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मैक्स वेबर के धर्म का सिद्धांत | प्रोटेस्टेंट नीति और पूंजीवाद की भावना – धर्म पर मैक्स वेबर के विचार

max weber religion theory in hindi मैक्स वेबर के धर्म का सिद्धांत | प्रोटेस्टेंट नीति और पूंजीवाद की भावना – धर्म पर मैक्स वेबर के विचार ?

1) प्रोटेस्टेंट नीति और पूंजीवाद की भावना: धर्म पर मैक्स वेबर के विचार
(Protestant Ethic and the Spirit of Capitalism in hindi : Max Weber on Religion)
मैक्स वेबर की दृष्टि में धार्मिक विचार आर्थिक व्यवस्था का मार्ग तय करने में सशक्त भूमिका निभा सकते हैं। अपनी कृति ‘द प्रोटेस्टैंट जैथिक एंड दि स्प्रिट ऑफ कैपिटीलिज्म‘ (1958, 1905) में मैक्स वेबर ने यह अभिधारणा प्रस्तुत की कि यूरोप में 16वीं और 17वीं शताब्दियों में उभरने वाले अनेक प्रोटेस्टैंट मतों ने अपने सिद्धांतों से आधुनिक बौद्धिक (या विवेकशील) पूंजीवाद को उभरने में मदद की। मैक्स वेबर की अभिधारणा ऐतिहासिक विकास में आदर्शवादी और भौतिक कारकों की भूमिका को लेकर विद्वानों में चलने वाली व्यापक बौद्धिक बहस का अंश था।

प्रोटेस्टैंट मतों के सिद्धांतों, विशेषकर काल्विनवाद, ने काम, पूंजी और सुख के प्रति नई अभिवृत्तियों को जन्म दिया । ये नए सिद्धांत अभी तक के कैथोलिफ चर्च के प्रचार से एक दम भिन्न थे। इन सिद्धांतों को यूरोप में सामंती व्यवस्था के ध्वस्त होने के बाद उभरने वाले वर्गों ने स्वीकार किया। उन्होंने मेहनत और तपस्या को मिला दिया। दूसरे शब्दों में, इन प्रोटेस्टैंट सिद्धांतों में आस्था रखने वालों ने कड़ी मेहनत करते हुए अपने आपको भौतिक सुखों और ऐशों आराम से अलग रखा। इसके परिणामस्वरूप पूंजी का जमाव हुआ और उससे विवेकशील औद्योगिक पूंजीवाद को गति मिली।

‘बुबाहट‘ और ‘प्रारब्ध‘ वे प्रवर्तनकारी विचार हैं जिन्होंने विश्वासियों पर जबर्दस्त प्रभाव छोड़ा। काल्विन ने जिस प्रारब्ध के सिद्धांत का प्रचार किया उसके अनुसार परमेश्वर ने अपनी महिमा और अपने हितों के लिए कुछ मनुष्यों और देवदूतों को पहले से ही अनंत जीवन हेतु चुन रखा है। जिन को चुना नहीं गया है उनका प्रारब्ध अनंत मृत्यु है। इस सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि परमेश्वर की इच्छा को मनुष्य नहीं जान सकते। ‘क्या मैं चुने हुओं में हूँ ?‘ और ‘क्या मैं परमेश्वर की पूर्वनियत अदृश्य चर्च में से एक हूँ ?‘ और ‘क्या मैं उन में हूँ जिन्हें परमेश्वर ने स्वर्ग के लिए चुना है ?‘ जैसे सवाल विश्वासियों को त्रस्त कर सकते हैं। लेकिन उनका कोई जवाब नहीं है। इसके विपरीत विश्वासियों को परमेश्वर पर भरोसा करना होता है कि उन का नाम ‘चुने हुओं‘ की सूची में है। इस भरोसे को हासिल करने के लिए, सभी सांसारिक क्रिया की सर्वाधिक उपयुक्त साधन के रूप में सिफारिश की गई।

काल्विनवाद में आस्था रखने वाले व्यक्ति को अपने विश्वास को सांसारिक क्रियाकलाप के माध्यम से प्रमाणित करना होता है। उसे अपने आप को दैवीय इच्छा का साधन समझना होता है, और परमेश्वर की अधिकतर महिमा के लिए सांसारिक कार्यकलाप में लिप्त रहना होता है। ‘बुलाहट‘ की अवधारणा ने सांसारिक कार्यकलाप को नैतिक कार्यकलाप के उच्चतम स्तर तक पहुंचा दिया जिस तक कोई भी व्यक्ति पहुंच सकता है। ‘समय ही धन है‘ और ‘विश्वास ही धन है‘ ऐसे दो सूत्र हैं जो उस युग की भावना को सटीक अभिव्यक्त करते हैं। ‘समय ही धन है‘ का यह अर्थ है कि समय की बरबादी पापमय है और साथ ही धन कमाना परवेश्वर की कृपा का चिह्न है। धन कमाते हुए ऐशो आराम और सुख से परहेज करने वाले अतिनैतिक (प्यूरिटम) व्यक्ति के लिए धन कमाना अपने आप में एक लक्ष्य था। संपन्नता अपने आप में लक्ष्य था और यह परमेश्वर की कृपा का चिह्न था । अब यह स्पष्ट है कि काल्विन के सिद्धांतों ने ऐसी स्थिति सृजित की जहां संयमी मूल्यों और मानकों का अर्थ था कि वहाँ खजाना भारी मात्रा में जोड़ा गया था जिसे दुबारा से उचित कार्यों में लगाया गया। इसमें संबंधित समाज की आर्थिक स्थिति ने तेजी से जोर पकड़ा और जिसने काल्विनवाद को ऐसी व्यवस्था का नाम दिया जो आर्थिक वृद्धि के प्रति काफी सकारात्मक थी।

