मेण्डल के वंशागति के नियमों का वर्णन कीजिए। mendel law of inheritance in hindi उदाहरण सहित

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मेण्डल की वंशागति के नियम (Mendel’s Laws of Inheritance)

मेण्डल ने आनुवंशिकी विज्ञान सम्बन्धी अपने प्रयोग उद्यान मटर (Pisum sativum) नामक पौधे पर सम्पन्न किये तथा इनके आधार पर कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किये। सन् 1900 में मेण्डल के कार्यों की पुनर्खोज (Rediscovery) के पश्चात् जर्मन आनुवांशिकी विज्ञानी कार्ल कोरेन्स ने इन प्रयोगों के आधार पर प्राप्त निष्कर्षों को नियमबद्ध करके इनको ‘मेण्डल के वंशागति के नियम’ (Mendel’s Laws of Inheritance) का नाम दिया । तद्नुसार मेण्डल के नियम निम्न प्रकार से है-

(1) प्रभाविता का नियम (Law of Dominance)

(2) पृथक्करण का नियम या युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of Segregation or Law of purity of gametes)

( 3 ) स्वतन्त्र अपव्यूहन का निमय (Law of Independent assortment)

  1. प्रभाविता का नियम (Law of Dominance)

उद्यान मटर पर किये गये अपने प्रयोगों के दौरान मेण्डल ने यह देखा कि, लम्बे एवं बौने पोधे के बीच क्रॉस करवाने पर F पीढ़ी (संतति) में केवल एक ही लक्षण अभिव्यक्त होता है। इस लक्षण को प्रभावी लक्षण कहते हैं। अतः इस नियम के अनुसार जब एक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों (contrasting characters) वाले, समयुग्मजी या शुद्ध पौधों में क्रॉस करवाया जाता है, तो F, संतति पीढ़ी में जो लक्षण अपने को अभिव्यक्त या प्रकट (Express) करता है, उसे प्रभावी लक्षण (Dominant character) एवं जो अभिव्यक्त नहीं हो पाता या छिप जाता ( Masked) है, उसे अप्रभावी लक्षण (Recessive character) कहते हैं । अर्थात् पीढ़ी में केवल एक ही लक्षण अभिव्यक्त (Express) होता है, इसे प्रभावी लक्षणं कहते है

मेण्डल के आनुवंशिकी प्रयोगों के पश्चात् अनेक आनुवंशिकी विज्ञानियों के द्वारा, विभिन्न जीवधारियों में प्रभावी एवं अप्रभावी युग्मविकल्पियों की खोज की गई है। इसी क्रम में कोरेन्स ने मक्का व मटर पर प्रयोग किये, जैसे-मक्का (Zea mays) में बीज का सुविकसित भ्रूणपोषयुक्त होना, स्टार्चयुक्त होना एवं इसके फलावरण का रंगीन होना प्रभावी लक्षण हैं, जबकि भ्रूणपोष का सिकुड़ा हुआ एवं बीज का शर्करायुक्त होना तथा फलावरण का रंगहीन होना अप्रभावी लक्षण है। इसी प्रकार मिर्च का तीखापन (Pungent aste) एक प्रभावी एवं ‘सादापन’ (Non- pungent) एक अप्रभावी लक्षण है ।

प्रभाविता के नियम का व्यावहारिक महत्त्व (Practical Importance of Law of Dominance ) — विभिन्न सजीवों में प्रभाविता के लक्षण का पाया जाना अत्यन्त उपयोगी एवं महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि प्राणियों एवं पौधों में अनेक हानिकारक एवं घातक जीन (Lethal gene) अप्रभावी होते हैं अतः ये घातक जीन प्रभावी जीन की उपस्थिति में अपने आपको अभिव्यक्त नहीं कर पाते । उदाहरणतया मनुष्यों में होने वाले अनेक रोगों जैसे- वर्णांधता ( Colour blindness), मधुमेह, जड़बुद्धिता एवं हीमोफीलिया के जीन सामान्यतया अप्रभावी होते हैं, अतः प्रभावी जीनों की उपस्थिति में इन रोगों के उत्तरदायी जीन अभिव्यक्त नहीं हो पाते अर्थात् ये रोग नहीं हो सकते तथा मनुष्य अपना सामान्य जीवन यथावत् व्यतीत कर सकते हैं। इसी प्रकार पौधों में भी अनेक हानिकारक या घातक जीन प्रभावी जीनों की उपस्थिति में अपने प्रभाव प्रकट नहीं कर सकते हैं, परिणामस्वरूप पौधों की हानिकारक एवं घातक प्रभावों से रक्षा होती है।

