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Categories: BiologyBiology

फ्लोएम या पोषवाह या फ्लोयम क्या है ? Phloem / Bast / Leptome in hindi फ्लोएम किसे कहते हैं

फ्लोएम का दूसरा नाम और कार्य बताइये ? फ्लोएम या पोषवाह या फ्लोयम क्या है ? Phloem / Bast / Leptome in hindi फ्लोएम किसे कहते हैं ?

पोषवाह अथवा फ्लोएम (Phloem / Bast / Leptome) परिभाषा : फ्लोयम भी जाइलम के समान ही एक जटिल प्रकार का स्थायी ऊत्तक है। इसका प्रमुख कार्य पादप शरीर में ऊपर की ओर (ऊपरिमुखी) या नीचे की तरफ (अधोमुखी) कार्बनिक खाद्य पदार्थो का संवहन करने का होता है। जाइलम के समान ही यह जटिल ऊत्तक विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं से मिलकर बनता है और इन सभी कोशिकाओं की उत्पत्ति भी एकसमान होती है। लेकिन इनके कार्य और संरचना में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है। अत: यह कहा जा सकता है कि फ्लोयम भी एक विषमांगी ऊत्तक है।

यह पौधों में ठीक उन स्थानों पर उपलब्ध होता है जहाँ जाइलम भी पाया जाता है लेकिन जाइलम भीतर की ओर अथवा मज्जा की तरफ उपस्थित होता है जबकि फ्लोएम जाइलम के बाहर परिरंभ की ओर पाया जाता है लेकिन कुछ पौधों जैसे कुकुरबिटेसी , एस्क्लेपियेडेसी और सोलेनेसी कुल के सदस्यों में जाइलम के अन्दर और बाहर दोनों और ही फ्लोएम उत्तक पाया जाता है। इस प्रकार के संवहन बंडलों को जहाँ जाइलम के दोनों ओर फ्लोएम ऊत्तक उपस्थित हो , उभयपोषवाही संवहन बण्डल कहते है।

जाइलम के समान ही पौधों में प्राथमिक और द्वितीयक फ्लोयम भी पाया जाता है। प्राथमिक फ्लोयम प्राकएधा (procambium) से बनता है। जबकि द्वितीयक फ्लोयम की उत्पत्ति द्वितीयक वृद्धि के दौरान संवहन एधा (vascular cambium) से होती है।

प्राकएधा से सबसे पहले जो फ्लोयम बनता है उसे प्रोटोफ्लोयम कहते है जबकि प्राकएधा की सक्रियता से बाद में बनने वाले फ्लोयम ऊत्तक को मेटाफ्लोयम कहते है।

प्राथमिक और द्वितीयक फ्लोयम में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित प्रकार से है –

प्राथमिक फ्लोयम और द्वितीयक फ्लोएम में अंतर (difference between primary phloem and secondary phloem)

प्राथमिक फ्लोयम द्वितीयक फ्लोयम
1. इसकी उत्पत्ति प्राकएधा से होती है। इसकी उत्पत्ति एधा से होती है।
2. इसमें प्रोटोफ्लोएम और मेटाफ्लोयम का विभेदन पाया जाता है। इसमें ऐसा कोई विभेदन नहीं पाया जाता।
3. फ्लोयम रेशे बाहरी भाग में उपस्थित होते है। फ्लोयम रेशे भीतरी भाग में फ्लोयम मृदुतक के साथ उपस्थित होते है।
4. चालनी नलिकाएं प्राय: लम्बी और संकरी गुहा वाली होती है। चालनी नलिकाएँ छोटी और चौड़ी गुहा वाली होती है।
5. फ्लोयम मृदुतक अल्प विकसित होता है। फ्लोयम मृदुतक सुविकसित होता है।
6. चालनी छिद्रों के चारों तरफ कैलोस का प्राय: अभाव होता है। चालनी छिद्रों के चारों तरफ कैलोस उपस्थित होता है।

फ्लोयम के तत्व (elements of phloem)

फ्लोएम जो कि जाइलम के समान ही एक स्थायी जटिल ऊतक है , उसमें चार प्रकार के तत्व अथवा कोशिकाएँ पायी जाती है। यह है –

