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एल. द्युमोंत या लुइस ड्यूमॉन्ट कौन है समाजशास्त्र में | Louis Dumont in hindi sociology meaning books name
लुइस ड्यूमॉन्ट L. Louis Dumont in hindi sociology meaning books name एल. द्युमोंत कौन है समाजशास्त्र में ?
एल. द्युमोंत
अन्योन्य-क्रिया धर्मी परिप्रेक्ष्य में जाति के अध्ययन में घूमोंत ने एक नया आयाम जोड़ा। उन्होंने वर्ण-व्यवस्था का जो अध्ययन किया है वह जातियों के सहजगुणों के बजाए उनके बीच विद्यमान संबंधों को केन्द्र बनाकर चलता है। गुणों को हम विभिन्न जातियों के बीच मौजूद संबंध के संदर्भ में ही समझ सकते हैं। द्युमोंत के अनुसार स्थानीय संदर्भ की जाति श्रेणीकरण और पहचान में भूमिका जरूर है। लेकिन यह भूमिका समूची वर्ण-व्यवस्था को अपने प्रभाव में समेटने वाली जाति क्रम-परंपरा की विचारधारा के प्रत्युत्तर में आती है। द्युमोंत जाति को आर्थिक, राजनीतिक और नातेदारी की व्यवस्थाओं के संबंधों का समुच्चय मानते हैं, जिन्हें मुख्यतःधार्मिक मूल्य बनाए रखते हैं। द्युमोंत के अनुसार जाति एक विशेष किस्म की असमानता है और क्रम-परंपरा ही वह अनिवार्य मूल्य है जो वर्ण-व्यवस्था के मूल में निहित है। यही मूल्य हिन्दू समाज को जोड़ कर रखते हैं।
द्युमोंत कहते हैं कि जाति के विभिन्न पहलू पवित्र और अपवित्र के बीच विरोध के सिद्धांत पर आधारित हैं। पवित्र अपवित्र से श्रेष्ठ है और इसलिए उसे पृथक रखा जाना चाहिए। पवित्र और अपवित्र में विरोध के कारण ही वर्ण-व्यवस्था लोगों को तर्कसंगत दिखाई देती है।
द्युमोंत का यह भी मानना है कि वर्ण-व्यवस्था में क्रम-परंपरा आनुष्ठानिक प्रस्थिति का द्योतक है जो धन-दौलत या सत्ताधिकार के प्रभावों से स्वतंत्र रहती है। अतः क्रम-परंपरा वह सिद्धांत है, जिसके माध्यम से वर्ण-व्यवस्था के तत्व श्रेणीबद्ध रहते हैं। श्रेणीकरण का स्वरूप मूलतः धार्मिक होता है। भारतीय समाज में प्रस्थिति (ब्राह्मण) को हमेशा सत्ता (राजा) से पृथक करके रखा गया हैं। दूसरे शब्दों में सत्ताधिकार को प्रस्थिति या प्रतिष्ठा से गौण माना जाता है। इसीलिए राजा पुरोहित का अधीनस्थ होता है। मगर दोनों एक-दूसरे पर निर्भर रहते हैं। इस प्रकार क्रम-परंपरा स्वभाव से आनुष्ठानिक है और धर्म उसे आधार देता है। जब सत्ता को प्रस्थिति का अधीनस्थ बना दिया जाता है, तभी इस प्रकार की शुद्ध क्रम-परंपरा विकसित हो सकती है। इसलिए पवित्रता का द्योतक ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है और वह समची वर्ण-व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान रहता है। मगर बाहाण राजा के साथ मिलकर वर्ण व्यवस्था की सभी अन्य जाति श्रेणियों का विरोध करता है।
द्युमोंत आर्थिक व्यवहार की जजमानी प्रथा को आर्थिक प्रबंध की बजाए एक आनुष्ठानिक अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार जजमानी प्रथा परस्पर-निर्भरता की धार्मिक अभिव्यक्ति है, और यह परस्पर-निर्भरता भी अपने-आप में धर्म से उत्पन्न होती है। इसी प्रकार सहभोजिता के नियम पार्थक्य के बजाए क्रम-परंपरा को ही प्रतिष्ठित करते हैं। मगर सुचिता का प्रश्न सहभोजिता के सभी अवसरों पर नहीं उठता। इसीलिए धोबी ‘परिमार्जक‘ होता है और वह घरों में स्वतंत्रता से आ-जा सकता है। परंत वहीं वह उन जातियों के विवाह समारोह में भाग नहीं ले सकता, जिनसे उसका इस तरह का संबंध होता है। आइए अब विशेषताबोधक और अन्योन्य-क्रियात्मक सिद्धांतों की तुलना करें।