  1. पृथक्करण का नियम या युग्मकों की शुद्धता का नियम (Law of Segregation or Law of purity of gametes)

इस नियम का प्रस्तुतिकरण मेण्डल द्वारा सम्पादित एकसंकर क्रॉस (Monohybrid cross) के परिणामों के आधार पर किया गया है। इसके अनुसार ‘संकर या विषमयुग्मजी’ (Heterozy gous) जीव में युग्मविकल्पी के दोनों विपर्यासी कारक या जीन (Contrasting genes) एक दूसरे के पास- पास रहते हुए भी संदूषित (Contaminate ) नहीं होते हैं, अर्थात् एक का प्रभाव दूसरे पर नहीं पड़ता । इस प्रकार ये अपनी शुद्धता बनाये रखते हैं, तथा युग्मक निर्माण के समय दोनों युग्मविकल्पी कारक एक दूसरे से पृथक् होकर अलग-अलग युग्मकों में पहुँच जाते हैं ।

मेण्डल द्वारा मटर के पौधों पर किये गये प्रयोगों में यह देखा गया कि F पीढ़ी में प्रभावी एवं अप्रभावी दोनों वैकल्पिक लक्षणों में असमानता होती है । परन्तु इस पीढ़ी में केवल प्रभावी लक्षण ही प्रकट होते हैं। इसके बाद F पीढ़ी के पौधों में स्वनिषेचन के परिणामस्वरूप प्राप्त F2 पीढ़ी में 4 पुर्नसंयोजन बनते हैं जिनमें से 75% में प्रभावी एवं शेष 25% पौधों में अप्रभावी लक्षण दिखाई देते हैं । इस उदाहरण से यह स्पष्ट होता है कि F, पीढ़ी में उपस्थित प्रभावी एवं अप्रभावीकारक या युग्मविकल्पी पृथक् या अलग-अलग होकर F2 पीढ़ी में अभिगमन करते हैं ।

आनुवंशिकी के इस नियम को युग्मकों की शुद्धता का नियम भी कहते हैं, क्योंकि इसके अनुसार F, संकर पीढ़ी में उपस्थित युग्मकविकल्पी “TI” । में पाये जाने वाले दोनों ऐलील युग्मक निर्माण के सभय अलग-अलग युग्मकों में पहुँच जाते हैं। F, संतति जो विषमयुग्मजी होती है । इसमें दो प्रकार युग्मक होते हैं, जिनमें आधे (T) प्रभावी, एवं शेष आधे (1) अप्रभावी एलील रखते हैं । अतः अपने लक्षण के लिए शुद्ध (Pure) होते हैं एवं इस प्रकार F2 पीढ़ी में अप्रभावी बौनेपन का लक्षण (tt) ये युग्मक समयुग्मजी अवस्था में आते ही फिर से प्रकट हो जाता है। अतः पृथक्करण के नियम को एक संकर “क्रॉस की सहायता से निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-