  1. चालनी तत्व (sieve elements)
  2. सहकोशिकाएँ (companion cells)
  3. फ्लोयम मृदुतक (phloem parenchyma)
  4. फ्लोयम रेशे (bast fibres or phloem fibers)
  5. चालनी तत्व (sieve elements): चालनी तत्वों में दो प्रमुख घटक चालनी कोशिका और चालनी नली होते है।

चालनी कोशिका : ये एकक कोशिकाएँ होती है। इनमें चालनी पट्टिका नहीं पायी जाती है और चालनी क्षेत्र सभी भित्तियों पर समान रूप से वितरित होते है।

चालनी नलिका : ये चालनी कोशिकाओं के एक के ऊपर एक रेखिक क्रम में व्यवस्थित होने से बनती है। इनकी लम्बाई पादपों में भिन्न भिन्न 100 से 500 माइक्रो मीटर और चौड़ाई 10-70 माइक्रो मीटर तक होती है।

संरचना : चालनी नलिका की अनुप्रस्थ भित्ति पर अनेक छिद्र होते है और इस छिद्रों के समूह को चालनी क्षेत्र कहते है। चालनी नलिका की वह भित्ति जिसमें सुस्पष्ट छिद्र युक्त चालनी क्षेत्र उपस्थित हो चालनी पट्टिका कहलाती है। यदि किसी किसी चालनी पट्टिका में केवल एक ही चालनी क्षेत्र हो तो वह सरल चालनी पट्टिका कहलाती है , जबकि एक से अधिक चालनी क्षेत्र युक्त पट्टिका को संयुक्त चालनी पट्टिका कहते है। इनके अतिरिक्त चालनी तत्वों की पाशर्व भित्ति पर भी चालनी क्षेत्र होते है , इन्हें पाशर्व चालनी क्षेत्र कहते है जो अपेक्षाकृत अल्प विकसित होते है।

तरुण चालनी कोशिकाएं सजीव और केन्द्रक युक्त होती है लेकिन परिपक्व अवस्था में केन्द्रक रहित होती है। इनके मध्य भाग में एक बड़ी रिक्तिका और परिधीय कोशिका द्रव्य होता है। एक कोशिका में उपस्थित कोशिका द्रव्य दूसरी कोशिका से कोशिका द्रव्यी सूत्रों के द्वारा जुड़ा रहता है। यह कोशिका द्रव्यी सूत्र चालनी पट्टिका के छिद्रों से दूसरी कोशिका में पहुँचते है। घुलनशील खाद्य पदार्थो का संवहन इन कोशिका द्रव्यी सूत्रों के द्वारा ही संभव होता है।

चालनी पट्टिका पर स्थित चालनी छिद्रों की परिधि पर केलोज का निक्षेपण पाया जाता है। केलोज के संश्लेषित और विघटित करने वाले एंजाइम इन कोशिकाओं के कोशिका द्रव्य में ही उपस्थित होते है। वृद्ध और जीर्ण होती चालनी नलिकाओं में केलोज आच्छद मोटा होता जाता है जो अंततः चालनी छिद्रों को अवरुद्ध कर देता है जिससे चालनी नलिका निष्क्रिय हो जाती है। शरद ऋतु में केलोज परत मोटी हो जाती है , लेकिन बसंत ऋतू में विघटनकारी एंजाइम की सक्रियता के कारण यह पतली अथवा विलुप्त हो जाती है जिससे चालनी नलिका पुनः सक्रीय हो जाती है।

कार्यकाल : जिम्नोस्पर्म और द्विबीजपत्रियों में द्वितीयक वृद्धि के कारण नए चालनी तत्वों का निर्माण निरंतर होता रहता है। अत: इसमें चालनी तत्व एक अथवा दो वृद्धि कालों तक सिमित रहती है। इसके विपरीत एकबीजपत्रियों में द्वितीयक वृद्धि के अभाव में चालनी तत्वों की सक्रियता जीवनपर्यन्त बनी रहती है।

