मध्यकालीन साहित्य ग्रंथों के लेखकों के नाम क्या हैं , काव्य की विशेषताएँ , Medieval literature in hindi

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मध्यकालीन साहित्य
मध्यकाल में कई विभिन्न प्रवृत्तियां उभरीं जिन्होंने उभरने वाली भाषाओं और बोलियों को प्रभावित किया। प्रमुख परिवर्तन दिल्ली सल्तनत और मुगल दरबारों के लेखन के रूप में पफारसी का उद्भव था। इस अवधि में प्राचीन अपभ्रंश भाषा से हिंदी का विकास भी दिखाई देता है।
फारसी
हालांकि फारसी भाषा की जड़ें संस्कृत जितनी ही पुरानी हैं, लेकिन बारहवीं शताब्दी में तुर्क और मंगोलों के आगमन के साथ यह भारत आई। उनके शासन के दौरान पफारसी दरबार के संचार का साधन बन गई। सबसे श्रेष्ठ फारसी कवियों में से एक अमीर खुसरो देहलवी (दिल्ली के अमीर खुसरो) थे। अपने दीवान (फारसी में कविताओं के संग्रह) के अतिरिक्त, उन्होंने नूह सिपिर और दुःखद प्रेम कविता मस्नवी दुआल रानी खिज्र खां भी लिखी।
दिल्ली सल्तनत में, फारसी में कई ग्रंथ लिखे गए। इनमें से अधिकांश शासकों के लिए इतिहास की रचना करने से संबंधित थीं। जिया-उद्-दीन बरनी इस अवधि के शीर्ष इतिहासकारों में था और उसने तारीख-ए-फरोज शाही लिखी थी। अन्य प्रसिद्ध इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज था। इब्न-बतूता (मोरक्को यात्री) की भांति प्रसिद्ध यात्रियों द्वारा लिखित कई यात्रा विवरण हैं, जिनसे इस अवधि के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का पता चलता है
मुगल काल में फारसी में साहित्य की रचना और प्रचार-प्रसार में तेजी आई। मुगल बादशाह बाबर ने तुर्की में अपनी आत्मकथा ‘‘तुजुक-ए-बाबरी’’ लिखी थी। इससे हमें भारत में मुगल विजय के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। जहांगीर की काल के विषय में सबसे बड़े ड्डोतों में से एक तुजुक-ए-जहांगीरी है। एक अन्य महत्वपूर्ण रचना हुमायूं की सौतेली बहन गुलबदन बेगम द्वारा लिखित हुमायूं-नामा है। इससे हुमायूं के जीवन और सिंहासन पाने के संघर्ष का विवरण मिलता है।
इस काल का महानतम सम्राट अकबर था और उसके दरबारी इतिहासकार अबुल पफजल द्वारा लिखित आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा इस अवधि के साहित्य का सबसे अच्छे उदाहरण हैं। अकबर ने फारसी में रामायण, भगवत गीता और अनेकों उपनिषदों जैसे संस्कृत ग्रंथों के अनेक अनुवादों के लिए आदेश दिया था। एक प्रमुख उदाहरण महाभारत है जिसे फारसी में अनुवाद किए जाने पर रज्मनामा कहा गया। इस अवधि की अत्यधिक सचित्रा रचनाओं में से एक को हम्जानामा कहा जाता है। इसमें पौराणिक फारसी नायक आमिर हम्ज़्ाा की कहानी को दर्शाया गया है। मलिक मुहम्मद जायसी ने भी इस अवधि में अपनी पद्मावत की रचना की थी। इस अवधि के अन्य प्रमुख लेखकों में राजनीतिक नियम की नैतिकता पर लिखने वाला बदायूंनी और फारसी कविता के मास्टर माने जाने वाले फैजी सम्मिलित हैं।
शाहजहां के शासनकाल में कई ग्रंथ तैयार किए गए, विशेष रूप से इनायत खान के शाहजहां-नामा जैसे ग्रंथ जो सम्राट के विषय में हैं। औरंगजेब के शासनकाल में, मीर जापफर जटल्ली जैसे कई व्यंग्ययकारों ने अपनी कुल्लियत (छंदों का संग्रह) लिखी थी। तबकात-ए-आलमगीरी जैसे ग्रंथ हमें अठारहवीं सदी की अवधि के विषय में अच्छी जानकारी प्रदान करते हैं। पादशाहनामा अब्दुल हमीद लाहौरी द्वारा लिखी गई थी। यह शाहजहां के बारे में थी।

