लाल और पीली मिट्टी के क्षेत्र क्या है ? लाल और पीली मिट्टी कहां पाई जाती है red and yellow soil in hindi

red and yellow soil in hindi in india लाल और पीली मिट्टी के क्षेत्र क्या है ? लाल और पीली मिट्टी कहां पाई जाती है ?

मृदा :

मिट्टियों का वर्गीकरण
1998 में अंतर्राष्ट्रीय मिट्टी विज्ञान संघ (IUSS) ने आधिकारिक रूप से मिट्टियों के लिए वैश्विक निर्देशन आधार (WRB) को संघ की पद्धति के रूप में अपनाया। विश्व निर्देशन आधार की संरचना, संकल्पना और परिभाषा FAO – यूनेस्को मिट्टी वर्गीकरण व्यवस्था द्वारा प्राप्त अनुभवों से काफी हद तक प्रभावित है।
मिट्टियों के वर्गीकरण की प्रथम व्यवस्था अमेरिका में कर्टिस एफA मार्बट द्वार प्रस्तुत की गई थी। संशोधित मार्बट व्यवस्था मिट्टी को तीन मुख्य भागों या क्षेत्रीय क्रम में विभक्त करता है:
(i) क्षेत्रीय मिट्टियां वे हैं जो बड़े क्षेत्र में या जलवायु में अपनी विशेष भौगोलिक विशेषताओं के साथ पाई जाती हैं।
(ii) अंतर क्षेत्रीय क्रम में वैसी मिट्टियां शामिल हैं जो जल निकासी की अपर्याप्त व्यवस्था वाले स्थान या जहां वातावरणीय गतिरोधों के कारण काफी समय से मिट्टी बनने की प्रक्रिया नहीं हुई है, में विकसित हुई हैं।
(iii) एजोनल क्रम में नई मिट्टियों को शामिल किया जाता है और इन्हें परिपक्व मिट्टी नहीं माना जाता है। सामान्यतः ये मूल पदार्थ का प्रतिनिधित्व करती हैं जो पर्याप्त समय मिलने पर परिपक्व मिट्टी में बदल सकमती हैं।
जोनल मिट्टी को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है:
1. लेटेराइट मिट्टी
2. लाल मिट्टी
3. लाल व पीली मिट्टी
4. काली मिट्टी
5. लाल मरुस्थलीय मिट्टी
6. टुंड्रा मिट्टी
भारतीय मिट्टियों का वर्गीकरण
व्यापक क्षेत्रीय विविधताओं और रंग, संघटन तथा स्थान के आधार पर भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भारतीय मिट्टी को 8 वर्गों में वर्गीकृत किया है।
1. जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil)
2. लाल व पीली मिट्टी (Red and Yellow Soil)
3. काली मिट्टी (Black Soil)
4. लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil)
5. मरुस्थलीय शुष्क मिट्टी (Arid Soil)
6. वनीय और पर्वतीय मिट्टी (Forest and Mountain Soil)
7. पीट तथा दलदली मिट्टी (Peaty Soil)
8. लवणीय तथा क्षारीय मिट्टी (Saline and Basic Soil)

