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Categories: Biology

Methods of Plant Breeding in Cross-Pollinated crops in hindi , परपरागित फसल उत्पादक पौधों में पादप प्रजनन की विधियाँ

परपरागित फसल उत्पादक पौधों में पादप प्रजनन की विधियाँ (Methods of Plant Breeding in Cross-Pollinated crops in hindi) — स्वपरागित फसलों की तुलना में पादप प्रजनन की प्रक्रिया एवं विभिन्न विधियाँ परपरागित फसल उत्पादक पौधों में बहुत कुछ भिन्न होती हैं। पादप प्रजनन विज्ञानी विभिन्न लक्षणों जैसे संकर ओज के फायदे, एवं विभिन्न विधियों का उपयोग करते हैं । अतः परपरागित फसलों के लिये प्रयुक्त प्रमुख पादप प्रजनन विधियाँ निम्न प्रकार से हैं :-

  1. अंत: प्रजात वंशक्रम चयन (Inbred line selection)
  2. संहति चयन (Mass selection)
  3. पुनरावर्ती चयन (Recurrent selection)
  4. संकरण (Hybridization)
  5. अंतः प्रजात वंशक्रम चयन (Inbreed line selection ) – यह एक सर्वविदित तथ्य है कि प्रायः परपरागित फसलों, जैसे खरबूजा, मक्का, अरंडी एवं पपीता में गुणों में विषमयुग्मजता (Heterozygosity) पाई जाती है, इसलिये अंतः प्रजात वंशक्रम चयन का उपयोग अधिकांशतया स्वपरागित फसलों में नई पादप किस्में उन्नत करने के लिये ही होता है । परपरागित फसलों में अंतःप्रजात वंशक्रम विधि का नई किस्मों को विकसित करने के लिए बहुत कम उपयोग होता है। मक्का में अंतःप्रजात वंशक्रम चयन की प्रक्रिया निम्न प्रकार से सम्पन्न करवाई जाती हैं (चित्र 13.4 ) –
  6. मक्का के पौधों की मिश्रित समष्टि (Population) या पादप समूह को उगाया जाता है। इन पौधों से श्रेष्ठ गुणों के आधार पर 200 से 1000 पौधों के भुट्टे (Ears) चुने जाते हैं।
  7. दूसरे से छठा वर्ष- भुट्टों के बीजों या दोनों को निश्चित पंक्तियों में क्रमवार बोया जाता है तथा पौधों के उगने के बाद इनमें से श्रेष्ठ लक्षणों वाले पौधे छांटे जाते हैं तथा इनमें स्वपरागण करवाया जाता है।
  8. सातवाँ एवं आठवाँ वर्ष- इन वर्षों में श्रेष्ठ भुट्टों या दानों (Grains) के आधार पर उत्तम पौधों का चुनाव किया जाता है। इनको पंक्तिबद्ध क्रम में लगाया जाता है। पास-पास पंक्तियों (Sibs) में संकरण करवाया जाता है व इनमें से उत्तम गुणवत्ता वाले पौधों को छाँटा जाता है।
  9. नवाँ वर्ष – चुने हुए उत्तम गुणवत्ता वाले पौधों का विभिन्न केन्द्रों पर तुलनात्मक परीक्षण किया जाता है। उपरोक्त पौधों में से श्रेष्ठ संतति का चुनाव करते हैं ।
  10. दसवाँ वर्ष – सर्वश्रेष्ठ सिब्स (Sibs) को छाँटा जाता है एवं इनका उपयोग संश्लिष्ठ (Synthetic) या संग्रथित (Composite) पादप किस्म बनाने या संकर बीज विकास कार्यक्रम में अंत:प्रजात (Inbred) के तौर पर किया जाता है।
  11. संहति चयन (Mass selection)—यह पादप चयन विधि दोनों प्रकार की फसलों अर्थात् स्वपरागित एवं परपरागित फसलों में एक समान होती है। स्वपरागित फसलों में उपयोग की जाने वाली प्रक्रिया को परपरागित फसलों में भी आजमाया जा सकता है। वैसे परपरागत फसलों में संहति चयन विधि का उपयोग सामान्यतया किया जाता है। इसके द्वारा पादप समष्टि (Population) या समूह में सुधार किया जाता है या नई पादप किस्में विकसित की जाती हैं। जिन पौधों में प्राकृतिक रूप से परपरागण होता है, उनमें स्वतंत्र रूप से जीन्स का परिगमन (Gene ) भी होता रहता है। क्योंकि किसी एक फसल की मिश्रित समष्ठि या पादप समूह में उपस्थित एकल पौधों हैं। ऐसी स्थिति में पर परागित पौधों के लिए संहति चयन (Mass selection) एक उपयुक्त पादप प्रजनन विधि में भी विषम युग्मजता (Hetyerozygosity) पाई जाती है। अत: प्रत्येक पीढ़ी के गुणों में विविधताएँ मौजूद होती है ।

