रामलीला और रासलीला किसे कहते हैं , भिन्नता अंतर क्या है , अर्थ ramleela and rasleela difference in hindi

ramleela and rasleela difference in hindi रामलीला और रासलीला किसे कहते हैं , भिन्नता अंतर क्या है , अर्थ ?
रासलीलाः भक्तिमाग्रियों के लिए कृष्ण की बड़ी महिमा थी। उनके सारे कार्य इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमते थे। उत्तर प्रदेश में ब्रज भूमि कृष्ण की लीला स्ािली मानी जाती है। यही कारण है कि कृष्ण की लीलाओं को नाट्य शैली में पेश करना धर्म साधना ही मानी गई। प्रारंभ में कृष्ण लीला के नाम से फिर रासलीला के नाम से विख्यात महाभारत, भागवत और अन्य पुराणों की कथा के आधार पर भगवान श्रीकृष्ण के बचपन से यानि माखन चुराने, मटकी फोड़ने से लेकर संदीपन मुनि के आश्रम में शिक्षा लेने, सुदामा की मित्रता, द्वारका जागे, महाभारत युद्ध तक अर्जुन को उपदेश देने तक उनकी हर लीला को लोग बार-बार देखना चाहते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम, गोपियों संग नृत्य सभी कुछ रासलीला में दिखाया जाता है।
रामलीलाः ऐसा माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने काशी में राम के जीवन पर आधारित नाटक, रामलीला, खेलने की शुरुआत की थी। कई दिनों तक चलने वाली रामलीला दशहरे के समय होती है। रामलीला में भी राम के जीवन की हर घटना व प्रसंग दिखाया जाता है। रामनगर की रामलीला काफी प्रसिद्ध है। इसमें दर्शक इकत्तीस दिनों तक अलग-अलग स्थानों पर घूम-घूमकर होने वाली रामलीला में बड़े धैर्य व श्रद्धा के साथ भगवान की लीला का आनंद उठाते हैं। रावण और हनुमान जैसे चरित्र खास कलाकार ही निभाते हैं। संवाद अदायगी विशिष्ट शैली में होती है। लगभग समस्त उत्तर भारत में रामलीला बड़े उल्लास से मनाई जाती है।
माचा
मध्य प्रदेश की संगीतमय नृत्य नाट्य परंपरा लगभग दो सदी पहले उज्जैन में जन्मी और विकसित हुई। ‘माचा’ से मंच का अर्थ निकलता है। नाटकों का मंचन होली के आसपास किया जाता है। पौराणिक कथाओं, प्रेमाख्यानों और वीरतापूर्ण ऐतिहासिक प्रसंगों पर आधारित माचा में संगीत का भरपूर प्रयोग होता है। लोक धुनों से लेकर शास्त्रीय रागों पर आधारित गायन होता है। समकालीन सामाजिक जीवन से भी कुछ विषय लिए जाते हैं।
जात्रा
पश्चिम बंगाल का जात्रा नाट्य रूप 14वीं शताब्दी में वैष्णव आंदोलन से प्रेरित संगीत और नृत्य से युक्त प्रस्तुति की धार्मिक यात्रा के रूप में प्रारंभ हुआ। कृष्ण और राधा की कथा और चैतन्य देव की जीवनी से संबंधित यह प्रस्तुति अब पारसी रंगमंच की भांति अत्यधिक व्यावसायिक नाट्य-रूप में परिणत हो गई है। 1860 से प्रारंभ होकर जात्रा विकसित होती रही है और दर्शकों की रुचि के अनुसार बदलती रही है। पुराकथाओं और ऐतिहासिक कथाओं से यात्रा सामाजिक विषयों की ओर मुड़ गई। सत्तर के दशक में जब से वामपंथी पार्टी शक्ति में आई तब से जात्रा का स्वरूप बिल्कुल बदल गया। मंडलियों के नाटकों में माक्र्स, लेनिन, हिटलर, वियतनाम युद्ध आदि नाटक आ गए हैं। राजनैतिक नायकों जैसे खुदीराम बोस, राजा राममोहन राय और विद्यासागर जैसे नाटक भी प्रसिद्ध हैं।
