mineralocorticoids in hindi , मिनरलोकॉर्टिकोइड्स क्या है , गोनेडोकोर्टिकॉइड्स (Gonadocorticoids)

पढ़िए mineralocorticoids in hindi , मिनरलोकॉर्टिकोइड्स क्या है , गोनेडोकोर्टिकॉइड्स (Gonadocorticoids) ?

मिनरेलोकॉर्टिकॉइड्स (Mineralocorticoids)

(i) सोडियम पोटेशियम क्लोराइड एवं बाइकोर्बोनेट बायन्स पर प्रभाव (Effect on sodium, potassium, chloride and bicarbonate lons)

एल्डोस्टिरॉन एवं डी-ऑक्सीकोर्टिकोस्टिरॉन हॉरमोन वृक्क पर प्रभाव उत्पन्न कर सोडियम आयन के संरक्षण एवं पोटेशियम आयन का मूत्र द्वारा उत्सर्जन कराते हैं। हॉरमोन का यह प्रभाव वृक्क नलिकाओं के पश्च कुण्डलित भाग पर प्रभाव उत्पन्न कर सोडियम आयन के प्रति पारगम्यता बढ़ाकर एवं गुच्छकीय निस्पंद (glomerular filterate) से इनका पुनः अवशोषण कर किया जाता है। जबकि K+मूत्र से निकलने दिया जाता है। सोडियम आयन प्राप्त हेतु HCO3 – एवं CI- आयन भी अधिक मात्रा में अवशोषित किये जाते हैं। इसी प्रकार का प्रभाव स्वेद ग्रन्थियों, लार ग्रन्थियों एव जठर- आन्त्रीय श्लेष्मा पर उत्पन्न कर देने के कारण कोशिका बाह्य तरल में सोडिरूम आयन्स में वृद्धि होती है। इस क्रिया के कारण मस्तिष्क के ऊतकों की संवेदनशीलता मे कमी होने लगती है।

कोशिका बाह्य तरल में Nat की वृद्धि सामान्य से अधिक होने को हाइपरनेट्रिया (hypernatria) कहते हैं। किन्तु यह अवस्था सामान्यतः जन्तु में नहीं होती क्योंकि वह अधिक जल में पीने लगता है।

Na’ के पुनः अवशोषण के फलस्वरूप H+ आयन्स वृक्कीय नलिका में स्रवित होते हैं जोकि कार्बोनिल अम्ल के अणुओं से मुक्त किये जाते हैं। इस प्रकार HCO3 – आयन्स कोशिका बाह्य त में बचे रहकर देह मे क्षारमयता ( alkakosis) उत्पन्न कर देते हैं।

K` अधिक उत्सर्जन के कारण हाइपोकेलेमिया (hypokalamia) अर्थात् कोशिका बाह्य तरल में K+ आयन्स की कमी होना, इस अवस्था मे हो जाती है। इस कारण तंत्रिका एवं पेशी तंतुओं में अतिध्रुवण (hyperpolarization) हो जाता है जो क्रिया विभवों (action-potentials) के संचरण में बाधा पहुँचाता है। अतः पेशीय-पक्षाघात (muscle paralysis) हो जाता है।

(ii) .कोशिका बाह्य तरल पर प्रभाव (Effect on extracellular fluid)

कोशिका बाह्य तरल में विद्युत अपघट्यों की मात्रा में वृद्धि के कारण वृक्कीय नलिकाओं द्वारा जल का पुनः अवशोषण बढ़ जाता है। यह क्रिया ADH के उद्दीप्त होने से होती है। प्यास अधिक लगने के कारण भी कोशिका बाह्य तरल के आयतन में वृद्धि होती है।

(iii) रक्त के आयतन एवं हृदय-निर्गम पर प्रभाव (Effect on blood and cardiac output)

