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सूक्ष्मजैविकी क्या है परिभाषा बताइए , microbiology in hindi definition सूक्ष्मजैविकी का इतिहास (History of microbiology)
पढेंगे सूक्ष्मजैविकी क्या है परिभाषा बताइए , microbiology in hindi definition सूक्ष्मजैविकी का इतिहास (History of microbiology) ?
उत्तर : विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्दर सूक्ष्म जीवों का अध्ययन किया जाता है उसे ही सूक्ष्मजैविकी कहते हैं |
सूक्ष्मजैविकी का इतिहास (History of microbiology)
सूक्ष्मजीवों की जैव रासायनिक क्रियाओं का उपयोग मानव आदिकाल से करता आया है, यद्यपि उसे इन क्रियाओं के वास्तविक कारणों का ज्ञान नहीं था। ईसा से 6000 वर्ष पूर्व बेबीलोनिया व सुमेरिया निवासी बीयर बनाने में व ईसा से 2000 वर्ष पूर्व इजिप्टवासी डबल रोटी बनाने में इस प्रकार की क्रियाओं का उपयोग करते थे। आदिकाल में रोगों को दैवी प्रकोप मानकर सन्तोष कर लिया जाता था। दैवी देवताओं को प्रसन्न करने हेतु विभिन्न उपाय किये जाते थे। आरम्भ में पुजारियों व पादरियों द्वारा प्रस्तुत मान्यताओं को ही प्रमुखता दी जाती थी किन्तु धीरे-धीरे संसर्ग व स्वास्थ्य विज्ञान का ज्ञान बढ़ने के कारण लोगों की मान्यताओं में परिवर्तन आये। पवित्र बाइबल में कोढ़ (leprosy) को छूत की बीमारी के रूप में वर्णित किया गया है किन्तु जीवों के उत्पन्न होने पर स्वतः उत्पत्ति के मत को प्रमुखता दी गई है। ईसा से दो शताब्दी पूर्व वेरोना (varona) ने रोगों का कारण अत्यन्त सूक्ष्म अदृश्य कारकों को माना एवं इन्हें संसर्ग कारक (contagium vivum) का नाम दिया। इसी प्रकार के मत ग्रीक, रोमन व अरबी दार्शनिकों ने भी प्रस्तुत किये। ल्यूक्रेटियस (Lucretius) 95-55 B.C. प्लिन (Pliny ) 23 79 AD. एवं गेलन ( Galen) 130-200 A.D. आदि वैज्ञानिकों ने भी रोगों का कारण संसर्ग कारकों को ही माना। एशिया के निवासियों को भी इसी प्रकार का ज्ञान था अतः वे कोढ़ के रोगियों को सामान्य लोगों से पृथक रखने को ठीक मानते थे। एविसेन्ना (Avicenna) 980-1037 की मान्यता थी कि सभी स्त्रक्रामक रोग सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न होते हैं जो अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण नग्न नेत्रों से दिखाई नहीं देते किन्तु वायु व जल द्वारा एक स्थान से अन्य स्थान तक स्थानान्तरित किये जाते हैं। तेरहवीं शताब्दी में फ्रान्सिस बेकन (Francis Bacon) ने रोगों के अदृश्य जीवों द्वारा उत्पन्न होने की जानकारी प्रस्तुत की। फ्रेक्सटोरियस (Fracustorius) ने सन् 1546 में सिफलिस रोग पर कार्य करके इसे छूत से फैलने वाला रोग बताया। सूक्ष्मदर्शी की खोज के उपरान्त ही इन मतों को सिद्ध किया जा सका।
आदिकाल में लोगों की मान्यता थी कि सभी जीव अजैविक वस्तुओं से जन्म लेते हैं इसे अजीवात् जनन (abiogenesis) या स्वतः जननवाद (spontaneous generation) के नाम से जाना जाता है। इस वाद के समर्थकों के अनुसार मेंढक, मक्खी, चूहे आदि उपजाऊ भूमि, अपघटित देह, वर्षा आदि से, मैगट (maggots) मक्खी के लार्वा, माँस से तथा मधुमक्खियाँ मधु से उत्पन्न होती हैं। इस वाद के समर्थकों में अरस्तु (Aris’ atle 384-322 B.C.), सेमसन (Samson), विर्जिल (Virgil) व वॉन हेलमॉन्ट (Van Helront 1577-1644) प्रमुख थे।
