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पृथ्वीराज रासो की रचना किसने की | पृथ्वीराज रासो के रचनाकार लेखक कौन थे prithviraj raso in hindi
prithviraj raso in hindi पृथ्वीराज रासो की रचना किसने की | पृथ्वीराज रासो के रचनाकार लेखक कौन थे ?
उत्तर : पृथ्वी राज रासों की रचना “चन्द्रबरदाई” ने की थी |
प्रश्न: युद्ध विरोधी काव्य – राधा
उत्तर: सत्यप्रकाश जोशी अपने मौलिक और गैर पारंपरिक सोच के लिए अलग से उल्लेख योग्य हैं। 1960 में प्रकाशित उनकी काव्य कृति ‘राधा‘ इस दृष्टि से रेखांकनीय है कि जहां आम राजस्थानी कविता युद्ध का गौरव गान करती है, जोशी यहां अपनी नायिका राधा के माध्यम से श्रीकृष्ण को यह संदेश देकर कि वे महाभारत का युद्ध टाल दें, युद्ध के विरोध में खड़े नजर आते हैं।
प्रश्न: चन्दरबरदाई
उत्तर: राजस्थानी के शीर्षस्थ, विख्यात कवि, हिन्दी के आदि कवि के रूप में प्रतिष्ठित, पृथ्वीराज चैहान के दरबारी कवि ‘पृथ्वीराज रासो‘ महाकाव्य के रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हैं। जो वीररस की अद्भुत व्यंजना, वीर और श्रृंगार रस का समंजिक उन्मेष, विविध छन्दों की भावानुकूल रचना के रचनाकार हैं। इनकी भाषा और कल्पना वैभव की अनूठी झंकृर्तियां, चमत्कृत कर देने वाली वर्णन बहुलता, अपभ्रंश कालीन काव्य रूढ़ियों का मनोहर समावेश पाठक को चमत्कृत कर देता है। इनके पुत्र जल्हण ने पृथ्वीराज रासो को पूर्णता प्रदान की।
प्रश्न: राजस्थानी साहित्य की मुख्य विशेषताओं की विवेचना कीजिए
उत्तर: राजस्थानी साहित्य की विशेष प्रवृत्तियाँ इस प्रकार रही हैं। इसका भाषा एवं शैली के रूप में क्रमिक विकास हुआ है। जो क्रमशः प्राकृत, संस्कत, अपभ्रंश, राजस्थानी ब्रज और अंततः डिंगल में तथा रास, रासो, चारण, संत, रीति-काव्य, चरित काव्य और आधुनिक शैली साहित्य शैली का विकास हुआ। इसमें वीररस एवं श्रृंगार रस का अद्भुत समन्वय, जीवन आदर्शों एवं जीवन मूल्यों का पोषण, जनसमूह की अन्तर्मुखी प्रवृत्ति एवं राष्ट्रीय विचारधारा एवं चेतना के साहित्य गद्य-पद्य शेलियों में लिखा गया है। वचनिका, दवावैत, सिलोका, वात आदि गद्य के कलात्मक रूप हैं।
प्रश्न: राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर
उत्तर: राजस्थानी साहित्य की उन्नति एवं प्रचार-प्रसार के लिए अकादमी की स्थापना 28 जनवरी, 1958 को उदयपुर में की गई। की अकादमी द्वारा मीरा पुरस्कार, सुधीन्द्र पुरस्कार, डॉ. रांगेय राघव पुरस्कार, कन्हैयालाल सहल पुरस्कार आदि साहित्य में प्रदान किए जाते हैं। अकादमी द्वारा राजस्थानी भाषा क्षेत्र में दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार ‘मीरा पुरस्कार‘ है। प्रथम मारा परस्कार वर्ष 1959-60 में डॉ. रामानन्द तिवारी को दिया गया। 2008 का मीरा पुरस्कार श्रीमती मदला बार का उनकी कृति ‘कुछ अनकही’ के लिए दिया गया। अकादमी की मासिक पत्रिका ‘मधुमति‘ है।
प्रश्न: राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
उत्तर: राजस्थानी भाषा एवं साहित्य के विकास हेतु जनवरी, 1983 ई. में इस अकादमी की स्थापना की गयी। पत्रिका प्रकाशन मा प्रकाशन. हेतु सहायता और आंचलिक समारोह इस अकादमी की मुख्य गतिविधियां हैं। अकादमी द्वारा उत्कृष्ट साहित्यकारों को प्रतिवर्ष पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं जिनमें- सूर्यमल्ल मिश्रण पुरस्कार, गणेशीलाल उत्साद पद्य पुरस्कार, मुरलीधर व्यास कथा सम्मान, शिवधरण भरतिया गद्य पुरस्कार, सावर दइया पेली पोथी पुरस्कार, बाल साहित्य पुरस्कार आदि प्रमुख हैं। अकादमी की मासिक पत्रिका- ‘जागती जोत‘ है।