प्लाज्मा कोशिका बाह्य तरल से प्रभावित होकर रक्त के आयतन में वृद्धि कर देता है। अतः हृदय का निर्गम (cardiac output) बढ़ जाता है। इस प्रकार उत्तकों के रक्त प्रवाह में वृद्धि हो जाती है।

रक्त प्रवाह को सामान्य स्तर का बनाये रखने हेतु धमनियों को अधिक संकुचित होना पड़ता है। अत: धमनी दाब (arterial pressure) बढ़ जाता है। इस प्रकार अतितनाव (hypertension) हो जाता है। क्रिया उपरोक्त सभी क्रियाओं के प्रतिक्रियास्वरूप एक के बाद एक क्रम से होती जाती है। एल्डोस्टिरॉन हॉरमोन के स्रवण का नियंत्रण (Regulation of aldosterone secretion) एल्डोस्टिरॉन स्रवण का नियंत्रण किस प्रकार से होता है, इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के अनेक मत हैं-

  1. पीयूष ग्रन्थि के एडीनोहाइपोफासिस द्वारा स्रवित ACTH प्राथमिक तौर पर एल्डोस्टिरॉन के नियंत्रण से सम्बन्ध रखता है, किन्तु यह प्रभाव अत्यन्त क्षीण प्रकार का होता है। अत: यह क्रिया किस प्रकार सम्पन्न होती है। यह अज्ञात है।
  2. वैज्ञानिकों की मान्यता है कि एल्डोस्टिरॉन स्रवण का नियंत्रण प्लाज्मा में Nat एवं K+की सान्द्रता, कोशिका बाह्य तरल की मात्रा, रक्त दाब में कमी आदि कारकों द्वारा नियंत्रित होता है।
  3. कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि डायनासिफेलान (diencephalon) के ऊत्तकों में रक्त प्रवाह की न्यूनता से एड्रिनोग्लोमेरूलोट्रॉपिन (adrénoglomerulotropin) नामक पदार्थ मुक्त होता है। इसक प्रभाव से एल्डोस्टिॉन का स्रवण बढ़ जाता है तथा देह में तरल पदार्थ एवं परिसंचरण की व्यवस्था पुनः ठीक हो जाती है।
  4. अधिकतर वैज्ञानिकों का मत है कि एन्जिओटेन्सिन ( angiotensin) नामक शक्तिशाली वाहिकाकुंचन (vasopressor) पदार्थ अधिवृक्क वल्कुट को एल्डोस्टिरॉन स्रवण हेतु उत्तेजित करने वाला मुख्य कारक हैं रक्त दाब में कमी, कोशिका बाह्य तरल में Nat की न्यूनता, रक्त स्राव एवं निर्जलीकरण आदि के फलस्वरूप वृक्क के गुच्छासन्न उपकरण (juxta glomerular apparatus) की कोशिकाएँ उद्दीप्त होकर रेनिन (renin) नातक एंजाइम का स्रावण करती है। यह गुच्छासन्न उपकरण दाब ग्राही (pressure receptor) के रूप में भी कार्य करता है तथा इस विधि द्वारा रेनिन एन्जिओटेन्सिन तंत्र द्वारा धमनी दाब के समस्थैतिक नियंत्रण (homeostatic control) में भाग लेता है। रेनिन मुक्त होकर यकृत द्वारा उत्पादित प्लाज्मा प्रोटीन एन्टिओटेन्सिनोजन (antigiotensinogen) को एन्जिओटेन्सिन-I .. (antigensin-I) में बदल देता है।

