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राजस्थानी साहित्य की प्रमुख रचनाएँ | राजस्थानी भाषा एवं साहित्य की प्रमुख कृतियाँ rajasthani literature in hindi

rajasthani literature in hindi राजस्थानी साहित्य की प्रमुख रचनाएँ | राजस्थानी भाषा एवं साहित्य की प्रमुख कृतियाँ ?

प्रश्न: राजस्थानी साहित्य में ‘राष्ट्रीय धारा‘ पर एक लेख लिखिए।

उत्तर: राजस्थानी साहित्य में प्राचीन काल से ही राष्ट्रीय विचार धारा का प्रभाव स्पष्ट एवं व्यापक रूप से दिखाई देता है। लेकिन ‘राष्टीय धारा‘ की स्पष्ट छाप सर्वप्रथम सूर्यमल्ल मिश्रण के ग्रंथों में दिखाई देती है। उन्होंने अपनी लेखनी से सोये हुए समाज को जगाया और उसमें राष्ट्रीय भावना की प्रेरणा भर दी। वे अपने ग्रंथ ‘वीर सतसई‘ में अंग्रेजी दासता के विरुद्ध बिगुल बजाते हुए दिखाई देते हैं। वे नवजागरण के पहले कवि थे जिन्होंने राजस्थानी जनमानस में जिस राष्ट्रीयता का शंख फूका था, वह आगे चलकर राष्ट्रीय चेतना बनी।
सूर्यमल्ल के अतिरिक्त गिरवरदान, भोपालदास, केसरीसिंह बारहठ आदि ने अपनी लेखनी से तत्कालीन जनमानस में सामन्तशाही व ब्रिटिश राज के प्रति आक्रोश व उनकी विभिन्न आकांक्षाओं को प्रभावशाली अभिव्यक्ति दी। पुरानी परम्परा के कवि उदयराज उज्ज्वल तक ने पुरानी मान्यताओं को तिलांजलि दे अपने ओजस्वी स्वर व देशभक्ति काव्य से एक नई राष्ट्रीय चेताना का संचार किया।
स्वातंत्रय चेतना, सामाजिक-राजनीतिक बदलाव के अग्रणी स्वतंत्रता सेनानियों ने भी अपनी राष्ट्रीय एवं देश-प्रेम की कविताओं से जनचेतना जगाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। ऐसे मनीषियों में हरिभाई उपाध्याय, गोकुल भाई भट्ट, विजयसिंह पथिक, जयनारायण व्यास आदि उल्लेखनीय हैं। इस काल की लेखनी में राष्ट्रीय विचारधारा और स्वाधीनता की चेतना जगाने के साथ ही मानवीय स्वतंत्रता की भावना बलवती रही जो सुधीन्द्र के समस्त काव्य में विलक्षणता के साथ ‘अमृत लेख‘ में देशभक्ति, समाज रचना, स्नेह के अपरिसीमित बंधन, देश के दासत्व की पीड़ा और उससे उत्पन्न क्रान्ति सब कुछ है। इस श्रृंखला में चन्द्रसिंह अपनी कृति ‘बादली‘ व ‘लू‘ के कारण चर्चित रहे। जनार्दन नागर, हरिनारायण शर्मा, रामनाथ सुमन, लक्ष्मणस्वरूप त्रिपाठी आदि इस धारा के उल्लेखनीय कवि हैं।
देश की स्वतंत्रता के अंतिम चरण कमे साथ ही राजस्थान में राष्ट्रीय विचारधारा एवं चेतना के रचनाकारों की एक नयी पीढ़ी उभरकर सामने आई। यह पीढ़ी थी कन्हैयालाल सेठिया, रांगेय राघव, मेघराज मुकुल, नन्द चतुर्वेदी आदि की। इन कवियों ने राष्ट्रीय धारा के साथ-साथ सामाजिक दायित्व का स्पष्ट बोध व उसके प्रति आत्मा की अंतरंग छवि का चित्रण किया।
राजस्थानी भाषा के साथ-साथ संस्कृत, हिन्दी में भी साहित्य लिखा गया जिनके विषय सम्पूर्ण समाज का नेतृत्व करते थे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि राजस्थानी साहित्य में राष्ट्रीय विचारधारा का व्यापक समावेश था जिसका स्पष्ट प्रभाव आधुनिक काल के विषय में परिलक्षित होता है।
प्रश्न: राजस्थानी साहित्य के विकास के विभिन्न चरणों का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
