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Recovery of petroleum in hindi , पेट्रोलियम की प्राप्ति क्या है , नाशक जीव नियंत्रण ( Pest control)

लिखिए Recovery of petroleum in hindi , पेट्रोलियम की प्राप्ति क्या है , नाशक जीव नियंत्रण ( Pest control) ?

पेट्रोलियम की प्राप्ति ( Recovery of petroleum)

भूगर्भशास्त्रियों (Geologists) के अनुसार भूगर्भ में पेट्रोलियम पदार्थ जीवाणुओं, वनस्पति व प्राणियों की मृत देह से प्राप्त कार्बनिक पदार्थों से बनते हैं। यह क्रिया जीवाणुओं की सहायता से होती है। समुद्र तल के विक्षेप ( sediment) में इन कार्बनिक अवशेषों से तेल की छोटी-छोटी बूँदें बनती हैं जो अन्य खजिनों के साथ-साथ पायी जाती हैं। ये बूँदें रसायनिक क्रियाओं, अधिक दाब व ताप के प्रभाव के कारण अवायवीय वातावरण में समुद्र तल पर संग्रहित हो जाती है, यही कारण है कि तेल भण्डार के निकट अनेक जीवाणु भी पाये जाते हैं। तेल भण्डार खजिन चट्टानों के कणों पर आवरण के रूप में रहता है जिनसे तेल भण्डार प्राप्ति हेतु इन्हें पृथक करना आवश्यक होता है।

पृथ्वी में तेल की मात्रा निरन्तर कम होती जा रही है। विश्व में तेल के भण्डार सीमित हैं। अतः पिछले कुछ दशकों से वैज्ञानिकों द्वारा तेल क्षेत्रों से अधिकाधिक तेल प्राप्ति के प्रयास किये जा रहे हैं। जीवाणुओं का उपयोग इस दिशा में अनूठा है। शिला- तैल (shale-oil) के रूप में तेल के उपलब्ध हैं किन्तु इनसे तेल प्राप्ति की उपयुक्त विधि नहीं मिल पायी है। इस कार्य हेतु रसायन विज्ञों, अभियन्ताओं, भौतिकीविज्ञ, भूगर्भशास्त्रियों एवं सूक्ष्मजीवी विशेषज्ञों के सामूहिक प्रयासों की ओर अधिक आवश्यकता है।

मृदा एवं समुद्र में रहने वाले सूक्ष्मजीव अपने रहने के स्थान पर कार्बनिक पदार्थों का भण्डार तो उत्पन्न करते ही हैं किन्तु अधिक गहराई में उपस्थित रहते हुए कोयले, तेल आदि के भण्डार आदि की उपस्थिति के सूचक के रूप में भी कार्य करते हैं। तेल व गैस की प्राप्ति हेतु खुदाई के समय कोशिका सूक्ष्मदर्शिक प्रणाली (capillary microscopic method) को उपयोग मे लाते हैं। तेल के भण्डारों वाले स्थानों में तेल जीवाणु (oil bacteria) पाये जाते हैं जिनकी उपस्थिति पेट्रोलियम पदार्थ की उपस्थिति दर्शाती है। ये पेराफिन को पोषक पदार्थ के रूप में ग्रहण करते हैं तथा अपनी निवह द्वारा मोटी पर्त बना लेते हैं। यह पर्त काफी मोटी हो सकती है।

जेन्थोमोनेस (Xanthomonas ) जाति के जीवाणुओं में यह गुण पाया जाता है कि ये पॉलिसेकेराइड्स का मोटा आवरण अपनी देह सतह पर बनाते हैं। इनका उपयोग उस जल की विस्कासिता बढ़ाने के काम आता है जो तेल कूप से तेल की प्राप्ति में सहायक होता है। यह विधि नि:शोषित तेल कूपों (depleted oil fields) तेल निकालने हेतु काम में लायी जाती है। अतः जेन्थन गम (Xanthan gum) नामक श्यानक (Viscosifier) की प्राप्ति इस जीवाणु से की जाती है, इस चिपचिपे डिटरजेन्ट पदार्थ को एक अन्य कूप खोदकर पम्प द्वारा तेल कूपों मे डाला जाता है, जिससे चट्टानों से चिपके तेल कण अलग हो जाते हैं। जल के साथ जेन्थनगम मिलकर तेल कुओं से खजिन तेल की अधिकाधिक मात्रा को एकत्र कर देता है जिसका निष्कासन पम्पों की सहायता से कर लिया जाता है।