उपरोक्त चित्र में प्रदर्शित क्रियाएँ निम्नलिखित क्रमानुसार संचालित होती है-

  1. देह के बाह्य ऊत्तकीय द्रवों में Na+ (सोडियम आयन्स) की सान्द्रता में वृद्धि निर्जलीकरण अथवा रक्त स्राव |
  2. वृक्क में उपस्थित जक्स्टा गुच्छ की कोशिकाओं द्वारा रेनिन हॉरमोन का स्रवण एवं रक्त में प्रवाह ।
  3. रेनिन का यकृत द्वारा उत्पन्न प्रोटीन ऐन्जिओटोन्सिनोजन का एन्जिओटेन्सिन । में परिवर्तन होना ।
  4. एन्जिओटेन्सिन-I का फेफड़ों द्वारा एन्जिओटेन्सिन-11 में परिवर्तन किया जाना ।
  5. एन्जिओटेन्सिन- II का एड्रिनल कॉर्टेक्स को प्रभावित कर एल्डोस्टिरॉन हॉरमोन के स्रवण में वृद्धि करना ।
  6. एल्डोस्टिरॉन के प्रभाव से वृक्क नलिकाओं में Na+ एवं जल अणुओं के पुनः अवशोषण में वृद्धि होना अतः रक्त के आयतन तथा दाब में वृद्धि होना, धमनियों में आंकुचन द्वारा रक्त दाब का पुनः सामान्य होना। फेफड़ों में एन्जिओटेन्सिन – I एन्जिओटेन्सिन- II में बदल दिया जाता है जो एड्रीनल ग्रन्थि को अधिक मात्रा में एल्डीस्टिरॉन सव्रण हेतु प्रेरित करता है। अत: पुन: Na+ एवं जल वृक्क द्वारा अवशोषित किये जाते हैं तथा रक्त दाब सामान्य हो जाता है। यह विधि रेनिन- एन्जिओटेन्सिन पथ (renin – angiotensin pathway) कहलाती है।
  7. एक मान्यता यह है कि बाह्य कोशिकाद्रव्य में K की सान्द्रता बढ़ने से एड्रिन कॉट्रेक्स उद्दीप्त होती है। ‘एल्डोस्टिरॉन मुक्त होता है अत: K+ का वृक्क द्वारा उत्सर्जन आरम्भ हो जाता है। यदि सान्द्रता कम होती है तो एल्डोस्टिरॉन भी कम मात्रा में स्रवित किया जाता है।

गोनेडोकोर्टिकॉइड्स (Gonadocorticoids)

अधिवृक्क लिंग हारमोन्स की गोनेडोकोर्टिकॉइड्स कहलाते हैं। इस समूह मे एण्ड्रोजन्स, एस्ट्रोजन्स एवं प्रोजेस्टिरॉन हारमोन आते हैं। ये हारमोन जनदों (वृषण एवं अण्डाशय) द्वारा ही अधिक मात्रा में स्रावित होते हैं वल्कुट भाग में इन हॉरमोन्स का अल्प मात्रा में स्रवण होता है किन्तु यह कार्य जीवन्त पर्यन्त होता है। सम्भवतः इनके प्रभाव से ही जंतु में जनदों का परिपक्वन एवं परिवर्धन आरम्भ होता है। लिंग हॉरमोन अधिवृक्क ग्रन्थि के वल्कुट भाग के जालिका स्तर (nona reticularis) द्वारा स्रवित किये जाते हैं। इस ग्रन्थि द्वारा लिंग हॉरमोन्स के अतिस्रवण के फलस्वरूप मादा जन्तुओं में नर जतुओं में मादाओं के लक्षण गाइनेकोमैस्टिआ ( gynacomastia) जैसे अत्यधिक स्तन विवर्धन आदि उत्पन्न हो जाते हैं। इन हॉरमोन्स का स्रवण जनदों के द्वारा भी किया जाता है अतः इनका विस्तार से वर्णक जनदों के अन्तर्गत ही किया गया है।

एड्रिनल कॉर्टेक्स की अपसामान्य अवस्थाएँ (Abnormal conditions of adrenal cortex)