कार्य : चालनी तत्वों का प्रमुख कार्य भोजन का संवहन करना है।

  1. सहकोशिकाएँ (companion cells): यह विशेष प्रकार की मृदुतक कोशिकाएं होती है जो कि चालनी नलिका कोशिकाओं से संलग्न रहती है। चालनी नलिका और सहकोशिकाओं के मध्य उपस्थित भित्ति में अनेक छोटे छोटे छिद्र होते है , जिनमें से होकर गुजरने वाले कोशिकाद्रव्यी तंतु इन दोनों कोशिकाओं के मध्य आपसी सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य करते है। सहकोशिकाओं में कोशिकाद्रव्य अपेक्षाकृत गाढ़ा और छोटी छोटी रिक्तिकाओं से युक्त होता है। इनका केन्द्रक सुस्पष्ट होता है। एक चालनी नलिका से संलग्न एक लम्बी अथवा एक से अधिक सहकोशिकाएँ पाशर्वीय भित्ति से सटी हुई होती है। चालनी तत्वों और सहकोशिकाओं की उत्पत्ति एक ही प्रकार की विभज्योतकी कोशिकाओं से होती है।

जिम्नोस्पर्म्स और टेरिडोफाइट के सदस्यों के संवहन ऊतक में सहकोशिकाएं अनुपस्थित होती है। यह केवल आवृतबीजी पौधों में ही पायी जाती है।

कार्य : सहकोशिकाओं का प्रमुख कार्य  घुलनशील कार्बनिक पदार्थो के संवहन में सहायता करना और चालनी नलिका में दाब प्रवणता को बनाये रखना होता है। परोक्ष रूप से इनका कार्य चालनी तत्वों की उपापचयिक गतिविधियों को सही दिशा प्रदान करने का भी होता है।

  1. फ्लोयम मृदूतक (phloem parenchyma): फ्लोयम ऊतक में इधर उधर बिखरी हुई अथवा क्रमबद्ध रूप से व्यवस्थित मृदुतक कोशिकाओं को फ्लोयम मृदूतक कहा जाता है। यह पतली भित्ति वाली सजीव लम्बवत अथवा गोलाकार कोशिकाएं होती है। प्राय: यह सामान्य मृदुतक कोशिकाओं के समान ही होता है और अधिकांशत: यह चालनी तत्वों के बीच बीच में पायी जाती है।

फ्लोयम मृदुतक कोशिकाओं का प्रमुख कार्य विभिन्न प्रकार के क्रिस्टलों , क्यूसिलेज पदार्थो और टेनिन पदार्थो के संचय का होता है। यही नहीं , विपरीत परिस्थितियों में अथवा पादप अंग की प्रसुप्ति अवस्था में इन मृदुतक कोशिकाओं में स्टार्च और वसा जैसे खाद्य पदार्थो का संचय भी किया जाता है।

फ्लोयम मृदुतक मुख्यतः द्विबीजपत्री पौधों के तनो में पाए जाते है। एकबीजपत्रियों और कुछ द्विबीजपत्री पौधों जैसे रेननकुलस में यह अनुपस्थित होते है।

  1. फ्लोयम रेशे (bast fibres / phloem fibers): यह फ्लोएम में पायी जाने वाली लम्बी लम्बी दृढोतक कोशिकाएं होती है। इनकी कोशिका भित्ति लिग्निन युक्त होती है। इनकी भित्तियों में अनेक सरल गर्त पाए जाते है। तन्तु अथवा रेशे जैसी ये निर्जीव कोशिकाएं मुक्त सिरों वाली अथवा विभाजन भित्ति रहित होती है।

इनका प्रमुख कार्य पौधे या पादप अंग को यांत्रिक शक्ति प्रदान करने का होता है। विभिन्न पौधों में पाए जाने वाले फ्लोयम रेशे आर्थिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण होते है। इनसे विभिन्न प्रकार के समान चटाई , रस्सियाँ और मोटे वस्त्र बनाये जाते है। जूट , अलसी , सन आदि पौधों के काम में आने वाले रेशे वस्तुतः फ्लोयम से ही प्राप्त होते है।

वाहिका और चालनी नलिका में अन्तर (difference between vessels and sieve tubes)