कुछ तेलीय चट्टानों में कार्बोनट एवं पायराइट की मात्रा अधिक होती है। इन प्रवेशित कराये गये पदार्थों से इन चट्टानों की छिद्रिता ( porosity) में वृद्धि हो जाती है। अम्ल बनने के कारण कार्बोनेट्स घुल जाते हैं तथा तेलीय चट्टानों का निक्षालन हो जाता है एवं पेट्रोलियम पदार्थों के रूप में हाइड्रोकार्बन की प्राप्ति हो जाती है।

इसी प्रकार बेसिलस व क्लोस्ट्रीडियम जाति के कुछ जीवाणुओं का उपयोग इस कार्य हेतु किया जाता है। इन जीवाणुओं का निवेशन करने के साथ की पोषक पदार्थ शर्करा व खनिज लवण भी तेल कूपों में मिलाये जाते हैं। ये कार्बन-डाई ऑक्साइड का उत्पादन करते हैं जो गैस दात्र को बढ़ाती है, इसके फलस्वरूप तेल पाइप में दाब बढ़ जाता है एवं पेट्रोलियम पदार्थ बाहर निकलने लगते हैं। कुछ जीवाणुओं में पेट्रोलियम पदार्थों का निम्नीकरण करने की क्षमता पायी जाती है। आनुवंशिक तकनीकों द्वारा स्यूडोमोनेस पुटिडा (Pseudomonas putida) जीवाणु विकास किया गया है, इसमें नेफ्थलीन, जाइलीन, एल्केन्स एवं कपूर आदि के निम्नीकरण की क्षमता पायी गयी है किन्तु टार (tar) में परिवर्तित करने का गुण नहीं है। अतः इस क्षमता का उपयोग बचे स्त्रोतों से तेल प्राप्ति हेतु किया जाता है।

कुछ मेथेनोबेक्टेरिऐसी कुल के सदस्य जैसे मेथेनोबैक्टीरियम, मेथेनोकोकस और मेथेनोसारसीना मेथेन गैस उत्पन्न करते हैं। कुछ वंशों के जीवाणु ब्यूटेन, एसीटेट, फोरमेट, ब्यूटाइरेट आदि उत्पन्न करते हैं। उपरोक्त पदार्थ सम्भवतः अन्य कार्बनिक पदार्थों के साथ अधिक वायुमण्डलीय दाब उच्च ताप एवं अवायुवीय परिस्थितियों में पेट्रोलियम पदार्थों का निर्माण करते हैं। अतः इस क्षेत्र में भी शोध जारी है।

नाशक जीव नियंत्रण ( Pest control)

कीट (insect) एवं अन्य प्रकार के हानिकारक महत्वपूर्ण जीव-जन्तु जो फसलों को हानि पहुँचाते हैं या मानव जाति को किसी अन्य विधि से आर्थिक रूप से क्षति पहुँचाते हैं। नाशक जीव (pest) के नाम से जाने जाते हैं। कीटनाशी (insecticides ) रसायनिक प्रकृति के एवं नाशक प्रकृति के वे पदार्थ हैं जो पिछले अनेक वर्षों से नाशक जीव नियंत्रण हेतु उपयोग में लाये जा रहे हैं।