आजकल यह उन्नतिशील ग्रामीणजनों और नगरों के मध्यवग्र और नवधनाढ्य वग्र का सबसे लोकप्रिय मनोरंजन है। कोलकाता में ही सौ व्यावसायिक दल होंगे। वे वर्षभर प्रस्तुतियां करते हैं।
उनकी लोकप्रियता के कारण नगर के नाट्यमंडल से अभिनेता इसकी ओर आकृष्ट हो रहे हैं। ऊंची फीस देकर शहरी नाट्य गृहों और फिल्मों से अभिनेताओं को बुला लेते हैं। प्रसिद्ध अभिनेता और निर्देशक स्व- उत्पल दत्त ने जात्रा कंपनियों के लिए नाटक लिखे, और उनमें अभिनय और निर्देशन किया। इसी प्रकार स्वअजितेश बगर्जी ने भी किया। प्रसिद्ध प्रकाश योजना विशेषज्ञ तापस सेन भी जात्रा कंपनियों के लिए काम करते थे। जात्रा की प्रस्तुति ऊंचे चबूतरा मंच पर होती है, दोनों और रैम्प (ढलान) होती है जिस पर गायक और बड़ा वाद्यवृंद बैठता है। वाद्यों में पश्चिमी वाद्य भी होते हैं। मंच से मिला हुआ बांस के खंभों पर बना एक गलियारा होता है। इस गलियारे का उपयोग अभिनेताओं के अत्यधिक नाटकीय प्रवेश और प्रस्थान के लिए होता है। इसका प्रयोग विवेक नाम का पात्र भी करता है जो बीच-बीच में नैतिक मूल्यों के बारे में टिप्पणी करता रहता है। शारीरिक गतियां सशक्त और रीतिबद्ध होती हैं। परंतु उनके कोई निश्चित नियम नहीं होते हैं
असम और ओडिशा में भी जात्रा बेहद लोकप्रिय है। वहां पर जात्रा मंडलियां जात्रा करती हुई ग्रामीण क्षेत्रों में प्रस्तुति करती हैं, उनके दर्शक बड़े उत्साही होते हैं। वे रामायण, महाभारत अथवा अन्य पुराकथा संबंधी तथा ऐतिहासिक नाटक की प्रस्तुति करते हैं।
भारतीय प्रदर्शक सदा ही प्रदर्शन की निश्चित समय-सारणी के अनुकूल चलते हैं और जजमान कहे जागे वाले अपने संरक्षकों के पास जाते हैं।
राजस्थान में भी गाथा-गीतों के गायन की समृद्ध परम्परा विद्यमान है। परंपरा से गाथा-गीतों में राजपूत योद्धाओं की गाथाओं से प्रेरणा लेते हैं। पृथ्वीराज चैहान और बीसलदेव राठौर नामक गाथा-गीत अपनी साहित्यिक उत्कृष्टता और नाटकीय वर्णन के लिए प्रसिद्ध हैं।

लोक रंगमंच
भारतीय नाट्य के निर्माण में वेदोत्तर साहित्यिक अवधि एक महत्वपूर्ण चरण है। संवाद-प्रधान संरचनाओं, वाचकों के समूचे वग्र द्वारा उनके वाचन की परम्परा तथा अनेक शैलियों में उनका प्रदर्शन, भारतीय नाट्य के निर्माण एवं विकास में महाकाव्यों के महत्वपूर्ण योगदान की ओर इंÛित करते हैं। महाकाव्यों ने न केवल भारतीय प्रदर्शन परम्परा को समृद्ध किया है, वरन् हमारे देश को एक सुनिश्चित प्रदर्शन संस्कृति प्रदान की है। महाकाव्यों के मौखिक प्रसारण ने उनकी वाचन परम्परा को बढ़ाया है। सामान्य विवरणों में संवादों का समावेश और महाकाव्यों में सूक्तियों एवं टेक से स्पष्टतः पता चलता है कि उनके प्रसारण की मौखिक परम्परा अवश्य रही होगी। वैसे भी भारतीय संस्कृति अनिवार्य रूप से मौखिक परम्परा से ही उपजी है, और आज भी यह परम्परा वैसी ही सशक्त एवं व्यापक है।
