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पराग नलिका की खोज किसने की थी ? pollen tube discovered by in hindi परागनलिका first found

pollen tube discovered by whom in hindi पराग नलिका की खोज किसने की थी ? परागनलिका first found कब हुई थी ?

उत्तर : परागनलिका की खोज 19 वीं शताब्दी में जी.बी. अमिकी (G.B. amici) के द्वारा की गयी थी , इनका पूरा नाम “जिओवेनी बेस्टिस्टा अमीकी” (Giovanni Battista Amici) था |

पराग नलिका की वृद्धि दर (growth rate of pollen tubes) : पराग नलिका की वृद्धि दर वातावरणीय कारकों मुख्यतः तापक्रम से और नर युग्मकोदभिद और अंडप के बीजाणुदभिद ऊतकों के मध्य किस सीमा तक निषेच्यता है , इस पर निर्भर करता है। शीतोष्ण क्षेत्र के पौधों में पराग नलिका की वृद्धि दर अपेक्षाकृत धीमी पायी गयी है। ओक की कई जातियों में पराग नलिका को वर्तिकाग्र से भ्रूणकोष तक पहुँचने में बारह अथवा चौदह महीने का समय लग जाता है , अधिकांशत: पादपों में यह अवधि 24 से 48 घंटे तक की होती है।

चावल में यह अवधि बारह से चौबीस घंटों की , लेक्टयूका सेटाइवा में छ: सात घण्टों की , पोर्चूलेका ओलिरेसिया में तीन चार घंटों की तथा क्रीपिस केपिलेरिस में यह अवधि मात्र एक घंटे की होती है।
वातावरणीय कारकों में तापक्रम प्रमुख कारक है। नम और गर्म वातावरण में पराग नलिका की वृद्धि तेजी से होती है जबकि शुष्क वायु में कम तापक्रम पर इसकी वृद्धि दो अथवा तीन गुना कम हो जाती है। पाँच डिग्री सेंटीग्रेड से कम तापमान पर नलिका की वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है। पच्चीस डिग्री से तीस डिग्री पर परागनलिका की वृद्धि अधिकतम होती है।
पराग नलिका की वृद्धि दर को प्रभावित करने वाला दूसरा प्रमुख कारक नर युग्मकोदभिद और अंडप के बीजाणुद्भिद उत्तकों के मध्य निषेच्यता की सीमा है। परस्पर सही प्रजाति सम्बन्ध होने पर पराग नलिका की स्वस्थ वृद्धि और सामान्य निषेचन होता है।
निषेच्य संयोजन में पराग नलिका की वृद्धि बहुत मंद हो जाती है तथा भ्रूणकोष तक पहुँचने से पूर्व पुष्प मुरझा कर गिर जाता है। परपरागित पुष्पों में परागनलिका की अधिक वृद्धि दर पायी जाती है।

परागनलिका का मार्ग (path of pollen tube)