उपरोक्त तथ्य की पुष्टि के लिए हम एक बार फिर से मक्का (Maize) के पौधों में किये गये प्रयोगों का उदाहरण ले सकते हैं, जहां मक्का की एक किस्म के बीजों में तेल व प्रोटीन की मात्रा में अलग-अलग पीढ़ियों में भिन्नता पाई जाती है। अतः इस प्रक्रिया में प्रत्येक पीढी के पादप समूह में गुणों की विविधता बनी रहती हैं।

संहति चयन (Mass selection) प्रक्रिया के उपयोग :

  1. प्राय: यह परपरागित फसलों के लिये सबसे ज्यादा प्रभावी एवं सर्वाधिक उपयोगी होती है। क्योंकि प्राकृतिक रूप से पर परागण होने के कारण पौधों में लगातार जीनों का परिगमन, विनिमय एवं मिश्रण होता रहता है।
  2. इस प्रक्रिया के द्वारा मिश्रित पादप किस्मों में गुणों की शुद्धता (Purity) भी प्राप्त की जा सकती है।
  3. जिन परपरागित कृष्य पौधों में बीज उत्पादन का कार्यक्रम नहीं बनाया जाता वहाँ भी इस विधि का इस्तेमाल करते हैं।

संहति चयन के गुण (Merits of mass selection method)—

  1. क्योंकि इसमें स्व-परागण, संतति परीक्षण एवं क्रॉस जैसे प्रक्रम (Steps) नहीं होते अत: यह एक सरल, कम खर्चीली एवं आसान विधि है।
  2. इस विधि में अपेक्षाकृत बहुत कम समय लगता है एवं फसल या पादप किस्म में सुधार के साथ-साथ बीजों का गुणन (Multiplication) भी होता रहता है।
  3. फसल की अवधि, पौधों व दानों की गुणवत्ता एवं उत्पादन को अपेक्षा के अनुरूप संश्लिष्ठ (Syn- thetic) और संग्रथित (Composite) किस्मों में आसानी से सुधारा जा सकता है।

संहति चयन के दोष (Demerits of Mass Selection) :

  1. यहाँ पौधों का चयन उनके बाह्य लक्षणों के आधार पर किया जाता है, अतः जिन गुणों में वंशागति (Heritability) की क्षमता निम्न स्तर (Lower level) की होती है, उनके सुधार हेतु यह प्रक्रिया उपयोगी नहीं है।
  2. इस प्रक्रिया द्वारा विकसित नई पादप किस्में विषमयुग्मजी (Heterozygous) होती हैं, अत: चयन प्रक्रिया लगातार जारी रखनी होती है।
  3. कायिक जनन (Vegetative propargation) या स्वपरागण वाले कृष्य पौधों के लिये यह विधि उपयोगी नहीं है ।
  4. पुनरावर्ती चयन (Recurrent selection)—प्रमुख पादप प्रजनन विज्ञानियों हेस एवं गार्बर (Hase & Garber 1919), तथा ईस्ट एवं जोन्स (East and Jones 1920) ने सर्वप्रथम इस विधि का उपयोग श्रेष्ठ अंत:प्रजात वंशक्रम (Inbred lines) को विकसित करने के लिये एवं पादप व्यष्टि (Population) के आनुवंशिक

सुधार के लिये किया था। इसके बाद जेन्किन्स (Jenkins 1940) के द्वारा इस प्रक्रिया को संशोधित विस्तारित (Elaborate) किया गया था।

वस्तुतः पुनरावर्ती चयन ( Recurrent selection) के रूप में इसका नामकरण हल (Hull 1945) ने के लिये प्रत्येक पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ पौधों का आपस में संकरण (Hybridization) करवाया जाता है, एवं किया था, एवं इसे सुस्पष्ट परिभाषित किया था। इस विधि में जीन पुनर्योजन (Genetic recombination) इससे उत्पन्न संतति पीढी के सर्वश्रेष्ठ पौधों को गुणों के आधार पर छाँटा जाता है।