प्रदर्शन परम्परा महाकाव्य जितनी ही पुरानी और सबसे समृद्ध एवं विविधतापूर्ण भी है। इसमें साहित्यिक एवं मौखिक दोनों ही परम्पराओं से कथा तत्व एवं मूलपाठ विषयक-सामग्री ली जाती है, और यह साहित्यक परम्परा के रूप एवं संरचनाओं को भी प्रमाणित करती है। साहित्यिक एवं मौखिक के साथ ही महाकाव्यों की प्रदर्शन परंपरा को चित्र परंपरा के परिप्रे्रक्ष्य में भी देखा जागा चाहिए। इससे दोनों ही परम्पराओं के कलात्मक पक्ष और परिपाटियों को समझने की दृष्टि मिलती है। यह भी गौरतलब है कि वे कथांश जो प्रदर्शन परम्परा में अपनी नाटकीयता के कारण लोकप्रिय रहै, उन्हीं की ओर मूर्तिकार, चित्रकार एवं कारीगरों का ध्यान भी आकर्षित हुआ और सभी ने उनकी अभिव्यक्ति नाटकीय दृष्टि से की है।
महाकाव्यों की प्रदर्शन परम्परा प्राचीनतम है और कलात्मक मूल्यों में सबसे संपन्न भी। इसमें साहित्यिक परम्परा से काव्यात्मक सामग्री का और मौखिक परम्परा से महाकाव्यात्मक पात्रों की नई संकल्पना और कथांशों की विभिन्नता का भी उपयोग किया जाता है। महाकाव्य के लिए जिन विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया जाता है वे हैं उपाख्यान शैली, गल्प शैली, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक उपदेश की संवाद शैली, प्रश्नोत्तर शैली, नीतिपरक शैली एवं स्त्रोत्र शैली। ये सभी शैलियां मौखिक परम्परा की महाकाव्यात्मक शैली की विशेषताएं हैं। रामायण एवं महाभारत दोनों ही महाकाव्यों को निरूपित करने वाले अधिकतर पारम्परिक नाटकों में जिनका विकास पंद्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी के दौरान मंदिर में अथवा उसके आस-पास हुआ, कथानक को विकसित अथवा स्पष्ट करने के लिए प्रमुखतः इन्हीं शैलियों का प्रयोग किया गया है।
10वीं शताब्दी में उत्तर भारत में संस्कृत की क्लासिकी परम्परा के समाप्त हो जागे के बाद दक्षिण भारत में प्रदर्शन परम्परा का पुनरुज्जीवन हुआ। सबसे पहले वह केरल के कुट्टिअट्टम में प्रकट हुआ जो अब संस्कृत नाटक का अकेला बचा हुआ रूप है। कुटिअट्टम के प्रदर्शन विशाल मंदिरों में होने लगे और इसके लिए विशेष प्रकार के कूतम्बलम नाट्यगृह बना, गए। कुटिअट्टम को राजाओं का प्रोत्साहन मिला। बाद में केरल में ही कृष्णाट्टम और कथकली का विकास 16वीं शताब्दी में हुआ। कृष्णाट्टम मानदेव की रचना कृष्णगीति पर आधारित कृष्ण के जीवन चरित्र पर आठ शृंखला-नाटकों का नाट्य रूप है। कृष्णाट्टम के प्रदर्शन गुरुवायुर के विशाल विष्णु मंदिर में होने लगे। 17वीं शताब्दी से कथकलि का विकास हुआ और उसे भी राजाओं और मंदिर का प्रोत्साहन मिला। 17वीं शताब्दी में ही कर्नाटक में यक्षगान नाट्य रूप विकसित हुआ जिसमें दोनों महाकाव्यों रामायण और महाभारत की कथाएं प्रदर्शित की जागे लगीं। इन सभी विकसित नाट्यरूपों में गायन और कथावाचन के तत्व प्रमुख थे जो भारतीय नाट्य परम्परा के बीज रूप हैं।