उर्दू
भाषाविदों का तर्क है कि उर्दू, फारसी और हिंदी की होने वाली अंतक्र्रिया, विशेष रूप से तुर्की सेना की बैरकों में, के माध्यम से विकसित हुई। अमीर खुसरो ने भी उर्दू में कई ग्रंथ लिखे थे। उर्दू इस अवधि में अपनी प्रारंभिक अवस्था में थी।
यह भाषा अधिकांशतः हिंदी के व्याकरण और फारसी के प्रकार और पटकथा का अनुगमन करती है। चूंकि अहमदाबाद, गोलकुंडा, बीजापुर और बरार के बहमनी राज्यों द्वारा इसका उपयोग किया जाता था, इसलिए प्रारंभ में इसे दक्कनी (दक्षिणी) भी कहा जाता था।
सबसे बड़े उर्दू कवियों में से एक उर्दू में दीवान (कविता संग्रह) की रचना करने वाले ‘‘मिर्जा गालिब’’ थे। सौदा, दर्द और मीर तकी मीर, कई अन्य उर्दू कवि थे। बीसवीं सदी में, उर्दू साहित्यिक लेखन में एक बड़ी हस्ती बंग-ए-दर्रा लिखने वाले इकबाल थे। वह ‘सारे जहां से अच्छा’ लिखने के लिए प्रसिद्ध है, जो भव्य राष्ट्रवादी गीत बन गया है।
उर्दू में भी लिखने वाले बहादुर शाह जपफर जैसे मुगल साम्राज्य के अंतिम सम्राटों के अतिरिक्त अवध के नवाबों ने भी उर्दू में रचना करने वाले कई विद्वानों को संरक्षण दिया था। बीसवीं सदी में, आधुनिकीकरण कर्ता सर सैयद अहमद खान द्वारा भी इसे बढ़ावा दिया गया था। उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी में कई शिक्षाप्रद और राष्ट्रवादी ग्रंथ लिखे थे।

हिन्दी और उसकी बोलियां
हिन्दी, जैसा आज हम इसे जानते हैं, 7 वीं और 14 वीं सदी के बीच प्राकृत से विकसित होने वाली अपभ्रंश से विकसित हुई। इस भाषा को इसका सबसे बड़ा प्रोत्साहन उस भक्ति आंदोलन से मिला, जिसने संस्कृत का उपयोग त्याग दिया था क्योंकि यह ब्राह्मणों की भाषा थी और आम लोग इसका उपयोग नहीं करते थे। इसलिए, उन्होंने लोगों की भाषा में लिखना प्रारंभ किया और बारहवीं शताब्दी के बाद से हमें बंगाली, हिंदी, मराठी, गुजराती, आदि जैसी क्षेत्रीय भाषाओं की तीव्र प्रगति दिखाई देती है। लंबे समय तक, हिंदी साहित्य अपनी पूर्ववर्ती संस्कृत की छाया में रही, लेकिन पृथ्वीराज रासो पहली हिंदी पुस्तक थी और इसमें पृथ्वीराज चैहान के जीवन और सामने आने वाली चुनौतियों का प्रलेखन किया गया है।
अधिकांश रचनाएं कबीर जैसे भक्ति लेखकों द्वारा लिखित कविताएं है। वह अपने दोहों के लिए प्रसिद्ध हैं जिनका आज भी भारत के आम लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है । तुलसीदास ने ब्रज में दोहों की रचना की थी और इसे फारसी से तीक्ष्ण बनाया गया था। वह सबसे प्रतिष्ठित हिंदू ग्रंथों में से एक रामचरितमानस लिख कर अमर हो गए। भगवान कृष्ण का जीवन भी सूरदास जैसे विभिन्न मध्ययुगीन कवियों का विषय बन गया। उन्होने कृष्ण के बचपन और गोपियों के साथ किशोरावस्था के प्रसंगों के विषय में सूर सागर लिखा । रहीम, भूषण और रसखान ने भी भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति के विषय में लिखा।
मीराबाई भी ऐसी स्त्री के रूप में प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने भगवान कृष्ण के लिए विश्व का त्याग कर दिया और उनके लिए भक्ति कविताएं लिखती थीं। बिहारी की सतसई भी इस संबंध में प्रसिद्ध है।
आधुनिक साहित्य
आधुनिक साहित्य की अवधि को आधुनिक काल (अधिकांशतः हिंदी के संदर्भ में प्रयुक्त शब्द) नाम दिया गया है। हिंदी उत्तर भारत में एक प्रमुख भाषा के रूप में उभरी, तथापि कई अन्य भाषाओं ने भी अपनी छाप छोड़ी, विशेष रूप से बंगाली ने।