लाल व पीली मिट्टी (Red and Yellow Soil)
ऽ प्रायद्वीप के 5.46 लाख वर्ग किलोमीटर (18.6% क्षेत्रफल) पर लाल मिट्टी का विस्तार है। यह क्रिस्टलीकृत आग्नेय चट्टानों पर, जहां वर्षा कम हाती है, विकसित होती है। जैसे दक्कन पठार का पूर्वी और दक्षिणी भाग।
ऽ तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा तथा झारखंड के व्यापक क्षेत्रों में एवं पश्चिम बंगाल, दक्षिणी उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान के कुछ क्षेत्रों में इस मिट्टी का विस्तार है।
ऽ लौह के ऑक्साइट की उपस्थिति के कारण इसका रंग लाल होता है। जब लौह क्रिस्टल का संलयन जलयोजित (Hydraded) अवस्था में होता है तो यह पीली दिखती है।
ऽ इसमें हयूमस, नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा चूने की कमी पायी जाती है एवं लोहा, पोटाश तथा अल्युमिनियम का अंश अधिक होता है।
ऽ ये सामान्यतः उपजाऊ होती हैं और सिंचाई द्वारा इस मिट्टी में तम्बाकू, बाजरा, दलहन, गेहूं आदि की खेती की जाती है।
जलोढ़ मिट्टी (Alluvial Soil)
ऽ जलोढ़ मिट्टी के विशाल मैदान नर्मदा, ताप्ती, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी की घाटी एवं केरल के तटवर्ती भागों में लगभग 15 लाख वर्ग किलोमीटर (4.4% क्षेत्र) में हैं।
ऽ इन मिट्टियों का निर्माण मुख्यतः तीन नदियों-सिंधु, गंगा व ब्रह्मपुत्र द्वारा लाये गये अवसादों से हुआ है।
ऽ इसका रंग हल्का भूरा तथा गठन में रेतीली से दोमट प्रकार की मिट्टी है।
ऽ इन मिट्टियों की परिच्छेदिका उच्च भूमि में अपरिपक्व तथा निम्न भूमियों में परिपक्व है।
ऽ इन मिट्टियों में पोटाश, फॉस्फोरिक अम्ल व चूना प्रचुर मात्रा में मिलता है जो गन्ना, खरीफ, गेहूं, अन्य खाद्यान्न और दलहन फसलों के लिए आदर्श है। इसकी उच्च उर्वरता के कारण जलोढ़ मिट्टी वाले क्षेत्रों में गहन कृषि होती है और ऐसे क्षेत्र घनी आबादी वाले होते हैं।
ऽ नये जलोढ़ को ‘खादर‘ तथा पुराने जलोढ़ को ‘बांगर‘ कहते हैं।
ऽ इनका विस्तार एक संकीर्ण पट्टी के रूप में राजस्थान व गुजरात तक हुआ है।

काली मिट्टी (Black Soil)
ऽ इस मिट्टी का विस्तार लगभग 5.46 लाख वर्ग किलोमीटर (15.2% भूक्षेत्र) पर है। यह ज्वालामुखीय लावा के अपक्षय से बनती है।
ऽ इसका सर्वाधिक विकास महाराष्ट्र में हुआ है। इसके अलावे पश्चिमी मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश में इन मिट्टियों का विकास हुआ है।
ऽ इसे रेगुर व कपास की खेती हेतु सवोत्तम होने के कारण काली कपास मिट्टी भी कहते हैं।
ऽ इसमें जलधारण करने की क्षमता सर्वाधिक होती है, अतः ये जल से संतृप्त होने पर मृदु हो जाती है तथा सूखने पर इनमें गहरी दरारें बन जाती हैं जिसे स्वतः जुताई (Self Ploughing) कहते हैं।
ऽ ये मिट्टी सामान्यतः लोहे, चूने, पोटाश, अल्युमिनियम तथा मैग्नेशियम कार्बोनेट से समृद्ध होती है परन्तु नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा ह्यूमस की कमी होती है।
ऽ कपास की कृषि के लिए यह सबसे उपयुक्त मिट्टी है। इसके अलावे जड़दार फसलों, जैसे-चना, सोयाबीन, तिलहन, सफोला, मोटे अनाजों आदि के लिए भी उपयुक्त है।
लैटेराइट मिट्टी (Laterite Soil)
ऽ यह लगभग 1.26 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र (3.7% क्षेत्र) पर विस्तृत है। इनका विकास उच्च तापमान व उच्च वर्षा वाले क्षेत्रों में होता है।
ऽ ये मिट्टियां सहयाद्री, पूर्वीघाट, राजमहल पहाड़ी, सतपुड़ा, विन्ध्य, असम तथा मेघालय की पहाड़ियों में मिलती है। ये घाटियों में भी पायी जाती हैं। यह सामान्यतः कर्नाटक, करेल, तमिलनाडु, मध्यप्रदेश, ओडिशा और असम के पहाड़ी क्षेत्रों में पाई जाती हैं।
ऽ इनका ईटें बनाने में व्यापाक प्रयोग होता है।
ऽ ये मिट्टियां सामान्यतः लौह तथा अल्यूमिनियम से समृद्ध होती हैं।
ऽ इसमें नाइट्रोजन, पोटाश, चूना तथा हयूमस की कमी होती है।
मरुस्थलीय शुष्क मिट्टी (Arid Soil)
ऽ मरुस्थलीय मिट्टी का विस्तार राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, हरियाणा तथा दक्षिण पंजाब के लगभग 1.42 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर है।
ऽ ये मिट्टी बजरीयुक्त होती है तथा हयूमस एवं नाइट्रोजन की कमी होती है। इसमें घुलनशील लवणों तथा फास्फोरस का उच्च प्रतिशत मिलता है।
ऽ सिंचाई द्वारा इसमें ज्वार, बाजरा, मोटे अनाज, सरसों, आदि उगाये जाते हैं।
वनीय और पर्वतीय मिट्टी (Forestand Mountain Soil)
ऽ इसका विस्तार 2.85 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पाया जाता है।
ऽ इसे वनीय मृदा भी कहते हैं। यह नवीन व अविकसित मिट्टी है जो कश्मीर से अरुणाचल प्रदेश तक विस्तृत है।
ऽ इसमें पोटाश, चूना व फास्फोरस का अभाव होता है।
ऽ इसमें हयूमस प्रचुर मात्रा में मिलता है।
ऽ पर्वतीय ढालों पर इसमें फल के वृक्ष लगाये जाते हैं।
सामान्यतः ये अम्लीय होती है।