उत्तर: राजस्थानी साहित्य से अभिप्राय राजस्थान प्रदेश में बोली जाने वाली जनभाषा के लिखित और मौखिक साहित्य से है। डॉ. एल.पी. टेसीटोरी, सीताराम लालस, मोतीलाल मेनारिया जैसे अनेक प्रभृति विद्वानों ने राजस्थानी साहित्य का इतिहास लिखा है। जिसे तीन कालों में विभाजित किया हैं वे हैंः- 1. आदिकालीन राजस्थानी साहित्य जो 8वीं से 14वीं सदी तक 2. मध्यकालीन राजस्थानी साहित्य जो 15वीं सदी से 19वीं सदी के मध्य तक और 3. आधुनिक कालीन राजस्थानी साहित्य जो 19वीं सदी के मध्य से निरंतर चल रहा है। राजस्थानी साहित्य के विकास में संवत् 1500 से 1700 तक के समय को उत्कर्षकाल तथा सं. 1700 से 1900 तक के समय को ‘स्वर्णकाल‘ कहा गया है। इन तीनों कालों का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है।
आदिकालीन साहित्य: राजस्थानी साहित्य का विकास 8वीं सदी से संस्कृत एवं प्राकृत में, 10वीं सदी तक अपशंश में तथा 11वीं, से 14वीं सदी तक राजस्थानी ब्रज में हुआ। प्रारम्भिक समय में उद्योतन सरी (कवलयमाला) प्राकृत के एवं माघ (शिशपाल वध) संस्कत के प्रतिनिधि रहे। 11वीं सदी से जैन कवियों ने प्रेम एवं श्रृंगारपरक रास एवं राजाश्रयी कवियों ने वीररसपरक रासो साहित्य की रचना की। रासो साहित्य राजस्थानी की ही देन रही है जो आदिकालीन हिन्दी साहित्य का सर्वाधिक लोकप्रिय रूप् रहा है। हिन्दी का आदि महाकाव्य ‘पृथ्वीराज रासो‘ साहित्य का मुख्य प्रतिनिधि है।
मध्यकालीन साहित्य का विकास (14वीं, 17वीं व 18वीं-19वीं के मध्य तक): इस काल में साहित्य की विभिन्न परम्पराओं का विकास हुआ। इनमें 14वीं से 18वीं शती पर्यन्त संत साहित्य परम्परा में निर्गुण निराकार काव्य धारा एवं सगण साकार (राम-कष्ण भक्ति) भक्ति काव्य धारा का विकास हुआ। जाम्भोजी, जसनाथजी, दाद, चरणदास जी आदि सतो ने निर्गण काव्य धारा एवं मीरा बाई, पुष्टिमागीय सता, कृष्ण पयहारी आदि संतों ने सगुण काव्य धारा में विशाल साहित्य की रचना की। जो स्थानीय एवं ब्रज भाषा में रचा गया।
18वींसे 19वीं सदी के मध्य रीति काव्य परम्परा में श्रृंगार परक नायिका भेद एवं काव्यांगों की तथा चरित काव्य में पृथ्वीराज रासो के शिल्प से प्रभावित अत्यन्त रोचक वर्णन शैली तथा ब्रज में विशाल भाषा में साहित्य की रचना हई।
आधुनिक काल का साहित्य: 19वीं सदी के मध्य से राजस्थान में आधुनिक साहित्य का प्रारम्भ परतंत्रता के विरूद्ध चेतना से हुआ। इसकी शुरुआत महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने की। इस प्रगतिशील धारा में केसरी सिंह बारहठ, कन्हैयालाल सेठिया, सत्य प्रकाश जोशी, भरत व्यास जैसे सैंकड़ों प्रभृति विद्वानों का योगदान रहा। राजस्थानी काव्य को ऐतिहासिक व सांस्कृतिक, गरिमापूर्ण कहानियों का रूप देने में लक्ष्मी कुमारी चूंडावत, श्योभाग्यसिंह शेखावत जैसे महान साहित्यकार अग्रणी रहे। नई धारा में प्रगतिशील राष्ट्रीय प्रयोगवादी, यर्थाथवादी प्रवृत्तियों के साथ नाटकों, कहानियों, उपन्यासों, एकांकी आधुनिक साहित्य का विकास हुआ। इस समय विविध भाषाओं में सामाजिक बुराइयों, देश-प्रेम, स्त्री दशा, गरीबी, शोषण राजनीतिक चर्चा आदि मुख्य विषय हैं।
प्रश्न: राजस्थानी भाषा का लोक साहित्य एवं उसकी विशेषताओं के बारे में बताइए।