हिन्दी
अंग्रेजों के आगमन के साथ, साहित्य का केंद्र बिंदु परिवर्तित हो गया। यह परिवर्तन अद्भुत रूप से हिन्दी गद्य लेखन में हुआ, जिसमें शास्त्रीय की ओर वापस जाने और संस्कृत से प्रेरित होने का उत्साह था। यह उत्साह राष्ट्रवादी उत्साह के साथ जुड़ गया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1850 के दशक में अपना सबसे प्रसिद्ध नाटक ‘अंधेर नगरी’ लिखा और यह प्रमुख नाटक बन गया जिसे कई बार पुनर्मोंचन किया गया है। एक और बहुत ही प्रसिद्ध राष्ट्रवादी रचना भारत दुर्दशा है।
इस अवधि के एक अन्य प्रमुख लेखक महावीर प्रसाद द्विवेदी थे जिनके नाम पर हिन्दी लेखन के एक पूरे चरण का नामकरण किया गया है। आधुनिक काल नामक हिन्दी के आधुनिक काल में चार उप-वर्ग हैं, जिन्हें कहा जाता हैः
भारतेंदु युग 1868-1893
द्विवेदी युग 1893-1918
छायावादी युग 1918-1937
समकालीन युग 1937- आज तक
हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाने, जो सभी क्षेत्रों को जोड़ती है, के आंदोलन का नेतृत्व स्वामी दयानंद ने किया था। हालांकि उन्होंने गुजराती में काफी अधिक लिखा, लेकिन हिंदी में उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना सत्यार्थ प्रकाश है। मुंशी प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, मैथिली शरण गुप्त जैसे अनेक हिन्दी लेखकों ने समाज में रूढ़िवादिता पर प्रश्न उठाया।
प्रेमचंद ने हिन्दी और उर्दू में अनेक संग्रहों की रचना की और उनकी प्रसिद्ध कृतियों में गोदान, बड़े भैया, आदि सम्मिलित हैं।
हिंदी के अन्य उल्लेखनीय लेखकों में सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मधुशाला लिखने वाले हरिवंश राय बच्चन सम्मिलित हैं। बीसवीं सदी में हिन्दी की सबसे प्रसिद्ध महिला लेखकों में से एक महादेवी वर्मा थीं। उन्हें हिंदी में उनके लेखन और सामज में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालने के कारण पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।

बंगाली, ओडिया और असमिया साहित्य
बीसवीं सदी में, बंगाली साहित्य का विकास उर्दू और हिंदी का प्रतिद्वंद्वी था। इस साहित्य के वितरण को 1800 में अंग्रेज विलियम कैरी द्वारा सीरमपुर, बंगाल में बैपटिस्ट मिशन प्रेस की स्थापना से सहायता मिली। कैरी को बंगाली के व्याकरण के विषय में पुस्तक लिखने और अंग्रेजी-बंगाली शब्दकोश प्रकाशित करने का श्रेय दिया जाता है। उनके प्रेस ने अपना स्वयं का प्रेस खोलने और बंगाली में साहित्य का प्रसार करने के लिए संपन्न स्थानीय बंगालियों को प्रेरित किया। हालांकि मंगल काव्य जैसा बंगाली में बहुत सारा प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य अस्तित्व में था, लेकिन उन्नीसवीं सदी से पहले व्यापक रूप से प्रकाशित नहीं था।
बंगाल पहुंचने वाले राष्ट्रवादी उत्साह के साथ ब्रिटिश शासन के अधीन आम आदमी की पीड़ा और देश की दुर्दशा की चिंताओं के प्रति साहित्य ने निश्चित मोड़ ले लिया। राजा राम मोहन राय बंगाली और अंग्रेजी में लिखने वाले पहले लोगों में थे और उनकी कृतियों को व्यापक रूप से पढ़ा जाता था। उनके समकालीन लेखक ईश्वर चंद्र विद्यासागर और अक्षय कुमार दत्त थे। लेकिन राष्ट्रवादी बंगाली साहित्य की पराकाष्ठा बंकिमचंद्र चटर्जी के लेखन से प्राप्त हुई।
उनकी कृति आनंद मठ इतना अधिक लोकप्रिय है कि वंदे मातरम्, हमारा राष्ट्रीय गीत, इस उपन्यास से लिया गया अंश है।
नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय भी बंगाली में लेखक रवींद्रनाथ टैगोर थे। उन्हें 1913 में अपनी बंगाली कृति गीतांजलि के लिए यह पुरस्कार मिला। शरत चंद्र चटर्जी, काजी नजरूल इस्लाम और आर.सी. दत्त ने बंगाली साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया ।
मध्यकाल में, असमिया साहित्य में बुरंजिस (दरबारी इतिहास) का वर्चस्व था। इन अधिकारिक रचनाओं के अतिरिक्त, शंकरदेव ने असमिया में भक्तिपरक कविताओं की रचना की। आधुनिक असमिया साहित्य के संदर्भ में, दो प्रमुख विद्वानों यानी पदमनाम गोहैन बरुआ और लक्ष्मी नाथ बेजबरूआ ने अपनी छाप छोड़ी है।
भारत के पूरब से, एक बड़ा कोश ओडिया साहित्य से आता है। पहली कृति सरला दास से आई है। मध्य काल में, 1700 में लिखने वाले एक श्रेष्ठ लेखक उपेंद्र भांजा थे। आधुनिक काल में, राधा नाथ रे और पफकीरमोहन सेनापति ने अपनी कृतियों में राष्ट्रवादी स्वर के साथ अपनी छाप छोड़ी है।