निबंधात्मक प्रश्नोत्तर
प्रश्न: कर्नल जेम्स टॉड की राजस्थान के इतिहास को दी गई सेवाओं की विवेचना कीजिए।
अथवा
प्रश्न कनल जेम्स टॉड का राजस्थान के इतिहास लेखन के विकास में योगदान बताइये।
उत्तर: कर्नल जेम्स टॉड इंग्लैण्ड के निवासी थे जो 1800 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सेवा में शामिल हए। राजस्थान के पर इनका विशेष रूचि को देखते हुए 1818 ई. में इन्हें दक्षिण-पश्चिमी राजपूताने का रेजीडेन्ट बनाकर उदयपुर भेजा गया जहाँ ये 1822 ई. तक रहे। इस अवधि में टॉड ने राजपूत राज्यों के इतिहास से संबंधित सामग्री जुटाने का प्रयास किया। इस कार्य में इनके गुरु ज्ञानचन्द्र का विशेष योगदान रहा। इस ऐतिहासिक सामग्री को संग्रहित कर कर्नल टॉड 1822 ई. में अपने साथ लन्दन ले गए।
इंग्लैण्ड में रहते हुए राजस्थान की संकलित सामग्री का उपयोग कर 1829 ई. में कर्नल टॉड ने ‘एनॉल्स एण्ड एण्टीक्यूटीज ऑफ राजस्थान‘ का भाग प्रथम व भाग द्वितीय तथा ‘ट्रेवल्स इन सेण्ट्रल एण्ड वेस्टर्न राजपूत स्टेट्स ऑफ राजस्थान‘ नामक तीसरी पुस्तक लिखी जो 1839 ई. में उसकी मृत्यु के पश्चात् प्रकाशित हुई। एनॉल्स के प्रथम खण्ड में राजपूताना की भौगालिक स्थिति, शासकों की वंशावली, तत्कालीन सामन्ती व्यवस्था व मेवाड़ के इतिहास का वर्णन दिया गया है। दूसरे खण्ड में राजपूताना के विभिन्न राज्यों का क्रमबद्ध इतिहास तथा तीसरे ग्रंथ में व्यक्तिगत अनुभव, राजपूती परम्पराओं, अंधविश्वासों, आदिवासियों, मंदिर-पुजारी एवं गुजरात के राज्यों का इतिहास दिया है।
टॉड के इन लिखित ग्रंथों ने यूरोप का ध्यान राजस्थान की ओर खींचा। टॉड ने लिखा कि राजपूताना में कोई छोटा राज्य भी शायद ही हो जिसमें थर्मोपाइले जैसा युद्ध का मैदान एवं लियानिडास जैसा वीर योद्धा पैदा न हुआ हो। उसने अपने इस इतिहास लेखन से राजस्थान की वीरभूमि के बारे में यूरोपवासियों को ज्ञान कराकर आश्चर्यचकित कर दिया। हर कोई यूरोपवासी इस वीरभूमि को देखने के लिए लालायित हो उठा जिसे आज भी देखा जा सकता है। लेखक (एच.डी. सिंह) के साथ ऐसे अनेक वाकिए घटते रहते हैं जिनमें यूरोपियन एवं अमेरिकन पर्यटक राणा प्रताप के बारे में अत्यधिक जानकारी उत्सुकता के साथ जानना चाहते हैं।
टॉड अंग्रेजी भाषा का ज्ञाता थे अतः राजस्थान की स्थानीय भाषा न समझने एवं सूचनादाताओं की इतिहास में अनभिज्ञता होना आदि कई कारणों से उसके इतिहास लेखन में त्रुटियाँ रहना स्वाभाविक था। इसके बावजूद टॉड की राजस्थान के इतिहास के प्रति इस सेवा को भी कम नहीं आंका जा सकता है। क्योंकि टॉड न केवल प्रदेश के ऐतिहासिक साहित्य, गुम होते शिलालेखों, अनजाने पुरालेखों आदि को नष्ट होने से बचाया बल्कि हमारे प्रदेश का इतिहास गौरवमय बना दिया।
कर्नल टॉड ने जो कुछ लिखा उसमें एक क्रम है तथा उसके बाद वाले इतिहासकारों ने उसके ग्रंथों का विश्लेषणात्मक उपयोग अधिक मात्रा में किया है। शर्मा व्यास ने इसका हिन्दी वर्जन कर सराहनीय कार्य किया है। कर्नल टॉड राजस्थान का प्रथम इतिहासकार था जिसने पहली बार वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समस्त राजस्थान का इतिहास लिखा। इसलिए उसे सही मायने में ‘राजस्थान के इतिहास का पिता‘ कहा जा सकता है।