स्टेन्हॉस (Stanhaus ; 1949) नामक वैज्ञानिक ने नाशक जीवों की सूक्ष्मजीवों के द्वारा नियंत्रण करने की बिल्कुल नयी विधि प्रस्तुत की जिसके अन्तर्गत नाशक जीव की देह में सूक्ष्मजीवों (बैक्टीरिया, वाइरस) से द्वारा रोग उत्पन्न किया जाता है। रोग उत्पन्न होने के कारण कीट या अन्य हानिकारक जीव-जन्तु की मृत्यु हो जाती है और पौधों या फसल को कीटों से होने वाली क्षति इनकी संख्या में कमी करके नियंत्रित किया जाता है। यह विधि जैव कीटनाशी (bioinsecticide) विधि कहलाती है।

विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मजीवों के द्वारा अनेकों प्रकार के रोग उत्पन्न किये जाने तथा आविष (toxins) या अन्य हानिकारक उत्पाद संश्लेषित किये जाने के प्रमाण वैज्ञानिकों द्वारा हासिल किये जा चुके हैं। मानव मस्तिष्क में यह विचार अवश्य ही आया होगा कि जो सूक्ष्मजीव मनुष्य में चेचक, हैजा, पेचिश, टेट्नस, मैनिन्जाइटिस, गोनोरिया तथा अनेकों प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न कर सकते हैं हमारी जनसंख्या को आश्यचर्यजनक संख्या में घटा सकते हैं क्या हानिकारक कीटों की समष्टि  का नियंत्रण नहीं कर सकते ? सम्भवत: इन्हीं विचारों ने इन कीटों के नियंत्रण के क्षेत्र में अनुसंधान करने के प्रयासों को सफलता प्रदान की । जीवाणु, वायरस, प्रोटोजोआ, कवक और रिकेट्सिया के द्वारा प्राकृतिक विधि से कीटों एवं चिचिड़ियों (mites) की समष्टि के नियंत्रण की अनेक विधियाँ खोज निकाली गयी हैं।

सूक्ष्मजीव नाशक जीव की देह में संक्रमण उत्पन्न करके अथवा परिवर्धन में बाधा उपस्थित करके या आविष उत्पन्न कर के कीट की सामान्य क्रिया को रोक देता है और इस प्रकार नाशक जीव की मृत्यु हो जाती है या वह इतना दुर्बल हो जाता है कि जनन, पाचन या परिवर्धन की क्रियाओं को पूर्ण न कर सके अतः इनकी समष्टि का नियंत्रण हो जाता है।

रोगजनक सूक्ष्मजीवों को कीटों की देह में प्रवेश करने तथा इनके द्वारा की जाने वाली क्रिया के आधार पर दो समूह में विभक्त किया गया है।

(1) आमाशयी सूक्ष्मजीवी कीटनाशी (Stomach microbial insecticides ) – इस समूह में ऐसे जीवाणु, प्रोटोजोआ व वारइस रखे गये हैं जो रसायनिक कीटनाशकों की भाँति कीटों की कार्यिकी को प्रभावित करते हैं।

इस समूह की जीवाणु कीटों के देह में उत्तकों या द्रवों में वृद्धि करना आरम्भ कर देते हैं जो आविष उत्पन्न करते हैं अतः नाशक जीव की मृत्यु हो जाती है।

(2) सम्पर्क सूक्ष्मजीवी कीटनाशी (Contact microbial insecticides ) — इस समूह में रोगजनक कवक आते हैं जो कीटों की त्वचा या अध्यावरण (integument) के सम्पर्क में आने पर इनकी देह में प्रवेश कर जाते हैं और इनकी मृत्यु का कारण बनते हैं। अतः ये सामान्य प्रकार के सम्पर्क कीटनाशी (contact insecticide) की भाँति कार्य करते हैं। इनकी कार्यप्रणाली में भौतिक कारक अत्यन्त प्रभावी भूमिका निभाते हैं।