अधो-अधिवृक्कता (Hypoadrenalism) — एड्रिनल ग्रन्थि के वल्कुट भाग से हॉरमोनों की अल्प मात्रा स्रवित होने से मिनरेलोकोर्टिकॉइड्स एवं ग्लूकोकोर्टिकाइड्स की कमी के कारण अम्लरक्ता (acidosis), कोशिका बाह्य तरलके आयतन में कमी, हृदय निर्गम में कमी, रक्ताणुओं की संख्या में वृद्धि प्लाज्मा के आयतन में कमी रुधिर ग्लूकोस की मात्रा अपसामान्य, उपापचय की दर मे कमी, देह में दुर्बलता, प्रतिबलों के प्रति सुग्राह्यता (susceptibility) आदि अवस्थाएँ बन जाती है। यह रोग एडीसन का रोग (Addison’s disease) के नाम से जाना जाता है। इसके लक्षणों में अपसामान्य अभिलक्षणिक अति वर्णकता ( abnormal distinguishing excessive pigmentation), भूख का न लगता, वजन में कमी आना, रक्त दाब में कमी होना, उल्टी एवं दस्त का लगना तथा जठरातंत्र के अन्य रोग आदि प्रमुख हैं। अति वर्णकता मुखगुहा, होठों व स्तननाग जैसे क्षेत्रों में अधिक स्पष्ट होती है। सम्भवतः यह ACTH एवं MSH हॉरमोन्स के अपसामान्य स्रवण के कारण होती है।

अति-अधिवृक्कता (Hyperadrenalism) — एड्रिनल के वल्कुट भाग से स्रवित हॉरमोन्स की अधिकता के कारण देह द्वारा सोडियम आयन के धारण में अधिकता, आननी ( facial) भाग में हल्की सूजन, देह में K+ की कमी, क्षारों की मात्रा में कमी, प्लाज्मा आयतन में वृद्धि हृदयी निर्गम में वृद्धि तथा अतितनाव, मधुमेह, देह में कॉलेजन, तंतुओं के कमी से त्वचा पर नीलों (purplish striations) का बनना, अस्थियों का दुर्बल होना आदि अवस्थाएँ उत्पन्न हो जाती है। इस रोग को कुशिंग का रोग (Cushing’s disease) कहते हैं। इसके लक्षणों में अतितनाव, सोडियम आयन्स का मूत्र में आना, रक्त दाब बढ़ना, रक्त में ग्लूकोस व यूरिन की मात्रा का बढ़ता एव विपरीत लिंग के लक्षण उत्पन्न होना आदि है।

यह अवस्था ग्रन्थि में अर्बुद (tumor) होने के कारण भी उत्पन्न हो सकती है। लिंग हॉरमोन्स के अति स्रवण होने पर मादा में नर के लक्षण जैसे- आवाज का भारी, ऋतु स्राव (menstruation) का बन्द होना, स्तनों का घटना, भगशेफ (clitoris) का बढ़कर शिश्न समान होना, चेहरे व छाती और हाथ-पैरों पर बालों का उगना तथा नर में बालों का अधिक बढ़ना शिश्न का लम्बा होना, स्तनों का बढ़ना आदि लक्षण प्रकट होने लगते हैं। बच्चों में यह अवस्था होने पर इनमें आयु से पूर्व लैंगिक परिपक्वन होने लगता है।

अधिवृक्क मध्यांश एवं इसके द्वारा स्रवित हॉरमोन (Adrenal medulla and its hormones) एड्रिनल मैड्यूला अर्थात् अधिवृक्क मध्यांश भाग बड़े आमाप की अण्डाकार स्तम्भी कोशिकाओं के पिण्डकों द्वारा निर्मित होता है। ये पिण्डक रक्त वाहिनियों को घेरे रहते हैं। यह भाग अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र की तंत्रिकाओं से भेदित रहता है। अतः इनके उद्दीपन होने पर यह ग्रन्थि हॉरमोन्स का स्रवण कर देती है। बार्ड (Bard; 1961) गोर्वमेन तथा बर्न (Gorbman and Bern; 1962) की मान्यता है कि ये कोशिकाएँ औतिकीय स्तर पर दो प्रकार की होती है और भिन्न-भिन्न समूहों में ही उपस्थित रहती है। हाइपोथैलमस के चयनित क्षेत्रों से इनके लिये हॉरमोन मुक्ति कारका भेजे जाते हैं जिनके आधार पर ही ये दो भिन्न प्रकार के हॉरमोन्स स्रवित करती है-