परागकण के अंकुरण के पश्चात् बनने वाली पराग नलिका पहले तो अपना मार्ग वर्तिकाग्र के पेपिलामय उभारों के मध्य बनाती है और इसके बाद यह वर्तिका के ऊतकों के मध्य से वृद्धि करती हुई निचे की तरफ अर्थात बीजाण्ड की तरफ बढती जाती है। विभिन्न आवृतबीजी पादपों में वर्तिका की लम्बाई में विविधता पायी जाती है। कुछ पौधों जैसे – आर्जीमोन में वर्तिका पूर्णतया अनुपस्थित होती है। इस कारण परागनलिका पैपिला के मध्य में से होती हुई सीधे ही बीजाण्ड तक पहुँच जाती है। जबकि मक्का में वर्तिका अधिक लम्बी होती है अत: यहाँ परागनलिका का मार्ग भी उतना ही लम्बा होता है।
परागनलिका की वृद्धि मुख्यतः वर्तिका की आंतरिक बनावट से सर्वाधिक प्रभावित होती है। यही नहीं वर्तिका में विशेष प्रकार की कोशिकाएँ पायी जाती है , जिनको प्रेषण ऊतक कहते है।
उनकी उपस्थिति , सघनता या विरलता अथवा पूर्णत: अनुपस्थिति भी परागनलिका की वृद्धि को प्रभावित करने वाले कारक है। प्रेषण ऊतक की उपस्थिति के आधार पर समस्त आवृतबीजी पौधों में तीन प्रकार की वर्तिकाएँ पायी जाती है। ये निम्नलिखित है –
(अ) खुली वर्तिका (open style) : इस प्रकार की वर्तिका में स्पष्ट और अपेक्षाकृत चौड़ी नाल होती है। इस नाल की सतह की बाह्यत्वचा परागनली को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने का और नली के शीर्षस्थ वृद्धि क्षेत्र के लिए पोषण प्रदान करने का कार्य करती है , इस प्रकार की वर्तिका एकबीजपत्रियो में सामान्य है। लिलियम में नलिका की परिधीय कोशिकाएँ श्लेष्म का स्त्रवण करती है। इस स्त्रवण में प्रोटीन , कार्बोहाइड्रेट , लिपिड , एस्टर आदि पदार्थ होते है। ग्लोडियोलस में नलिका क्यूटिकल द्वारा ढकी रहती है।
(ब) आधी बंद वर्तिका : इस प्रकार की वर्तिका चौड़ाई में कम होती है और इसमें इधर उधर बिखरे हुए विरल प्रेषण ऊतक दो अथवा तीन परतों में ग्रंथिल कोशिकाओं के रूप में पाए जाते है। इनकी कोशिकाओं के मध्य में से खाली स्थान में होते हुए परागनलिका अपना मार्ग निर्धारित करती है। उदाहरण – केक्टेसी कुल के सदस्य।
(स) बन्द नलिका : इस प्रकार की वर्तिका अत्यन्त संकरी होती है। इसमें नाल नही होती और सुविकसित प्रेषण ऊतक की कोशिकाएँ पायी जाती है और इनके बीच खाली स्थान नहीं होता। अत: परागनली को बीजाण्ड तक पहुँचने के लिए इन्ही कोशिकाओं को भेदकर पार करना पड़ता है। ठोस या बन्द वर्तिका द्विबीजपत्री पौधों में सामान्यतया पायी जाती है , जैसे धतुरा , कपास आदि।
प्रेषण ऊत्तक की कोशिकाओं में माइटोकोंड्रिया प्लास्टीड , RER , गाल्जी और राइबोसोम्स आदि बहुतायत में होते है। इनके मध्य अंतर्कोशिका अवकाशों में कार्बोहाइड्रेट , प्रोटीन , ग्लाइकोप्रोटीन और पराऑक्सीडेज , एसिडफास्फेटेज और एस्ट्रेज एन्जाइम्स होते है।
कुछ पौधे जैसे – अकेशिया और सेलिक्स में हालाँकि बन्द वर्तिका पायी जाती है लेकिन इनमें प्रेषण ऊतक नहीं पाए जाते।
खुली वर्तिका में नाल की अधिचर्म कोशिकाएँ श्लेष्मा स्त्रावित करती है , जिससे बनी चिकनी नाल में परागनलिका अंडाशय की तरफ बढती चली जाती है जबकि बन्द वर्तिका में परागनली प्रेषण ऊतक के अंतर्कोशिकीय स्थानों के मध्य में होती हुई अंडाशय की तरफ वृद्धि करती है। परागनली के द्वारा उत्पन्न द्रव स्थैतिक दाब और इसके शीर्ष सिरे से स्त्रावित विकर के कारण इसके सम्पर्क में आने वाली प्रेषण ऊतक के मध्य पाए जाने वाले अन्तर्कोशिकीय स्थान और भी अधिक चौड़े हो जाते है। अत: परागनली आसानी से अंडाशय की तरफ बढती रहती है।