पीट तथा दलदली मिट्टी (Peaty Soil)
ऽ पीट मिट्टी आर्द्रयुक्त जलवायु में बनती है। सड़े गले वनस्पतियों से बनी इस मिट्टी का विकास केरल तथा तमिलनाडु के आर्द्र प्रदेशों में हुआ है।
ऽ इन मृदाओं में जैविक पदार्थ व घुलनशील नमक की मात्रा अधिक होती है किन्तु पोटाश तथा फास्फेट की कमी होती है।
ऽ यह मिट्टी काली, भारी व अम्लीय होती है।
ऽ दलदली मृदाएं तटीय उड़ीसा, सुन्दरवन, उत्तरी बिहार के मध्यवर्ती भागों तथा तटीय तमिलनाडु में पायी जाती है।
ऽ निम्न क्षेत्रों में जलाक्रान्ति (Water logging) तथा अवायुवीय दशाओं में इस मृदा का निर्माण होता है।
ऽ इसमें फेरेस आयरन होने से प्रायः इसका रंग नीला होता है। ये अम्लीय स्वभाव की मृदा होती है।
ऽ इस प्रकार की मृदा में मैंग्रोव वनस्पतियां पायी जाती है, विशेषकर तटीय क्षेत्रों में।
लवणीय तथा क्षारीय मिट्टी (Saline and Basic Soil)
ऽ ये पश्चिमी गुजरात, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र तथा पश्चिम बंगाल के शुष्क भागों में कुल 1.7 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल में पायी जाती है।
ऽ इस मिट्टी में केशिकत्व क्रिया (Capillary Action) से सतह पर लवणों की परत जम जाती है। इनमें सोडियम, पोटेशियम व मैग्नेश्यिम अधिक पाया जाता है और इसलिए यह अनुर्वर होती हैं।
ऽ ये अनुर्वर मिट्टियां रेह, कल्लर, ऊसर, राथड़, थूर, चोपन आदि अनेक स्थानीय नामों से जानी जाती है।
ऽ इन मिट्टियों का उपचार उचित अपवाह, जिप्सम तथा पाइराइट्स के प्रयोग द्वारा किया जा सकता है।