) तथा 29.2 प्रतिशत भाग पर स्थलमण्डल का विस्तार है। इन्हें भूतल के प्रारम्भिक उच्चावच्च के नाम से भी अभिहीत किया जाता है।
(2) द्वितीय श्रेणी के उच्चावच (Relief features of the second order) : पर्वत, पठार, मैदान तथा झीलों को द्वितीय श्रेणी के उच्चावचों के अन्तर्गत रखा जाता है। इनको संरचनात्मक स्थलरूपा भी कहा जाता है। इन उच्चावचों का निर्माण मुख्य रूपा से पृथ्वी के आन्तरिक बलों द्वारा प्रथम श्रेणी के उच्चावच्चों पर होता है। पटलविरूपाणी बल इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं। भूतल पर दो तरह के बल कार्य करते है – रचनात्मक बल था विनाशात्मक बले। चूँकि पर्वत, पठार, मैदान का निर्माण पृथ्वी के आन्तरिक बल द्वारा होता है अतः इन्हें रचनात्मक स्थलरूपा कहते हैं। इनमें से प्रत्येक प्रकार के उच्चावच्च के सामान्य रूपा उनके निर्माण की प्रक्रिया तथा सम्बन्धित सिद्धान्त एवं विकास का अध्ययन किया जाता है। यद्यपि ज्वालामुखी क्रिया पृथ्वी के आन्तरिक बल के अन्तर्गत आती है परन्तु इसका उल्लेख पहले ही इसलिए कर दिया गया है कि इस क्रिया का पृथ्वी के आन्तरिक भाग से अधिक सम्बन्ध है।
(3) तृतीय श्रेणी के उच्चावच (Relief features of the third order)ः  द्वितीय श्रेणी के उच्चावच्चों पर निर्मित तथा विकसित स्थलरूपाों के तृतीय श्रेणी के उच्चावच्चों के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है। पर्वत, पठार मैदान आदि प्रमुख उच्चावच्चों पर पृथ्वी के बाह्य बलों द्वारा अनेक स्थलको की रचना होती है। चूंकि ये बाह्य बल विनाशकारी होते हैं, अतः इनके द्वारा निर्मित स्थलरूपाों को ‘विनाशात्मक स्थलरूपा‘ बढ़ते हैं। इन बलों में बहता हुआ जल (नदी), पवन, हिमानी तथा सागरीय तरंग अधिक महत्वपूर्ण होते है। नदियों द्वारा निर्मित स्थलरूपा तीन तरह के होते हैं- अपरदनात्मक स्थलरूपा अवशिष्ट स्थलरूपाा तथा निक्षेपात्मक स्थलरूपा हिमानी द्वारा निर्मित अपरदनात्मक स्थलरूपाों में सर्क, न् आकार की घाटी आदि, अवशिष्ट स्थलरूपाो में रेटी, मैटरहार्न, रॉशमुटोने तथा निक्षेपात्मक आकारों में हिमोढ़, एस्कर, ड्रमलिन, केम आदि महत्वपूर्ण होते हैं। भूआकृति विज्ञान में इन्हीं तृतीय श्रेणी के स्थलरूपाों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है।
भू- आकृति विज्ञान के उपागम –
स्थानिक एवं कालिक मापक तथा भूआकृति विज्ञानवेत्ता के उद्देश्यों के आधार पर किसी प्रदेश की आकतिक विशेषताओं की व्याख्या कई रूपाो में की जा सकती है। सामान्यतः भू-आकृति विज्ञान के चार प्रकारों में उपागम स्पष्ट किए जा सकते है।