पृथक्करण के नियम का भौतिक आधार (Physical basis for the law of Segregation) मेण्डल के अनुसार प्रत्येक लक्षण आनुवंशिक रूप से एक कारक या जीन द्वारा नियन्त्रित होता है, जो कि एक आनुवंशिक इकाई है। इन कारकों का एक कोशिका से दूसरी कोशिका एवं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संचरण होता है । परन्तु मेण्डल को संचरण प्रक्रिया के दौरान कारकों के व्यवहार के बारे में जानकारी नहीं थी, इसीलिए वे पृथक्करण के नियम का भौतिक आधार नहीं समझा पाये थे। आज पृथक्करण के दौरान कारकों या जीन्स की कार्य- शैली को अर्धसूत्री विभाजन के दौरान गुणसूत्रों के व्यवहार के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है। यहाँ ऐलील या युग्मविकल्पी एक जोड़े (Pair) में होते हैं तथा समजात क्रोमोसोम्स के एक ही विस्थल (Locus) पर पाये जाते हैं। युग्मक निर्माण के समय ये समजात क्रोमोसोम अलग होकर, दो अलग-अलग युग्मकों में पहुँच जाते हैं। इससे स्वयं ही यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि समजात क्रोमोसोम्स के अलग होने के साथ युग्मविकल्पी या ऐलील भी अलग हो जाते हैं, इसी वजह से संतति में विपर्यासी लक्षण भी अलग हो जाते हैं । यह भी कहा जा सकता है कि अर्धसूत्री विभाजन के दौरान बनने वाली चार कोशिकाओं में से दो कोशिकाएँ एक समजात गुणसूत्र की दो क्रोमेटिड एवं शेष 2, अन्य समजात गुणसूत्र की पुत्री क्रोमेटिड्स को ग्रहण करती हैं। अतः स्वाभाविकतया चार में से दो कोशिकाएँ प्रभावी ऐलील (T) एवं शेष 2 अप्रभावी ऐलील (t) को लेती हैं। परिणामस्वरूप इस जीव जगत में अभी तक ऐसा कोई भी युग्मक नहीं पाया गया है, जिसमें दोनों ऐलील प्रभावी एवं अप्रभावी एक साथ उपस्थित हों (चित्र 8.1)।

पृथक्करण के नियम की आधुनिक संकल्पना (Modern concept of law of segregation)— मेण्डल द्वारा प्रस्तुत पृथक्करण का नियम, उसकी एक आधारभूत या मौलिक संकल्पना थी। इसके अन्तर्गत संकर या विषमयुग्मजी पौधे में जीन या कारक का सम्मिश्रण नहीं होता । आधुनिक कार्यों के आधार पर यह स्पष्ट हो चुका है कि यदि विषमयुग्मजी संकर पादप में लाभकारी एवं हानिकारक जीन एकत्र हो भी जावें तो एक दूसरे को स्थायी रूप से प्रभावित नहीं करते, भले ही ये आने वाली कई पीढ़ियों तक एक दूसरे के साथ रहें । एक हानिकारक जीन विषमयुग्मजी से अलग होते समय भी, पूर्ववत् रूप से ही हानिकारक होता है, एवं यही व्यवहार लाभकारी जीन का भी होता है ।

पृथक्करण के नियम का महत्त्व (Importance of Law of Segregation)

(1) मेण्डल द्वारा प्रस्तुत इस नियम के अनुसार जीवधारियों में उपस्थित लाभदायक जीन्स का यदि वे हानिकारक जीन्स के साथ हैं तो भी संदूषण नहीं होता । ये इन अलाभकारी जीन्स से प्रभावित नहीं होती, कई पीढ़ियों तक साथ रहने के बावजूद भी जब ये एक-दूसरे से पृथक् होती हैं तो लाभकारी जीन उतनी ही शुद्ध होती हैं, जितनी कि संकर सदस्य में प्रवेश करते समय थी ।

(2) इस नियम के अनुसार प्रत्येक लक्षण का विकास एक जीन के द्वारा नियन्त्रित होता है ।

(3) पृथक्करण के नियम की प्रस्तुति से ‘जीन संकल्पना’ की पुष्टि होती है।

(4) जीन कणिकामय संरचनाओं के रूप में पाये जाते हैं, इसी कारण एक ही कोशिका में रहते हुए भी जीन के युग्मविकल्पियों का सम्मिश्रण नहीं होता ।

(5) एक जीन के दो ऐलील या युग्मविकल्पी होते हैं, जो अलग विपर्यासी लक्षणों (Contrasting characters) का नियन्त्रण करते हैं ।

(6) एक जीन के दो ऐलील या युग्मविकल्पी पृथक् होकर संकर विषमयुग्मजी पौधे के अलग- अलग युग्मकों में जाते हैं

