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निषेध का निषेध नियम क्या है | परिभाषा किसे कहते है दर्शनशास्त्र में निषेध शब्द सर्वप्रथम define prohibition in sociology

define prohibition in sociology rule in hindi निषेध का निषेध नियम क्या है | परिभाषा किसे कहते है दर्शनशास्त्र में निषेध शब्द सर्वप्रथम किसने प्रयुक्त किया या दिया ?

निषेध का निषेध नियम
निषेध शब्द को दर्शनशास्त्र में सबसे पहले हीगल ने प्रयुक्त किया, परन्तु उसने इसका प्रत्ययवादी अर्थात् आदर्शवादी अर्थ लिया। हीगल की मान्यता थी कि निषेध की अवधारणा विचार तथा चिन्तन में उपजती है। मार्क्स ने हीगल की आलोचना की तथा निषेध की भौतिकवादी व्याख्या दी। उसने बताया कि निषेध यथार्थ के विकास का एक अभिन्न अंग है। मार्क्स ने लिखा कि किसी भी क्षेत्र में कोई भी तत्त्व अपने पूर्व के अस्तित्व के स्वरूप को नकारे बिना अथवा निषेध किये बिना विकसित नहीं हो सकता है।

आइये, हम इसको उदाहरण के द्वारा और अधिक स्पष्ट रूप से समझें। पृथ्वी की ऊपरी सतह अनेक भूगर्भीय युगों से गुजर चुकी है। प्रत्येक नया युग पिछले युग के आधार पर अस्तित्व में आता है और इस प्रकार पुराने युग के निषेध का प्रतिनिधित्व करता है। प्राणी जगत में भी प्राणियों की प्रत्येक नई किस्म अपनी से पुरानी किस्म के आधार पर पैदा होती है और साथ ही साथ उसके निषेध का प्रतिनिधित्व भी करती है। इसी प्रकार समाज का इतिहास भी प्राचीन, सामाजिक व्यवस्था के नई व्यवस्था द्वारा निषेधों की एक श्रृंखला है। जैसा कि रेमण्ड आरों (1965) ने कहा है कि पूंजीवाद सामन्तवादी समाज का निषेध है तथा समाजवाद पूंजीवाद का निषेध होगा अर्थात् समाजवाद निषेध का निषेध है। ज्ञान एवं विज्ञान के क्षेत्र में भी प्रत्येक नया वैज्ञानिक सिद्धांत प्राचीन सिद्धांतों का निषेध करता है। उदाहरण के तौर पर, बोन (ठवीद) का परमाणु सिद्धांत डाल्टन (क्ंसजवद) के अणु सिद्धांत का निषेध है अथवा इसी प्रकार डार्विन के सिद्धांत ने अपने से पूर्व प्रचलित मानवीय उद्विकास के बारे में सभी सिद्धांतों का निषेध किया।

यहां एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि निषेध किसी वस्तु अथवा प्रघटना में बाहर से प्रविष्ट नहीं करता है, अपितु यह उस वस्तु अथवा प्रघटना के आंतरिक विकास का ही परिणाम होता है। वस्तुएं अथवा प्रघटनाएं स्वयं में निहित आन्तरिक विरोधाभासों के आधार पर विकसित होती हैं। वे अपने ही विनाश की दशायें उत्पन्न करती हैं ताकि एक नई उच्चतर गुणात्मक स्थिति में परिवर्तित हो सकें। निषेध का अभिप्राय वस्तुओं और प्रघटनाओं के आंतरिक विरोधाभासों, स्वविकास तथा स्वतरू परिवर्तन के माध्यम से पुरानी स्थिति को नई स्थिति में बदलना है। इस प्रकार समाजवाद पूंजीवाद का स्थान इसलिये लेता है क्योंकि यह पूँजीवाद व्यवस्था के आंतरिक विरोधाभासों का समाधान करता है।