(1) ऐतिहासिक उपागम (Historical Approaches) : ऐतिहासिक उपागम के तहत विस्तत क्षेत्र के स्थलरूपाों के विकास की दीर्घ भूगर्भिक काल के सन्दर्भ में क्रमिक अवस्थाओं की व्याख्या की जाती है। इस उपागम के अन्तर्गत स्थलरूपाों के ऐतिहासिक विकास पर इस अवधारणा के आधार पर बल दिया जाता है कि प्राचीन स्थलरूपाों के अवशेष अब भी मौजूद हैं। वास्तव में ऐतिहासिक उपागम डेविस की चक्रीय संकल्पना तथा पालिम्पसेस्ट स्थलाकृति की अवधारणा पर आधारित हैं। उस स्थलाकृति का पालिम्पसेस्ट स्थलाकृति कहते हैं। वास्तव में, यह उपागम ‘पुनलिखित हस्तलिपि‘ की संकल्पना पर आधारित है। जिस तरह कोई हस्तलिपि तैयार होती है तथा उसे मिटाकर पुनः दूसरी लिखावट की जाती है तो प्रारम्भिक लिखावट के कुछ अंश परिलक्षित होते है। उसी प्रकार भ्वाकृतिक इतिहास रूपाी पुस्तक के विभिन्न अध्यायों में प्रारम्भिक प्रक्रमों द्वारा जिस स्थलाकृति का सृजन हुआ, आगे आने वाले समय में दूसरे प्रक्रमों ने उन स्थलाकृतियों के अधिक भाग को मिटाकर नये स्थलरूपाों का सृजन किया है परन्तु प्रारम्भिक स्थलरूपाों के कुछ अवशिष्ट भाग आज भी परिलक्षित होते हैं। इन अवशेषों के आधार पर भ्वाकृतिक इतिहासरूपाी पुस्तक के प्रारम्भिक रूपा को सँवारा जा सकता है। इस उपागम में किसी क्षेत्र विशेष को चुना जाता है तथा उसके अनाच्छादन कालानुक्रम का अध्ययन किया जाता है। निश्चय ही कालानुक्रम उपागम प्रादेशिक भूआकारिकी से सम्बन्धित है। इस अध्ययन का प्रमुख आधार प्रारम्भिक अवशिष्ट अपरदन सतह है। अध्ययन के दौरान पहले इन समप्राय सतहों की पहचान, उनका तिथिकरण तथा व्याख्या की जाती हैं। इसके बाद उस क्षेत्र में अपवाह प्रतिरूपा के विकास का ऐतिहासिक अध्ययन किया जाता है ताकि यह विदित हो सके कि वर्तमान अपवाह प्रतिरूपा का रूपा कैसे प्राप्त हुआ है। कालानुक्रम उपागम में भू-विज्ञान संरचना तथा शैलिकी सागर तल में परिवर्तन जलवायु सम्बन्धी परिवर्तन, वनस्पति तथा मानव क्रिया कलाप का पर्याप्त महत्व होता है।
यदि किसी क्षेत्र का तटीय भाग में वर्तमान सागर तल के विकास का अध्ययन करना हो तो अनेक तथ्यों पर विचार करना आवश्यक है जैसे उसमें कितने बार परिवर्तन हुए हैं तथा प्रारम्भिक सागर तल की ऊंचाई क्या थी? इसके लिए निकप्वाइण्ट, प्रारम्भिक नदी वेदिकाओं के अवशेष तथा प्रवणित नदी के अवशिष्ट किन्तु सुरक्षित भागों की सहायता से नदी की प्रारम्भिक साम्यावस्था की परिच्छेदिका तथा प्रवर्णित वक्र का पता लगाकर प्रारम्भिक सागर तल को जाना जा सकता है। इस कार्य हेतु प्रवर्णित वक्र के अवशेष भागों की गणितीय बाहवेशन की विधि द्वारा पुनर्रचना करके प्रारम्भिक प्रवणित वक्र का पता लगाया जाता है।
ऐतिहासिक उपागम की कठिनाईयाँ – इस उपागम को मापने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है जोनिक अनुसार हैं –
(i) समप्राय सतह भू-भाग का आंशिक भाग ही प्रदर्शित करती हैं।
(jj) यह उपागम कल्पना पर अधिक आधारित है।
(jjj) अपरदन सतहों का तिथिकरण अत्यधिक अनुमानपरक होता है क्योंकि ठोस भौमिकीय प्रमाण सुलभ नहीं होते हैं। इस प्रकार अनेक कठिनाइयों के बाद भी इसका एक अपना विशेष महत्व है।

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