नालंदा विश्वविद्यालय को कब और किसने जलाया था , when and nalanda university was destroyed by whom in hindi

पढों नालंदा विश्वविद्यालय को कब और किसने जलाया था , when and nalanda university was destroyed by whom in hindi ?

नालंदा (25°08‘ उत्तर, 85°26‘ पूर्व)
बिहार के पटना के समीप स्थित नालंदा मूलतः बुद्ध के समय निर्मित एक मठ स्थल था। यह पांचवीं शताब्दी से लेकर तेरहवीं शताब्दी के प्रथम दशक तक एक प्रसिद्ध बौद्ध विश्वविद्यालय या महाविहार के रूप में प्रसिद्ध रहा। यहां लगभग 10 हजार विद्यार्थी एवं 1500 शिक्षक थे। यहां विश्व के कई देशों, जैसे-चीन, जापान, तिब्बत, इंडोनेशिया इत्यादि से भी विद्यार्थी बौद्ध दर्शन एवं परंपराओं के अध्ययन हेतु आते थे। इसे श्महायान बौद्ध धर्म के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की संज्ञा दी गई है। यहां साहित्य, तर्क, संगीत, कला एवं खगोल-विज्ञान जैसे विविध विषयों की शिक्षा दी जाती थी।
ऐसी मान्यता है कि जब नालंदा में केवल बौद्ध मठ था, तब बुद्ध ने कई बार यहां की यात्रा की थी। उनका प्रिय शिष्य शारिपुत्र यहीं पैदा हुआ था तथा बौद्ध धर्म की शिक्षा देते हुए यहीं निर्वाण को प्राप्त हुआ था। तृतीय शताब्दी ईसा पूर्व में मौर्य सम्राट अशोक ने इस महान बौद्ध भिक्षु के सम्मान में यहां एक विशाल स्तूप निर्मित करवाया था।
8वीं से 12वीं शताब्दी तक विभिन्न शासकों ने इस विश्वविद्यालय को भरपूर संरक्षण एवं प्रोत्साहन दिया, जिससे यह फलता-फूलता रहा तथा उत्तरोत्तर विकास करता रहा।
7वीं शताब्दी में भारत आने वाले चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने तीन वर्ष इसी विश्वविद्यालय में व्यतीत किए थे। एक अन्य चीनी यात्री इत्सिंग ने यहां 10 वर्ष निवास किया था।
1197 ई. में बख्तियार खिलजी ने इस विश्वविद्यालय को नष्ट कर दिया।
पुरातात्विक प्रमाणों से नालंदा में विभिन्न धात्विक वस्तुओं के उपयोग की पुष्टि होती है। कला की पाल शैली को नालंदा में प्रमुखता से देखा जा सकता है। पुरातात्विक उत्खननों में यहां तत्कालीन समय की स्थापत्य कला के कई अवशेष भी पाए गए हैं।
1951 में यहां बौद्ध धर्म का एक अंतरराष्ट्रीय अध्ययन केंद्र स्थापित किया गया। रत्न सागर, रत्न रंजक एवं रतन ओदधि यहां के प्रसिद्ध पुस्तकालय हैं।

नगरकोट (32.1° उत्तर, 76.27° पूर्व)
पश्चिमी हिमाचल प्रदेश में स्थित कांगड़ा शहर ही प्राचीन एवं मध्यकाल में नगरकोट के नाम से जाना जाता था। यह राजपूत शासकों का एक सशक्त गढ़ था। नगरकोट पर कई मध्यकालीन शासकों ने आक्रमण किया। जैसेः 1009 में महमूद गजनवी, 1360 ई. में फिरोज तुगलक एवं अंत में मुगल। मुगलों ने इस पर पूर्णतया अधिकार भी कर लिया। 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में कांगड़ा राजपूतों की चित्रकला का एक प्रमुख केंद्र बन गया। यहां देवित् का मंदिर है, जो पूर्वी भारत का सबसे प्राचीन मंदिर माना जाता है। 1905 में आए विनाशकारी भूकंप में इस मंदिर का अधिकांश हिस्सा नष्ट हो गया था, जिसे फिर से बनाया गया है।