(7) जीन को वंशागति की इकाई (Unit of Inheritance) के रूप में दृढ़तापूर्वक स्थापित, पृथक्करण की प्रस्तुति के बाद से किया गया है।

  1. स्वतन्त्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent assortment)

इस नियम को द्विसंकर क्रॉस के आधार पर समझाया जा सकता है। इसके अनुसार “जब दो या दो से अधिक जोड़े विपर्यासी लक्षणों की वंशागति के अध्ययन के लिए क्रॉस करवाया जाता है, तो इन जोड़ों (Pairs) में उपस्थित लक्षणों की वंशागति या आने वाली पीढ़ियों में संचरण पूर्णतया स्वतन्त्र रूप से होता है ।” अर्थात् एक लक्षण की एक जोड़े में उपस्थिति का दूसरे लक्षण की वंशागति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि इस नियम के अनुसार “युग्मविकल्पियों के प्रत्येक जोड़े (Pair) के ऐलील न केवल अलग होते हैं, अपितु ये विभिन्न लक्षणों के युग्मविकल्पियों के प्रति भी स्वतन्त्र रूप से व्यवहार करते हैं ।

इस प्रकार एक से अधिक जोड़ी विपर्यासी लक्षणों की वंशागति स्वतन्त्र रूप से एक दूसरे से प्रभावित हुए बिना सम्पन्न होती है । इनके ऐलील या कारक स्वतन्त्र रूप से अपव्यूहन करते हैं। प्रस्तुत नियम को द्विसंकर क्रॉस के आधार पर आसानी से समझाया जा सकता है। यहाँ दो जोड़ी विपर्यासी लक्षणों की वंशागति का साथ-साथ अध्ययन किया जाता है, जैसे-शुद्ध गोल व पीले बोज (RRYY) वाले पौधों का क्रॉस शुद्ध समयुग्मजी (Homozygous ), झुर्रीदार व हरे रंग के बीज वाले मटर के पौधों साथ करवाया जाता है, यहाँ झुर्रीदार एवं हरे रंग के बीज वाले लक्षण अप्रभावी हैं। इस संकरण के परिणामस्वरूप F पीढ़ी में प्राप्त सभी पौधे संकर या विषमयुग्मजी (Heterozygous RrYy) गोल व पीले बीज वाले मटर के पौधे प्राप्त हुए। F पीढी में स्वपरागण (self pollination) करवाने पर चार प्रकार के पौधे निम्न अनुपात में प्राप्त हुए ।

  1. गोल व पीले बीज = 9
  2. झुर्रीदार व पीले बीज = 3
  3. गोल व हरे बीज = 3
  4. झुर्रीदार व हरे बीज = 1

इससे स्पष्ट है कि जब एक से अधिक विपर्यासी लक्षणों के कारक प्रस्तुत कर प्रयोग किया जावे तो ये कारक एक-दूसरे को प्रभावित किये बिना युग्मकों के निर्माण में विसंयोजित हो जाते हैं। अर्थात् अलग-अलग लक्षणों के कारकों का व्यवहार या प्रदर्शन एक-दूसरे से पूर्णतया स्वतन्त्र होता है। यही मेण्डल के स्वतन्त्र अपव्यूहन के नियम का सार 1

स्वतन्त्र अपव्यूहन के नियम का भौतिक आधार (Physical basis of the Law of Independent assortment)