परागनलिका का बीजाण्ड में प्रवेश (entry of pollen tube in ovule)

परागनलिका वर्तिका को पार करके अंडाशय में पहुँच जाती है और यहाँ स्थित बीजाण्ड में बीजाण्डद्वार अथवा किसी अन्य माध्यम से प्रवेश करती है। विभिन्न आवृतबीजी पौधों के बीजाण्डो में परागनलिका का प्रवेश तीन प्रकार से हो सकता है जो कि निम्नलिखित है –
(अ) बीजाण्ड द्वारीय प्रवेश (porogamy) : अधिकांश आवृतबीजी पादपों में परागनलिका बीजाण्डद्वार में से होकर बीजांड में प्रवेश करती है। परागनली के प्रवेश के लिए यह सर्वाधिक सुविधाजनक मार्ग है। अनेक वैज्ञानिकों के अनुसार परागनली का अंडद्वारी प्रवेश सहायक कोशिकाओं के तन्तुरूप समुच्य द्वारा स्त्रावित रासायनिक पदार्थो द्वारा निर्देशित होता है लेकिन अनेक पौधों में सहायक कोशिकाओं की अनुपस्थिति में भी परागनली का बीजाण्ड में प्रवेश होता है। इसलिए यह मत मान्य नहीं है।
(ब) निभागीय प्रवेश (chalazogamy) : इस प्रक्रिया में परागनलिका निभागीय सिरे की तरफ से भ्रूणकोष तक पहुँचती है। यह प्रक्रिया सर्वप्रथम केज्यूराइना में ज्ञात हुई थी। इसके बाद अमेंटीफेरी वर्ग के अनेक पादपों में परागनलिका का निभागीय प्रवेश देखा गया है।
(स) माध्य प्रवेश (mesogamy) : इस प्रक्रिया में परागनली बीजांड के पाशर्वीय भाग में अध्यावरणों से होती हुई भ्रूणकोष तक पहुँचती है। इस प्रकार का परागनली प्रवेश कुकुरबिटेसी के सदस्यों और एल्किमिला और सिरकास्टर नामक पौधों में देखा गया है।
इसके अतिरिक्त भी पराग नलिका के बीजांड में प्रवेश में अनेक विविधता देखि जाती है। कुछ पौधों जैसे – एकेशिया में बीजांड के अध्यावरण बहुत छोटे होते है और बीजाण्डकाय का ऊपरी हिस्सा अनावृत रहता है अर्थात बीजाण्डद्वार नहीं बन पाता। ऐसी स्थिति में परागनली बीजांडकाय के ऊपरी हिस्सों से भीतर की तरफ प्रविष्ट होती है। पिस्टेसिया में परागनली बीजाण्डवृत से प्रवेश करती है।
यूट्रिकुलेरिया में भ्रूणकोष ही बीजाण्डद्वार के बाहर आ जाता है। ऐसी अवस्था में परागनली सीधे ही इसके सम्पर्क में आ जाती है।
लोरेन्थेसी कुल में अध्यावरणों का निर्माण नहीं होता और भ्रूणकोष लम्बाई में वृद्धि करके वर्तिकाग्र के नीचले हिस्से तक पहुँच जाता है।
कुछ प्रजातियों में अंडाशय और बीजाण्ड के मध्य में स्थित बीजाण्डासन अथवा वर्तिका के निचले सिरे से अथवा अंत: अध्यावरण के ऊपरी सिरे से कुछ अतिवृद्धियाँ निकलती है जो पराग नलिका को अंडाशय भित्ति से बीजाण्ड द्वार तक पहुँचने के लिए आकर्षित करने का कार्य करती है। इन संरचनाओं को सेतुक कहते है। सेतुक की कोशिकाएँ ग्रंथिल अथवा पेपिलामय होकर परागनलिका को पोषण प्रदान करती है। उदाहरण एकेलिफा और ल्यूकोसाइक।
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