नागौर (27.2° उत्तर, 73.73° पूर्व)
मुगलों के उदय से पूर्व नागौर का प्रारंभिक इतिहास दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों, गुजरात के सुल्तानों एवं मारवाड़ के शासकों के लंबे शोषण का इतिहास है, जिन्होंने उसकी सामरिक महत्ता के कारण सदैव इसे अपने अधिकार में रखने का प्रयास किया। बाद में यह मुगल साम्राज्य में सम्मिलित हो गया और अजमेरी सूबो (प्रांत) के अंतर्गत एक सरकार (संभाग) बन गया।
यहां एक प्राचीन किला है, जो शहर के लगभग मध्य में स्थित है। यह किला विशाल भू-क्षेत्र में फैला हुआ है। इस किले में कई महल, सरोवर एवं अन्य इमारतें हैं, जिसमें से अधिकांश अब नष्ट हो चुकी हैं। यद्यपि इन इमारतों की दीवारों पर चित्रकला के कुछ सुंदर नमूने देखने को मिलते हैं।
प्रत्येक वर्ष जनवरी-फरवरी माह में यहां पशु मेला आयोजित किया जाता है। यहां बड़ी संख्या में गायें, बैल (नागौरी नस्ल प्रसिद्ध हैं), भैंसे एवं ऊंट लाए एवं बेचे जाते हैं।
इस शहर में ऐतिहासिक महत्व की कुछ महत्वपूर्ण इमारतें भी हैं। इनमें-सुल्तान-उल-तुर्कीन के नाम से प्रसिद्ध ख्वाजा हमीमुद्दीन नागौरी की दरगाह एवं अमर सिंह की छतरी सबसे प्रमुख हैं। ख्वाजा हमीमुद्दीन, अजमेर के ख्वाजा के सबसे प्रमुख शिष्य थे। अमर सिंह ही वे महान राजपूत थे, जिन्होंने अपना अपमान करने पर प्रसिद्ध मुगल सेनापति सलाबत खान का वध कर दिया था। यद्यपि बाद में अमर सिंह को भी पराजित कर मौत के घाट उतार दिया गया। आज भी यहां अमर सिंह की शौर्य गाथाएं याद की जाती हैं।

नापचिक (लगभग 24.77‘ उत्तर, 93° पूर्व)
मणिपुर की पहाड़ी ढलान पर स्थित नापचिक एक नवपाषाण स्थल है। पाषाणकाल का यह स्थल द्वितीय सहस्राब्दी ई.पू. का है। यह मितेयी गांव के पास वांगू नामक छोटी पहाड़ी/टीले पर स्थित है। यह इंफाल घाटी के दक्षिणी भाग में एवं मणिपुर नदी के दाएं तट पर स्थित है। मणिपुर नदी बहती हुई, म्यांमार में चिंदविन नदी से मिल जाती है। नापचिक में हस्तनिर्मित तीन हत्थे वाले बर्तन, पाषाण छुरे, खुरचने वाले पत्थर, शल्क, नुकीले चाकू, पीसने के पत्थर, पॉलिश किए सेल्ट इत्यादि खुदाई में मिले हैं। नुकीले औजार व डोरी वाले बर्तन, थाईलैंड में स्प्रिट गुफाएं (ैचतपज ब्ंअम), म्यांमार की पदुतिन गुफा तथा विएतनाम के हाओविहिअन स्थलों में मिली वस्तुओं से काफी मिलती-जुलती हैं। उत्तर-पूर्व भारत में नवपाषाण काल संभवतः 500 ई.पू. से 2000 ई.पू. के बीच का है।

नारनौल (28°05‘ उत्तर, 76°10‘ पूर्व)
हरियाणा में स्थित नारनौल, अफगान शासक शेरशाह का जन्म स्थान है। यह परगना दिल्ली के शासकों ने शेरशाह के दादा इब्राहीम सूर को दे दिया था। शेरशाह ने नारनौल में दुर्गीकृत जिला मुख्यालय बनाया तथा अपने दादा की कब्र पर एक स्मारक बनवाया। नारनौल में ही सतनामियों (एक धार्मिक सम्प्रदाय) ने 1672 ई. में विद्रोह किया था।

नासिक (20.00° उत्तर, 73.78° पूर्व)
महाराष्ट्र में गोदावरी के तट पर स्थित नासिक, मुम्बई से 75 मील की दूरी पर उत्तर-पश्चिमी दिशा में स्थित है।
पुरातात्विक उत्खननों से ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि नासिक का समीपवर्ती क्षेत्र प्रारंभिक पाषाण युग में ही अधिकृत कर लिया गया था। प्रसिद्ध संत अगस्त्य, पहले आर्य थे, जिन्होंने विन्ध्य पर्वत को पार कर दक्षिण भारत में ब्राह्मण धर्म का प्रचार-प्रसार किया था, वे भी यहां रहे थे। उन्होंने ही राम व सीता को वनवास के दौरान नासिक में पंचवटी में निवास करने का परामर्श दिया था तथा यहीं रावण ने सीता का अपहरण किया था। कालांतर में प्रसिद्ध कवि कालिदास, वाल्मीकि एवं भवभूति ने नासिक का ‘पद्मपुर‘ के रूप में उल्लेख किया तथा इसे प्रेरणा का एक महान स्रोत बताया।
ऐतिहासिक काल में यह क्षेत्र अशोक के विशाल साम्राज्य में सम्मिलित था। बाद में सातवाहनों के समय, नासिक एक समृद्ध स्थान बन गया क्योंकि भड़ौच को जाने वाला प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग यहीं से होकर गुजरता था। अपनी सुंदरता की वजह से मुगल काल में नासिक को ‘गुलशनाबाद‘ कह कर पुकारा जाने लगा। 1751 में जब नासिक मराठा पेशवा के नियंत्रण में आया तो इसका नाम पुनः नासिक कर दिया गया। 1818 में इस पर अंग्रेजों ने अधिकार कर लिया। इसके बाद पूरे स्वतंत्रता संघर्ष काल में नासिक में उथल-पुथल चलती रही। नासिक में महात्मा गांधी का वन सत्याग्रह एवं क्रांतिकारियों की विभिन्न गतिविधियां हुईं। डा. अम्बेडकर ने नासिक में अपना मंदिर प्रवेश आंदोलन चलाया।
नासिक, देश के उन चार स्थानों में से एक है, जहां ‘कुंभ मेला‘ आयोजित किया जाता है।