(i) एपिनेफ्री या एड्रिनेलीन (Epinephrine or Adrenaline)

(ii) नारएपिनेफ्रीन या नारएड्रिनेलीन (Norepinephrine or Noradrenaline)

इन हॉरमोन्स की आण्विक संरचना एक्सलोर्ड (Axelord; 1962) द्वारा ज्ञात की गयी। इन हॉरमोन्स को केटेकोलेमीन्स ( catecholamines) भी कहते हैं। ये हारमोन टायरोसिन अमीनो अम्ल से संश्लेषित व्युत्पन्न (derivative) होते हैं।

नारएड्रिनेलीन में नाइट्रोजन पर – CH, ( मिथाइल) समूह अनुपस्थित होते है। दोनों ही हॉरमोन में असममित कार्बन-का परमाणु पाया जाता है। दोनों हॉरमोन अपने रसायनिक गुणोकं में अत्यधिक समानता रखते हैं। ये D आइसोमर (isomer) के प्राकृतिक रूप में प्राप्त होते हैं। D (-) एड्रिनेलीन संश्लेषित L (+) आइसोमर से 20 गुना अधिक प्रभावी होती है।

इन दोनों हॉरमोनों की मात्रा एक बार में स्रवित जंतु की जाति एवं कार्यिकीय आवश्यकतानुसार परिवर्तित होती रहती है। मनुष्य में स्रवित सामान्य मात्रा में 75% भाग नार एपिनेफ्रीन तथा शेष 25% भाग एपिनेफ्रीन का होता है। नॉरएपिनेफ्रीन एवं एपिनेफ्रीन हारमोन देह में अन्य अंगों एवं ऊत्तकों द्वारा भी स्रवित होते हैं। हाइपोथैलेमस की विशेष नाभिकाएँ इनका स्रवण करती है। स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के एड्रिनलीनवर्धी ( adrenergic) तंतु एड्रिनलीन का स्रवण करते हैं। अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र के पश्च गुच्छकी तंतु भी एड्रिनलीन का स्रवण करते हैं। यह न्यूरोह्यूमर (neurohumor) होता है किन्तु संरचना एवं क्रिया में मध्यांश द्वारा स्रावित हारमोन के समान ही होता है। जठरतंत्र प्रदेश में भी कुछ क्रोमेफिल ऊत्तक होते हैं जो इन हॉरमोन्स का स्रवण करते हैं।

एपिनेफ्रीन एव नॉरएनेफ्रीन हॉरमोन के प्रभाव (Effects of epineprine and norepinehrine)

अधिवृक्क मध्यांश और स्रवित ये दोनों हॉरमोन इनके द्वारा प्रभावित अनेक जैविक क्रियाओं में समानता रखते हैं किन्तु क्रियाओं की प्रकृति एवं प्रमाण में पर्याप्त अन्तर होता है । इनके द्वारा देह के विभिन्न तंत्रों पर प्रभाव होता है जिसे हम निम्न प्रकार से वर्णित करते हैं।

(i) कार्बोहाइड्रेट उपापचय पर प्रभाव (Effect on cahbohydrate metabolism)—– यह हॉरमोन यकृतौं तथा देह की पेशियों में ग्लाइकोजन का ग्लाइकोजन का ग्लूकोस में विखण्डन को उद्दीप्त करता है। अतः रक्त में ग्लूकोस की एवं पेशियों में लैक्टिक अम्ल की मात्रा में वृद्धि हो जाती है। ऑक्सीजन के उपयोग में एवं कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्पादन में वृद्धि होती है। यह प्रभाव एपिनेफ्रीन का अधिक एवं नॉरपिनेफ्रीन का क्षीण होता है।