कन्नड़ साहित्य
कन्नड़ साहित्य में सबसे पहले जैन विद्वानों ने प्रवेश किया। जैन-प्रभावित ग्रंथों का सबसे अच्छा उदाहरण पंद्रहवें तीर्थंकर (जैन गुरु) के जीवन पर माधव लिखित धर्मनाथ पुराण है। उरित्ता विलास जैसे कई अन्य विद्वानों ने इस काल की जैन शिक्षाओं पर धर्म परीक्षा की रचना की। कन्नड़ में सबसे पहले अभिलेखित ग्रंथों में से एक दसवीं शताब्दी में, नृपतुंग अमोघवर्ष प्रथम द्वारा लिखित कविराजमार्ग ;ज्ञंअपतंरंउंतहंद्ध है। यह भी बहुत शक्तिशाली राष्ट्रकूट राजा था।
कन्नड़ भाषा में कई महान विद्वान हुए हैं, लेकिन ‘रत्नत्रय’ या ‘तीन रत्न’ अद्वितीय थे। रत्नत्रय में तीन कवि सम्मिलित थे, जिनके नाम हैंः
ऽ पंपा
ऽ पोन्ना और
ऽ रन्ना
दसवीं शताब्दी में ही, ‘कन्नड़ के पिता’ के रूप में अधिक ज्ञात पंपा ने अपनी दो सबसे महानतम काव्यात्मक रचनाएं, आदिपुराण और विव्रफमार्जुन लिखीं। काव्य रचनाओं में सम्मिलित रस पर अपनी प्रवीणता के लिए प्रसिद्ध पंपा, चालुक्य अरिकेसरी के दरबार से जुड़े थे। दूसरे रत्न या पोन्ना ने शांति पुराण शीर्षक से प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की और तीसरे रत्न, रन्ना ने अजीतनाथ पुराण की रचना की। ये दोनों कवि राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय के दरबार से जुड़े थे।
कन्नड़ साहित्य के अन्य प्रमुख ग्रंथ हैंः
कवि ग्रंथ
हरीश्वर हरिश्चंद्र काव्य
सोमनाथ चरित
बंधुवर्मा हरिवंशाभ्युदय
जीव सम्बोधन
रुद्र भट्ट जगन्नाथविजय
अन्दया मदन विजय या कब्बिगर कव (यह ग्रंथ इसलिए विशेष है क्योंकि यह पहला शुद्ध कन्नड़ ग्रंथ था, जिसमें संस्कृत का एक भी शब्द भी नहीं था)

हालांकि कन्नड़ दसवीं शताब्दी तक पूर्ण भाषा बन चुकी थी, लेकिन कन्नड़ साहित्य के विकास के लिए बारीकी से विजयनगर साम्राज्य से मिलने वाले संरक्षण को उत्तरदायी ठहराया जाता है। साहित्य के विकसित हो जाने पर भाषा का व्याकरण स्पष्ट करने वाली शब्दमणिदर्पण जैसी कई पुस्तकें लिखीं जाने लगीं जिसे केसरजा ने लिखा था। इस अवधि का एक अन्य प्रमुख संकलन प्रसिद्ध कन्नड़ लेखक मल्लिकार्जुन द्वारा सूक्तिसुधार्णव शीर्षक से लिखी गई रचना है।
इस अवधि में कई अर्द्ध-धार्मिक ग्रंथों की भी रचना की गई। नरहरि ने तारवेरामायण की रचना की, इसे वाल्मीकि रामायण से प्रेरित और पूर्णतः कन्नड़ में लिखी गई राम पर पहली कहानी कहा जाता है। एक अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ जैमिनी भरत था। इसे लक्षमिश ने लिखा था और यह इतना प्रसिद्ध हो गया कि इसे कामत-करिकुटावन-चैत्र (कर्नाटक के आम के बगीचों का वसंत) भी कहा जाता है।
कन्नड़ को अलग बनाने वाली बात इसे पढ़ने वाले लोगों के साथ इसका निकट जुड़ाव है। लोगों का कवि होने की पदवी त्रिपदी (तीन पंक्ति की कविता) लिखने वाले कवि सर्वज्ञ को दी जाती है। इससे भी अधिक असाधारण कन्नड़ में कुछ ख्याति वाली हदीबदेय धर्म (समर्पित पत्नी के कर्तव्य) लिखने वाली पहली कवयित्राी होन्नम्मा थीं।

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