यहाँ श्रेष्ठ पौधों में स्वपरागण करवाकर बीज प्राप्त किये जाते हैं, एवं इनसे उत्पन्न पौधों का आपस में संकरण करवाया जाता है। प्राप्त संतति संकर पौधों के समूह में श्रेष्ठ पौधों को छांटा जाता है, एवं अगली पीढ़ी के लिये तैयार किया जाता है। इस प्रकार संकरण एवं चयन का यह चक्र प्रत्येक पीढी में चलता रहता है एवं तब तक निरंतर जारी रहता है, जब तक कि इच्छित लक्षणों से युक्त सर्वश्रेष्ठ पौधों की प्राप्ति नहीं हो जाती।

इस प्रक्रिया का सर्वोत्तम पहलू यह है कि इच्छित लक्षणों के लिये जीनों के श्रेष्ठ एवं अनुकूल पुनर्योजन (Favourable recombinations) प्रत्येक पीढ़ी की समष्टि (Population) में प्राप्त होते हैं तथा इनके कारण आनुवंशिक भिन्नताएँ (Genetic variations) बरकरार रहती हैं।

सर्वप्रथम इस विधि का उपयोग मक्का की फसल में अंतःप्रजात वंशक्रम (Inbred lines) बनाने के लिये ,किया गया था, जिससे कि संतति पीढी में सर्वाधिक इच्छित जीन प्राप्त किये जा सकें, इसके बाद कपास में रेशे (Fibre) की मजबूती एवं चुकंदर में शर्करा (Sugar) की मात्रा बढ़ाने के लिये पुनरावर्ती चयन प्रक्रिया का उपयोग किया गया।

पुनरावर्ती चयन (Recurrent selection) मुख्यतया निम्न प्रक्रियाओं के द्वारा संचालित किया जाता है-

  1. सरल पुनरावर्ती चयन (Simple Recurrent Selection ) – यह प्रक्रिया संहति चयन का एक विस्तारित प्रारूप है एवं सरल प्रकार की विधि है। इस विधि के द्वारा चयन प्रक्रिया निम्न प्रकार से सम्पन्न करवाई जाती है (चित्र 13.5 ) :-

प्रथम वर्ष– कुछ परपरागित फसलों (Cross-pollinated crops) जैसे मक्का की मिश्रित समष्टि (Popu- lation) में लगभग 150 से 250 पौधे चुन कर उनमें स्वपरागण करवाया जाता है, तथा इन स्वपरागित पौधों से बीज प्राप्त करते हैं। इसके बाद इन बीजों से फसल तैयार की जाती है। फसल के परिपक्व होने पर इनमें से उत्तम पौधों को छांटा जाता है।

द्वितीय वर्ष- दूसरे साल में अभी तक छाँटे गये श्रेष्ठ पौधों का आपस में संकरण या क्रॉस (Inter-cross) करवाया जाता है, तथा इनसे प्राप्त बीजों को पंक्तिवार उगाया जाता है व इनसे पौधे प्राप्त किये जाते हैं। ध्यान रहे कि इस प्रक्रिया में एक जैसे पौधों का आपस में संकरण नहीं करवाते हैं। संकरण के परिणामस्वरूप प्राप्त बीजों को एकत्र करके आपस में मिला देते हैं, तथा इनको अगले वर्ष के लिए उपयोग में लाया जाता है।

तृतीय वर्ष- दूसरे वर्ष में करवाये संकरण के परिणामस्वरूप प्राप्त बीजों को बो कर पादप समष्टि तैयार की जाती है, तथा पिछले वर्ष अपनाई गई प्रक्रिया को फिर से दोहरा कर चयन एवं संकरण का कार्य फिर से किया जाता है।

चौथा वर्ष– पृथक-पृथक संततियों के आपसी संकरण से उत्पन्न बीजों से इस वर्ष फसल तैयार की जाती है तथा इच्छित लक्षणों के आधार पर श्रेष्ठ पौधों को छाँटा जाता है।

चयन एवं संकरण चक्र (Circle) की यह प्रक्रिया प्रत्येक वर्ष तब तक जारी रखी जाती है, जब तक कि इच्छित लक्षणों से युक्त पौधे प्राप्त नहीं हो जाते। कुछ उदाहरणों जैसे रोग प्रतिरोधी क्षमता वाली जीन्स की पहचान यदि फसल पकने से पहले ही हो जाती है तो उसी वर्ष अर्थात् प्रथम वर्ष में भी संकरण की प्रक्रिया को दोहराया जा सकता है।

क्योंकि यहाँ बाह्य आकारिकीय लक्षणों के आधार पर प्रायः पौधों का चुनाव किया जाता है अतः इस प्रकार की पुनरावर्ती चयन प्रक्रिया को सरल विधि भी कहते हैं ।