इस प्रकार, प्रोटेस्टैंट मतों के कुछ सिद्धांतों ने विश्वासियों की काम, धन और सुख के प्रति अभिवृत्ति को बदल दिया। इसके फलस्वरूप पूंजी का जमाव हुआ जो विवेकशील औद्योगिक पूंजीवाद के उद्भव के लिए अनिवार्य था । जबकि मैक्स वेबर ने जहां प्रोटेस्टैंट मतों की धार्मिक नीति को पूंजीवाद की भावनाओं में सहायक बनने की बात कही, वहीं कार्ल मार्क्स ने धर्म को शासक कुलीन वर्ग की विचारधारा माना।

धर्म और सांस्कृतिक व्यवस्था (Religion and the Cultural Order)
हम यह मान कर चलें कि सांस्कृतिक व्यवस्था सार्थक प्रतीकों से ओत-प्रोत है तो, यह बात सामने आती है कि धर्म प्रतीकों का अर्थ बदल सकता है, और इस प्रकार सांस्कृतिक व्यवस्था को भी बदल सकता है। जैसा कि आप जानते हैं, दुर्खाइम (1965(1912) की दृष्टि में धर्म प्रमुखतया सामाजिक पहलू है। धार्मिक प्रतीक सामूहिक प्रतीक होते है और वे सामूहिक वास्तविकताओं को अभिव्यक्त करते हैं। पूजा और श्रद्धा का विषय गणचिह्न (टोटम) भी प्रतीक ही होता है। गणचिह्न जनजाति विशेष का प्रतिनिधित्व करता है। ऑस्ट्रेलिया की जिस अरूंडा जनजाति को दुर्खाइम ने विश्लेषण के लिए चुना, उनमें ‘चुरिंगा‘ एक वंश विशेष का प्रतीक है। संस्कारों का जन्म समाज-जनित ‘सामूहिक बुदबुदाहट‘ से होता है। इसके अतिरिक्त, धर्म संसार को समझने के लिए आवश्यक श्रणियाँ और वर्गीकरण देता है। संस्कार समूह की एकजुटता, को बनाए रखते हैं। दुर्खाइम के विवेचन से, यह बात व्यापक रूप से सामने आती है कि धर्म मजबूती के साथ सामाजिक ढांचे से संबद्ध होता है।

अब हमारे सामने यह विवेचना आती है कि जब कभी सामाजिक ढांचे में बदलाव होता है धर्म में उसी के अनुसार बदलाव हो सकता है और जब कभी धर्म में बदलाव होता है, सामाजिक ढांचे में उसी के अनुसार बदलाव हो सकता है और स्पष्ट किया जाए, तो सामाजिक ढांचे में बदलाव होने पर धर्म प्रतीक भी नए अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। यह भी सिद्ध है कि धर्म में तेजी से बदलाव होता है तो नातेदारी जैसे गैर-धार्मिक प्रतीक नया अर्थ ग्रहण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, जब किसी साधारण समाज पर, संयोगवश भिन्न धर्म वाली, किसी औपनिवेशिक ताकत का आधिपत्य हो जाता है तो समूचा साधारण समाज अपने मिथकों, प्रतीकों, संस्कारों, विश्वासों और विश्व दृष्टिकोण को पुनःव्यवस्थित कर लेता है। आइए, इस उदाहरण को समझें रू मैक्सिको में वर्ष 1810 के दौरान स्थानीय लोगों ने स्पेनी आधिपत्य के खिलाफ विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के दौरान एक विशिष्ट धार्मिक प्रतीक ‘आवर लेडी ऑव गुदालुपे‘ ने कोलंबिया पूर्व के धार्मिक स्रोतों से नया अर्थ ग्रहण कर लिया।