उत्तर: लोक साहित्य वस्तुतः लोक की मौखिक अभिव्यक्ति है तथा अभिजातीय शास्त्रीय चेतना से शून्य है। इसमें समूचे लोक मानस की प्रवृत्ति समाई रहती है। यह अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य का संचरण करता है। राजस्थानी लोक साहित्य भारतीय वांगमय की एक विशिष्ट सम्पदा है। राजस्थानी साहित्य विषय और शैली भेद के आधार पर छः वर्गा में विभाजित है जैसे संत साहित्य, चारण साहित्य, रासो साहित्य, वेलि साहित्य आदि में से एक प्रकार है लोक साहित्य का। राजस्थानी भाषा की विभिन्न बोलियों में रचित लोक साहित्य के लेखन में विभिन्न विधाओं को यथा-लोक गीत. लोक कथाओं, लोक गाथाओं, लोक नाट्यों, कहावतों, पहेलियों, श्लोकों तथा तंत्र-मंत्रादि का प्रयोग हुआ है। इन्हें निम्नलिखित रूप से स्पष्ट किया जा सकता है।
राजस्थानी ‘लोकगीतों‘ की भावभूमि बड़ी व्यापक है जीवन का कोई ऐसा पहलू नहीं, पक्ष नहीं जिस पर राजस्थानी लोकगीत न मिलते हों। वात्सल्य,श्रृंगार, शकुन-अपशकुन, सामाजिक-धार्मिक त्यौहार, पर्व संस्कार आदि सभी लोकगीतों में समाहित हैं। इनमें वीररस को अधिक महत्व दिया गया है। लोक कथाओं में लोक मानस की सब प्रकार की भावनायें तथा जीवन दर्शन समाहित रहता है। राजस्थानी लोक कथायें विषयवस्तु, कथाशिल्प व साहित्यिक सौंदर्य सभी दृष्टियों से अत्यन्त समृद्ध है।
राजस्थानी लोक साहित्य की तीसरी सशक्त विधा है ‘लोक गाथा‘ इसके लिए ‘पवाड़ा‘ शब्द का भी प्रयोग हुआ है। पाबूजी के पवाड़े, देवजी के पवाड़े, रामदेवजी के पवाड़े, निहालदे के पवाड़े आदि प्रसिद्ध पवाड़े हैं। ये काव्यात्मक, शैल्पिक, वैविध्य एवं सामाजिक-सांस्कृतिक निरूपण की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। वीररस, श्रृंगाररस, हास्यरस, करुणारस और निर्वेदानिक भावों का सफल चित्रण इनमें सहज सुलभ है।
लोक नाट्यों के तीन मुख्य प्रकार मिलते हैं ख्याल, स्वांग व लीलायें। ख्याल क्षेत्रीय रंगत लिये होते हैं। इसमें पौराणिक लौकिक, सामाजिक एवं समसामयिक पक्षों द्वारा शिक्षा परक बातें आती हैं। कहावत का अर्थ है ऐसी कही हुई बात जो समाज के अधिकांश व्यक्ति अनुभव करते हैं। धर्म, दर्शन, नीति, पुराण, इतिहास, ज्योतिष, सामाजिक रीति-रिवाज, कृषि, राजनीति आदि कहावतों में समाहित हैं। पहेली के लिए आड़ी, पाली, हीयाली आदि शब्द प्रचलित है। पहेली में बुद्धि चातुर्य और गूढार्थ ये दो प्रमुख तत्व होते हैं।
संक्षेप में राजस्थानी लोक साहित्य में ने केवल राजस्थान का लोकजीवन प्रतिबिम्बित है, अपितु इस प्रदेश का भूगोल, इतिहास, सामाजिक रीति-रिवाज, धर्म, देवी-देवता, लोक-आस्थायें, अन्धविश्वास सभी का यह एक निर्मल दर्पण है।
राजस्थानी लोक साहित्य की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. लोक साहित्य में लोकाभिव्यक्ति होती है जिसमें नैतिक मूल्यों, रीति-रिवाजों, विश्वासों आदि का समायोजन होता है।
2. लोक साहित्य लिखित न होकर प्रायः मौखिक रूप से विकसित होता है।
3. लोक साहित्य की शैली क्लिष्ट न होकर सरल व अलंकरण रहित होती है।
4. लोक साहित्य का साहित्यकार एवं उसका रचनाकार प्रायः ज्ञात नहीं होता ।
लोक साहित्य में लोक मानस की संस्कृति झलकती है।

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