(ii) वसा उपापचय पर प्रभाव (Effect on fat metabolism) ——— ये हॉरमोन्स वसा अपघटन (lipoplysis) को उत्तेजित करते हैं अतः देह में उपस्थित वसीय ऊत्तकों में वसा पिण्डों का अपघटन

होता है तथा रक्त में स्वतंत्र वसीय अम्ल एवं अएस्ट्रीकृत वसीय अम्लों की मात्रा में वृद्धि हो जाती है।

(iii). पेशियों पर प्रभाव (Effect on muscles)— एपिनेफ्रीन देह की सभी चिकनी पेशियों पर संदमनी (inhibitory ) प्रभाव रखता है। यह प्रभाव नॉरएपिनफ्रीन का अधिक क्षण होता है। एपिनेफ्रीन श्वसनी पेशियों (respiratory muscles) में शिथिलता लाकर श्वास दर का बढ़ा देता है। किन्तु नॉरएपिनेफ्रीन का इन पर इस प्रकार प्रभाव नहीं होता है। एपिनेफ्रीन उठरांत्र करता है। त्रिकान्त कपाट अवरोधनी (ileo caecal sphincters) पेशियों में वह संकुचन उत्पन्न करता है ।

  • हृदय वाहिका तंत्र का प्रभाव (Effect on cardiovascular system) – एपिनेफ्रीन के प्रभाव से धमनिकाओं (arterioles) का संकीर्णन (costriction) हो जाता है अतः रक्त दाब (blood pressure) में वृद्धि हो जाती है। इसके प्रभावों से हृदय दर (heart-rate) नाड़ीदर (pulse _rate) तथा प्रदय निर्गम (cardiac output) में वृद्धि हो जाती है। यह देह की कंकालीय पेशियों (skeletal muscles) अंतरांग वाहिनियों (visceral vessels) एवं हृदय वाहिनियों (coonary vessels) को भी शिथिल कर देता है, अतः इन भागों के रक्त प्रवाह में वृद्धि हो जाती है। एपिनेफ्रीन के प्रभाव क्षीण होते हैं। दोनो हॉरमोन प्रकुंचन दाब (systolic pressure) में वृद्धि करते हैं किन्तु एपिनेफ्रीन का अनुशिथिलन दाब ( diastolic pressure) पर कोई प्रभाव नहीं होता है। वृक्क को रक्त के सम्भरण पर दोनों हॉरमोन्स द्वारा कमी का प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। इन हॉरमोनों के कारण रक्त के थक्का बनने का समय (clotting time) घट जाता है।

अधिवृक्क मध्यांश के हारमोन्स का नियंत्रण (Regulation of hormones of adrenal medulla)

हाइपोथैलेमस, मध्य मस्तिष्क, प्रमस्तिष्क वल्कुटिकाओं (cerebral cortices) एवं अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र (sympathetic nervous system) द्वारा नियंत्रित अधिवृक्क मध्याँश भाग अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र के साथ ही कार्य करता है। यह विशेषतः जंतु की संकटावस्थओं (emergencies) या. आकस्मिक अवस्थाओं जैसे डर, क्रोध, अपमान, अत्यधिक खुशी, दुर्घटना, व्युग्रता, बैचेनी, मानसिक तनाव, जल पाने, अचानक रोग होने, विषैले पदार्थों के देह में प्रवेश करने, अत्यधिक सर्दी लगने आदि के समय अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र द्वारा उत्तेजित की जाती है एवं अपने द्वारा संग्रहित हॉरमोन्स का स्रावण करती है। यह क्रिया हाइपोथैलेमस एवं मस्तिष्क के विशिष्ट भागों में निर्देशक में ही क्रियान्वित होती है। अत: इन हारमोन्स को आपात हारमोन्स (empergency hormones) भी कह हैं।