धार्मिक प्रतीक सशक्त और गहन भावनाओं और चिरस्थाई मनोस्थितियों को जन्म देते हैं। फिर भी सामाजिक बदलाव के कारण, कोई प्रमुखतम प्रतीक विशाल सामाजिकऐतिहासिक, सामाजिक-राजनीतिक, सामाजिक-संरचनात्मक संदर्भो में अलग-अलग अर्थ ग्रहण कर सकता है। ईस्टर्न ऑर्थोडॉक्स की खाली सलीब पुनर्जीवित यशु के सिद्धांत पर जोर देती है, कैथोलिक यशु की मानवता और उनके त्याग को महत्व देती है, और प्रोटेस्टैंट की खाली सलीब परमप्रसाद के निरंतर त्यागमय चरित्र को नकारती है। धार्मिक प्रतीकों में बहुधा किसी समूह को किसी विशेष उद्देश्य के लिए लामबंद करने के उद्देश्य से फेरबदल किया जाता है। उदाहरण के लिए, जब आक्रामक हिंदुत्व सिर उठाता है तो हिंदुओं के शुभंकर देवता गणेश को त्रिशूलधारी, भालाधारी और तलवारधारी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। जब सामाजिक बदलाव होता है तो हमें धार्मिक प्रतीकों की प्रस्तुति और उनके अर्थ की विवेचना में तदनुसार बदलाव देखने को मिलता है। यही नहीं विरोध करने वाले समूह प्रतीकों में फेरबदल कर उन्हें नए अर्थ दे सकते हैं । वीर शैव आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों के हाथों गैर-ब्राह्मणों की अधीनता का विरोध किया गया और उस समय ‘लिंग‘, विरोध का प्रतीक बन गया। प्रत्येक वीर शैव मतावलंबी से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह ब्राह्मणों जैसी शुद्धता का दावा करने के लिए अपने शरीर पर लिंग को धारण करें।

सांस्कृतिक व्यवस्था शब्द के अंतर्गत हमारे मानसिक वर्गीकरण (जैसे अच्छा और बुरा) और समय, स्थान और व्यक्ति की हमारी समझ शामिल है। यह स्पष्ट हो जाता है कि जब धर्म में बदलाव आता है तो, व्यक्ति का ‘अच्छा‘ और ‘बुरा‘ समय, स्थान और व्यक्ति का विचार तदनुसार बदल सकता है। इसका उलटा भी उतना ही सही है जब अच्छे और बुरे, समय, स्थान और व्यक्ति के प्रति हमारी समझ में संचार माध्यमों, शिक्षा आदि के कारण बदलाव आता है तो इस बात की पूरी संभावना रहती है कि धर्म के प्रति हमारी अभिवृत्ति में भी बदलाव आ जाएगा।

कार्यकलाप 2
जापान और श्रीलंका के मौजूदा ढाँचे में बौद्ध धर्म से संबंधित अखबार की कतरनें एकत्र कीजिए। इसी तरह मौजूदा अल्जीरिया और मलेशिया में इस्लाम से संबंधित अखबार की कतरनें एकत्र कीजिए। इनकी तुलना करके, सामाजिक व्यवस्था, विशेषकर राजनीति पर धर्म के प्रभाव को समझने का प्रयास कीजिए।

बोध प्रश्न 2
प) कार्ल मार्क्स के अनुसार, धर्म आर्थिक व्यवस्था अर्थात पूंजीवाद को किस प्रकार स्थिरता प्रदान करता हैं? पांच पंक्तियों में उत्तर दीजिए।
पप) क्या धार्मिक प्रतीक सामाजिक बदलाव के कारण अपने अर्थ बदल लेते हैं। उदाहरण सहित समझाइए। अपना उत्तर पाँच पंक्तियों में दीजिए। .
पपप) निम्नलिखित का मिलान कीजिए।
क) कार्ल मार्क्स क) धर्म का संज्ञानात्मक कार्य
क) ख) मैक्स वेबर ख) धर्म आर्थिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है
ग) दुर्खाइम ग) धार्मिक विचार आर्थिक व्यवस्था को बदल सकते हैं
घ) मुक्ति धर्म विज्ञान घ) राजनीति के लिए धार्मिक प्रतीकों में फेरबदल
च) आक्रमक (उग्र) हिन्दूवाद च) धर्म सत्ता के ढांचे को बदल सकता है

बोध प्रश्नों के उत्तर

बोध प्रश्न 2
प) कार्ल मार्क्स के अनुसार धर्म पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था में सामान्य रूप से व्याप्त शोषण और तंगहाली का विरोध करता है। लेकिन यह दिग्भ्रमित विरोध है। धर्म अलगाव का एक रूप है, जो पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था में दुख और शोषण पर परदा डालने का काम भी करता है। शोषण पर परदा डालने और दिग्भ्रमित विरोध करने के जरिए, धर्म शोषक और शोषितों के बीच टकराव को रोकता है। इस अर्थ में, धर्म सामाजिक व्यवस्था को स्थिरता प्रदान करता है।

पप) हाँ, धार्मिक प्रतीकों के अर्थ सामाजिक बदलाव के अनुसार बदलते हैं। ऐसा विशेषकर राजनीतिक लामबंदी में होता है। उदाहरण के लिए, जब हिंदुत्व की उग्र/आक्रामक विवेचना प्रचलन में आती है तो, शुभंकर गणेश देव को भाले, त्रिशूल और तलवारें पकड़ा दी जाती हैं।

पपप) क) ख)
ख) ग)
ग) क)
घ) च)
च) घ)

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