इस नियम के अनुसार द्विसंकर क्रॉस की F2 पीढ़ी में जनकीय संयोजनों (Parental combinations) के अतिरिक्त कुछ नये संयोजन या पुन: संयोजन (Recombinations) भी प्राप्त होते हैं। उपरोक्त बीज की आकृति एवं रंग के दिये गये उदाहरण के अनुसार F पीढ़ी में गोल एवं पीले संकर या विषमयुग्मजी ( RrYy ) प्राप्त होते हैं। जबकि F, पीढ़ी के पौधों में स्वपरागण करवाने के पश्चात् जो F2 पीढ़ी प्राप्त होती है, उसमें गोल व पीले बीज, झुर्रीदार व पीले, गोल व हरे एवं झुर्रीदार तथा हरे बीज वाले पौधे क्रमश: 9:3:31 के अनुपात में प्राप्त होते हैं, अर्थात् यहाँ चार प्रकार के संयोजन मिलते हैं। इनमें से गोल, पीले एवं झुर्रीदार व हरे बीज वाले पौधे अपने जनक पूर्वजों के समान हैं परन्तु झुर्रीदार पीले एवं गोल हरे नये संयोजन या पुनःसंयोजन (Recombinations) हैं। मूल जनक पीढ़ी (P) द्वारा क्रमश: (RY ) एवं (ry ) प्रकार के युग्मक बनते | अब यदि F, पीढ़ी ( RrYy) में भी मूल जनक पीढ़ी का अनुसरण किया जावे तो F2 पीढ़ी में भी केवल मूल जनक पीढ़ी के अनुरूप गोल पीले एवं झुर्रीदार व हरे बीजों वाले संयोजन ही प्राप्त होते हैं तथा चार प्रकार के क्रमश: RY Ry rY एवं ry युग्मक जीन्स के स्वतन्त्र व्यवहार एवं पुर्नसंयोजन के कारण बनते हैं। इन चार प्रकार के युग्मकों का निर्माण अर्धसूत्री विभाजन द्वितीय (Meiosis II) की ऐनाफेज में स्पष्ट होता है, जिसमें Rr, Y, जीनों का स्वतन्त्र अस्तित्व अलग-अलग गुणसूत्रों पर अवस्थित होता है अर्थात् यह कतई आवश्यक नहीं कि “R” के साथ ““Y” का या “T” के साथ “y” का ही समन्वय एवं संयोजन होगा ( चित्र 8.2 ) ।

इससे यह भी स्पष्ट होता है कि जीन्स गुणसूत्रों पर पाये जाते हैं एवं युग्मविकल्पी या ऐलील समजात क्रोमोसोम्स पर अवस्थित होते हैं । यहाँ युग्मक अर्धसूत्री विभाजन के परिणामस्वरूप बनते हैं और समजात गुणसूत्र (Homologus chromosomes ) पृथक् होकर चार प्रकार के युग्मकों में प्रवेश करते हैं। इस प्रकार विभिन्न लक्षणों के कारक एवं इनके युग्मविकल्पियों का आचरण एक दूसरे से स्वतन्त्र होता है।

त्रिसंकर संकरण (Trihybrid Cross)

वंशागति के आधारभूत सिद्धान्तों को समझने के लिए प्राय: एक या दो लक्षणों की आनुवंशिकी का अध्ययन किया गया था। परन्तु वास्तविक रूप में अनेक जीनों की काफी अधिक संख्या में वंशागति देखी जाती है, एवं ये स्वतन्त्र रूप से व्यवहार करते हैं, तथा इनके परिणामों को भी द्विसंकर क्रॉस के परिणामों के आधार पर ही समझा जा सकता है। उदाहरणतया तीन लक्षणों की वंशागति अथवा त्रिसंकर काँस का अध्ययन करने पर यह देखा जा सकता है कि F2 पीढ़ी में प्राप्त लक्षण प्ररूपी अनुपात एक संकर क्रॉस (3 : 1) या द्विसंकर क्रॉस (9: 3:3: 1) का ही परिवर्धित प्रारूप होते है, जैसा कि निम्न संकरण से स्पष्ट हैं-

लम्बा पौधा, पीले व गोल बीज x बौना पौधा, हरे झुर्रीदार बीज – (P)

इसी प्रकार से त्रिसंकर क्रॉस से अतिरिक्त भी चतुसंकर क्रॉस या पंचसंकर क्रॉस भी करवाये जाते हैं । सामान्यतया जब दो से अधिक विर्पयासी लक्षणों (Contrasting Characters) को ध्यान में रखकर पौधों का क्रॉस करवाया जाता है, तो इसे बहुसंकर क्रॉस (Polyhbrid Cross) कहते हैं ।

मेण्डल के नियमों पर आधारित आंकिक प्रश्न (Numerical Problems based on Mendelian Laws)

मेण्डल के नियमों पर आधारित आंकिक समस्याओं (Numericals) को हल करते समय हमें निम्न तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए-