सूक्ष्मजीवों के द्वारा पेस्ट (pest) के नियंत्रण की सफलता तब ही सम्भवत है जब सूक्ष्मजीव एवं कीट तथा वातावरण के कारक परस्पर सहायक सिद्ध होते हैं। पोषक तथा रोगजनक जीवाणु, वायरस या कवक की क्रियाओं में अनुकूल प्रकार के संक्रमण का सम्मिश्रण होना अत्यन्त आवश्यक है। नाशक जीव या पेस्ट जो संख्या में अधिक होते हैं, का नियंत्रण ऐसे उग्र विभेदों द्वारा ही सम्भव होता है जो संक्रमण की उच्च क्षमता रखते हैं।

अनेकों प्रकार के सूक्ष्मजीवों जो कीटनाशी के रूप में प्रयुक्त किये जाते हैं । इनके निवहों का प्रयोगशालों में कृत्रिम संवर्धन कराया जाता है। आवश्कतः होने पर ये सूक्ष्मजीव माध्यम (जल, वायु, पोषण सतह) में छोड़ दिये जाते हैं जो नाशक जीव में संक्रमण करके इनकी मृत्यु का कारण बनते हैं। यह विधि उस समय उपयोग में लायी जाती है जब नाशक जीवों की संख्या को अस्थायी रूप से नियंत्रित किया जाता है। बेसिलस थुरिन्जिएन्सिस बरलिनर (Bacillus thuringienisis Berliner) जीवाणु पाऊडर या इमलशन के रूप में विभिन्न प्रयोगशालाओं द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं, इन्हें रसायनिक कीटनाशी की भाँति जल में छिड़क दिया जाता है अतः जल में उपस्थित मच्छरों के लार्वा, कीट, पोषक पदार्थों के साथ इनका भी भक्षण करते हैं, जिससे इनकी देह में संक्रमण उत्पन्न हो जाता है व कीट की मृत्यु हो जाती है अतः शीघ्र ही मच्छरों या अन्य प्रकार के कीटों की समष्टि नियंत्रित हो जाती है।

यह जीवाणु ग्रैम ग्राही प्रकृति का शलाकीय आकृतिक का बीजाणु बनाने वाला जीवाणु है, यह हीरे की आकृति के क्रिस्टल बनाता है जो प्रोटीन प्रकृति होते हैं। बीजाणु भवन के दौरान क्रिस्टल बनाये जाते हैं जो क्षारीय माध्यम में घुलनशील होते हैं। इस क्रिस्टल को पेरास्पोरल काय (parasporal body) कहते हैं। यह जैवविषय (biotoxin) होता है, इसी कारण इसे कीटनाशक के में व्यापक तौर पर काम में लाया जाता है। क्षारीय माध्यम कीटों की आहार नाल में पाया जाता है अतः आन्तरिक तौर पर विष उत्पन्न कर जीवाणु कीट की आहार नाल को तोड़ देते हैं व नाशक जीव या कीट की मृत्यु हो जाती है।

इस कीटनाशी का उत्पादन अनेक कम्पनियाँ कर रही है। इसका उपयोग सब्जियों फसलों, बगीचे के पौधों व फलों भण्डारित अनाज एवं मुर्गी पालन में कीटों से रक्षा हेतु व्यापक रूप में किया जा रहा है। यह आटे, बादाम, तम्बाकू आदि में लगने वाले कीटों से भी सुरक्षा प्रदान करता है।