  1. संयोजन क्षमता हेतु पुनरावर्ती चयन (Recurrent selection for combining ability)- पादप संकरण की श्रंखला में जीन्स के संयोजन या पुनर्संयोजन के गुण को संयोजन क्षमता कहते हैं जिसके कारण नयेया इच्छित गुणों का विकास हो सकता है, तो इसे संयोजन क्षमता (Combining ability) कहते हैं।” कहते हैं। किसी भी कृष्य पौधे, या फसल में संयोजन क्षमता का विश्लेषण करने हेतु प्रयुक्त पुनरावर्ती विधि के अंतर्गत, मिश्रित पादप समष्टि में से कुछ श्रेष्ठ पौधों का चुनाव उनमें उपस्थित इच्छित लक्षणों के आधार एक जीन की औसत संयोजन क्षमता को सामान्य संयोजन क्षमता (General combining ability) पर किया जाता है। ऐसे पौधों को SO पौधे कहा जाता है। तत्पश्चात् इनमें स्वपरागण करवाने के साथ साथ ही इनका विषमयुग्मजी (Heterozygous) पौधों से संकरण भी करवाया जाता है।

स्वपरागण एवं इसके बाद संकरण से प्राप्त बीजों को प्रशीतन भंडार (Cold storage) में रखते हैं। इसके अगले वर्ष संकरित 50 बीजों से विकसित पौधों में सामान्य संयोजन क्षमता का परीक्षण किया जाता है। ऐसे पौधों को तीसरे वर्ष उगाया जाता है, एवं बाद में इनमें आपस में संकरण करवा के इनके बीजों को आपस में मिला देते हैं। अब इन बीजों से फसल तैयार करते हैं, एवं जरूरत पड़ने पर चयन एवं संकरण प्रक्रियाओं के चक्र को दोहराते हैं। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के पूर्ण होने में तीन वर्ष लगते हैं। इसमें एक वर्ष सामान्य संयोजन क्षमता के आंकलन में लगता है।

यहां ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि सरल पुनरावती चयन में सामान्य संयोजन क्षमता का परीक्षण नहीं किया जाता, जबकि इस प्रक्रिया में यह परीक्षण आवश्यक रूप से किया जाता है।

  1. विशिष्ट संयोजन क्षमता परीक्षण हेतु पुनरावर्ती चयन (Recurrent selection for specific combining ability)—सर्वप्रथम हल (Hull 1945) ने इस प्रक्रिया का उपयोग अनेक परपरागित फसलों में जीन्स की विशिष्ट संयोजन क्षमता के परीक्षण एवं सुधार के लिए किया था। इसकी प्रक्रिया भी सामान्य संयोजन क्षमता हेतु प्रयुक्त पुनरावर्ती चयन के लगभग समान ही होती है, जबकि पूर्ववर्ती प्रक्रिया में इस प्रकार की परीक्षण व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी। संभवत: इसी कारण SO पौधों में आनुवंशिक विविधताएँ विशिष्ट संयोजन क्षमता के कारण होती हैं।
  2. व्युत्क्रम पुनरावर्ती चयन (Reciprocal Recurrent Selection ) —— इस विधि का सर्वप्रथम उपयोग कॉमस्टॉक, रॉबिनसन एवं हार्वे (Comstock, Robinson and Harvey 1949) द्वारा विभिन्न प्रकार की परपरागित फसलों की दो अलग-अलग व्यष्टियों में सामान्य एवं विशिष्ट संयोजन क्षमताओं को सुधारने के लिए किया था ।

इस प्रक्रिया का प्रमुख आधारभूत स्रोत किसी एक परपरागित फसल में दो अलग अलग प्रकार की पादप समष्टियाँ (Populations) क्रमश: A एवं B हैं, पादप समष्टि A, समष्टि (Population) B के लिये एवं B समष्टि A के लिये परीक्षण स्रोत (Tester) का कार्य करती है । यह प्रक्रिया लगभग छः (6) वर्षों में पूर्ण होती है। इस प्रक्रिया की प्रमुख आवश्यकता के रूप में दोनों पादप व्यष्टियाँ A व B आनुवंशिक प्ररूप में पूर्णतया भिन्न होनी चाहिए। प्रथम संकरण की प्रक्रिया में स्रोत A नर जनक का कार्य करता है, तो दूसरे संकरण में नर जनक की जिम्मेदारी स्रोत B के द्वारा निभाई जाती है। इसमें चयन एवं संकरण क्रियाओं का क्रम निरंतर जारी रहता है। इसीलिये इस प्रक्रिया को व्युत्क्रम पुनरावर्ती चयन कहते हैं। यही नहीं, इस विधि का प्रमुख उद्देश्य दोनों प्रकार की संयोजन क्षमता वाली जीन्स का सुधार करना भी है।

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