वाहिका (vessels) चालनी नलिका (sieve tube)
1. इनके सिरे खुले हुए होते है। चालनी नलिकाओं के अंतिम सिरों पर चालनी पट्टिकाएँ पायी जाती है।
2. यह चौड़ी होती है। यह अपेक्षाकृत कम चौड़ी होती है।
3. इनकी भित्ति मोटी , दृढ और लिग्निन युक्त होती है। इनकी भित्ति पतली , लचीली और सेल्युलोज की बनी होती है।
4. वाहिकाओं की भित्ति पर विभिन्न प्रकार की स्थूलन आकृतियाँ पायी जाती है। इनकी भित्तियों पर विशिष्ट स्थुलन आकृतियों का अभाव होता है।
5. परिपक्व होने पर यह मृत लेकिन कार्यशील होती है। जीवनकाल तक सक्रीय होती है। परिपक्व अवस्था में यह जीवित और निरंतर कार्यशील होती है।
6. इनके कोशिकाद्रव्य की परासरण सान्द्रता अपेक्षाकृत कम होती है। इनके कोशिकाद्रव्य में अधिक परासरण सांद्रता पायी जाती है।
7. इनमें स्फीतिदाब नहीं पाया जाता। इनमें उच्च स्फीति दाब पाया जाता है।
8. कटने पर यह मुक्त सिरे से जल या वायु का अवशोषण करती है। यह कटने कर कोशिका रस का स्त्राव करती है।
9. यह विलेय और विलायक दोनों का ही संवहन करती है। यह केवल विलेय पदार्थो का संवहन करती है।
10. यह विलेय और विलायक दोनों के प्रति पारगम्य होती है। यह अर्द्धपारगम्य होती है।

 

स्थानान्तरण कोशिकाएँ (transfer cells)

कुछ समय पूर्व तक यह समझा जाता था कि पौधों में थोड़ी दूरी के लिए जल और खनिज पदार्थो का संवहन भी जाइलम और फ्लोएम ऊतक के द्वारा ही संपन्न होता है। पूर्व अवधारणा के अनुसार विशेष प्रकार की सहकोशिकाएँ थोड़ी दूर के लिए खाद्य पदार्थो के संवहन हेतु उत्तरदायी होती थी। लेकिन 1972 में गर्निंग और पेट ने अपने अध्ययन द्वारा यह सिद्ध किया कि उच्चवर्गीय पौधों में विशेष रूप से और सभी संवहनी पौधों में सामान्य रूप से खाद्य पदार्थो के थोड़ी दूरी तक संवहन के कार्य को कुछ विशिष्ट कोशिकाओं के द्वारा संचालित किया जाता है जिनको स्थानान्तरण कोशिकाएं कहते है।

इन कोशिकाओं की भित्ति अन्दर की तरफ वलयित होती है और प्रत्येक पादप प्रजाति में यह अलग अलग आकृति की होती है। यह भी देखने में आया है कि एक ही पादप प्रजाति में अलग अलग स्थानों पर इनकी आकृति में भिन्नता पायी जाती है परन्तु सभी स्थानान्तरण कोशिकाओं में दो मुख्य गुण समान होते है , एक तो इनकी कोशिका भित्ति अन्तर्वलित होती है और दूसरा इनमें अलिग्नीकृत द्वितीयक भित्ति का स्थूलन पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्लाज्मा झिल्ली भी अन्तर्वलित होती है जिसकी वजह से इन कोशिकाओं की अवशोषण क्षमता बढ़ जाती है। स्थानान्तरण कोशिकाओं का जीवद्रव्य सघन होता है। इसमें विभिन्न कोशिका उपांग जैसे माइटोकोंड्रिया , राइबोसोम , डिक्टियोसोम और अंत: प्रद्रव्यीजालिका आदि बहुलता से पाए जाते है। यह स्थानान्तरण कोशिकाएं पौधों में लगभग सभी भागों में जैसे जाइलम और फ्लोयम पत्तियों की शिराओं के अंतिम छोर पर , भ्रूण में , जल रंध्रो में , कीटभक्षी पौधों के स्त्रावी रोम में और कस्क्यूटा के चूषकांगो में पायी जाती है। जड़ों में इनकी संख्या कम होती है। पौधों में द्वितीयक वृद्धि के दौरान इन कोशिकाओं का विघटन प्रारंभ हो जाता है।

स्थानान्तरण कोशिकाओं की स्थिति के आधार पर यह माना जाता है कि यह आंतरिक वातावरण से खनिज पदार्थो (भीतर की तरफ अथवा भीतर से) का अवशोषण करके बाह्य वातावरण में देने का कार्य करती है अर्थात इनका मुख्य कार्य खनिज पदार्थो के एकत्रण और स्थानान्तरण का होता है।

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