आपात अवस्थाओं के दौरान ये हॉरमोन आवश्यक मात्रा में स्रवित होकर पेशियों, यकृत मस्तिष्क आदि को अधिक सक्रिय बनाकर परिस्थिति से मुकाबला करते हेतु अधिक ऊर्जा उपलब्ध होते है। इन क्रियाओं हेतु रक्त में ग्लूकोज की अधिक मात्रा एवं रक्त दाब का उचित बनाना भी सम्मिलित है। देह के वे अंग जो अनुकम्पी तंत्रिका तंत्र्या के नियंत्रण में नहीं होते उन्हें इन हॉरमोन्स के द्वारा परिस्थिति के अनुसार क्रियाशील बनाने का दायित्व इन हारमोन्स का होता है। सामान्यतः नॉरएपिनेफ्रीन रक्त संवहन प्रभाव एवं एपिनेफ्रीन उपापचयिक क्षेत्रों का संचालन कर जंतु को ‘मरो या मारो’ (do ro die), ‘“लड़ो या भागों” (fight or flight) जैसी परिस्थितियों से निबटने हेतु तैयार करती है। डब्ल्यू. बी.केनन (W.B. Canon) के अनुसार, “एपिनेफ्रीन” ही आपातकालीन हॉरमोन कहलाता है।

  1. ल्युटिनाइजिंग हॉरमोन अथवा अन्तराली कोशिका उद्दीपन हॉरमोन (Luteinizing hormone or interstitial cell stimulating hormone) LH or ICSH बेसोफिल (basophils) कोशिकाओं द्वारा स्रवित यह हॉरमोन ग्लाइकोप्रोटीन प्रकृति का होता है जिसका अणुभार विभिन्न जंतुओं में 26,000 से 1,00,000 होता है। मादाओं में यह FSH का सहयोग कर अण्डोत्सर्ग (ovulation) कराता है एवं एस्ट्रोजन स्रवण क्रिया को प्रभावित करता हैं यह पीत पिण्ड (corpus luteum) के विकास हेतु आवश्यक होता है और एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टिरीने हॉरमोन का स्रवण कराकर गर्भावस्था को बनाये रखता है। प्रोलैक्टिन के साथ मिलकर यह इन पर नियंत्रण भी करता है। नर जंतुओं के वृषणों में स्थित अन्तराली कोशिकाओं (interstitial cells) अथवा लैडिंग की कोशिकाओं (Leyding’s cells) को लिंग हॉरमोन टेस्टोस्टीरॉन (testosterone) अर्थात् नर जनन हॉरमोन स्रवण हेतु उत्तेजित करता है।

हाइपोथैलमस द्वारा स्रवित ल्युटिनाइजिंग नियंत्रणकारी कारक ( luteinizing hormone | regulatory factor) LRF द्वारा यह संचालित होता है। LRE व FSH-LF एकसमान होते हैं।

एन्ड्रोजन व एस्ट्रोजन्स LRF के उत्पादन को संदमित करते हैं। LF व लिंग हॉरमोन्स के बीच ऋणात्मक पुनर्भरण पद्धति से परस्पर नियंत्रण रहता है।

FSH, LH एवं FSH व LH दोनों हॉरमोन्स का अध्ययन साथ ही किये जाता है ये एक दूसरे के सहयोगी हॉरमोनके रूप में कार्य करते हैं। इसका प्रभाव भी संयुक्त रूप से जनन अंगों पर होता है। LTH सभी जनन क्रियाओं को प्रभावित करने वाले हॉरमोन है, अतः जनन हॉरमोन्सगोनेडोट्रोपिन्स (ogponeduceive hormones or gonadotropins) कहलाते हैं। पीयूष ग्रन्यिास ये (placenta ) व कुछ अन्य ऊत्तक भी इस प्रकार के प्रभाव उत्पन्न करने वाले हॉरमोन्स का सूक्ष्म मात्रा में स्रवण करते हैं।