अतः वाद-संवाद प्रक्रियापरक निषेध एक ऐसे तथ्य से उभरता है, जिसमें कि किसी भी वस्तु की निषेधित वस्तु का कुछ भाग लुप्त हो जाता है। कुछ भाग नई व्यवस्था का भाग बन जाता है यद्यपि यह परिवर्तित स्वरूप में होता है और इस नई व्यवस्था में कुछ विशुद्ध रूप से नया जुड़ जाता है। इस प्रकार निषेध की मार्क्सवादी व्याख्या का प्रमुख गुण यह है कि यह निरन्तरता (बवदजपदनपजल) को मान्यता प्रदान करती है जो कि विकास में नये और पुराने के मध्य एक कड़ी का कार्य करती है। हमें यह बात भी ध्यान रखनी चाहिये कि नई अवस्था कभी भी पुरानी अवस्था को पूरी तरह से नहीं बदलती है। यह पुरानी अवस्था में से कुछ विशिष्ट तत्वों अथवा पक्षों को अपने में समेट लेती है और यह क्रिया भी इसमें यान्त्रिक रूप से घटित नहीं होती, अपितु अपनी स्वयं की प्रकृति के अनुरूप नई अवस्था प्राचीन तत्वों को अपने आप में आत्मसात तथा परिवर्तित करती है।

उदाहरण के लिये, भारत में उपनिवेशवाद को उखाड़ फेंकने के बाद हमने एक नये राष्ट्र की रचना प्रारंभ की। इस प्रक्रिया में हमने राष्ट्रीय विकास को अवरुद्ध करने वाले सभी उत्पीड़क तत्त्वों और संस्थाओं को हटाने का प्रयास किया, फिर भी हमने उपनिवेशवाद द्वारा पीछे छोड़े गये शैक्षणिक, वैधानिक तथा प्रशासन तंत्रीय ढाँचे तथा यातायात एवं संचार की आधुनिक अधोसंरचना को अपना लिया व उसको बनाये रखा।

इन्हीं कारणों से विकास की अवस्थाओं में क्रमिक परिवर्तन प्रगतिशील होता है। यद्यपि कोई भी अवस्था पूर्ण रूप से पुनर्घटित नहीं होती, फिर भी गत अवस्थाओं की कुछ विशेषताएं बाद की अवस्थाओं में रूपांतरित स्वरूप में घटित होती हैं। इस प्रकार प्राचीन तो नष्ट हो जाता है और नया उदित होता है। यह विकास की एक अवस्था मात्र है, अन्तिम स्थिति नहीं। क्योंकि विकास कभी नहीं रुकता। कोई भी नई अवस्था सदैव नई नहीं रहती। विकास की प्रक्रिया में और अधिक नई तथा प्रगतिशील अवस्था के लिये दशायें बनने लगती हैं और जब नई दशायें परिपक्व हो जाती हैं तो एक बार पुनरू निषेध घटित होता है और इसी को निषेध का निषेध कहते हैं। इस प्रक्रिया में पहले निषेध के बाद वाला निषेध और भी उच्चतर स्थिति का होता है और यह प्रक्रिया अनवरत रूप से चलती रहती है। इस प्रकार विकास की प्रक्रिया में असंख्य क्रमिक निषेध घटित होते हैं, जिसके द्वारा पुरानी स्थितियों अथवा वस्तुओं का स्थान नई वस्तुयें लेती हैं।

वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद के नियमों का प्रयोग
प्रकृति, विश्व एवं समाज पर समान रूप से वाद-संवाद प्रक्रियापरक भौतिकवाद के सिद्धांत अथवा नियम लागू होते हैं। जब इन नियमों को समाज के इतिहास पर लागू किया जाता है तो ये ऐतिहासिक भौतिकवाद का रूप ले लेते हैं। जैसा कि आपने पूर्ववर्ती इकाइयों में अध्ययन किया है कि मार्क्स के अनुसार, मानवीय समाज चार प्रमुख उत्पादन प्रणालियों से होकर गुजरा है, जिनके नाम एशियाटिक, प्राचीन, सामंतवादी एवं पूंजीवादी प्रणाली हैं। अंततः मार्क्सवादी सिद्धांत की भविष्यवाणी के अनुसार समाज के ये क्रमिक स्वरूप साम्यवाद की अवस्था तक पहुंचेंगे। यहां हमें यह देखना है कि उत्पादन के क्रमिक तरीकों, स्वरूपों एवं सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिये वाद-सवांद प्रक्रियापरक भौतिकवाद के नियमों को किस प्रकार प्रयुक्त किया जाता है।

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