प्रश्न: राजस्थानी भाषा के विकास एवं उसकी प्रमुख बोलियों के बारे में संक्षिप्त जानकारी दीजिए।
उत्तर: राजस्थानी भाषा का विकास
यहाँ राजस्थानी से तात्पर्य राजस्थान, के भौगोलिक प्रदेश में प्रयुक्त होने वाली भाषा से है। रजस्थानी भाषा में 11 स्वर एवं 38 व्यंजन हैं। राजस्थानी भाषा का उद्भव “गुर्जरी अपभ्रंशध्शौरसेनी अपभ्रंश से 12वीं सदी में हुआ। सीताराम लालस राजस्थानी भाषा का उद्भव 9वीं सदी से मानते हैं। प्राचीन समय में इसे श्मरु भाषाश् के नाम से जाना जाता था। 13वीं सदी में यह अपभ्रंश से तथा 16वीं सदी में गुजराती से विलग होकर स्वतंत्र भाषा के रूप में सामने आयी। इसके विकास क्रम को 11वीं से 13वीं सदी तक गुर्जर अपभ्रंश, 13वीं से 16वीं सदी तक प्राचीन राजस्थानी, 16वीं से 18वीं सदी तक मध्य राजस्थानी तथा 18वीं सदी से अब तक अर्वाचीन राजस्थानी के रूप में वर्गीकृत किया गया है। भाषागत भिन्नता एवं साहित्यिक शैली के आधार पर इसे पश्चिमी राजस्थानी जो गुजराती से साम्यता रखती है तथा पूर्वी राजस्थानी जो ब्रज से साम्यता रखती है में बांटा गया है। इसकी उपर्युक्त साहित्यिक शैली को क्रमशः डिंगल और पिंगल कहा गया है। विस्तार की दृष्टि से राजस्थानी का प्रभाव पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र एवं गुजरात के समीपवर्ती प्रदेशों तक है। इसके बोलने वालों की संख्या 6 करोड़ से अधिक है तथा भारतीय भाषाओं में संख्या के आधार पर राजस्थानी भाषा का 7वां स्थान है।
राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियाँ
राजस्थानी भाषा की 73 बोलियाँ मानी गई हैं, जिनमें से आठ-दस ही प्रमुख हैं। क्षेत्र के आधार पर प्रमुख बोलियों को दो भागों में बांट सकते हैं – 1. पश्चिमी राजस्थानी तथा 2. पूर्वी राजस्थानी।
1. पश्चिमी राजस्थानी भाषा की प्रमुख बोलियाँ 4 हैं – मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी व शेखावाटी। मारवाड़ी प्रचार-प्रसार एवं साहित्य लेखन की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बोली है जो समस्त पश्चिमी राजस्थान और विशुद्ध रूप से । जोधपुर व उसके आस-पास के क्षेत्र में बोली जाती है। बागड प्रदेश में मारवाड़ी की उपबोली बागड़ा, मवाड़ – मेवाड़ी एवं शेखवाटी क्षेत्र में शेखावाटी बोली प्रयुक्त होती है। देवडावाडी-सिरोही, गौडवाडी-पाली क्षेत्र, खैराड़ी शाहपुरा एवं बूंदी क्षेत्र में बोली जाने वाली मारवाड़ी की अन्य प्रमुख उपबोलिया है।
2. पूर्वी राजस्थानी भाषा की भी प्रधान बोलियाँ 4 हैं – ढंूढाडी, मेवाती, अहीरवाटी व हाडौती। प्रचार-प्रसार की दृष्टि से ढूंढाड़ी एक महत्त्वपूर्ण बोली है जो जयपुर (ढूढ़ाड़) व उसके दक्षिण-पर्वी भाग तक बोली जाती है। मेवाती अलवर, भरतपुर से गुडगांव तक तथा अहीरवाटी बहरोड़, मण्डावर कोटपूतली से रेवाड़ी तक बोली जाती है। हाडौती प्रदेश (कोटा-बूंदी) में प्रयुक्त बोली हाड़ौती है जो ढूंढाडी की उपबोली है। इसी प्रकार तोरावाटी, नागरचोल भी ढूंढाड़ी की उपबोलियाँ हैं। मालवा प्रदेश में मारवाडी व ढंढाडी की सम्मिश्रण मालवी एवं इसके आस-पास पालवी व मारवाडी के सम्मिश्रण से रांगडी बोली प्रयुक्त होती है।
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