क्रिचर (Kricher, 1671) ने प्लेग के रोगियों के रक्त में लैन्स की सहायता से कुछ विशिष्ट कृमि देखें एवं इन्हें इस रोग का जनक माना। सम्भवत: क्रिचर द्वारा रक्त में देखे गये कृमि रक्ताणुओं के समूह ही थे किन्तु इस रोग के फैलने के कारण के रूप में वैज्ञानिक आधार ‘जीवित काय’ (Living bodies) को मान कर प्रस्तुत किया। एन्टॉनी वॉन लीवनहॉक (Antony Van Leeuwenhoek, 1632-1723) ने सूक्ष्मदर्शी तैयार करके वर्षा के जल तथा मनुष्य के दाँतों के मध्य उपस्थित पदार्थों को खुरच कर इनमें कुछ सूक्ष्म कायों को देख तथा इन्हें “एनीमलक्यूल’ (animalcule) का नाम दिया। फ्रान्सिसको रेडी (Franciso Redi) ने 1665 में कुछ प्रयोगों स्वतः जनन वाद का खण्डन किया। इन्होंने बताया कि मांस में उत्पन्न होने वाले लार्वा मक्खी के मैगट थे। इन्हें मांस में उत्पन्न होने से रोका जा सकता है। यदि मांस को सूक्ष्म जाली से ढक कर रखा जाये ताकि मक्खियाँ माँस पर बैठकर अण्डे न दे सकें। जॉन नीद्यम (John Needam) के किये गये एक प्रयोग में 1749 में मटन सूप में जीवाणुओं के उत्पन्न होने पर पुनः एक बार स्वतः जनन का सिद्धान्त जोर पकड़ने लगा। लैजेरो स्पैलनजैनी (Lazzaro Spallanzani) नामक इतालवी प्रकृतिविद ने 1767 में मटन सूप को फ्लास्कों में उबाल कर एवं सील करके रखने पर जीवाणुओं से मुक्त करके स्वतः जनन के सिद्धान्त को नकारा । प्लेन्सिज (Plenciz, 1762) ने रोगों के जीव द्वारा उत्पन्न होने का जर्म सिद्धान्त ( germ theory) प्रस्तुत किया जिसके अनुसार प्रत्येक रोग एक विशिष्ट कारक द्वारा उत्पन्न होता है। ये विशिष्ट कारक प्राणियों की देह में पहुँचकर वृद्धि करते हैं तथा रोग उत्पन्न करते हैं। इसी प्रकार के मत फ्रॉकास्ट्रो (Fracastoro, 1484-1553) व होम्स (Holmes, 1843) के भी थे किन्तु इसका वैज्ञानिक आधार सर्वप्रथम डेवाइन (Davaine, 1863) ने प्रस्तुत किया। इन्होंने बताया कि एन्थ्रेक्स रोग से ग्रसित रोगी के रक्त में शलाखा के समान सूक्ष्मजीव पाये जाते हैं। रोगी के रक्त को स्वस्थ व्यक्ति में स्थानान्तरित करने पर यह रोग हो जाता है। लुइस पास्तेर (Louis Pasteur, 1865) ने उत्तरी फ्रांस में सिल्क कृमियों में “पेबरिन” (pebrin) नामक रोग के फैलने के कारणों का कार्य करके इसी सिद्धान्त को समर्थन दिया, वह रोग प्रोटोजोआ परजीवी द्वारा फैलता था। रॉबर्ट कॉक (Robert Koch, 1875) ने अनेकों परीक्षण करके उपरोक्त सिद्धान्त का समर्थन किया।
एहरनबर्ग (Ahernburb, 1829) ने जीवाणुओं का अध्ययन करके इनके वंश को बैक्टीरियम नाम दिया। यह शब्द ग्रीक भाषा के “बैक्टोस ” (bactos) से लिया गया है जिससे तात्पर्य एक साथ कार्य करने वाले लोगों के समूह स्टाफ (staff) से है। एहरनबर्ग 1838 ने जीवाणुओं की चार आकृतियों का वर्णन प्रस्तुत किया इन्हें विब्रियो, बैक्टीरियम, स्पाइरिलियम व स्पाइरोकीट नाम दिये।