विशेषताबोधक और अन्योन्य-क्रियात्मक सिद्धांतों का मूल्यांकन
अब हम इस स्थिति में हैं कि हम दोनों सिद्धांतों में पाई जाने वाली विसंगतियों के बारे में बता सकें। इस सिलसिले में आइए सबसे पहले विशेषताबोधक सिद्धांत पर आते हैं।
1) एम. मैरियोट बताते हैं कि किशन गढ़ी में जिन-जिन जातियों का अध्ययन उन्होंने किया था उनमें से कुछ जातियों को सामाजिक क्रम-परंपरा में उनके गुणों के कारण स्थान नहीं मिला था। उन्होंने पाया कि खान-पान और व्यवसाय संबंधी वर्जनाएं कुछ मामलों में जाति श्रेणी या पहचान का निषेध नहीं करती थीं।
2) इसके अलावा किशन गढ़ी में जातियों को जो स्थान हासिल था वह उनके पेशे की श्रेष्ठता और हीनता से नहीं आया था। इसलिए वास्तविकताएं सिद्धांत के अनुरूप नहीं पाई गईं।
3) असल में किसी भी जाति के गुणधर्म और समाज में उसे प्राप्त श्रेणी में काफी विसंगतियां पाई जाती हैं। इसलिए श्रीनिवास ने मैसूर के जिस गांव का अध्ययन किया था इसमें बनिया जाति शाकाहारी थी और उसका पेशा भी किसानों की तुलना में अधिक साफ-सुथरा था। पर इसके बावजूद किसानों की श्रेणी बनियों से ऊंची थी।
4) इसके अलावा इस सिद्धांत में एक समस्या यह भी उठती है कि जातियों को श्रेणियों में बांटने में किस गुणधर्म का महत्व अधिक है और किसका कम।
विशेषताबोधक सिद्धांत की इन विसंगतियों को देखते हुए ही उसके विकल्प में अन्नोन्य-क्रिया का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया। मगर इस सिद्धांत की भी अपनी कमजोरियां हैं, जो इस प्रकार हैंः
1) अन्योन्य-क्रिया का सिद्धांत सहजगुणों के महत्व को अपने में समेट लेता है। इसीलिए सहजगुणों की बात कहे बिना हम सिर्फ अन्योन्य-क्रिया के आधार पर श्रेणी का निर्धारण नहीं कर सकते।
2) द्युमोंत के अलावा, अन्योन्य-क्रिया का सिद्धांत क्रम-परंपरा को स्थानीयता के दायरे में सीमित कर देता है और कहता है कि जाति श्रेणीकरण अन्योन्य-क्रिया का परिणाम
है। इसलिए इसमें क्रम-परंपरा के बजाए पार्थक्य को विशेष बल मिलता है। द्युमोंत का मानना है कि पवित्रता और अपवित्रता की विचारधारा समूचे हिन्दू समाज से जुड़ी अन्योन्य-क्रियात्मक सिद्धांत है न कि उसके किसी एक हिस्से से।
3) दयुमोंत का अध्ययन कार्य काफी हद तक ऐतिहासिक है और वह यह मानकर चलते हैं .कि वर्ण-व्यवस्था सदियों से स्थिर रही है, जो कि सत्य नहीं है।
4) द्युमोंत हालांकि ‘सत्ताधिकार‘ और ‘प्रस्थिति‘ को स्पष्टतया अलग करके देखते है, पर वहीं यह तर्क भी मिलता है कि सत्ताधिकार को इतिहास की दृष्टि से प्रस्थिति में परिवर्तित कर दिया गया है।
5) अंततोगत्वा जाति के बारे में कहना कि यह मूल्यों (विचारधारा) की सर्वत्र स्वीकृत क्रमबद्ध व्यवस्था है, वह उन विरोध आंदोलनों के साथ न्याय नहीं करता जो जाति विभाजन पर सवालिया निशान लगाते हैं। वर्ण-व्यवस्था में निहित द्वंद्व तो इस सिद्धांत में लुप्त है, लेकिन वहीं इसमें जाति के समाकलनात्मक प्रकार्य यानी समाज को एकता के सूत्र में बांधने में जाति जो भूमिका अदा करती है, उसे अधिक महत्व दिया गया है।
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