भारत में लोक रंगमंच की बहुलता और विविधता यहां के लोगों में विद्यमान कला की समझ की ही द्योतक है। पौराणिक कथाओं और किंवदंतियों में गीत और नृत्य के मेल से बने हर क्षेत्र का अपना रंगमंच है। शास्त्रीय रंगकर्म की ही भांति लोक रंग की उत्पत्ति वैदिक मंत्रोच्चार से जुड़ी है। हां, इतना अवश्य रहा कि किसी एक की वजह से दूसरे का विकास नहीं रुका। चूंकि प्रारंभ में हर बात धर्म से जुड़ी थी, इसलिए रंगकर्म भी धार्मिक अनुष्ठान जैसा था। कालांतर में यह समाज की अन्य गतिविधियों से भी सूत्रबद्ध हुआ। हमारी सांस्कृतिक परंपरा का अनिवार्य अंग बन चुका लोक रंगमंच समाज व राजनीति में आए समस्त परिवर्तनों के बावजूद बना रहा और उल्लास व उमंग के विविध रंग बिखेरता रहा। यह स्वतः स्फूर्त है यद्यपि कभी-कभी यह अपरिष्कृत भी लगता है। यह सरल तो है ही साथ ही गूढ़ भी हैं। देश के विभिन्न प्रदेशों में महाकाव्यों की मौखिक परम्परा में कथावाचन एवं पाठ के तत्वों पर जोर देने वाले अनेक रूप प्रचलित हैं। मणिपुर का वारिलीबा, असम का ओझा पाली, ओडिशा का पाला, मध्य प्रदेश का पांडवानी, गुजरात का आख्यान मौखिक परम्परा के ऐसे गाथा-गीत हैं जिनमें महाकाव्यों का प्रदर्शन होता है। अधिकतर स्वरूपों में कथा और पाठात्मक सामग्री अनेक स्रोतों और कई भाषाओं से ली जाती है। अभिनेता की प्रतिभा, कथावाचन की कुशलता, चुनी हुई काव्य सामग्री के व्यवस्थापन और कथा के विभिन्न तत्वों को कथात्मक एवं टिप्पणीयुक्त गद्य के आशु उपयोग में प्रकट होती है।
मध्य प्रदेश का पांडवानी जो महाभारत कथा पर आधारित है, विविध रूपबंधीय प्रदर्शन रूप है। पांडवानी गायक अपने एकतारे को रंगमंचीय सामग्री की तरह प्रयोग करते हुए समुचित भंगिमाओं, शारीरिक चेष्टाओं और मौखिक भावों द्वारा अनेक क्रिया व्यापारों का बोध कराता है जैसे रथ, सवारी, अथवा धनुष-बाण उठाना और युद्ध करना। वारिलीबा का वाचक वाचन की अत्यंत नाटकीय एवं जटिल संयोजना तथा मूकाभिनय से युक्त टिप्पणी प्रस्तुत करता है।
केरल के कथकलि एवं कर्नाटक के यक्षगान जैसे विकसित रूपों में महाकाव्यों की प्रस्तुति होती है। तमिलनाडु के तेरूकुत्तु में महाभारत के 18 दिन के युद्ध का समूचा प्रदर्शन, युद्ध के अंतिम दिन तक, दस दिनों में किया जाता है। महाकाव्यों का अभिनय उत्तर भारत के संगीत रूपकों जैसे स्वांग, ख्याल एवं नौटंकी मंे भी होते है। ये प्रदशर्न रूप 18-19वीं शताब्दी मंे गाथा-गीतांे की