लाटार एवं श्वान (Lataur and Schwann) ने 1837 में बीयर व मदिरा में यीस्ट कोशिका की क्रियाओं की खोज की तथा किण्वन ( fermentation) हेतु यीस्ट का महत्त्वपूर्ण माना । पास्तेर (Pasteur, 1856) ने शर्करा युक्त पदार्थों से एल्कोहॉल बनाने में यीस्ट की उपस्थिति का महत्त्व बताया। इन्होंने ही पास्तेरीकरण (pasteurization) क्रिया की खोज की। सन् 1860 से 1910 का समय सूक्ष्मजैविकी का सुनहरा काल (Golden age of microbiology) कहलाता है। पास्तेर ने चिकन कॉलेरा नामक रोग के जीवाणु की खोज की एवं प्रतिरक्षीकरण (immunization) के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। हेन्सन (Hensen, 1874) ने लेप्रोसी के जीवाणु माइकोबैक्टीरियम लैप्रे (Mycobacterium leprae) की खोज की। ऑगस्टन. ( Ogston, 1881 ) ने विद्रधि (abscess) के कारक स्टेफिलोकॉकस (Staphylococcus) का घाव से पृथक किया। कैब्स एवं लॉफलर (Kelbs: 1883 and Loeffler; 1184 ) ने डिप्थीरिया के रोगाणु कॉर्नेबैक्टीरियम डिप्थेरी (Corynebacterium diphtheriae) को उत्तकों से पृथक किया। किटासाटो (Kitasato) ने 1880 में टेटनस के रोगाणु पास्तेरेला पेस्टिस (Pasteurella pestis) की खोज की। वॉन बेहरिंग (Von Behring: 1890) ने टेटनस व डिप्थीरिया पर प्रतिरक्षीकरण हेतु प्रयोग किये एवं जन्तुओं में इस तकनीक को विकसित किया। मिशनकॉफ (Metchnikoff) ने 1888 में श्वेताणुओं की भक्षाणुनाशन (phagocytosis) क्रिया द्वारा देह के ऊत्तकों की रोगाणुओं से रक्षा करने की क्रिया की खोज की। पाल एहरलिच (Paul Ehrlich, 1854-1915) ने प्रतिरक्षीकरण हेतु रसायनिक आधार की खोज की। इन्होंने कई रसायनों पर कार्य करके आर्सनिक युक्त पदार्थ जैसे सेलवरसन (salvarsan) की खोज की जो मनुष्य की देह में सिफलिस के जीवाणुओं का नाश करने में समर्थ होता है। एहरलिच को रसोचिकित्सा (chemotherapy) के संस्थापक के रूप में जाना जाता है। जोसफ लिस्टर (Joseph Lister, 1827-1912) नामक अंग्रेज सर्जन ने शल्य चिकित्सा के उपरान्त जख्मों व घावों में मवाद पड़ने व घावों के न भरने के कारणों का पता लगाया व रोगाणुनाशन (disinfection) हेतु कार्बोलिक अम्ल का उपयोग करके घावों को धोने की विधि अपनाकर चिकित्सा पद्धति में महत्वपूर्ण कार्य किया ।
क्रिस्चियन ग्रैम (Christain Gram) नामक डैनिश काय चिकित्सक ने 1884 में ग्रैम अभिरंजन तकनीक की खोज की। पास्तेर ने 1885 में रेबीज रोग हेतु “टीके” (vaceine) की खोज की यद्यपिं रेबीज के विषाणु को उन्होंने देखा नहीं था। कॉक ने तपेदिक के जीवाणु बेसिलस (Bacillus ) को पृथक करने में सफलता प्राप्त की । इन्हें तपेदिक रोग पर कार्य करने हेतु 1905 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित भी किया। इसी स्वर्ण काल में कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने भी महत्वपूर्ण कार्य किये जिनमें जर्मनी के जॉर्ज गेफेकी (Georg Gaffky) के द्वारा टाइफाइड बैसिलस का पृथक किया जाना, फ्रान्स के एमिल रॉक्स (Emile Roux) का डिप्थीरिया आविष पर एवं एमिल वाल बेहरिंग (Emil Von Behring) द्वारा डिप्थीरिया प्रतिआविष पर कार्य किया जाना है। एलबर्ट कामेट (Albert Calmette) ने तपेदिक के प्रतिरक्षी की खोज की। जूलस बॉर्डे (Jules Bordet ) ने कूंकर खाँसी के बेसिलस को पृथक करने का कार्य किया । विलियम वेल्श (William Welch) ने गैस ग्रेग्रीन बैसिलस को पृथक करने में सफलता प्राप्त की । अर्थात् इस काल में जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों पर महत्वपूर्ण कार्य हुए। इसी काल में मलेरिया, रिकेट्स रोग, टैक्सास ज्वर, पीत ज्वर, टाइफस ज्वर के कारकों सम्बन्धी खोजें भी हुई।