(1) सबसे पहले दिये गये प्रश्न में संकरण का प्रकार अर्थात् एक संकर क्रॉस या द्विसंकर क्रॉस है, इसकी जानकारी करना आवश्यक है।

(2) क्रॉस में शामिल पौधों / जीवों का जीन प्ररूप ( Genotype ) लक्षणों के आधार पर निर्धारित करना चाहिए—

(A) अप्रभावी लक्षण का जीनोटाइप अँग्रेजी वर्णमाला के छोटे अक्षर से जैसे बौनेपन का ‘1’ से प्रदर्शित होगा ।

(B) प्रभावी लक्षण अँग्रेजी के बड़े अक्षर से, जैसे- पौधे का लम्बापन “T” से प्रदर्शित होगा।

(C) प्रभावी लक्षणों वाले जीव समयुग्मजी या विषमयुग्मजी हो सकते हैं

(3) प्रत्येक जनक द्वारा निर्मित युग्मकों के प्रकार एवं संख्या ज्ञात होनी चाहिए।

(4) दोनों जनक द्वारा उत्पन्न जाइगोटिक संयोजनों की संख्या ज्ञात करके चेकर बोर्ड के प्रकोष्ठ भर दिये जाने चाहिए

(5) लक्षण प्ररूप (Phenotype), एवं जीन प्ररूप (Genotype) की गणना करके, अनुपात प्रस्तुत करना चाहिये ।

उपरोक्त बिन्दुओं की जानकारी के आधार पर निम्न उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं-

उदाहरण 1- दो मटर के पौधों का क्रॉस करवाया गया, इनमें एक पौधा विषमयुग्मजी (Heterozygous “Rr”) एवं दूसरा समयुग्मजी (Homozygous “RR”) था। क्रॉस के परिणामस्वरूप प्राप्त संतति पीढ़ी में जीनप्ररूपी ( Genotype) एवं लक्षण प्ररूप ( Phenotype) अनुपात ज्ञात कीजिए।

उत्तर (Solution)

किसी जनक द्वारा निर्मित युग्मकों की संख्या = 2n

यहाँ ‘n’ उस लक्षण की संख्या को निरूपित करता है, जिसके लिए यह विषमयुग्मजी है ( समयुग्मजी पर यह सूत्र लागू नहीं ) ।

जाइगेटिक संयोजनों की संख्या = गुण के आधार पर एक जनक द्वारा बनाये गये युग्मकों की संख्या × दूसरे जनक द्वारा बनाये गये युग्मक की संख्या ।

उपरोक्त प्रश्न में एक पौधा विषमयुग्मजी एवं दूसरा समयुग्मजी है ।

समयुग्मजी (RR) = यहाँ केवल एक प्रकार के युग्मक ‘R’ बनेंगे।

विषमयुग्मजी (Rr) = एक लक्षण (रंग) के लिए विषमयुग्मजी अर्थात् यह पौधा = 2n युग्मक निर्मित करेगा ।

लक्षणों की संख्या जिसके लिए यह विषमयुग्मजी है ) ।

इस प्रकार विषमयुग्मजी पौधा ( Rr) दो प्रकार के युग्मक (R) व (r) बनायेगा ।

इस क्रॉस में जाइगोटिक संयोजनों के प्रकार दोनों जनकों द्वारा बनाये गये युग्मको की संख्या के गुणनफल के बराबर होंगे।

(RR) जनक एक प्रकार के युग्मक (R) बनाता है।

(Rr) जनक दो प्रकार के युग्मक (R) व (r) बनाता है।

अत: जाइगोटिक संयोजनों की संख्या 2 × 1 = 2

इस क्रॉस में इसलिये दो प्रकार के जीनोटाइप बनेंगे । चेकर बोर्ड की सहायता से इस क्रॉस को निम्न प्रकार से समझाया जा सकता है।

उत्तर- फीनोटाइप या लक्षण प्ररूप 2 पौधे लाल पुष्प वाले

प्ररूपजीन = 1 समयुग्मजी (RR) लाल : 1 विषम युग्मजी (Rr)