गायन शैली से विकसित हुए और उनका स्वरूप (बैले आॅपेरा) अथवा गाथा-संगीतिका का है। उत्तर भारत के संगीत रूपकों जैसे उत्तर प्रदेश की नौटंकी जिसे संगीत भी कहते हैं, हरियाणा और पंजाब के स्वांग, मध्य प्रदेश के माच और राजस्थान के ख्याल में प्रदर्शन के व्यवहार एक समान हैं। नौटंकी के प्रमुख छंद हैं लावनी, चैबोला और बहरतबील दो डंडियों द्वारा बजते नक्कारे की धुन पर गाया जाता उसका संगीत अत्यंत नाटकीय होता है। 1938 के बाद से व्यावसायिक अभिनेत्रियों के आ जागे से नौटंकी अपनी जैसे दूसरे प्रदर्शन रूपों से अधिक लोकप्रिय हो गई। दूसरे लोकनाट्य रूपों में पुरुष ही स्त्री भूमिकाएं निभाते हैं। इन सभी प्रदर्शन रूपों में प्रेम, बलिदान एवं वीरता की लोकप्रिय कथाएं प्रस्तुत की जाती हैं।
आदतों, परंपराओं और संस्कृति के ओज को प्रतिबिम्बित करता लोक रंगमंच समाज का अनिवार्य अंग तो है ही, आवश्यकता भी है। हमारे देश के कुछ प्रमुख लोक नाट्य इस प्रकार हैंः
नौटंकी
संगीतमय रंगमंच के इस लोकप्रिय रूप की उत्पत्ति उत्तर प्रदेश में हुई। इसका नाम ‘शहजादी नौटंकी’ नामक नाटक से लिया गया है। नौटंकी के संवाद पद्य रूप में बोले जाते हैं और आवाज काफी ऊंची रखी जाती है, ताकि नक्कारे (एक वाद्य) की आवाज में वह दब न जाए। नौटंकी की शैली अतिनाटकीयता की होती है। वीरता और प्रेम की कहानियों पर नाटक खेले जाते हैं हीर रांझा, लैला मजनू, अमरसिंह राठौर, महाराणा प्रताप इत्यादि इसके उदाहरण हैं।
लीला नाटक
लीला नाटक विष्णु के दो सबसे लोकप्रिय अवतारों राम और कृष्ण के जीवन प्रसंगों को प्रस्तुत करते हैं। अपने अवतारी रूप में राम और कृष्ण मानवों की भांति लीला करते हैं। लीला नाटकों में देवताओं की भूमिका बाल अभिनेता निभाते हैं। अवतारों एवं लीला की संकल्पना ने देवता के अविचल रूप की धारणा का स्थान ले लिया। अवतार विषय बेहद लोकप्रिय हुआ और लोगों के धार्मिक और सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठापित हो गया। मंदिरों के मूर्तिशिल्प एवं मध्ययुगीन चित्रकला में भी विष्णु के विभिन्न अवतारों, विशेषकर राम और कृष्ण के जीवन के अनेक प्रसंगों को अभिव्यक्त किया गया। चित्र परम्परा में अवतार विषय की इतनी विस्तृत अभिव्यक्ति जिसने मौखिक एवं प्रदर्शन परम्परा से प्रेरणा ली, इसकी लोकप्रियता का प्रमाण है।
लीला नाटकों में राम और कृष्ण के जीवन की घटनाओं को आनुष्ठानिक रूप से पुनः प्रदर्शित किया जाता है, और इस ढंग से यह मालूम होता है कि वे घटनाएं अभी घट रही हैं। अवतारवाद के अनुसार ईश्वर को अवतार लेकर दिव्य कार्यों के कर्ता का अभिनय करना होता है। यह विचार जीवन की ऐसी संकल्पना पर आधारित है जिसमें दैवी और मानवीय में निरंतर अंतक्र्रिया चलती रहती है और वे आपस में मिले होते हैं।

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