सन् 1892 में रूसी वैज्ञानिक दैमेत्रे इवानोस्की (Dmitry Ivanovasky) ने तम्बाकू के पौधों पर कार्य करके विषाणु (Virus) की खोज की। डच वैज्ञानिक बिजिरनिक (Beijerinck, 1889) ने इवानोस्की के प्रयोगों को पुनः दोहराया एवं तरल संसर्ग कारक मत प्रस्तुत करते हुए ” विषाणु ” नाम प्रदान किया। विनोग्रेडेस्की (Winogradsky) ने वातावरण से जीवाणुओं द्वारा नाइट्रोजन के उपयोग किये जाने व अन्य तत्वों के साथ मिल कर पौधों को उपलब्ध कराने की प्रक्रिया की खोज करके मृदा सूक्ष्मजैविकी के क्षेत्र में कार्य किया। 1888 में जीवाणुओं व फलीदार पौधों में सहजीवी संबंध पर हेलरीगेल एवं विलफार्थ (Hellrigel and Wilfarth) ने खोज की। बिजिरनिक (Beijerinck, 1901) ने नाइट्रोजन बन्धनकारी जीवाणु एजोटोबैक्टर (Azotobacter) द्वारा मृदा के उपजाऊ बनाने संबंधी जानकारी प्रदान की ।
इ.सी.हेन्सन (E.C.Hansen, 1842-1909) ने उद्योगों में किण्वन क्रिया पर कार्य करते हुए. सिरके के निर्माण में यीस्ट व जीवाणु की क्रियाओं पर कार्य किया एवं इनके शुद्ध संवर्धन की तकनीकें विकसित की। इन तकनीकों का उपयोग शीघ्र ही अन्य उद्योगों में होने लगा। एडैम्ज (Adametz, 1889) व कॉन एवं वेगमेन (Conn and Weigmann) ने शुद्ध संवर्धन की तकनीकों का उपयोग पनीर व मक्खन उत्पादन में किया। बॅरिल (Burrill) व स्मिथ ( Smith) ने पौधों में जीवाणुओं द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों का कार्य करके वनस्पति रोग विज्ञान के क्षेत्र में मार्ग प्रशस्त किया।
उन्नीसवीं सदी में सूक्ष्मजैविकी के क्षेत्र में अनेकों नवीन धारणाओं व तकनीकों का विकास हुआ तथा इसे स्पष्ट रूप से अलग विज्ञान का दर्जा प्राप्त हुआ। इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी की खोज होने के उपरान्त अनेकों महत्त्वपूर्ण खोजें हुई। जैव रसायन क्षेत्र में जीवाणुओं के कार्य क्षेत्र पर व्यापक कार्य हुए। बीसवीं सदी के आरम्भ में आनुवंशिकी के क्षेत्र में अनेक वैज्ञानिकों के द्वारा कार्य कर
आनुवंशिकी एवं सूक्ष्मजैविकी का नया क्षेत्र खोल दिया। न्यूरोस्पोरा (Neurospora ) नामक कवक बीडल-टाइम (Beadle and Tautum) ने 1914 में अनेकों जैव रसायनिक उत्परिवर्तित विभेद (mutants) पृथक करने में सफलता प्राप्त की। इससे प्रभावित होकर फ्रूट फ्लाई (fruit fly) व मक्का के पौधे पर भी इस प्रकार के प्रयोग किये गये । आनुवंशिक पदार्थ के स्थानान्तरण, आनुवंशिकी अभियान्त्रिकी संबंधी प्रयोग इस क्षेत्र में अब नये नहीं है। इस प्रकार सूक्ष्मजैविकी का क्षेत्र बढ़ कर जैव रसायन आनुवंशिकी व आणुविक जैविकी तक चला गया है।
सूक्ष्मजैविकी के क्षेत्र में हुई कुछ महत्त्वपूर्ण खोजों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से हैं-
वर्ष
| वैज्ञानिक | कार्य |
1796 | जैनर
| चेचक का टीका तैयार किया |
1849 | पोलण्डर | बेसिलस एन्थ्रेसिस की खोज |
1873 | हेन्सन | कुष्ठ रोग के जीवाणु की खोज |
1874 | पॉस्तेर
| रोगजनक स्ट्रेप्टोकॉकस की खोज |