नेवदाटोली (22.11° उत्तर, 75.35° पूर्व)
नेवदाटोली एक अत्यंत प्राचीन स्थल है, जो मध्य प्रदेश में महेश्वर के समीप नर्मदा नदी के तट पर स्थित है। यह स्थल भारतीय इतिहास के पाषाणिक एवं ताम्र-पाषाणिक चरणों से संबंधित है। यहां से उत्तर पाषाण युग से संबंधित कई उपकरणों की प्राप्ति हुई है। यहां विभिन्न किस्मों के अनाज, बेर एवं तिल की खेती के भी प्रमाण पाए गए हैं। 1700-1200 ई.पू. की मालवा संस्कृति के प्रमाण जो नेवदाटोली के साथ ही ऐरण एवं नागदा से भी प्राप्त हुए हैं, इस तथ्य की ओर संकेत करते हैं कि यह एक गैर-हड़प्पाई स्थल था।

ओदन्तपुर/ओदन्तपुरी/उडन्डपुरा
(25.19° उत्तर, 85.51° पूर्व)
ओदन्तपुर की पहचान वर्तमान बिहार के बिहार शरीफ (नालंदा जिले का मुख्यालय) में स्थित एक स्थल रूप में हुई है। यह एक बौद्ध महाविहार था। पाल नरेश गोपाल प्रथम ने आठवीं शताब्दी में हिरण्य पर्वत नामक पर्वतीय क्षेत्र में इसका निर्माण कराया था। तिब्बती आलेखों के अनुसार, ओदन्तपुर में लगभग 12000 छात्र थे। इसे भारत का दूसरा सबसे बड़ा महाविहार कहा जाता था। लगभग 1193 ई. में मोहम्मद बिन बखियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय के साथ-साथ ओदन्तपुर विश्वविद्यालय को भी नष्ट कर दिया था।

ओहिंद (33°54‘ उत्तर, 72°14‘ पूर्व)
ओहिंद जिसे पूर्व में उदभांदपुर या वाहिंद नाम से जाना जाता था, आधुनिक समय का ऊंद गांव हैं, जो सिंधु के दाहिने तट पर पाकिस्तान में स्थित है। यह स्थल अटक से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इतिहास में इस स्थल की प्राचीनता, पूर्व में सिकंदर की विजय तक जाती है। यहीं सिकंदर से तक्षशिला के शासक का दूत आकर मिला था तथा उसने सम्राट को उसकी अधीनता स्वीकार करने की सूचना दी थी।

ओरछा (25.35° उत्तर, 78.64° पूर्व)
बेतवा नदी के तट पर स्थित ओरछा, वर्तमान समय में मध्य प्रदेश में है। ओरछा की स्थापना 16वीं शताब्दी में बुंदेला सरदार रुद्र प्रताप (1501-31) ने की थी। इसके उत्तराधिकारी राजा वीर सिंह ने जहांगीर की ओरछा यात्रा की स्मृति में यहां जहांगीर महल बनवाया था। वीर सिंह बुंदेला, जहांगीर का अत्यंत घनिष्ठ मित्र था तथा ऐसा माना जाता है कि जहांगीर के आदेश पर ही वीरसिंह ने अबुल फजल की हत्या करवाई थी। यद्यपि वीर सिंह के उत्तराधिकारी जुझार सिंह के शाहजहां से मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं रहे तथा इसके पश्चात ओरछा के शासक मुगलों की आंख की किरकिरी बने रहे। छत्रसाल बुंदेला ने मुगलों का दृढ़ता से प्रतिरोध किया। ओरछा का दुर्ग बुंदेला सरदारों की शौर्य एवं साहस की कथा का वर्णन करता है। मधुकर शाह द्वारा बनवाया गया ‘राजमहल‘ बुंदेला स्थापत्य का एक सुंदर नमूना है। यहां चंद्रशेखर आजाद की समृति में निर्मित ‘शहीद स्मारक‘ भी एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल है।