एक अन्य विधि के द्वारा कीट के मृत्यु के लिये स्थायी कारक के रूप में इन जीवाणुओं या वाइरस का उपयोग किया जाता है। नाशक जीव या पेस्ट की देह में ही रोगजनक जीवाणु या वाइरस की निवह बनाने हेतु पोषक को उचित समय पर अनुकूल परिस्थितियों में संक्रमणित किया जाता है, इस क्रिया को सूक्ष्मजैविक परिचय (microbial introduction) कहते हैं। इस विधि से जापानी भृंग पॉपिलिया जेपोनिका (Popilia Japonica) का अमेरिका के बेसिलस पॉपिले डुट्के (Bacillus popillie Dutky) जीवाणुओं के द्वारा मिल्की रोग उत्पन्न कर नियंत्रण किया गया है, इस रोग में नाशक जीव या कीट की देह में उपस्थित रक्त का रंग श्वेत हो जाता है। यूरोपियन स्प्रूस सॉ-फ्लाई (European spruce saw-fly), डाइप्रियान हरसिने ( हर्टिंग ) ( Diprion harcyniae Harting) का विषाणु पॉलिहेड्रा नामक अन्तर्विष्ट काय बनाते हैं जो नाशक कीट की कोशिकाओं के केन्द्र में बनाई जाती हैं और नाशक कीट की आहार नाल को फाड़ कीट का नाश करने में सक्षम होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने बेकुलोवायरस समूह (baculovirus group) के विषाणुओं के उपयोग की स्वीकृति प्रदान की है, वैसे लगभग 300 से अधिक विषाणु यह गुण रखते हैं।

पॉलिहेड्रोसिस वाइरस द्वारा तथा केन्द्रिक पॉलिहेड्रोसिस वाइरस द्वारा यूरोपियन पाइन – सॉफ्लाई निओडीप्रियाँन सेरटाइफर ( जियोफ्री) (Neodiprion sertifer Geoffory) का कनाडा में नियंत्रण किया गया है-

सूक्ष्मजैविक नियंत्रण तकनीक के अनेकों लाभ हैं –

  1. ये अत्यन्त विशिष्ट प्रकार के होते हैं, जिससे एक ही विशिष्ट प्रकार के पोषक को प्रभावित करते हैं अतः केवल हानिकारक कीट की जनसंख्या प्रभावित होती है अन्य लाभदायक कीट या जन्तु अप्रभावित रहते हैं।
  2. ये रसायनिक कीटनाशकों की भाँति आविष अवशेष (toxic residuces ) नहीं छोड़ते अत: अन्य जीव जन्तुओं को हानि नहीं पहुँचाते हैं।
  3. रसायनिक कीटनाशकों की भाँति एवं उनसे अधिक प्रभावि विधि के द्वारा सूक्ष्मजैविक कीटनाशकों को एक से अधिक प्रकार के सम्मिश्र करके उपयोग किया जा सकता है। ये पाऊडर की भाँति छिड़क (spray ) कर या जल में साबुन की तरह इमलशन (emulsion) बनाकर छिड़काव करके या वायु में बिखराव ( acrosol method) करके उपयोग में लाये जाते हैं। इन कीटनाशकों की सूक्ष्म मात्रा ही आवश्यक परिणाम उत्पन्न कर देती है।
  4. इनका प्रभाव लम्बे समय तक लगभग 10 वर्षों तक देखा गया है अतः एक बार उपयोग करने के बाद बार-बार इनकी आवश्यकता नहीं पड़ती है ।

अतः सूक्ष्मजैविक कीटनाशकों को हानिकारक कीटों की जनसंख्या के नियंत्रण में उचित परिणाम पाने के लिये उपयोग किया जा सकता है। इस क्षेत्र में अनुसंधान के और अधिक किये जाने की आवश्यकता है।

सूक्ष्मजैविक नियंत्रण के कुछ हानिकारक या असुविधाजनक परिणाम भी सामने आये हैं। उचित परिणाम हेतु अनुकूल परिस्थितियों का होना एवं सही परिवक्वन काल (incubation period) का पूर्वानुमान (जीवाणु या वाइरस जाति तथा पोषक की अवस्था के आधार पर) अत्यन्त आवश्यक है। उपयोग में लिये जाने वाले जीवाणु या वाइरस की प्रकृति का पूर्ण ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है अन्यथा अचानक स्थिति अनियंत्रित होकर हानिकारक भी हो सकती है। सामान्यतः जीवाणुओं का जीवन काल कार्यकारी परिस्थितियों में छोटा होता है तथा इनका अवशेषी प्रभाव नगण्य रहता है। अतः कीटनाशी का प्रभाव कम हो सकता है।