1877 | कॉक | रोगजनक स्ट्रेफिलोकॉकस की खोज |
1879 | नाइसर
| रोगजनक गोनोकॉकस की खोज
|
1880 | एलबर्ट गेफकी | सालमोनेला टायफी की खोज |
1883 | कॉक | कॉलेरा विब्रियो की खोज |
1884 | केबस, लुइफर
| डिप्थीरिया बैसिलस, प्रतिआविष तैयार करना |
1884 | निकोलेयर | टेटनस रोग के जीवाणु की खोज |
1885 | फ्रेंकल | निमोनिया रोग का जीवाणु (लोबार प्रकृति ) |
1887 | विचेसलब्म | मेनिन्गोकॉकस की खोज |
1891 | ऐकनासिव पाइफर | इन्फ्लुएन्जा का विषाणु |
1894 | किटासाटो | पास्तेरेला पेस्टिस प्लेग के जीवाणु की खोज |
1896 | इर्मनजेम | क्लोस्ट्रिडियम बॉटुलिनम की खोज
|
1898 | बावच्च, नेगेरी
| रेबीज विषाणु |
1900 | लेण्डस्टेनर
| प्रतिजैविक रसायनिक क्रियाएं
|
1905 | शायजीन एवं हाफमेन | ट्रीपोनिमा पेलेडियम, सिफलिस जीवाणु की
|
1906 | बोर्डर्ट गेन्गो
| वूफिंग कफ विषाणु की खोज |
1910 | रिकेट्स प्रोवोजेक
| रिक्टिसी टाइफस ज्वर रोगाणु |
1917 | एरागाओ, पेश्चेन | चिकन पॉक्स विषाणु की खोज |
1926 | मुरे | लिस्टीरिया |
1929 | ए. फ्लैमिंग | प्रतिजैविक पेनिसिलीन
|
1933 | डब्ल्यू एम स्टेन्ले | TMV का शुद्ध अवस्था में प्राप्त करना |
1938 | प्लोट्स ऐवरी, मेक्लिओड एवं | मिजल्स विषाणु |
1944 | मेक्कार्थी | डी.एन.ए. – आनुवंशिक पदार्थ
|
1946 | लेण्डबर्ग एवं टाट्म | ई. कोली में सयुग्मन
|
1949 | जे. एन्डर्स
| पोलिओ विषाणु का उत्तक संवर्धन
|
1952 | हर्शे | बेक्टरिओफेग डी एन ए का जीवाणु में प्रवेश |
1957 | साल्क एवं सेबीन
| ECHO |
1959 | जेकब एवं वॉलमेन
| ई. कोली में एकल वृत्ताकार गुणसूत्र की उपस्थिति |
1962 | फिअर्स एवं सिनशिमियर
| OX 174 बेक्टीरिओफेग की खोज एवं विषाणु में एकल सूत्री DNAकी खोज |
1963 | सेफरमेन एवं मोरिस
| साइनोफेग की खोज
|
1970 | हरगोविन्द खुराना एवं साथी
| यीस्ट हेतु जीन का संश्लेषण (alanine t-RNA) |
1971 | टी.ओ. डिनियर
| विरिऑइड्स की खोज
|
1972-73 | बॉयर एवं साथी | डी.एन.ए. क्लोनिंग विधि
|
1973 | डेना, केमरान, मेकार्ड
| हिपेटाइटिस A विषाणु
|
1975 | कोलहर एवं मिलस्टीन
| एकक्लोनी प्रतिरक्षियाँ
|
1980 | लक मोन्टाग्रियर | एड्स विषाणु
|
1981 | नेरेन्ड्स एंव साथी
| वायरुसॉइड्स की खोज
|
1984 | कुमार एवं यूएडा | सायनोबेक्टीरियम में सयुग्मन का पाया जाना
|
1969
1973-74 | डेलबर्क एम, हर्षे ए.डी. एवं ल्यूरिया एस. ई. सेबाइन ए, टेम एफ
| विषाणुओं में प्रजनन का अध्ययन कर नोबल पुरस्कार प्राप्त किया। हर्पीस विषाणु की खोज की जो मानव में केन्सर उत्पन्न करता है। |
आज भी सूक्ष्मजैविकी के क्षेत्र में हमारा ज्ञान अधूरा है यद्यपि यह विज्ञान काफी विकसित हो चुका है। इस विज्ञान की जीवविज्ञान एवं विज्ञान की अन्य शाखाओं से निकट का संबंध है अतः अनेकों नये आयाम प्रकट हुए हैं तथा इस विज्ञान की अनेक शाखाएं आनुवंशिक सूक्ष्म जैविकी, सूक्ष्मजैविकी रसायन विज्ञान, पारिस्थितिक सूक्ष्म जैविकी, मृदा-सूक्ष्म जैविकी, अरोग्यकारी सूक्ष्मजैविकी, चिकित्सा सूक्ष्म जैविकी, औद्योगिक सूक्ष्मजैविकी, दुग्ध एवं भोज्य पदार्थ सूक्ष्म जैविकी आदि बना दी गई है जो मानव जाति के उत्थान में सहायक सिद्ध हुई हैं।
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